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वीर सेवा मन्दिर - ग्रन्थमाला'
उत्पाद का स्वरूप
बहिरन्तरङ्गसाधनसद्भावे सति यथेह तन्त्वादिषु । द्रव्यावस्थान्तरो हि प्रादुर्भावः पटादिवन्न सतः ॥ १७॥
अर्थ - बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग उभय साधनोंके मिलनेपर द्रव्यकी अन्यावस्थाका होना उत्पाद है। जैसे लोक में तन्त्वादि और तुरीवेमादिके होनेपर पटादि कार्य निष्पन्न होते हैं तो पटादिका उत्पाद कहा जाता है-तन्त्वादिकका नहीं, उसी प्रकार उपादान और निमित्त उभयकारणोंके मिलनेपर द्रव्यकी पूर्व अवस्थाके त्यागपूर्वक उत्तर अवस्थाका होना उत्पाद है। सत् (द्रव्य) का उत्पाद नहीं होता । वह तो ध्रुवरूप रहता है । धौव्यका स्वरूप
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पूर्वावस्था विगमेऽप्युत्तरपर्याय -समुत्पादे हि । उभयावस्थाव्यापि च तद्भावाव्ययमुवाच तन्नित्यम् ॥ १६ ॥
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अर्थ - जो पदार्थकी पूर्व पर्यायके विनाश और उत्तर पर्यायके उत्पाद होनेपर भी उन पूर्व और उत्तर दोनों ही अवस्थाओं में व्याप्त होकर रहने वाला है अर्थात् उनमें विद्यमान रहता है और जिसको आचार्य उमास्वातिने 'तद्भावाव्ययं नित्यम् " (तत्त्वा०५-३१) कहा है अर्थात् वस्तुके स्वभावका व्यय (विनाश ) न होने को नित्य प्रतिपादित किया है वह ध्रौव्य है । ।
भावार्थ - एक वस्तु में अविरोधी जो क्रमवर्ती पर्यायें होती हैं. उनमें पूर्व पर्यायों का विनाश होता है, उत्तर पर्यायोंका समुत्पाद होता है, और इस तरह उत्पाद व्ययके होते हुए भी द्रव्य जो + 'नादिपरिणामिकभावेन व्ययोदयाभावात् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः, ध्रुवस्य भावः श्रौव्यम् ।' सर्वार्थसिद्धि ५—३०
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