Book Title: Anekant 1939 11
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ अनेकान्त प्रथम चार खंडों-- १ जीवस्थान, २ क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, और ४ वेदनाकी, जिसे 'वेयणकसीरणपाहुड' तथा 'कम्पयडिपाहुड' ( कर्मप्रकृतिप्राभृत) भी कहते हैं, यह पूरी टीका है— इन चार खण्डोंका इसमें पूर्णरूप से समावेश है और इसलिये इन्हें ही प्रधानतः इस ग्रन्थकी आधार शिला कहना चाहिये । शेष 'वर्गणा' और महाबन्ध' नामके दो खण्डोंकी इसमें कोई टीका नहीं है और न मूल सूत्ररूप में ही उन खण्डोंका संग्रह किया गया है - उनके किसी-किसी श्रंशका ही कहीं-कहीं पर समावेश जान पड़ता है। वर्गणाखण्ड - विचार [ वर्ष ३, किरण १ खण्ड' के साथही समाप्त होता है— वर्गणाखण्ड उसके साथमें लगा हुआ नहीं है । परन्तु पं० पन्नालालजी सोनी आदि कुछ विद्वानोंका खयाल है कि 'धवला' चार खण्डोंकी टीका न होकर पाँच खण्डोंकी टीका है - पाँचवाँ 'वर्गणा' खण्डभी उसमें शामिल है। उनकी राय में ' वेदनाखण्ड में २४ अनुयोगद्वार नहीं हैं, 'वेदना' नामका दूसरा अनुयोगद्वार ही 'वेदनाखण्ड' है और 'वर्गणाखण्ड' फास, कम्म, पडि नामके तीन अनुयोगद्वारों और 'बन्धन' अनुयोगद्वार के 'बंध' और 'बंधणिज्ज' अधिकारोंसे मिलकर बनता है । ये फासादि श्रनुयोगद्वार वेदनाखण्डके नहीं किन्तु 'कम्मपयडिपाहुड' के हैं, जो कि ग्रायणीय नामके दूसरे पूर्वकी पाँचवीं च्यवनलब्धि वस्तुका चौथा पाहुड है और जिसके कदि, वेणा (वेदना) फासादि २४ अनुयोगद्वार हैं । 'वेदनाखण्ड' इस कम्मपयडिपाहुडका दूसरा 'वेदना' नामका श्रनुयोगद्वार है । इस बेदनानुयोगद्वार के कहिये या वेदनाखण्डके कहिये १६ ही अनुयोगद्वार हैं, जिनके नाम वेदणिक्खेव वेदरणयविभासरणदा, वेदणणाम विहाण, वेदरणदव्वविहाण, वेदणखेत्तविहाण, वेदणकालविहाण, वेदणभावविहाण आदि हैं।’* धवल ग्रन्थ में 'बन्धस्वामित्वविचय' नामके तीसरे खण्डकी समाप्ति के अनन्तर मंगलाचरणपूर्वक 'वेदना' खण्डका प्रारम्भ करते हुए, 'कम्मपयडिपाहुड' इस द्वितीय नाम के साथ उसके २४ अनुयोगद्वारोंकी सूचना करके उन अनुयोगद्वारोंके कदि, वेयणा, फास, कम्म, पयडि, बंधण, इत्यादि २४ नाम दिये हैं और फिर उन अनुयोगद्वारों (अधिकारों ) का क्रमशः उनके अवान्तर अनुयोगद्वारोंके भेद-प्रभेद-सहित वर्णन करते हुए अन्तके 'अप्पाबहुग' नामक २४वें अनुयोगद्वारकी समाप्ति पर लिखा है – “एवं चउवीसदिमणिओगद्दारं समत्तं ।" और फिर “एवं सिद्धांतार्णवं पूर्तिमगमत् चतुर्विंशति अधिकार २४ अणिओगद्दाराणि । नमः श्रीशांतिनाथाय श्रेयस्करो बभूव” ऐसा लिखकर “जस्स से सारणमए' इत्यादि ग्रन्थप्रशस्ति दी हैं, जिसमें ग्रन्थकार श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी गुरुपरम्परा यादिके उल्लेखपूर्वक इस धवला टीकाकी समाप्तिका समय कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी शकसंवत् ७३८ सूचित किया है। इससे साफ जाना जाता है कि यह 'धवल' ग्रन्थ 'वेदना - ऐसी राय रखने और कथन करने वाले विद्वान् इस बातको भुला देते हैं कि 'कम्मपय डिपाहुड' और 'वेयणकसीणपाहुड' दोनों एक ही चीज़के नाम ' क्रमका प्रकृत स्वरूप वर्णन करनेसे जिस प्रकार * देखो, 'जैन सिद्धान्तभास्कर' के पाँचवें भागकी तृतीय किरण में प्रकाशित सोनीजीका 'षड्खण्डागम और भ्रमनिवारण' शीर्षक लेख । आगे भी सोनीजीके मन्तव्योंका इसी लेखके आधार पर उल्लेख किया गया है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 144