Book Title: Agam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' सूत्र-८६०
इस प्रकार एक साधु को खाने की विधि संक्षेप में बताई है । उसी प्रकार कईं साधु के खाने कि विधि समझ लेना । लेकिन और साधु मांडलीबद्ध खाए। सूत्र-८६१
मांडली करने के कारण - अति ग्लान, बाल, वृद्ध, शैक्ष, प्राघुर्णक, अलब्धिवान या असमर्थ के कारण से मांडली अलग करे। सूत्र-८६२-८६८
भिक्षा के लिए गए हुए साधु का आने का समय हो इसलिए वसतिपालक नंदीपात्र पडिलेहण करके तैयार रखे, साधु आकर उसमें पानी डाले, फिर पानी साफ हो जाए तो दूसरे पात्र में डाल दे । गच्छ में साधु हो उस अनुसार पात्र रखे । गच्छ बड़ा हो तो दो, तीन या पाँच नंदीपात्र रखे।
वसतिपालक नंदीपात्र रखने के लिए समर्थ न हो या नंदीपात्र न हो, तो साधु अपने पात्र में चार अंगुल कम पानी लाए, जिससे एक दूसरे में डालकर पानी साफ कर सके । पानी में चींटी, मकोड़े, कूड़ा आदि हो तो पानी गलते समय जयणापूर्वक चींटी आदि को दूर करे । गृहस्थ के सामने सुखसे पानी ले सके, आचार्य आदि भी उपयोग कर सके । जीवदया का पालन हो आदि कारण से भी पानी गलना चाहिए । साधुओंने मांडली में यथास्थान बैठकर सभी साधु न आए तब तक स्वाध्याय करे । कोई असहिष्णु हो तो उसे पहले खाने के लिए दे । सूत्र-८६९-८७५
गीतार्थ, रत्नाधिक और अलुब्ध ऐसे मंडली स्थविर आचार्य की अनुमति लेकर मांडली में आए । गीतार्थ, रत्नाधिक और अलुब्ध इन तीन के आँठ भेद हैं । गीतार्थ, रत्नाधिक, अलुब्ध । गीतार्थ, रत्नाधिक, लुब्ध, गीतार्थ, लघुपर्याय, अलुब्ध । गीतार्थ, लघुपर्याय, अलुब्ध, अगीतार्थ, रत्नाधिक अलुब्ध, अगीतार्थ, रत्नाधिक, लुब्ध, अगीतार्थ, रत्नाधिक, लुब्ध, अगीतार्थ, लघुपर्याय, अलुब्ध, अगीतार्थ, लघुपर्याय, लुब्ध । इसमें २-४-६-८ भागा दुष्ट है । ५-७ अपवाद से शुद्ध १-३ शुद्ध है। शुद्ध मंडली स्थविर सभी साधुओं को आहार आदि बाँट दे । रत्नाधिक साधु पूर्वाभिमुख बैठे, बाकी साधु यथायोग्य पर्याय के अनुसार मांडली बद्ध बैठे । गोचरी करते समय सभी साधु साथ में भस्म का कूँड़ रखे, खाने के समय, गृहस्थ आदि भीतर न आ जाए उसके लिए एक साधु (उपवासी या जल्द खा लिया हो वो) पता रखने के लिए किनारे पर बैठे। सूत्र-८७६-८८३
आहार करने की विधि - पहले स्निग्ध और मधुर आहार खाना । क्योंकि उससे बुद्धि और शक्ति बढ़ती है चित्त शान्त हो जाता है । बल-ताकत हो, तो वैयावच्च अच्छी प्रकार से कर सके और फिर स्निग्ध आहार अन्त में खाने के लिए रखा हो और परठवना पड़े तो असंयम होता है । इसलिए पहले स्निग्ध और मधुर आहार खाना चाहिए । कटक छेद-यानि टुकड़े करके खाना । प्रतरछेद - यानि ऊपर से खाते जाना । शेर भक्षित यानि एक ओर से शुरू करके पूरा आहार क्रमसर खाना । आहार करते समय आवाझ न करना । चबचब न करना । जल्दबाझी न करना । धीरे-धीरे भी मत खाए । खाते समय गिराए नहीं। राग-द्वेष नहीं रखना चाहिए । मन, वचन और काया से गुप्त होकर शान्त चित्त से आहार करना चाहिए । सूत्र-८८४-८८९
उद्गम उत्पादक के दोष से शुद्ध, एषणा दोष रहित ऐसे गुड़ आदि भी आहार दृष्टभाव से ज्यादा ग्रहण करने से साधु, ज्ञान, दर्शन और चारित्र से असार होता है । जबकि शुद्धभाव से प्रमाणसर आहार ग्रहण करने से साधु ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सार समान (कर्मनिर्जरा करनेवाले) होते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
Page 37