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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला धर्मद्वारा जो परिणाम होते हैं वे परिणाम विभाव-गुणपर्याय कहे जाते हैं। और वे जीव और पुद्गल में ही होते हैं।
भावार्थ-जो पर्याय द्रव्यान्तरके निमित्तसे अंशकल्पना करके होती है वह विभाव-गुणपर्याय कही गई है। यह विभाव-गुणपर्याय जीव और पुद्गल में ही होती है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान ये जीवकी विभाव-गणपर्याय हैं । और पुद्गल स्कन्धोंमें जो घट, पट, स्तम्भ श्रादि गत रूपादि पर्यायें हैं वे सब पुग़लकी विभाव-गुणपर्याये हैं। __ इस तरह द्रव्यका जो पहिला लक्षण 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' किया था उसका व्याख्यान पूरा हुआ। अब आगेके पद्योंमें ग्रन्थकार दूसरे लक्षण ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' का व्याख्यान करते हैं। ___ एक ही समयमें द्रव्यमें उत्पादादित्रयात्मकत्वकी सिद्धिकैश्चित्पर्य्ययविगमैव्य॑ति द्रव्यं ह्य देति समकाले । अन्यैः पर्ययभवनधर्मद्वारेण शाश्वतं द्रव्यम् ।।१६।।
अर्थ-एक ही समयमें द्रव्य किन्हीं पर्यायोंके विनाशसे व्ययको प्राप्त होता है और अन्य-किन्हीं पर्यायोंके उत्पादसे उदयको प्राप्त करता है तथा द्रव्यत्वरूपसे वह शाश्वत रहता है। अर्थात् सदा स्थिर बना रहता है। इस प्रकार द्रव्य एक ही क्षण में उत्पादादित्रयात्मक प्रसिद्ध होता है।
भावार्थ--किसी पदार्थकी पूर्व अवस्थाका विनाश होना व्यय कहलाता है, उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिको उत्पाद कहते हैं और इन पूर्व तथा उत्तर अवस्थाओंमें रहनेवाला वस्तुका वस्तुत्व ध्रौव्य कहलाता है। जैसे किसी मलिन वस्त्रको साबुन और पानीके निमित्तसे धो डाला, वस्त्रकी मलिन अवस्थाका विनाश हो गया और शुक्लरूप उज्ज्वल अवस्थाका उत्पाद हुआ । मलिन तथा उज्ज्वल
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