Book Title: Anekant 1953 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 13
________________ प्राचीन जैन साहित्य और कलाका प्राथमिक परिचय (एन० सी० वाकली वाल) साहित्य और कलामें जैन समाजकी हजारों वर्ष अधिकाधिक मिलती चली गई और अाज अनेक स्थानों प्राचीनकालकी संस्कृति भरी पड़ी है। जैनधर्मका पर देखा जा सकता है कि दक्षिणके कई स्थानों में जैन प्रचार बोकी भांति विदेशों में नहीं हुआ था किन्तु संस्कृतिका ही. एक प्रकाशसे लोप हो गया है। उधरके वह भारतवर्ष में ही सीमित रहा। इस देशमें धार्मिकता, अनेक मन्दिरोंकी अवस्था अतिशय शोचनीय हो गई है। विद्वेष और विदेशी आक्रमणोंके कारणों के कारण जैन- उन मंदिरोंमें जो ग्रंथ रहे होंगे या हैं उनकी अवस्थाका साहित्य और जैनकलाका रोमांचकारी हनन हुश्रा वह तो ___ अनुमान, सहज ही किया जा सकता है। उत्तर व मध्य एक अोर, किन्तु स्वयं जैन धर्मावलम्बियोंकी असावधानी भारतमें कागज पर लिखनेकी प्रथा प्रचलित होनेके वाद और स्वामित्वलालसासे भी विशेष कर साहित्यका विनाश भी दक्षिण भारतमें ताड़पत्र और भोजपत्रका उपयोग और प्रतिबंध हुआ। फलतः अनेक महत्वपूर्ण प्राचीन बहुत समय तक होता रहा था और उन ताड़पत्रों पर रचनाओंका अभी तक पता नहीं लग पाया है और अनेक लगातार तेल ब्रश न करनेके कारण उनकी आयु कृतियों परसे जैनत्वकी छाप मिट चुकी है। असमय में क्षीण हो जाना अनिवार्य है; चूहों, कीड़ों और फिर भी जैन साहित्य इतना विशाल और समद्ध है सर्दी पानीसे भी वहांके ग्रंथोंका विनाश काफी मात्रामें कि ज्यों ज्यों उसको बंधनमुक्त किया जा रहा है या प्राप्त होगया होगा, जबकि वे असावधानी और अवहेलनासे करनेका प्रयत्न किय जाता रहा है त्यों त्यों अनेक महत्व ग्रसित हुये होंगे । फिर भी भट्टारकोंके अधिकारमें व कुछ पूर्ण रचनायें उपलब्ध होती रही हैं परन्तु यह कार्य अभी मंदिरों और व्यक्तियोंके संग्रहालयों में एक बड़ी राशिमें अब तक बहत मंदगतिसे ही चल रहा है। उत्तर भारत और भी प्रथ मौजूद हैं परंतु उनको प्राप्त करमेमें या वहीं पर मध्य भारतमें. जहाँ कि विद्वानोंने विरोधके बावजूद ग्रन्थ उनकी सुरक्षाका समुचित प्रबंध करने में शीघ्रता नहीं की प्रकाशनमें प्रगति जारी रखी और जैनग्रन्थोंको बधनमुक्त जायगा ता भय ह जायगी तो भय है कि जैनसमाज इस अमूल्य निधिसे कराने, संग्रहालय स्थापित कराने एवम् जिनवाणीके सदाके लिये हाथ धो बैठेगी। उद्धारके प्रति समाजमें चेतना लानेका कार्य अनवरत किया, जिस किसी वस्तु पर जैनधर्म और जैनपुरातत्व.वहां भी अब तक सभी भण्डारोंकी सूचियाँ एकत्र नहीं सम्बन्धी कोई लेख उपलब्ध हो वही साहित्य है। अतएव हो सकी। कहां कहां किन किनके अधिकारमें कुल मिला- ग्रन्थोंके साथ साथ शिलालेख, ताम्रपत्र, पट्टावलियां, कर कितने हस्तलिखित ग्रन्थ हैं इसका मोटा ज्ञान भी गुर्वावलियां, मूर्तिके नीचेका उत्कीर्ण भाग, चरणपादुकाअभी तक प्राप्त नहीं हुा । और दक्षिण प्रान्तका हाल तो के लेख, ऐतिहासिक पत्र आदि सभी सामग्री साहित्यके और भी अधिक चिन्तनीय है। दक्षिण की कनड़ी, तेलगू इस व्यापक अर्थमें समावेशित है। समय निर्णय, तत्त्व आदि लिपियोंमें बड़ी संख्यामें दिगम्बर जैन साहित्य है विचार आदिकी दृष्टिसे यह सभी सामग्री अत्यन्त महत्व और वह उत्तर व मध्य भारतकी अपेक्षा प्राचीन भी है रखती है और भारतीय इतिहासका प्रत्येक अध्याय इस .परन्तु उसमेंसे थोड़े ही साहित्यकी प्रतिलिप देवनागरी में पुरातत्व को प्रकाशमें न लानेसे अपूर्ण रहता है। हो पाई है। दक्षिण भारतकी भाषा और लिपि शेष अतएव साहित्यका मूल्यांकन उस पर लगी हुई भारतकी भाषा और लिपिसे अत्यन्त क्लिष्ट और असम्बद्ध लागत परसे नहीं किया जा सकता हैं। यदि लेखकोंका होने के कारण इधरकी प्रगतिका प्रभाव उधर बहुत ही कागज कलम स्याहीका मूलप्रतिका और स्थानका साधन कम मात्रामें पढ़ा, उधरके जैनबंधुओंसे इधरके जैन- जुटाकर आज एक ग्रंथकी प्रतिलिपि १०.) के खर्चसे हो नोंका सम्पर्क भी कम पड़ता गया, उनके सामाजिक सकती हैं सो उसमें सालभरका समय, उसको मूल प्रतिके वीति रिवाज और पूजा विधानकी क्रियाये उधरके साथ मिलाकर शुद्ध करने में विद्वानके कार्य और देखरेखर अन्य धर्मावलम्बियोंके रीति-रिवाज और क्रियाकाण्डसे का मूल्य मिलाकर उसका जो मूल्यांकन हो सकता है उससे Jain Education Intomational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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