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वहीं ऐलक पनालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवनको देखा। पंपालालजी सोनी उसके सुयोग्य व्यवस्थापक हैं। उन्होंने भवनकी सब व्यवस्थासे अवगत कराया। चूँकि वहांसे जल्दी ही उदयपुरको प्रस्थान करना था, इसीसे समयकी कमी के कारण भवन के जिन हस्तलिखित ग्रन्थोंको देख कर नोट लेना चाहते थे वह कार्य शीघ्रता में सम्पन्न नहीं हो सका व्यावरसे हम लोग ठीक 8 बजे सवेरे से १३० मीलका पहाड़ी रास्ता तय कर रात्रिको १०॥ बजेके करीब उदयपुर पहुँचे। रास्ते में हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ नाथद्वारेको भी देखा और शामका वहीं भोजनादि कर सड़क पहाड़ी विषम रास्तेको तय कर तथा प्राकृतिक दृश्योंका अवलोकन करते हुए उदयपुरके प्रसिद्ध 'फतेसिंह मेमोरियल' में ठहरे। यह स्थान बड़ा सुन्दर और साफ रहता है, सभी शिक्षित और श्रीमानोंके ठहरनेकी इसमें व्यवस्था है । मैनेजर योग्य श्रादमी हैं । यद्यपि यहाँ ठहरनेका विचार नहीं था, परन्तु मोटरके कुछ खराब हो जानेके कारण ठहरना पड़ा।
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अनेकान्त
उदयपुर एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। राजपूताने ( राजस्थान ) में उसकी अधिक प्रसिद्धि रही है। उदयपुर राज्यका प्राचीन नाम 'शिविदेश' था, जिसकी राजधानी महिमा या मध्यमिका नगरी थी, जिसके खण्डहर इस समय उक्त नगरीके नामसे प्रसिद्ध हैं और जो चित्तौडसे ७ मील उत्तरमें अवस्थित हैं । उदयपुर मेवाड़का ही भूषण नहीं है किन्तु भारतीय गौरवका प्रतीक है । यह राजपूतानेकी वह वीर भूमि है जिसमें भारतकी दासता श्रथवा गुलामीको कोई स्थान नहीं है। महाराणा प्रतापने मुसलमानोंकी दासता स्वीकार न कर अपनी धानको रक्षामें सर्वस्व अर्पण कर दिया, और अनेक विपतियोंका सामना करके भारतीय गौरवको अनुय बनाये रखनेका यान किया है । उदयपुरको महाराणा उदयसिंहने सन् १५५६ में बसाया था, जब मुगल सम्राट् अकबरने चित्तौड़गढ़ फतह किया। उस समय उदयसिंहने अपनी रक्षाके निर्मित इस नगरको बसानेका यत्न किया था। उदयपुर स्टेटमें जैन पुरातत्वकी कमी नहीं है। उदयपुर और आसपासके स्थानोंमें, तथा भूगर्भ में कितनी ही महत्वकी पुरान सामग्री दो पड़ी है। बिजोलियाका पार्श्वनाथका
* देखो, नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग २ ० २२७
[ किरण ३
दिगम्बर जैन मन्दिर, चित्रकूटका जैन कीर्तिस्तम्भ, और चितौड़ के पुरातन मन्दिर एवं मूर्तियों और भट्टारकीय गद्दीका इतिवृत्त इस समय सामने नहीं है। चुलेव (केशरिया जी ) का आदिनाथका पुरातन दि० जैन मन्दिर जैनधर्मकी उज्वल कीर्तिके पु ́ज है, परन्तु यह सब उपलब्ध पुरातन सामग्री विक्रमकी १० वीं शताब्दी के बाद की देन है ।
उदयपुर में इस समय शिखरचन्द मन्दिर और चैत्यालय हैं। हम सब लोगोंने सानन्द बन्दना की। उदयपुरके पार्श्वनाथ के एक मन्दिरमें मूलनायक की मूर्ति सुमतिनाथकी है, किन्तु उसके पीछे भगवान पार्श्वनाथकी सं० १२४८ वैशाख सुदी १३ की भट्टारक जिनचन्द द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति भी विराजमान है समय कम होनेसे मूर्तिलेख नहीं लिये जा सके, पर वहाँ १२ वीं १३ वीं शताब्दीकी भी मूर्तियाँ विराजमान हैं। वसवा निवासी श्रानन्दराम के पुत्र पं० दौलतरामजी काशलीवाल, जो जयपुरके राजा जयसिंह के मन्त्री थे यहाँ कई वर्ष रहे हैं। और वहाँ रह कर उन्होंने ज़ैनधर्मका प्रचार किया, वसुनन्दि श्रावकाचारकी सं० १८०८ में टब्वा टीका वहांके सेठ जी अनुरोधसे बनाई। इतना ही नहीं, किन्तु. संवत् १७६५ में क्रियाकोषकी रचना की । और संवत् १७६८ में अध्यात्म बारहखड़ी बना कर समाप्त की x । इस ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें वह के अनेक साधर्मी सज्जनोंका नामोल्लेख किया गया है जिनकी प्रेरणासे उक्त ग्रन्थकी रचना की गई है उनके नाम इस प्रकार हैंपृथ्वीराज, चतुर्भुजं मनोहरदास, हरिदास वखतावरदास, कदास और पण्डित चीमा ।
x संवत् सहसाब, फागुन मास प्रसिद्धा । शुक्लपक्ष पक्ष दुतिया उजयारा, भायो जगपति सिद्धा ॥३० जब उत्तरा भाद्र नखत्ता, शुकल जोग शुभ कारी । बालव नाम करण तब वरतै, गायो ज्ञान विहारी ॥ ३१ एक महूरत दिन जब चढ़ियो, मीन लगन तब सिद्धा । भगवमान त्रिभुवन राजाकी भेंट करी परसिद्धा ॥ ३२ * उदियापुरमें रुचिधरा, कैथक जीव सुजीव ।
पृथ्वीराज चतुर्भुजा, श्रद्धा धरहिं श्रतीव ॥ ५ दास मनोहर श्रर हरी, द्वै वखतावर कर्ण । केवल केवल रूपकों, राम्रै एकहि सर्वं ॥ ६ चीमा पंडित आदि से मनमें चरित विचार ।
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