Book Title: Agam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' सूत्र-८९०-८९५
गोचरी कम हो तो क्या करे और भोजन शुद्धि किस प्रकार बनी रहे उसकी समझ यहाँ दी है। जैसे कि गोचरी तुरन्त बाँटकर गोचरी दे और धूम अंगार आदि दोष का निवारण करे आदि । सूत्र-८९६-९०८
आहार करने के छह कारण - क्षुधावेदना शमन के लिए, वैयावच्च के लिए, इर्यापथिकी ढूँढ़ने के लिए, संयम पालन के लिए, देह टिकाने के लिए, स्वाध्याय के लिए । आहार न लेने के छ कारण - ताव आदि हो, राजास्वजन आदि का उपद्रव हो, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, जीवदया के लिए (बारिस, धुमस आदि हो) उपवास आदि तपस्या हो, देहका त्याग करने के लिए, अनशन अपनाने पर । आहार के बाद पात्रा तीन बार पानी से धोने चाहिए
सूत्र - ९०९-९१३
आहार बचा हो तो क्या करे ? - खाने के बाद भी आहार बचा हो तो रत्नाधिक साधु बचा हुआ आहार आचार्य महाराज को दिखाए । आचार्य कहे कि आयंबिल उपवासवाले साधु को बुलाओ । मोह की चिकित्सा के लिए जिन्होंने उपवास किया हो, जिन्होंने अठ्ठम या उससे ज्यादा उपवास किए हो, जो ग्लान हो, बुखारवाले हो, जो आत्मलब्धिक हो - उसके अलावा साधुओं को रत्नाधिक साधु कहते हैं कि, तुम्हें आचार्य भगवंत बुलाते हैं । वो साधु तुरन्त आचार्य महाराज के पास जाकर वंदन करके कहे कि, फरमाओ भगवंत । क्या आज्ञा है ? आचार्य महाराजने कहा कि यह आहार बचा है, उसे खा लो । यह सुनकर साधु ने कहा कि, खाया जाएगा उतना खाऊंगा। ऐसा कहकर खुद से खाया जाए उतना आहार खाए । फिर भी बचे तो जिसका पात्र हो वो साधु आहार परठवे । यदि खानेवाला साधु 'खाया जाएगा उतना खाऊंगा' ऐसा न बोले होते तो बचा हुआ वो खुद ही परठवे। सूत्र- ९१४-९१५
विधिवत् लाया हुआ और विधिवत् खाया हुआ आहार दूसरे को दे । उसके चार भेद हैं । विधिवत् ग्रहण किया हुआ और विधिवत् खाया हुआ । अविधि से ग्रहण किया हुआ और अविधि से खाया हुआ । अविधि से ग्रहण किया हुआ और अविधि से खाया हुआ । विधिवत् ग्रहण किया हुआ और उद्गम आदि दोष रहित गृहस्थ ने जैसे दिया ऐसे ही ग्रहण करके लाया गया आहार । उसके अलावा ग्रहण किया गया आहार अविधि ग्रहण कहलाता
है।
सूत्र- ९१६-९२३
अविधि भोजन - १. काकभुक्त, २. शृगालभुक्त, ३. द्रावितरस, ४. परामृष्ट । काकभुक्त - यानि जिस प्रकार कौआ विष्टा आदि में से बाल, चने आदि नीकालकर खाता है, उसी प्रकार पात्र में से अच्छी अच्छी या कुछकुछ चीजें नीकालकर खाना । या खाते-खाते गिराए, एवं मुँह में नीवाला रखकर आस-पास देखे । शृंगालभुक्त - लोमड़ी की प्रकार अलग-अलग जगह पर ले जाकर खाए । द्रावितरस - यानि चावल ओसामण इकट्ठे किए हो उसमें पानी या प्रवाही डालकर एक रस समान पी जाए । परामृष्ट – यानि फर्क, उलट, सूलट, नीचे का ऊपर और ऊपर का नीचे करके उपयोग करे । विधिभोजन प्रथम उत्कृष्ट द्रव्य, फिर अनुत्कृष्ट द्रव्य फिर समीकृत वो विधि भोजन अविधि से ग्रहण किया हुआ और अविधि से खाया हुआ दूसरों को दे या ले तो आचार्य देनेवाले को और लेनेवाले को दोनों को गुस्सा करे । एवं एक कल्याणक प्रायश्चित्त दे । धीर पुरुषने इस प्रकार संयमवृद्धि के लिए ग्रास एषणा बताई, निर्ग्रन्थ ने इस प्रकार विधि पालन करते हुए कईं भव, संचित कर्म खपते हैं। सूत्र - ९२४-९४२
परिष्ठापना दो प्रकार से - जात, कमजात । जात -प्राणातिपाद आदि दोष से युक्त या आधा कर्मादि दोषवाला या लालच से लिया गया या अभियोगकृत्, वशीकरण कृत, मंत्र, चूर्ण आदि मिश्रकृत और विषमिश्रित आहार भी अशुद्ध होने से परठने में सात प्रकार के हैं । कमजात - यानि शुद्ध आहार | मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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