Book Title: Agam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' जाना, मनोज्ञ के आपात में स्थंडिल जा सकते हैं । साध्वी का आपात एकान्त में वर्जन करना । परपक्ष के आपात में दोष, लोगों को होता है कि, हम जिस दिशा में स्थंडिल जाते हैं वहाँ यह साधुएं आते हैं इसलिए हमारा अपमान करनेवाला है या हमारी स्त्रियों का अभिलाष होगा इसलिए इस दिशा में जाते हैं । इससे शासन का उड्डाह होता है। शायद पानी कम हो, तो उससे उड्डाह हो । किसी बड़ा-पुरुष साधु को उस दिशा में स्थंडिल जाते देखकर भिक्षा आदि का निरोध करे । श्रावक आदि को चारित्र सम्बन्ध शक पड़े । शायद किसी स्त्री नपुंसक आदि बलात्कार से ग्रहण करे । तिर्यंच के आपात में दोष- लड़ाकु हो तो शींग आदि मारे, काट ले । हिंमत हो तो भक्षण करे | गधी आदि हो तो मैथुन का शक हो जाए । संलोक में दोष - तिर्यंच के संलोक में कोई दोष नहीं होते । मानव के संलोक में उड्डाह आदि दोष होते हैं । स्त्री आदि के संलोक में मूर्छा या अनुराग हो । इसलिए स्त्री आदि के संलोक हो वहाँ स्थंडिल न जाना । आपात और संलोक के दोष हो ऐसा न हो वहीं पर स्थंडिल जाना साध्वीजीओ का आपात हो लेकिन संलोक न हो, वहाँ स्थंडिल जाना चाहिए । स्थंडिल जाने के लिए संज्ञा-कालसंज्ञा-तीसरी पोरिसी में स्थंडिल जाना वो । अकालसंज्ञा-तीसरी पोरिसी के सिवा जो समय है उसमें स्थंडिल जाना वो, या गोचरी करने के बाद स्थंडिल जाना वो कालसंज्ञा या अर्थ पोरिसी के बाद स्थंडिल जाना वो कालसंज्ञा ।
बारिस के अलावा के काल में डगल (ईंट आदि का टुकड़ा) लेकर उससे साफ करके तीन बार पानी से आचमन-साफ करना । साँप, बिच्छु, वींछी आदि के बील न हो, कीड़े, जीवजन्तु या वनस्पति न हो, एवं प्रासुक समान भूमि में छाँव हो वहाँ स्थंडिल के लिए जाना । प्रासुक भूमि उत्कृष्ट से बारह योजन की, जघन्य से एक हाथ लम्बी चौड़ी, आगाढ़ कारण से जघन्य से चार अंगुल लम्बी चौड़ी और दश दोष से रहित जगह में उपयोग करना । आत्मा उपघात-बागीचा आदि में जाने से । प्रवचत उपघात-बूरा स्थान विष्टा आदि हो वहाँ जाने से । संयम उपघात - अग्नि, वनस्पति आदि हो, जहाँ जाने से षट्जीवनिकाय की विराधना हो । विषम जगह में जाते ही गिर जाए, इससे आत्मविराधना, मात्रा आदि को रेला हो तो उसमें त्रस आदि जीव की विराधना, इसलिए संयम विराधना । पोलाण युक्त जगह में जाने से, उसमें बिच्छु आदि हो तो इँस ले इसलिए आत्म विराधना । पोलाणयुक्त स्थान में पानी आदि जाने से त्रस जीव की विराधना, इसलिए संयम विराधना । घरों के पास में जाए तो संयम विराधना और आत्म विराधना । बीलवाले जगह में जाए तो संयम विराधना और आत्म विराधना । बीज त्रस आदि जीव हो वहाँ जाए तो संयम विराधना और आत्मविराधना । सचित्त भूमि में जाए तो संयम विराधना और आत्म विराधना, एक हाथ से कम अचित्त भूमि में जाए, संयम विराधना, आत्म विराधना । इन से एकादि सांयोगिक भांगा १०२४ होते हैं सूत्र - ५३३-५३७
अवष्टम्भ- लींपित दीवार खंभा आदि का सहारा न लेना । वहाँ हमेशा त्रस जीव रहे होते हैं । पूंजकर भी सहारा मत लेना । सहारा लेने की जरुर हो तो फर्श आदि लगाई हुई दीवार आदि हो वहाँ पूंजकर सहारा लेना, सामान्य जीव का मर्दन आदि हो तो संयम विराधना और बिच्छ आदि हो तो आत्म विराधना । सूत्र-५३८-५४७
मार्ग - रास्ते में चलते ही चार हाथ प्रमाण भूमि देखकर चलना, क्योंकि चार हाथ के भीतर दृष्टि रखी हो तो जीव आदि देखते ही अचानक पाँव रखने से रूक नहीं सकते, चार हाथ से दूर नजर रखी हो तो पास में रहे जीव की रक्षा नहीं हो सकती, देखे बिना चले तो रास्ते में खड्डा आदि आने से गिर पड़े, इससे पाँव में काँटा आदि लगे या मोच आ जाए, एवं जीवविराधना आदि हो, पात्र तूटे, लोकोपवाद हो संयम और आत्म विराधना हो । इसलिए चार हाथ प्रमाण भूमि पर नजर रखकर उपयोगपूर्वक चले । इस प्रकार पडिलेहण की विधि गणधर भगवंत ने बताई है । इस पडिलेहण विधि का आचरण करने से चरणकरणानुयोग वाले साधु कईं भव में बाँधे अनन्त कर्म को खपाते हैं। सूत्र-५४८-५५३
अब पिंड़ और एषणा का स्वरूप गुरु उपदेश के अनुसार कहते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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