Book Title: Agam 41 1  Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 6
________________ आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' आए तब रत्न, सोना और चाँदी के बदले में तुम लोहा देना (तू धनवान बन जाएगा) उस प्रकार से चारित्र में समर्थ हो तो बाकी के अनुयोग ग्रहण करना सरल है। इसलिए चरणानुयोग सबसे ताकतवर हैं। सूत्र - १६-१७ (चरणानुयोग में अल्प अक्षर होने के बावजूद अर्थ से महान-विस्तृत है।) यहाँ चऊभंगी है । अक्षर कम बड़े अर्थ, अक्षर ज्यादा कम अर्थ । दोनों ज्यादा या दोनों कम उसमें ओघ समाचारी प्रथम भंग का दृष्टांत है । ज्ञाताधर्म कथा दूसरे भंग का, दृष्टिवाद तीसरे भंग का क्योंकि वहाँ अक्षर और अर्थ दोनों ज्यादा हैं । लौकिक शास्त्र चौथे भंग का दृष्टांत है। सूत्र - १८-१९ बाल जीव की अनुकंपा से जनपद को अन्नबीज दिए जाए उस प्रकार से स्थविर उस साधु के अनुग्रह के लिए ओघनियुक्ति वर्तमान काल अपेक्षा से इस (अब फिर कहलाएंगे) पद हिस्से के रूप में ओघनियुक्ति उपदिष्ट की है । (यहाँ स्थविर यानि भद्रबाहु स्वामी समझना।) सूत्र- २० ओघनियुक्ति के सात द्वार बताए हैं । प्रतिलेखना, पिंड़, उपधि प्रमाण, अनायतन वर्जन, प्रतिसेवना, आलोचना और विशुद्धि। सूत्र-२१ आभोग, मार्गणा, गवेषणा, ईहा, अपोह, प्रतिलेखना, प्रेक्षणा, निरीक्षणा, आलोकना और प्रलोकना (एकार्थिक नाम हैं ।) सूत्र- २२ जिस प्रकार घड़ा' शब्द कहने से कुम्हार घड़ा और मिट्टी आ जाए ऐसे यहाँ भी प्रतिलेखना पडिलेहण करनेवाले साधु, प्रतिलेखना और प्रतिलेखितव्य -पडिलेहण करने की वस्तु, तीनों की यहाँ प्ररूपणा की जाएगी। सूत्र-२३-२७ प्रतिलेखक - एक हो या अनेक हो, कारणिक हो या निष्कारणिक, साधर्मिक हो या वैधर्मिक ऐसा संक्षेप से दो प्रकार से जानना उसमें अशिव आदि कारण से अकेले जाए तो कारणिक, धर्मचक्र स्तुप, यात्रादि कारण से अकेले जाए तो निष्कारणिक उसमें एक कारणिक यहाँ कहलाएगा उसके अलावा सभी को स्थित समझना । अशिव, अकाल, राजा का भय, क्षोभ, अनशन, मार्ग भूलना, बिमारी, अतिशय, देवता के कहने से और आचार्य के कहने से इतने कारण से अकेले हो तब वो कारणिक कहलाते हैं । बारह साल पहले खयाल आता है कि अकाल होगा । तो विहार करके सूत्र और अर्थ पोरिसि से दूसरे सूखे प्रदेश में जाए । इस अकाल का पता अवधि ज्ञानादि अतिशय से, निमित्त ज्ञान से शिष्य का वाचना के द्वारा बताए कि जैसे या जब अन्य से पता चले तब विहार करे । या ग्लानादि कारण से नीकल न सके । सूत्र - २८-२९ साधु भद्रिक हो - गृहस्थ न हो, गृहस्थ भद्रिक हो लेकिन साधु न हो, दोनो भद्रिक हो या एक भी भद्रिक न हो । दूसरी चऊभंगी साधु भद्रिक हो लेकिन गृहस्थ तुच्छप्रान्त हो, गृहस्थ भद्रिक हो लेकिन साधु तुच्छप्रान्त हो, दोनो प्रान्त हो, दोनो भद्रिक हो । उसमें दोनो भद्रिक हो तब विहार करके उपसर्ग न हो वहाँ जाए । अशिव प्राप्त (ग्लान) साधु को तीन परम्परा से भोजन देना । एक ग्रहण करे । दूसरा लाए, तीसरा अवज्ञापूर्वक दे । ग्लान की देखभाल के लिए रूके हो तब उसे विगई, नमक, दशीवाला वस्त्र और लोहस्पर्श उन चार का वर्जन करना चाहिए। सूत्र-३०-३२ उपद्रव प्राप्त साधु को उद्वर्तन या निर्लेप-करनेवाले साधु ने दिन में या रात को साथ में न रहना । जो मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 6

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