________________
अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
२१
है वह निश्चयवीतरागचारित्री है । उसके निश्चयसे बुद्धिपूर्वक राम नहीं होता, किसी प्रकार अबुद्धिजन्य राग हो भी तो सूक्ष्म ही होता है । अतः उसके इस चारित्रको गणधरादिदेवोंने गौण वीतरागचारित्र कहा है । और यदि वह सूक्ष्म - राग भी नहीं रहता तो उसे साक्षात् निश्चयवीतरागचारित्र कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि वीतरागचारित्र्वाले मुनियोंके कोई भी बुद्धिजन्य राग नहीं होता- उनके स्वशरीरादि अथवा परपदार्थ में किंचित् भी बुद्धिपूर्वक राग नहीं होता; किन्तु अबुद्धिजन्य राग कथंचित् पाया जा सकता है, पर वह सूक्ष्म है; ऐसे चारित्रको मुनिपुंगव गौणरूप वीतरागचारित्र कहते हैं । उस सूक्ष्म अबुद्धिजन्य रागके भी विनाश होने पर वह चारित्र साक्षात् वीतरागचारित्र कहलाता है ।
भावार्थ - जो चारित्र स्वात्म-प्रवृत्तिरूप है, कषायरूपी कलंक से सर्वथा मुक्त है अथवा दर्शनमोह और चारित्रमोहके उदयजनित मोह-क्षोभसे सर्वथा रहित जीवके अत्यन्त निर्विकार परिणाम स्वरूप है और जिसे 'साम्य' कहा गया है उसे ही वीतरागचारित्र, निश्चयचारित्र अथवा निश्चयधर्म भी कहते हैं । इस चारित्र के भी दो भेद हैं- १ गौरावीतरागचारित्र और २ साक्षात्वीतरागचारित्र ।
जो स्वात्मामें ही सदा निष्ठ रहते हैं, बाह्य संकल्प-विकल्पोंसे सर्वथा रहित हैं, जिनके आत्मा अथवा पर-पदार्थ में किंचित् भी बुद्धिजन्य राग नहीं पाया जाता, किसी तरह अबुद्धिजन्य-राग
* 'मोह- खोह - विहीगो परिणामो अप्पणो हु समो ।' प्रवचनसारे, श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः साम्यं तु दर्शन- चारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोह-क्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः ।'
- प्रवचनसार टी० ७
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org