Book Title: Adhyatma Kamal Marttand
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 166
________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला काश' संज्ञा है। इस तरह आकाश तत्त्व एक अखण्ड होता हुआ भी अपने प्रदेशों में सर्वदा भेद उपलब्ध होनेसे दो भेदरूप भी है और ऐसा मानने में किसी हेतुसे युक्ति-प्रमाणसे कोई बाधा नहीं आती। भावार्थ-यद्यपि आकाश एक अखंड द्रव्य है तथापि उसके अपने प्रदेशों में आधेय भूत अर्थो (द्रव्यों ) के पाये जाने और न पाये जानेरूप भेदके उपलब्ध होनेसे अनेक भी है-अर्थात् उसके दो भी भेद हैं। _आकाशद्रव्यकी अपने प्रदेशों, गुणों, पर्यायोंसे सिद्धि और उसके कार्य तथा धर्मपर्यायका कथनअन्तातीतप्रदेशा गगनगुणिन इत्याश्रितास्तत्र धर्मास्तत्पर्यायाश्च तत्त्वं गगनमिति सदाकाशधर्म विशुद्धम् । द्रव्याणां चावगाहं वितरति सकृदेतद्धि यत्तु स्वभावाद्भाशः स्वात्मधर्मात्प्रतिपरिणमनं धर्मपर्यायसंज्ञम् ॥ ३५॥ ___ अर्थ-आकाशद्रव्यके अनन्त प्रदेश, गुण और उनसे होने वाली पर्याय ये सब ही 'आकाश' हैं। सम्पूर्ण द्रव्योंको एक साथ हमेशा अवकाश दान देना अाकाशका धर्म है-उपकार है और ग्रह उसकी विशुद्धपर्याय है। किन्तु स्वभावसे जो अपने आत्मधर्मसे धर्माशों-स्वभावपर्यायों में प्रतिसमय परिणमन होता है वह उस (आकाशद्रव्य)की धर्मपर्याय है। (क) 'जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगोऽणण्णा ।'-पंचास्ति ६१ (ख) को लोकः ? धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति । अधिकरणसाधने घनु । अाकाशं द्विधा विभक्तं । लोकाकाशमलोकाकाशं चेति । लोक उक्तः । स यत्र तल्लोका काशम् । ततो बहिः सर्वतोऽनन्तमलोकाशम् ।'—सर्वार्थसि० ५-१२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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