Book Title: Agam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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नाम
३ हिस्से
४ हिस्से
आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति'
सुवर्ण आदि हो तो वो वापस दे । गुरुक - बड़ा पत्थर आदि से ढंका हुआ हो, उसे एक ओर करने जाते ही गृहस्थ को शायद इजा हो । देने का भाजन काफी बड़ा हो या भारी वजनदार हो, उसे उठाकर देने जाए तो शायद हाथ में से गिर पड़े तो गृहस्थ जल जाए या पाँव में इजा हो या उसमें रखी चीज फर्श पर पड़े तो छहकाय जीव की विराधना होती है, इसलिए ऐसे बड़े या भारी भाजन से भिक्षा ग्रहण नहीं करना । त्रिविध -उसमें काल तीन प्रकार से ग्रीष्म, हेमन्त और वर्षाकाल एवं देनेवाले तीन प्रकार से - स्त्री, पुरुष और नपुंसक, वो हर एक तरुण, मध्यम और स्थविर । नपुंसक शीत होते हैं । स्त्री उष्मावाली होती है । पुरुष शीतोष्ण होते हैं । उनमें पुरःकर्म, ऊदकार्द्र, सस्निग्ध तीन होते हैं । उन सबमें सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार से होते हैं । पुरःकर्म
और उपकार्द्र में भिक्षा ग्रहण न करना । सस्निग्ध में यानि मिश्र और सचित्त पानीवाले हाथ हो उस हाथ में ऊंगली, रेखा और हथेली को आश्रित करके सात हिस्से करे । उसमें काल और व्यक्ति भेदसे निम्न रितिसे यदि सूखे हए हों, तो ग्रहण किया जाए
गर्मी में शर्दी में
वर्षा में तरुण स्त्री के
१ हिस्सा
२ हिस्से मध्यम स्त्री के
२ हिस्से ३ हिस्से
४ हिस्से वृद्धा स्त्री के
३ हिस्से ४ हिस्से
५ हिस्से तरुण पुरुष के
२ हिस्से
३ हिस्से मध्यम पुरुष के
३ हिस्से ४ हिस्से
५ हिस्से वृद्ध पुरुष के
४ हिस्से ५ हिस्से
६ हिस्से तरुण नपुंसक
३ हिस्से ४ हिस्से
५ हिस्से मध्यम नपुंसक
४ हिस्से ५ हिस्से
६ हिस्से वृद्ध नपुंसक
५ हिस्से ६ हिस्से
७ हिस्से सूत्र-७८३-८११
भाव - लौकिक और लोकोत्तर दोनों में प्रशस्त और अप्रशस्त । लौकिक यानि सामान्य लोगों में प्रचलित । लोकोत्तर यानि श्री जिनेश्वर भगवंत के शासन में प्रचलित । प्रशस्त यानि मोक्षमार्ग में सहायक । अप्रशस्त यानि मोक्षमार्ग में सहायक नहीं । लौकिक दृष्टांत - किसी गाँव में दो भाई अलग-अलग रहते थे। दोनों खेती करके गुझारा करते थे। एक को अच्छी स्त्री थी। दूसरे को बुरी । जो बूरी स्त्री थी, वो सुबह जल्दी उठकर हाथ, मुँह आदि धोकर अपनी देख-भाल करती थी, लेकिन नौकर आदि की कुछ देख-भाल न करे, और फिर उनके साथ कलह करती । इसलिए नौकर आदि सब चले गए । घर में रहा द्रव्य आदि खत्म हो गया । यह लौकिक अप्रशस्त हिस्सा । जब कि दूसरे की स्त्री, वो नोकर आदि की देख-भाल रखती, समय पर खाना देती । फिर खुद खाती। कामकाज करने में प्रेरणा देती । इसलिए नोकर अच्छी प्रकार से काम करते थे काफी फसल उत्पन्न हुई थी और घर धन-धान्य से समृद्ध हुआ । यह लौकिक प्रशस्त भाव । लोकोत्तर, प्रशस्त, अप्रशस्त - जो साधु संयम के पालन के लिए आहार आदि ग्रहण करते हैं । लेकिन अपना रूप, बल या देह की पुष्टि के लिए आहार ग्रहण करे, आचार्य आदि की भक्ति न करे । वो ज्ञान, दर्शन, चारित्र का आराधक नहीं हो सकता । यह लोकोत्तर अप्रशस्तभाव । बियालीस दोष से रहित शुद्ध आहार ग्रहण करने के बाद वो आहार देखकर जाँच कर लेना । उसमें काँटे, संसक्त आदि हो, तो उसे नीकालकर - परठवी उपाश्रय में जाए । (नियुक्ति क्रमांक ७९४-७९७ गाथा में गाँव काल भाजन का पर्याप्तपन आदि कथन भी किया है।) उपाश्रय में प्रवेश करते ही पाँव पूंजकर तीन बार निसीहि कहकर, नमो खमासमणाणं कहकर, सिर झुकाकर नमस्कार करे । फिर यदि ठल्ला - मात्रा की शंका हो, तो पात्रा दूसरे को सौंपकर शंका दूर करके काऊस्सग्ग करना चाहिए ।) (महपत्ति रजोहरण चोलपट्रक आदि किस प्रकार रखे आदि विधान नियुक्ति गाथाक्रम ८०३-८०४-८०५ में हैं।) काऊस्सग्ग में गोचरी में जो किसी दोष लगे हो उसका चिन्तवन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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