Book Title: Anekant 1953 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ किरण ३ ] इन्द्रिय सुखं नित्य नहीं है, वे मनुष्यके पास आते हैं पुण्य व्यतीत होने पर वे उसे छोड़ कर जैसे पक्षी फल विहीन वृक्षको छोड़ कर सुख दुखकी खान हैं७ । ऐसे चले जाते हैं चले जाते हैं ये जो निर्ममत्व हैं वे वायुके समान, पक्षी के समान, अविछिन्न गति से गमन करते हैं। सुखी वही है जो किसी वस्तुको अपनी नहीं समझता, जब किसी वस्तुका हरण व नाश हो जाता है तो वह यह समझकर कि उसकी किसी वस्तुका नाश व हरण नहीं हुश्रा, सम भाव बना रहता है । यदि धन धान्यके ढेर कैलाश पर्वतके समान ऊँचे मिल जायें तो भी तृप्ति नहीं होती, लोभ आकाश समान अनन्त है और धन परमित है, अतः सन्तोष धन ही महान धन है १० । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता इसीलिए साधु जन कभी किसी प्राणीका बात नहीं करते, प्रायोंका घात महापाप है११ । प्राथियोंका घात चाहे देवी देवताओंके लिये किया जावे, चाहे अतिथि सेवा व गुरु भक्ति के लिये किया जावे चाहे उदरपूर्ति अथवा मनोविनोदके लिये किया जावे उसका फल सदा अशुभ है, इसीलिये हिंसाको पाप और दयाको धर्म माना गया है१२ समझानेके लिये तो पापको पाँच प्रकारका बतलाया जाता है-हिंसा, झूठ, चोरी. कुशील और परिग्रह, परन्तु वास्तव में ये सब हिंसा रूप ही हैं क्योंकि ये सब श्रात्माकी साम्यदृष्टि और साम्यवृत्तिका घात करने वाले हैं.३ । भारतदेश योगियों का देश दे उत्तराध्ययन सूत्र " 99 Jain Education International 33 धर्मका मूल दया है, दयाका सूख अहिंसा है और अहिंसाका मूल जीवन साम्यता है, इसलिये जो सभी जीवोंको अपने समान प्रिय समझता है, श्रेय समझता है। वही धर्मात्मा है । " 29 ६-१४ ६-४८-४६ १० 19 ६.६ १२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ॥ ४०२ ॥ १२ श्राचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपाय ॥ ४२ ॥ "" 39 १३-१६-३१ १४-४४ [i मिध्यात्म, अज्ञान, प्रमाद, कषाय, अविरति, राग-द्वेष, मोह-माया, अहंकार आदि जितने भी विपरीत भाव हैं, वे सभी धमाके सुख शान्ति सौन्दर्य रूप स्वभावके घातक हैं । इसलिये ये सभी हिंसा हैं और इनका अभाव अहिंसा १४ । प्राणियोंका घात होनेसे श्रात्माका ही घात होता है । आत्मघात हित नहीं है इसलिए बुद्धिमान लोगोंको प्राणियोंका घात नहीं करना चाहिये १५ । rorataist चाहिये कि वह प्रमाद छोड़ कर दूसरे प्राणियोंके साथ बन्धु समान व्यवहार करें १५ । अहिंसा ही जगतकी रक्षा करने वाली माता है। अहिंसा ही चानन्दको बढ़ाने वाली पद्धति है, अहिंसा ही उत्तम गति है, अहिंसा ही सदा रहने वाली लक्ष्मी १७ । श्रमण संस्कृतिके पर्व और धर्मकी प्रभावना ये योगीजन प्रत्येक दिन सन्ध्या समय अर्थात् - प्रातमध्यान्ह और सायंकालमें सामायिक करते थे। प्रत्येक पक्ष के पर्व के दिनों में अर्थात् पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी एवं श्रमावाश्याको ये पोसह (उपवास) करते थे, तथा ज्ञान व अज्ञानवश किये हुये दोपोंकी निवृत्तिके अर्थ प्रायश्चित करनेके लिये प्रतिक्रमण पाठ अथवा प्रतिमोक्ष पाठ पढ़ते थे और एक स्थानमें एकत्र हो सर्वसाधारणको धर्मोपदेश देते थे। इन पाक्षिकपर्वोके अतिरिक्त हर साक्ष वर्षाऋतु चतुर्मासमें अपार सुदि एकमसे कार्तिक बदी पन्दरस तक साधु सन्तोक एकजगह ठहरनेके कारण लोगोंमें खूब सत्संग रहता था इन चतुर्मासमें धर्म-साधना प्रोषध-उपवास, वन्दना-स्तवन, प्रतिक्रमणादि धार्मिक साधनायें सविशेष करनेके लिये उपासक जन साधुनोंके समागममें एक स्थानमें एकत्र होते थे । इन मेलोंकी एक विशेषता यह होती थी कि इस अवसर पर एकत्रित हुए जन एक दूसरे से अपने दोषोंकी क्षमा मांगा करते थे । इनके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष एक साम्बरसरिक सम्मेलन १४ प्राचार्य अमृतचन्द्र- पुरुषार्थसिद्धयुपाय ॥ ४४ ॥ बकेर आचार्य कृत मूळाचार ॥ २१ ॥ १२ शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव ११, "" १६ १७ For Personal & Private Use Only "" ॥ ३२ ॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36