Book Title: Agam 41 1  Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 44
________________ आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' सूत्र - ११०१-१११५ आत्मभाव की विशुद्धि रखनेवाला साधु वस्त्र, पात्र आदि बाह्य उपकरण का सेवन करते हुए भी अपरिग्रही है, ऐसे त्रैलोक्यदर्शी श्री जिनेश्वर भगवंत ने कहा है। यहाँ दिगम्बर मतवाला कोई शंका करे या उप बावजूद भी निर्ग्रन्थ कहलाए तो फिर गृहस्थ भी उपकरण रखते हैं, इसलिए गृहस्थ भी निर्ग्रन्थ कहलाएंगे । उसके समाधान में बताते हैं कि अध्यात्म की विशुद्धि कर के साधु, उपकरण होने के बावजूद निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । यदि अध्यात्मविशुद्धि में न मानो तो पूरा लोक जीव से व्याप्त है, उसमें नग्न घूमनेवाले ऐसे तुमको भी हिंसकपन मानना पड़ेगा ऐसे यहाँ भी आत्मभाव विशुद्धि से साधु को निष्परिग्रहत्व है । गृहस्थ में वो भावना आ सकती है इसलिए वो निष्परिग्रही नहीं होते । अहिंसकपन भी भगवंत ने आत्मा की विशुद्धि में बताया है । जैसे कि इर्यासमितियुक्त ऐसे साधु के पाँव के नीचे शायद दो इन्द्रियादि जीव की विराधना हो जाए तो भी मन, वचन, काया से वो निर्दोष होने से उस निमित्त का सूक्ष्म भी पापबँध नहीं लगता । योगप्रत्ययिक बँध हो उसके पहले समय पर बँधे और दूसरे समय में भुगते जाते हैं । जब कि प्रमत्त पुरुष से जो हत्या होती है, उसका हिंसाजन्य कर्मबंध उस पुरुष को यकीनन होता है। और फिर हत्या न हो तो भी हिंसाजन्य पापकर्म से वो बँधा जाता है । इसलिए प्रमादी ही हिंसक माना जाता है। कहा है कि -निश्चय से आत्मा ही हिंसक है और आत्मा ही अहिंसक है, जो अप्रमत्त है वो अहिंसक है और जो प्रमत्त है वो हिंसक है। श्री जिनेश्वर भगवंत के शासन में परिणाम एक प्रधान चीज है इससे जो बाहा क्रिया छोड़कर अकेले परिणाम को ही पकड़ते हैं, उन्हें ध्यान में रखना चाहिए कि, बाह्यक्रिया की शुद्धि बिना, परिणाम की शुद्धि भी जीव में नहीं आ सकती, इसलिए व्यवहार और निश्चय ही मोक्ष का मार्ग है। सूत्र - १११६ ऊपर कहे अनुसार विधिवत् उपकरण धारण करनेवाला साधु सर्व दोष रहित आयतन यानि गुण के स्थान भूत बनते हैं और जो अविधिपूर्वक ग्रहण की हुई उपधि धारण करते हैं वो अनायतन - गुण के अस्थान रूप होते हैं सूत्र - १११७ ___अनायतन, सावध, अशोधिस्थान, कुशीलसंसर्ग, यह शब्द एकार्थक हैं - आयतन निरवद्य - शोधिस्थान, सुशीलसंसर्ग एकार्थक हैं। सूत्र - १११८-११३१ साधु को अनायतन स्थान छोडकर आयतन स्थान का सेवन करना चाहिए । अनायतन स्थान दो प्रकार के - द्रव्य और भाव अनायतन स्थान । द्रव्य अनायतन स्थान - रूद्र आदि के घर आदि, भाव अनायतन स्थान, लौकिक और लोकोत्तर, लौकिक भाव अनायतन स्थान - वेश्या, दासी, तिर्यंच, चारण, शाक्यादि, ब्राह्मण आदि रहे हो एवं मुर्दाघर, शिकारी, सिपाही, भील, मछेरा आदि और लोक में दुर्गंछा के पात्र नींदनीय स्थान हो वो सभी लौकिक भाव अनायतन स्थान। ऐसे स्थान में साधु साध्वी को पलभर भी नहीं रहना चाहिए। क्योंकि पवन जैसी बदबू हो ऐसी बदबू को ले जाते हैं । इसलिए अनायतन स्थान में रहने से संसर्ग दोष लगता है । लोकोत्तर भाव अनायतन स्थान - जिन्होंने दीक्षा ली है और समर्थ होने के बावजूद भी संयमयोग की हानि करते हो ऐसे साधु के साथ नहीं रहना । और फिर उनका संसर्ग भी नहीं करना । क्योंकि आम और नीम इकट्ठे होने पर आम का मीठापन नष्ट होता है और उसके फल कटु होते हैं । ऐसे अच्छे साधु के गुण नष्ट हो और दुर्गुण आने में देर न लगे। 'संसर्ग से दोष ही लगता है। ऐसा एकान्त नहीं है । क्योंकि इख की बागान में लम्बे अरसे तक रहा नलस्तंभ क्यों मधुर नहीं होता? एवं वैडुर्यरत्न काँच के टुकड़ों के साथ लम्बे अरसे तक रखने के बाद भी क्यों काँच जैसा नहीं होता? जगत में द्रव्य दो प्रकार के हैं । एक भावुक यानि जिसके संसर्ग में आए ऐसे बन जाए और दूसरे अभावुक यानि दूसरों के संसर्ग में कितने भी आने के बावजूद ऐसे के ऐसे ही रहे । वैडुर्यरत्न, मणि आदि दूसरे द्रव्य से अभावुक है जब कि आम्रवृक्ष भावुक है। भावुक द्रव्य में उसके सौ वे हिस्से जितना लवण आदि व्याप्त हो, तो मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 44

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