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किरण २]
सोमपदा आदि विविध यज्ञोंके सम्पादन द्वारा जो ऐहिक और स्वर्गिक सुख मिलते हैं, उनमे भी सैकड़ों और हजारों गुण सुख इन उपवासोंके करनेसे मिलता है जैसे वेदले । श्रेष्ठ कोई शास्त्र नहीं हैं, मातासे श्रेष्ठ कोई गुरु नहीं है, धर्मसे श्रेष्ठ कोई लाभ नहीं है वैसे ही उपवास श्रेष्ठ कोई तप नहीं है । उपवासके प्रभावसे ही देवता स्वर्गके अधिकारी हुए हैं और उपवासके प्रभावसे ही ऋषियोंने सिद्धि हासिल की है। महर्षि विश्वामित्रने सहस मह्मष तक एक बार भोजन किया था इसीके प्रभाव से वह ब्राह्मण हुए है। महषि व्यवन जमदग्नि, वसिष्ठ गौतम और भृगु इन क्षमाशील महात्मा श्रोंने उपवासके ही प्रभावसे स्वर्गलोक प्राप्त किया है जो मनुष्य दूसरोंको उपवासव्रतकी शिक्षा देता है उसे कभी कोई दुख नहीं मिलता है। हे युधिष्ठिर ! जो मनुष्य अंगिराकी बतलायी हुई इस उपवास विधिको पड़ता या सुनता है उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं ।
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उपरोक्त पर्वके दिनों में व्रत उपवास रखने, दान दीक्षा देने और क्षमा व प्रायश्चित करनेकी प्रथा श्राजतक भी जैन साधुओं और गृहस्थोंमें तो प्रचलित है ही, परन्तु सर्वसाधारण हिन्दू जनता में भी किसी न किसी रूप में जारी है। ये पर्व और इनसे किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान निरसन्देह भारतीय संस्कृतिके बहुमूल्य अंग हैं।
भारत देश योगियोंका देश है
उपरोक्त पर्वके दिनों में उपोसथ रखनेकी प्रथा प्राचीन बेबीलोनिया (ईराक देशके लोगोंमें भी प्रचलित थी । बालके सम्राट् सुरवनीपाल ( ६६६ से ६२६ ई० पूर्व ) के पुस्तकालय से एक लेख मिला है, जिसमें लिखा है कि हर चन्द्रमासकी सातवीं चौदहवीं इक्कीसवीं और अट्ठाईसवीं तिथियोंके दिन बावलके लोग सांसारिक कामोंसे हटकर, देव आराधना में लगे रहते थे। इन दिनोंको सम् (Sabbath ) दिवस कहते थे 'सम्यतु का अर्थ बाबली भाषामै हृदयके विश्रामका दिन है ।
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ईसाई धर्मकी अनुमति अनुसार जो बाईबल जेनेसिस अध्याय १ में सुरक्षित है, प्रजापति परमेश्वरने अपलोक ( संस्तर) की तम अवस्था ( अज्ञान दशा ) में से छह दिन तक विसृष्टि विज्ञान का उद्धार करके सातवें दिन
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सब प्रकार के कमों में विरक्त होकर विश्राम किया था, ईसाई लोग इस सात दिन (रविवार) को Sabbath दिन मानते है और सांसारिक कार्योंसे विरुद्ध होकर धर्म साधना में लगाते हैं। सम्बतु और उपोसथके शब्द साम्य और भावसाम्पको देखकर अनुमानित होता है कि किसी दूर काल में भारतीय संस्कृतिके ही मध्य ऐशिया में फैलकर वहां भगवानका उद्धार किया था ।
उपसंहार
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इस तरह प्राचीन भारतमें ये पर्व ( त्यौहार ) भोग उपभोगकी वृद्धिके लिए नहीं बल्कि जनताके सदाचार और संयमको उनके ज्ञान और त्याग यलको बढ़ाने के लिये काम आते थे । आत्मज्ञान, हिंसा संयम, तप, त्याग, मूलक भारतीय संस्कृतिको कायम रखने और देश विदेशों में जगह जगह भ्रमण कर उसका प्रसार करनेका एकमात्र श्रेय इन्हीं व्यागी तपस्वी भ्रमण लोगोंका है यह उन्हीं की भूत अनुकम्पा, सद्भा वना, सहनशीलता, धर्मदेशना और लोक कल्याणार्थ सतत् परिभ्रमणका फल है कि भारत इतने राष्ट्र विष्जनों मेंसे गुजरने के बाद भी इतने विजातीय और सांस्कृतिक संघर्षोंके बाद भी भाषा भूषा, आचार-व्यवहार की रहोबदलके बावजूद भी अध्यात्मवादी और धर्मपरायण बना हुआ है। ये महात्मा जन ही सदा यहाँ राजशासकोंक भी शाशक रहे हैं। समय समय पर धर्म अनुरूप उनके राजकीम ग्योंका निर्देश करते रहे हैं। वे सदा उन्हें विमूढता, निष्क्रियता विषयलालसा और स्वार्थता के अधम मार्गों से हटा कर धर्ममार्ग पर लगाते रहे हैं। भारतका कोई सफल राजवंश ऐसा नहीं है जिसके ऊपर किसी महान् योगीका वरद हाथ न रहा हो - जिसने उनकी मंत्रणा और विचारणासे आत्मबल न पाया हो। आजके स्वतन्त्र भारतका नेतृत्व भी इस युगके महायोगी महात्मागांधी के हाथ में रहा है, तभी इतने वर्षकी खोई हुई स्वतन्त्रता पुनः वापिस पाने में भारत सफल हो पाया है । वास्तव में भारतीय संस्कृतिको बनाने वाले और अपने तप, त्याग तथा सहन बलसे उसे कायम रखने वाले ये योगी जन ही हैं ।
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