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श्री शैवेयं जिनं स्तौमि भुवनं यशसेव यः । मारुतेन मुखोत्थेन पांचजन्यमपूपुरत् ॥३॥
भावार्थ : जिन्होंने अपने मुख से निःसृत वायु से पांचजन्य नामक शंख को इस प्रकार फूंका, मानो अपने उज्ज्वल यश से तीनों लोक परिपूर्ण कर दिये हों; उन शिवादेवी के नन्दन श्रीनेमिनाथ भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ||३|| जीयात् फणिफणप्रांत-संक्राततनुरेकदा । उद्धर्तुमिव विश्वानि श्रीपार्श्वो बहुरूपभाक् ॥४॥
भावार्थ : किसी समय सर्प के फन के सिरे पर जिनके शरीर का पड़ा हुआ प्रतिबिम्ब ऐसा लग रहा था, मानो तीनों जगत् का उद्धार करने के लिए अनेकरूप धारण किये हों; उन पार्श्वनाथ प्रभु की जय हो ||४||
जगदानन्दनः स्वामी जयति ज्ञातनन्दनः । उपजीवन्ति यद्वाचमद्यापि विबुधाः सुधाम् ॥५॥
भावार्थ : जिनके वचनामृत का आस्वादन करके पण्डितजन आज भी अपना जीवन सफल बना रहे हैं; उन जगत् को आनन्द देने वाले ज्ञातपुत्र श्री वर्धमानस्वामी की विजय हो ॥५॥
एतानन्यानपि जिनान्नमस्कृत्य गुरुनपि । अध्यात्मसारमधुना प्रकटीकर्तुमुत्सहे ॥ ६ ॥
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अध्यात्मसार