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किरण ३ ]
पोदजाति
बंगालके उत्तर पश्चिमांश जिलोंमें पुराडो जातिके सम्बन्धमें ऊपर लिखा जा चुका है। उन्हीं जिलों में से मालदा, राजशाही मुर्शिदाबाद और पीर वूम में एक पोद नामक जाति भी निवास करती है पोद और पुण्डो ( पुनरोसे) दोनों ही की मूल जाति एक है। किन्तु निवास स्थानकी दूरीके कारण उनका परस्पर संम्बन्ध भंग ही नहीं हो गया किन्तु वे एक दूसरे को अपने से हीन समझने लगे हैं।
बंगीय जैन पुरावृत
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कुलतंत्र विश्वकोष और मदुम सुमारी ( Censur Report से पता लगता है कि पौद्र पत्रियकि चार विभाग हैं - जिनमें पुनरो तो उत्तर राढीय और दक्षिण राीय इस प्रकार दो रादो विभागोंको और पोद बंगज्ञ और ओज (उडिया विभागोंको प्रदर्शित करते हैं।
पश्चिम बंग अधिकांश भागमें और खासकर चौबीसपरगना, खुलना और मिदनापुर जिलों में इनका निवास है । और वड़ा, हुगली, नदिया और जेसोर (यशोहर ) जिलों में भी ये अल्पसंख्या में पाये जाते हैं। बंगोपसागरके सनिहित प्रदेश समूहमें इस जातिके अधिकांश लोग वास करते हैं । ये पांद, पोदराज, पद्मराज पद्यराज इन सब नामसे परिचित है। ये लोग अपनेको प्राचीन पुराणोंके वंशवर बताते है।
महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्रीके मतानुसार x महाभारत पुराण और वेद प्रभृति शास्त्रों में जिस पुदि नामक धनार्थ जातिका उल्लेख हुआ है उसीसे समुत्पन्न यह पोद जाति है । श्रमरकाश में पुलिंदों को म्लेच्छ संज्ञा दी गई है। कवि ने अपने घंडी काव्य में (सन् १२०० ) तदानीन्तन वंगदेशवास्त्री जातियोंके साथ पुलिंदगखोंको किरात, कोलादि म्लेच्छों में रखा है "पुलिन्द किरात, कोलादि हाटेने वाजा चढोल ।"
किन्तु पुलिंद शब्दका अपभ्रंश पोद किसी भी नियम के अनुसार बन नहीं सकता है ।
वर्तमान में इनकी हीनावस्था है और आचार व्यवहार मी निकृष्ट है। तो भी इनमें कर्णवेध, अन्नप्राशन, छोचाचार आदि उच्च जातियोंके धार्मिक अनुष्ठान प्रच
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लित हैं । इनमें विधवा विवाह वर्जित है और तलाक भो नहीं है। इनके गोत्र १ सांगिरस घालण्याल, धानेश्री, सांडिल्य, काश्यप, भरद्वाज कौशिक, मोद्गल्य, मधुकूल और हंसन इत्यादि । वैवाहिक नियम भी इनमें उच्चजातियों की तरह के हैं । कुशण्डिका, व्यतीत विवाह के पत्र चंग से पालन करते हैं पर सम्प्रदानको विवाहका प्रधान श्रंग ये मानते हैं। अब इनकी गणना सत् शूद्रों में की जाती है। पोद जाती खांटी कृषक जाति है।
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प्रोफेसर पंचानन मित्र एम० ए० पी० ० एस ने लिखा है कि "यह सम्भव है कि बंगाल के पोद मूलतः जैनी होनेके कारण इति प्रस्त हुए हैं। क्षति पोढ़ ( पुनरो ) जाति पन्ना और पद्मरागकी खानोंसे धन संचय कर चुके हैं। दक्खनका 'पदिपूर' नामक स्थान इन्हीं पोदगणोंके नामसे प्रसिद्ध हुआ मालुम होता है । पन्ना पद्मराज खनिज रत्नोंके नामोंसे भी इस जातिके नाम मिलते जुलते हैं । प्राचीन काल में पट्ट शब्दसे सनके वस्त्र समझे जाते थे । विश्वकोश में पुण्ड और पट्ट वस्त्र के समानावाची शब्द है। इससे मालूम होता है कि पुढो घर पोद जाति भी वस्त्र व्यवसायी थी। एक ओर पौड्रादि जातियोंके ऊपर ब्राह्मयोंका अत्याचार बढ़ा और दूसरी और मुसलमानोंने भी इन्हें तन करना प्रारम्भ किया इससे इन जातियोंके लाखों मनुष्य इसलाम धर्मानुयायी बन गये । पोद जातिके कुछ लोग हुगली जिलेके पाण्डुश्राके आस पास भी पाये जाते हैं और बे मछुए (धीवर) हैं किन्तु अन्य पोद गणोंसे इनका किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं है ।
कायस्थ जाति
गौवंग के सामाजिक, राजनैतिक, धर्मसाम्प्रादायिक इतिहास में कायस्थ जातिने सर्वप्रधान स्थान अधिकार किया था। ज्ञान-गुण दया दाक्षिण्य, शक्ति-सामयं धर्म कर्म सभी विषय यहाँका कायस्थ समाज एक दिन उन्नतिकी पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था इसीसे गौड़ वंगका प्रकृत इतिहासका प्रधान श्रंश ही कायस्थ समाजका The Cultivating Pods by Mahendr Nath Karan
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History of Gour by K. K. Chakravarty.
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