Book Title: Anekant 1953 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 14
________________ ८६ अनेकान्त [किरण ३ सौ गुणा मूल्य भी उसकी प्राचीनतर प्रतिके लिये ऐति- उन सभी व्यक्तियोंने स्वीकारकी है जिनने छपे ग्रंथको हासिक दृष्टि से यथेष्ट नहीं है। यह अगाध सम्पत्ति जो स्वाध्याय करते करते कारणवश उसी प्रथकी प्राचीन पूर्वाचार्यों मुनियों, भट्टारकों, विद्वानों और अन्य पूर्वजोंने प्रतिसे स्वाध्याय करना शुरू किया है। हस्तलिखित ग्रंथ संसारके प्राणियोंके कल्याणकी भावनासे अपने ध्यान परसे स्वाध्याय करने में प्राचीनताकी छाप बनी रहती है स्वाध्याय और आत्म चितवनको गौण करके समाजके और इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि ग्रंथोंकी देख रेख हाथोंमें सौंपी है उसकी रक्षाका उपाय न करना वास्तवमें बराबर रहनेसे चुहे, दीमक, कीड़ और सर्दी आदि उपद्रवोंसे अपने पूर्वजोंकी, धर्मकी और भगवान केवलीकी अवहेलना ग्रंथ बचे रहते हैं। अतएव जिनवाणीको हमेशा उपयोगकी करना है क्योंकि श्र तज्ञानको तीर्थकर भगवानके समान वस्तु समझकर हस्तलिखित ग्रंथों परसे पठन पाठन करनेकी ही पूजनीय माना गया है । साहित्यकी किसी भी प्रथाको प्रोत्साहन देना आवश्यक है। एक तो प्रतिलिपि अजोड़ वस्तुका विनाश होने के कारण धर्मसे लेकर देश करानेमें खर्च बहुत आता है, दूसरे लेखकोंका और मूल शुद्ध तकका और कभी कभी संसार तकका अहित हो सकता प्रतिका मिलना कठिन होनेसे हस्तलिलित ग्रंथोंकी कहींसे है। यदि कुन्दकुन्द स्वामीको कुछ अनुपलब्ध कृतियोंकी मांग आती है तो वह सहजही ठीक रीतिसे और ठोक भाँति समयसारादि कृतियां भी विनष्ट होगई होती तो समय पर पूरी नहीं हो पाती है इस कारण दिन दिन अनेक सैद्धान्तिक शंकायें जो विद्वानोंके मनमें उठा करती छापेके ग्रंथोंपरसे पठन पाठनका रिवाज बढ़ता जा रहा है। हैं वे या तो उठती ही नहीं, या उनका समाधान प्रमाण परन्तु अनेक कारणोंसे ऐसा होना ठीक नहीं है । यदि पूर्वक तुरन्त हो जाता। इसी प्रकार होता रहा तो हस्तलिखित ग्रंथोंकी लिपिका ग्रन्थ रचना किन्हीं खास व्यक्ति, समुदाय या फिरके पढ़ना भी कुछ वर्षों बाद कठिन हो जायेगा । आज भी के लिये नहीं किन्तु प्राणीमात्रके हितके लिये की गई है, बहुतसे पंडित प्राचीन प्रतियोंकी लिपि पढ़नेमें असमर्थ ज्ञानोपार्जन द्वारा अात्मस्वरूपको पहचानने और प्रात्म रहते हैं कारण उनको अभ्यास नहीं है। अतएव जहां कल्याणके विमित्त तत्पर होने से ही शास्त्रोंकी सच्ची भक्ति तक संभव हो, मंदिरोंमें, शास्त्रसभाओंमें, उदासीनाश्रमोंमें होती है और वह ज्ञानोपार्जन शास्त्रोंकी आलमारीके और मुनिसंघोंमें शास्त्र स्वाध्याय हस्तलिखित प्रति परसे सामने अयं चढ़ाने और स्तुति पढ़नेसे नहीं, उनके पटन होना चाहिये। पाठनसे होती है। अतएव उनके पठन पाठनकी सुविधाका इस सुरक्षात्मक दृष्टिसे ग्रंथोंकी किसी एक स्थान पर अधिकसे अधिक प्रसार करना ही जिनवाणीके प्रति अनेकानेक प्रतियोंका जमाव करने की अपेक्षा जहां जहां सच्ची श्रद्धा और भक्ति है। इसके प्रतिकूल उनके पठन जिन ग्रंथोंकी आवश्यकता हो वहां वहां आवश्यकतानुसार पाठन पर रोक लगाने और उनको तालोंमें बंद कर उन पर प्रतियोंका विकेन्द्रीकरण होना चाहिये । स्वामित्व स्थापित करनेके परिणाम स्वरूपमें जो अवस्था यह तभी हो सकता है जबकि छोटे बड़े सभी स्थानोंके उत्पन्न हुई, वह वर्णातीत है। मंदिरों, भंडारों व व्यक्तियोंके श्राधीन हस्तलिखित ग्रंथोंकी रोकथाम और तालाबन्दीके कारण पठन पाठनकी सूची प्राप्तकी जाय और उन पृथक् पृथक् सूचियों परसे प्रणालीमें हास हुआ उसके साथही अब मुद्रणकलाके एक सम्मिलित सूची ग्रन्थ कमसे कम तैयार हो जिससे पता युगमें बहुतसे ग्रन्थ छप जानेके कारण हस्तलिखित ग्रन्थों लगे कि किस प्रन्थकी कुल मिलाकर कितनी प्रतियाँ हैं, परसे पठन पाठनकी प्रथा उठती जा रही है। परन्तु यह वे कहां कहां हैं किस अवस्थामें हैं, वे जहां हैं वहां उनका न भूलना चाहिये कि हस्तलिखित ग्रंथ परसे स्वाध्याय पठन पाठनके लिये उपयोग होता है या नहीं, यदि नहीं करने में प्राचीन समयके कागजकी बनावट, स्याहीकी तो अन्य स्थान पर उनकी आवश्यकता है या नहीं। यदि चमक, अक्षरकी सुंदरता व सुघड़ता तत्कालीन लेखन- अन्य स्थान पर उनकी आवश्यकता हो तो या तो अन्यकला और परिपाटीके प्रत्यक्ष दर्शनसे हृदयमें जो श्रद्धा, स्थानके अनावश्यक ग्रंथोंके द्वारा या उसका उचित मूल्य भक्ति और भावशुद्धिका उदय और संचार होता है वह निर्धारण द्वारा या वापसीके करारपर थको एक स्थानसे मुद्रित ग्रंथपरसे नहीं हो सकता है। इस कथनकी सत्यता दूसरे स्थान भिजवानेकी व्यवस्था होनी चाहिये । प्राचीनतर Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org

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