Book Title: Anekant 1953 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ किरण ३ ] बंगीय जैन पुरावृत्त [१०५ कालसे जो अविसम्बादित श्रेष्ठता वे भोग करते प्रारहे पुनः समाजक, धमक, एवं आचार-व्यवहारके नेता हो गये थे, उसके मूल में कुठाराघात हुआ-सब जातियां समान और राज्यको उपदेश देकर चलाने लगे। स्वाधीनता पाकर कौन अब उन ब्राह्मणोंको पहलेकी तरह जब शुगवंश वैदिक क्रिया-काण्ड प्रचार द्वारा सन्मान और भद्धा करेंगे । इस प्रकारकी धारणाले उनके अहिंसाधर्मका मूलोच्छेद करने में अग्रेसर हुआ तब अहिंसामनमें दारुण विद्वेषका संचार हो गया। इसके बाद मौर्य- धर्मके पृष्ठपोषक बौद्ध और जैनाचार्यगण भी निश्चिन्त, सम्राट ने जब दण्ड-समता और व्यवहार समताकी रक्षाके और निश्चेष्ट महीं थे। बौद्धधर्मानुरक्त यवन नरपति लिए विधिन्यवस्था प्रचारित करने लगे तब उस विद्वेषा- मिलिंदने शुगाधिकार पर आक्रमण किया पर वे सफल ग्निमें उपयुक्त अनिल संचार हो गया । ब्रह्मणधर्मके न हो सके । जैनधर्मी कलिंगाधिपति खारवेलने (ई पूर्व०प्राधान्य कालमें अपराधके सम्बन्धमें ब्राह्मणोंको एक प्रकारसे १७१) मगध पर आक्रमण किया और पुष्यमित्रको स्वतन्त्रता थी-ब्राह्मण चाहे जितना गर्हित अपराध करें पराजित कर पुनः जैनधर्मकी प्रतिष्ठा की। तो भी उनको कभी प्राणदण्ड नहीं मिलता था, न उनके प्रायः २३५ ई०पू० से ७८ ईस्वी पूर्वान्द पर्यंत आर्यालिये किसी प्रकारका शारीरिक दण्ड था । साक्षी (गवाही) वर्तमें शुग और कान्व वंश के अधिकार काल में ब्राह्मणोंका देनेके लिए उनको धर्माधिकरणमें उपस्थित होनेके लिये प्राधान्य अप्रतिहत था। इसके पहले बौद्ध और जैनाधिकारके बाध्य नहीं किया जा सकता था। साक्षी देने पर उनको समय जो प्रबल थे,इस समय उनकी पूर्व प्रति-पत्तिका बहुत जिरह नहीं कर सकते थे। किन्तु व्यवहार समताकी कुछ ह्वास हो गया था। उसीके साथ मालूम होता है कि प्रतिष्ठा कर अशोकने उनको इन सब चिरन्तन अधिक:- राजूकगण (कायस्थ) भी पूर्व सन्मानच्युत और ब्राह्मणोंके रोंसे वंचित कर दिया। अब तो उनको भी घृणित. अस्पृ- विद्वेष भाजन हो गये । श्य, अनार्य एवं शूद्र प्रभृतोंके साथ समान भावसे शूला- यह पहले लिखा जा चुका है कि जैनोंके प्राचीन रोहण और कारावासादि क्लेश सह्य करने पड़ेंगे। बस ग्रन्थोंसे यह मालूम होता है कि खुष्ट जन्मके ८०० वर्ष इन सब बातोंसे अशोकका वंश ब्राह्मणोंका चतुःशूल हो पूर्व २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ स्वामीने पुण्डू, राढ, और गया। और उसके ध्वंसके लिए वे बद्धपरिकर हो गये। ताम्रलिप्त प्रदेशमें वैदिक-कर्मकाण्डके प्रतिकूल "चातुर्याम अशोककी मृत्युके बाद मौर्य राजाके प्रधान सेनापति पुष्य- धर्मका" प्रचार किया था और उनके पहले श्री कृष्णके मित्रको राजत्वका लोभ दिखाकर राजाके विरुद्ध ब्राह्मणोंने कुटुम्बी २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथने अंय बंगमें भिक्षुधर्म उत्तेजित कर दिया । पुष्यमित्र परम ब्राह्मण भक्त था । एक प्रचार किया था। बुर और अंतिम तीर्थंकर महावीर'बार ग्रीक लोगोंने जब पश्चिम प्रान्त पर आक्रमण किया स्वामीने भी यथाक्रम अंग और राढ़ देश में अपने २ धर्ममत था तब पुष्यमित्र उनको पराजित कर जब पाटलीपुत्र में प्रचार किये थे। ये सभी वैदिक आर्यधर्म विरोधी थे लौटा, तब मौर्याधिप बृहद्रथने उसके अभ्यर्थनार्थ और इनके प्रभावसे प्राच्यभारतका अनेक अंश वैदिकानगरके बाहर एक विराट सैन्य-प्रदर्शनी की व्यवस्था की। चारविहीन था-इस कारणसे यहाँ अति-पूर्वकालमें ब्राह्मण उत्सवके बीचमें ही किस प्रकार किमीका एक तीर प्रभाव नहीं था। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा । वैदिक महाराजके ललाटमें लगा और उसी जगह उनका विप्रगण अंग बंगके प्रति अति घृणासे दृष्टिपात कर चुके देहान्त हो मया । हैं। इसी कारणसे ब्राह्मणोंके ग्रन्थोंमें अंग वंगकी सुप्राचीन ब्राह्मणधर्मके भक्त - सेवक पुष्यमित्रने इस प्रकार वार्ताको स्थान नहीं मिला और जो जैन बौद्धादिकोंने मौर्यवंशका ध्वंस साधन कर भारतके सिंहासन पर उपविष्ट लिखा था यह सब सम्भवतः ब्राह्मणाभ्युदके समय प्रयत्नाहुए और तत्काल ही पूर्वब्राह्मण-धर्मकी प्रतिक्रिया प्रारम्भ भावके कारण विलुप्त हो गया है। उसी अतीतकालकी हुई जहाँसे अहिंसाधर्म घोषित हुआ था उसी पाटली- क्षीणस्मृति प्रचलित एक दो बौद्ध और जैन ग्रन्थोंमें पुत्रके वक्षस्थल पर बैठकर पुष्यमित्रने एक विराट अश्वमेध उपलब्ध होती है। उनसे मालूम होता है कि'यज्ञका अनुष्ठान कर अहिंसाधर्मके विरुद्ध घोषणा की महावीर स्वामीने अंग देशके चम्पा नगरीमें एक कायस्थके और पुष्यमित्रके आधिपत्य विस्तारके साथ २ ब्राह्मणगण गृहमें एक बार पारणा किया था। बिम्बसारके पुत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36