Book Title: Agam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति पूरा द्रव्य लवण को प्राप्त करता है । चर्म-काष्ठादि के सौ वे हिस्से में भी यदि लवण स्पर्श हो जाए तो वो पूरा चर्मकाष्ठादि नष्ट हो जाता है । इस प्रकार कुशील संसर्ग साधु समूह को दूषित करता है । इसलिए कुशील संसर्ग नहीं करना चाहिए । जीव अनादि काल से संसार में घूम रहा है, इसलिए अनादि काल से परिचित होने से दोष आने में देर नहीं लगती जब गुण महा मुश्किल से आते हैं । फिर संसर्ग दोष से गुण चले जाने में देर नहीं लगती। नदी का मधुर पानी सागर में मिलने से खारा हो जाता है, ऐसे शीलवान साधु भी कुशील साधु का संग करे तो अपने गुण को नष्ट करता है। सूत्र - ११३२-११३५
जहाँ जहाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उपघात हो, ऐसे अनायतन स्थान को पापभीरू साधु को तुरन्त त्याग करना चाहिए । जहाँ कईं साधर्मिक (साधु) श्रद्धा संवेग बिना अनार्य हो, मूलगुण - प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह का सेवन करते हो, जहाँ कईं साधु श्रद्धा-संवेग रहित हो, उत्तर गुण पिंडविशुद्धि दोषयुक्त हो - बाह्य से वेश धारण किया है मूलगुण उत्तरगुण के दोष का सेवन करते हो उसे अनायतन कहते हैं। सूत्र - ११३६-११३८
आयतन किसे कहते हैं ? आयतन दो प्रकार से द्रव्य और भाव आयतन । द्रव्य-आयतन स्थान - जिन मंदिर, उपाश्रय आदि । भाव आयतन स्थान - तीन प्रकार से - ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप । जहाँ साधु शीलवान, बहुश्रुत, चारित्राचार का पालन करते हो उसे आयतन कहते हैं । ऐसे साधु के साथ बसना ।अच्छे लोगों (साधु) का संसर्ग, वो शीलगुण से दरिद्र हो तो भी उसे शील आदि गुणवाला बनाते हैं । जिस प्रकार मेरु पर्वतपर लगा घास भी सुनहरापन पाता है उसी प्रकार अच्छे गुणवालों का संसर्ग करने से खुद में ऐसे गुण न हो तो भी गुण प्राप्त होते हैं । सूत्र - ११३९-११४१
आयतन का सेवन करने से - यानि अच्छे शीलवान, अच्छे ज्ञानवान और अच्छे चारित्रवान साधु के साथ रहनेवाले साधु को 'कंटकपथ' की प्रकार शायद राग द्वेष आ जाए और उससे विरुद्ध आचरण हो जाए । वो प्रतिसेवन दो प्रकार से - १. मूल, २. उत्तर गुण । मूलगुण में छ प्रकार से - प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन सम्बन्धी कोई दोष लगे । उत्तर गुण में तीन प्रकार से - उद्गम, उत्पादना और एषणा सम्बन्धी कोई दोष लग जाए । इसे प्रतिसेवन कहते हैं - प्रतिसेवन - दोष का सेवन । सूत्र - ११४२
प्रतिसेवना, मलिन, भंग, विराधना, स्खलना, उपघात, अशुद्धि और सबलीकरण एकार्थिक नाम हैं। सूत्र- ११४३
चारित्र का पालन करने से जो जो विरुद्ध आचरण हो उसे प्रतिसेवना कहते हैं । प्राणातिपात आदि छह स्थान और उद्गम आदि तीन स्थान में किसी भी एक स्थान में स्खलना हई हो तो साधु को दुःख के क्षय के लिए विशुद्ध होने के लिए आलोचे । सूत्र-११४४
आलोचना दो प्रकार से - मूलगुण और उत्तरगुण सम्बन्धी । यह दोनों आलोचना साधु, साध्वी वर्ग में चार कानवाली होती है । किस प्रकार ? साधु में एक आचार्य और आलोचना करनेवाला साधु, ऐसे दो के चार कान, साध्वी में एक प्रवर्तिनी और दूसरी साध्वी आलोचनाकारी करनेवाली साध्वी, ऐसे दो के मिलाकर चार कान । वो आचार्य के पास मूलगुण और उत्तरगुण को आलोचना करे दोनों के मिलकर आठ कानवाली आलोचना बने । एक आचार्य और उनके साथ एक साधु के मिलकर चार कान एवं प्रवर्तिनी और दूसरी साध्वी आलोचनाकारी ऐसे चारों के मिलकर आठ कान होते हैं । आचार्य वृद्ध हो तो छह कानवाली भी आलोचना होती है । साध्वी को आचार्य के पास आलोचना लेते समय साथ में दूसरी साध्वी जरुर रखनी चाहिए । अकेली साध्वी को कभी आलोचना नहीं करनी चाहिए । उत्सर्ग की प्रकार आलोचना आचार्य महाराज के पास करनी चाहिए । आचार्य महाराज न हो, तो मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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