Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Jambuddivpannatti Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 423
________________ चोवटि-छप्पण्ण घास जो रेशम रंगने के काम आता है २१६,२२१,२२२,२२४,२२५,२२८,२३०, चोवछि (चतुष्षष्टि) प२३१ २३२,२३४,२३७,२३६,२४२ से २४४ चोवत्तर (चतुस्सप्तति) ज ७८० छट्ठाणवडिय (षट् स्थानपतित) प ५१५.७।११५, चोवीस (चतुर्विशति) ज ७१०६ चोसट्ठि (चतुष्पष्टि) ज २।६४ छठ्ठी (षष्ठी) प २१२७१२ ज ७।१२५ छण्ण (छन्न) ज ३।३ छण्णउइ (षण्णवति) प २।४०।१,१२।३२ ज २।६; छ (षष् ) प १४६४.१ ज १११८ च ३३३ सू १७ ३.१७८ उ ५२५ छउमस्थ (छामस्थ) ५ १११०१।४,१११०४ से १०७, छण्णउत (षण्णवति) सू १६२१ छण्णउति (षष्णवति) सू २१३ ११७ से १२०,१२६; ३३१८३:१५।४४,४५; छण्णउय (षण्णवति) सू १६।११३२११७ १८।६४,९५,६७,६८,३६१८०,८१ छत्त (छत्र) ५ २६४८,६४,१११२५ ज २११५,२०, छउमत्थपरियाय (छद्मस्थपर्याय) ज २१८५ छक्कग (षट्क) ज ७१३१११ ३.३,६,१८,३१,३५,७७,७८,९३,१७८,१८०, छवखुत्तो (षट कृत्वस्) सू १२११० २२२,५।४३,५५,५७ सू १२।२६ उ १।१६; ४।१३,१८ छगल (छगल) प २१४६ छज्ज (राज्') छज्जइ ज ३१२४१४,३७४२,४५।२, छत्तहत्थगय (हस्तगतछत्र) ज ३।११ छत्तछाया (छत्रछाया) प १६।४७ १३१॥४ छठ्ठ (षष्ठ) प ३३१८,१८३,६१८०।२,१०।१४।४ छत्तरयण (छत्ररत्न) ज ३।११७।१,११८,११६, से ६,१२।३२; १७९६५ ; ३३।१६, ३६८५,८७ १२१,१७९,२२० ज २६५,८५७६७,११७१ सू १०७७, छत्तरयगत्त (छत्र रत्नत्व) प २०१६० १३।८ उ २।१०,२२, ३,१४,५०,५५,८३,१५० छत्तल (पट्तल) ज ३१६३,१३५,१५८ १६१.१६७,१७०।४।२४।५।२८,३६,४३ छत्ताइच्छत्त (छत्रातिच्छत्र) ज ४।३०,४६,५१४३ छट्टक्खमण (षष्टक्षपण) उ३१५० से ५४ छतागारसंठित (छत्राकारसंस्थित) सू ११२५,४।२ छट्ठभत्त (षष्ठभक्त) प २८१४७ ज २१५२,१६१ ।। छत्तातिच्छत्त (छत्रातिच्छत्र) सू १२।२६,३० छठाणवडित (षट्थानपतित) प ५१५,७,१०,१२ छत्ताय (छत्राक) प ११४७ कुकुरमुत्ता, धनिया, १४,१६,१८,२०,२४,२५,२८,३०,३२,३४, सोया, जाल बवूर का वृक्ष ३७,३८,४१,४२,४५,४६,४६,५३,५६,५६, छत्तार (छत्रकार) प १९६७ ६०,६३,६४,६८,७१,७४,७५,७८,७६,८३, छत्तालीस (षट्चत्वारिंशत्) सू १२।२५ ८४,८६,८६,६०,६३,६४,६७,१०१,१०२, छत्तीस (पत्रिंशत्) १ २१४०।४ ज ३१३ १०४,१०५,१०७,१०८,१११,११२,११६,१२६, सू १०.१६६ १३१,१३४,१३६,१३८,१४०,१४३,१४५,१४७, छत्तोह (छत्रौघ) प ११३६।३ १५०,१५१,१५४,१६३,१६६,१६६,१७२, छप्पएसिय (षट् प्रदेशिक) प १०।११ १७४१७७,१८१,१८४,१८७,१६०,१६१, छप्पण्ण (षट्पञ्चाशत् ) प ११८४ ज ४१८६ १६३,१६४,१६७,१६८,२००,२०१,२०३,२०४, २०७,२०८,२११,२१२,२१४,२१५,२१८, छप्पण्ण (दे० षट्प्राज्ञक) ज २११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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