Book Title: Agam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' प्रकार अंधेरा पूरा होने के बाद मुहपत्ति, रजोहरण, दो निषद्या-रजोहरण पर का वस्त्र, चौलपट्टा तीन कपड़े संथारो
और उतरपट्टा इन दश से पडिलेहण पूरी होते ही सूर्योदय होता है । उस प्रकार से पडिलेहण शुरू करना । अपवाद से जितना समय उस प्रकार से पडिलेहण करे । पडिलेहण में विपर्यास न करे । अपवाद से करे । विपर्यास दो प्रकार से पुरुष विपर्यास और उपधि विपर्यास । पुरुष विपर्यास - आम तोर पर आचार्य आदि की पडिलेहण करनेवाले अभिग्रहवाले साधु पहुँच सके ऐसा हो, तो गुरु को पूछकर खुद की या ग्लान आदि की उपधि पडिलेहणा करे । यदि अभिग्रहवाले न हो और अपनी उपधि पडिलेहे तो अनाचार होता है । और पडिलेहण करते आपस में मैथुन सम्बन्धी कथा आदि बातें करे, श्रावक आदि को पच्चक्खाण करवाए, साधु का पाठ दे या खुद पाठ ग्रहण करे, तो भी अनाचार, छह काय जीव की विराधना का दोष लगे। किसी दिन साधु कुम्हार आदि की वसति में उतरे हों, वहाँ पडिलेहण करते बात-चीत करते उपयोग न रहने से, पानी का मटका आदि फट जाए, इसलिए मिट्टी, अग्नि, बीज, कुंथुवा आदि पर जाए, इसलिए उस जीव की विराधना हो, जहाँ अग्नि, वहाँ वायु यकीनन होता है । इस प्रकार से छ जीवकाय की विराधना न हो उसके लिए पडिलेहणा करनी चाहिए । उपधि विपर्यास - किसी चोर आदि आए हुए हों, तो पहले पात्र की पडिलेहणा करके, फिर वस्त्र की पडिलेहणा करे । इस प्रकार विकाल सागारिक गृहस्थ आ जाए तो भी पडिलेहण में विपर्यास करे । पडिलेहण और दूसरे भी जो अनुष्ठान भगवंत ने बताए हैं वो सभी एक, दूसरे को बाधा न पहुँचे उस प्रकार से सभी अनुष्ठान करने से दुःख का क्षय होता है। यानि कर्म की निर्जरा कराने में समर्थ होता है।
श्री जिनेश्वर भगवंत के बताए हए योग में से एक-एक योग की सम्यक् प्रकार से आराधना करते हुए अनन्त आत्मा केवली बने हैं । उस अनुसार पडिलेहण करते हुए भी अनन्त आत्मा मोक्ष में गई है, तो हम केवल पडिलेहण करते हैं, तो फिर दूसरे अनुष्ठान क्यों ? यह बात सही नहीं, क्योंकि दूसरे अनुष्ठान न करे और केवल पडिलेहण करते रहे वो तो आत्मा पूरी प्रकार आराधक नहीं हो सकता केवल देश से ही आराधक बने । इसलिए सभी अनुष्ठान का आचरण करना चाहिए। सूत्र-४७०-४७६
सर्व आराधक किसे कहे ? पाँच इन्द्रिय से गुप्त, मन, वचन और काया के योगयुक्त बारह प्रकार के तप का आचरण, इन्द्रिय और मन पर का काबू, सत्तरह प्रकार के संयम का पालन करनेवाला संपूर्ण आराधक होता है । पाँच इन्द्रिय से गुप्त - यानि पाँच इन्द्रिय के विषय शब्द, रूप, रस और स्पर्श पाने की उम्मीद न रखना, यानि प्राप्त हुए विषय के प्रति अच्छे हो - अनुकूल हो उसमें राग न करना, बूरे-प्रतिकूल हो उसमें द्वेष न करना । मन, वचन और काया के योग से युक्त - यानि मन, वचन और काया को अशुभ कर्मबंध हो ऐसे व्यापार से रोकने के लिए और शुभ कर्मबंध हो उसमें प्रवृत्त करने के लिए । मन से अच्छा सोचना, वचन से अच्छे निरवद्य वचन बोलना और काया को संयम के योग में रोके रखना । बूरे विचार आदि आए तो उसे रोककर अच्छे विचार में मन को ले जाना। तप-छह बाह्य और छह अभ्यंतर ऐसे बार प्रकार का तप रखना । नियम - यानि इन्द्रिय और मन को काबू में रखना। एवं क्रोध, मान, माया और लोभ न करना । संयम सत्तरह प्रकार से हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चऊरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय संयम इन जीव की विराधना न हो ऐसा व्यवहार करना चाहिए । अजीव संयम - लकड़ा, वस्त्र, किताब आदि पर लील फूल - निगोद आदि लगा हुआ हो तो उसे ग्रहण न करना । प्रेक्षा संयम-चीज देखकर पूंजना प्रमार्जन करने लेना, रखना, एवं चलना, बैठना, शरीर हिलाना आदि कार्य करते हए देखना, प्रमार्जन करना, प्रत्येक कार्य करते हए चक्षु आदि से पडिलेहण करना । उपेक्षासंयम दो प्रकार से - साधु सम्बन्धी, गृहस्थ सम्बन्धी । साधु संयम में अच्छी प्रकार व्यवहार न करता हो तो उसे संयम में प्रवर्तन करने की प्रेरणा देनी चाहिए, गृहस्थ के पापकारी व्यापार में प्रेरणा न करना । इस प्रकार आराधना करनेवाला पूरी प्रकार आराधक हो सकता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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