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प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक परिचय
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विवेक बुद्ध (१) वीरता (१०) शिष्ट सभ्य रहन सहन (११) धर्म प्रभावना ( १२ ज्ञान प्रचार (१३) उच्च सहवास्त्र (१४) राजनीतिज्ञता ( १२ ) वाणिज्य चतुरता (१६अधिकार रक्षण (१७) परम्परा पालन, आदि लोकोत्तर गुण साहित्य र कलाकी ही देन हैं। बड़े श्राश्चर्य की बात है कि जैन समाजको अभीतक सब स्थानोंके विषय में इस कलाके प्रतीक मंदिर मूर्ति आदिका सम्पूर्ण परिचय नहीं है। इस परिचयके अभाव में ही आये दिन पवित्र मंदिर, मूर्ति आदिके विषय में अनेक दुर्घटनायें सुनने में खाती हैं, जब वे किसी अन्य धर्मावलम्बी या सरकारके अधिकारमें चली जाती हैं तब दौड़धूप, मुकदमाबाजी, प्रार्थनायें आदिमें बहुत कुछ समय, शक्ति और द्रव्य लग कर भी पूरी सफलता मुश्किल से मिलती है परिचय के श्रभाव में ऐतिहासिक प्रमाण उपस्थित करने में भी कठिनता घावी है। इसलिये साहित्य और कलाकी सभी वस्तुओंका सभी स्थानोंसे पूरा पूरा परिचय प्राप्त करना तत्सम्बन्धी वर्तमान अवस्थाका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये प्रथमावश्यक मंण्डल हम्यं शिखर कलश इन्द्र व यच मूर्ति ध्वजा देवमूर्ति और अनिवार्य है। इसमें किसी दूसरे प्रभावकी अपेक्षा यक्ष ।
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तीर्थ मंदिर गुफा स्तंभ स्तूप वेदी सिहासन द्वार तोरथ 1 |
किरण]
प्रतिका ज्ञान भी सम्पूर्ण स्थानोंकी सूची प्राप्त होने पर ही हो सकता है । एक स्थानकी आवश्यकता अनावश्यकताका ज्ञान भी सम्पूर्ण स्थानोंकी सूचीके बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है तथा जीर्ण ग्रंथोंका उद्धार भी तब तक असंभव बना रहता है अपूर्ण प्रम्धों की पूर्तिभी सम्पूर्ण स्थानोंकी सूची प्राप्त होने पर अनायास और सहज ही हो सकती है। अतएव सभी दृष्टियोंसे सूचीका कार्य पूरा करना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है तथा प्राथमिक श्रावश्यकताका विषय है। इसी प्रकार कलाभी अत्यन्त चिन्तनीय स्थितिमें है। कलाके कई भेद हैं, यथा
कला
खनन, वास्तु, शिल्प, लेखन, चित्र, सूची, नृत्य, अनुष्ठान ध्यान आदि । इसके प्रतीक :
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I तपोमूर्ति चरण यंत्र शिलालेख ताम्रपत्र यह रथ पालकी T T कृत्रिम पशु पालन चंदोवा वेष्टन उपकरण, आदि ।
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समाजकी उदासीनता ही देरीके लिये जिम्मेदार है । यदि समाज लगनसे काम ले, व्यवस्थित रीति से कार्य सम्पा दन करना आरम्भ करे तो बरसोंका काम दिनों में पूरा हो सकता है अन्यथा मोटी मोटी रकमें खर्च करके भी दिनोंका काम बरसों में पूरा नहीं हो सकेगा जैसा कि आज तक का इतिहास बतलाता है ।
नक्काशी, पञ्चीकारी. सुघड़ता, निर्माण, हड़ता सुन्दरता, भव्यता आदि अनेक दृष्टियोंसे जैन समाजकी ये वस्तुयें अपना सानी नहीं रखतीं और प्राचीन सभ्यता के स्मारक स्वरूप इन वस्तुओंकी गणना संसारकी अलभ्य और अद्वितीय वस्तुओं में है। इनमेंसे अगणित वस्तुयें अब तक भी भूगर्भ में छिपी हुई हैं जिनका उद्धार श्रवश्यमेव करना चाहिये । इन वस्तुओंके निर्माण में जैन समाजकी असंख्य धनराशि लगी है व अबभी लगती या रही है। न जाने कितने बंधुयोंका इसके निर्माण और रक्षा में समय और शक्तिका ही नहीं किन्तु जीवन तकका बलिदान हुआ है। साहित्य और कलाके आधार पर ही समाजकी संस्कृतिका निर्माण होता है।
वगैर योजनाके, वगैर क्रमिक उन्नतिशील व्यवस्था के, कोई भी महान कार्य सम्पादित नहीं हो सकता है । कहना नहीं होगा कि हमारी समाजका साहित्य और कलाका क्षेत्र लगभग अखण्ड भारतके क्षेत्र जितना ही वितीय है । प्रत्येक स्थानसे इन विषयोंका वास्तविक परिचय प्राप्त करनेका कार्य कहने में जितना सरल है करने में उतना सरल नहीं है। परन्तु कार्यकी महानतासे भय खाकर उदासीन और निश्चेष्ट होना कोई बुद्धिमानी नहीं। आज जो रेगिस्तानोंको सरसा किया जा रहा है. दुर्गम पहाड़ और बीहड़ जंगलोंको आवागमन और खेती यांग्य बनाया जा रहा है, वह क्या कोई साधारण काम है ? (1) नित्यमित्तिक धार्मिक कर्म (२) धार्मिक परन्तु निरन्तर के प्रयास टढ़वा, स्वावलंबन सहयोग आदिअनुष्ठान (३) श्रात्माचिंतन ( ४ ) तत्व विचार ( 2 ) श्रहिंसा के सहारे इन महान कार्यों में सफलता मिलती आ रही है। धान जीवन (५) सत्यता (७) नैतिकता (८) सदसद् भारत भरका बालिग मताधिकार निर्वाचन क्षेत्रोंके द्वारा
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