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में भी यही आज्ञा दी है । इन स्मृतियोंके उद्धरणोंसे स्पष्ट हो जाता है कि अन्यान्य देशोंमें हिन्दुगण दीर्घकालसे जैन बौद्ध प्लावित देश समूहके संस्पर्श में आनेका सुयोग पाकर कहीं उन धर्मोंको ग्रहण न कर लें । पाठक देखें कि बौद्ध और जैनगण हिन्दुओंकी श्रांखोंमें किस प्रकार हेय हो गए। यहाँ तक कि जैन और बौद्ध धर्मानुराग प्रदर्शन के अपराध से बंगालकी ब्राह्मणेतर तावत्-हिन्दुजाति मात्र शूद्र पर्यायान्तर्गत घोषित हो गई थी । यह उशनसंहिताके निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट प्रतीयमान होता है बुद्धश्रावनिगूढाः पञ्चरात्रो विदोजनाः कापालिकाः पाशुपताः पाषंडाश्चव तद्विधा यश्नन्ति हविष्येते दुरात्मानन्न तामसाः ४।२४-२५
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अर्थात् बौद्ध श्रावक, निगूद (दिगम्बर जैन ) पंचरा त्रिवित, कापालिक, पाशुपत इत्यादि जितने पाखण्ड हैं वे सब दुरात्मा तामस व्यक्ति जिसके श्राद्धमें भोजन करते हैं उनका श्राद्ध श्रसिद्ध है ।
यह विद्वेष और स्वार्थ यहाँ तक बढ़ा कि बंगाली ब्राह्मण समाज, ब्राह्मण भिन्न क्षत्रिय और वैश्य द्विजातिद्वयका श्रास्तिव बंगाल में स्वीकार ही नहीं करते हैं - सभीको शूद्र पर्यायमें ढकेल दिया है और उनकी उत्पत्ति भी नानारूप शंकरोंसे कल्पित करली है और जैनप्राधान्यकाल में यह सब निषेधात्मक श्लोकावली प्रसिद्ध की गई है।
अनेकान्त
वेद में लिखा है - अन्नान वः प्रजा भक्षीस्यैति । त एते अन्धाः पुण्ड्राः शराः पुलिन्दाः मुतिवाः इत्युदन्तो बहवो भवन्ति । ये वैश्वामित्रा दस्युनां भृचिष्ठाः ऐतरेय ७। १८ ) - श्रर्थात् श्रन्ध्र, पुण्ड़, शबर, पुलिन्द, मुतिघ प्रभृति जातियाँ विश्वामित्रकी सन्तान है एवं ये दस्यु अर्थात् म्लेच्छ हैं। मनुने दस्यु शब्दकी यह संज्ञा निर्देश की है - ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यादि जो जातियाँ बाह्य जातिके भावको प्राप्त हो गई हैं, वे म्लेच्छभाषी वा आर्यभाषी जो भी हों सब दस्यु हैं (मनु - १० - ४५ ) इसी प्रकार विष्णुपुराण में 'भविष्य - मगधराजवंश प्रसङ्गमें लिखा है कि विश्व स्फाटिक नामक एक राजा होगा, वह अन्य वर्ण प्रवर्तित करेगा और ब्राह्मण धर्मके विरोधी कैवर्त, कड़ और सिन्धु- सौवीर- सौराष्ट्रांस्तथा प्रत्यान्तिवासिनः अंग-वंग-कलिंगौडान् गत्वा संस्कारमर्हति ॥
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[ किरण ३
पुलिंद गणोंको राज्य में स्थापित करेगा ( वि० पु० ४ अंश, २४ अध्याय ) ब्राह्मणधर्म विरोधी या भिन्नधर्मीजनसमूहको ब्राह्मण शास्त्रों में दस्यु, म्लेच्छ, इत्यादि विशेषणोंसे अभिहित किया 1
श्रतएव ब्राह्मणोंने जिन प्राचीन जातियोंको भ्रष्ट, दस्यु, अनार्य वगैरह सम्बोधन करके घृणा प्रकट की है, उनका पता लगाया जाय तो उनमेंसे सर्व नहीं तो अनेक अवश्य जैनधर्मावलम्बी थीं ऐसा प्रगट होगा ।
बङ्गाल में इस समय कई जातियों ऐसी हैं जो एक समय ज्ञानगुण शिक्षा और कर्मसे सभ्यताके उच्चतम सोपानपर अधिरूढ़ थीं किन्तु आज वे ही ब्राह्मणोंके विद्वेष के कारण अपने अतीत गौरवसे विस्मृत हो दीन हीन अवस्थामें हैं। इन जातियां में से अब यहाँ पुण्ड्र, पुलिन्द, सातशती सराक श्रादि कतिपय जातियों पर विचार करना है ।
बङ्गाल में तीन प्रकारके जैनी हैं-एक तो वे जो यहाँ के श्रादि श्रधिवासी हैं और जिनमें कितनोंको तो ब्राह्मण विद्वेषके कारण अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा, कितने ही धर्मी शूद्र-संज्ञा-भुक्त हुए और कितने ही त्याचारों से पिस हुए अन्तमें मुसलमान हो गए। दूसरे वे जो प्राचीन प्रवासी पश्चात् निवासी हैं जैसे सराक। श्रौर तीसरे वे जो नूतन प्रवासी श्रर्थात् जिनका यहाँ गत तीन चारसो बर्षो से प्रवास है ।
सप्तशती (ब्राह्मण)
प्राच्यविद्या - महार्णव, विश्वकोष प्रणेता, श्री नगेन्द्रनाथ वसुने अपने बंगेर जातीय इतिहासं (प्रथम भागमें लिखा है कि:
'बंगालके नाना स्थानों में सप्तशती नामक एक श्रेणी ब्राह्मण वास करते हैं । उनमें अधिकांश बंगवासी श्रादि ब्रह्मणोंके वंशधर हैं। जिस प्रकार मानवका शैशव यौवन और वार्द्धक्य यथाक्रम से श्राकर स्वस्थान अधिकार करता हैं उत्थान, पतन, विकाश अथवा विनाश जिस प्रकार प्रत्येक जीवनका श्रवश्यम्भावी फल है, प्रत्येक समाजका भी उसी प्रकार क्रमिक परिणाम परिदृष्ट होता है । सप्तशती समाज भी कालचक्र के श्रावर्तन में यथाक्रमसे शैशव, यौवन, श्रतिक्रम कर जराजीर्णं वार्द्धक्य में उपनीत हुआ है इसीसे यह प्राचीन समाज आज निस्तब्ध निश्चल और मुझमान
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