Book Title: Adhyatma Kamal Marttand
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 192
________________ १०४ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला द्रव्यमोक्षका स्वरूपपरमसमाधि-बलादिह बोधावरणादि-सकलकर्माणि । चिद्देशेभ्यो भिन्नीभवन्ति स द्रव्यमोक्ष इह गीतः ॥१६॥ अर्थ-उत्कृष्ट समाधि--शुक्लध्यानके बलसे ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मोका आत्मासे सर्वथा पृथक् होना-अलग होजाना द्रव्यमोक्ष कहा गया है। __ भावार्थ-इस द्रव्यमोक्षके भी दो भेद हैं-(१) अपर-द्रव्य-मोक्ष और (२) पर-द्रव्य-मोक्ष । ज्ञानावरण आदि चार घातिया कर्मोका आत्मासे छूटना अपर-द्रव्य-मोक्ष है और घातिया तथा अघातिया आठों ही कर्मोका आत्मासे अलग होना पर-द्रव्य-मोक्ष है। यह दोनों ही तरहका मोक्ष उत्कृष्टसमाधि-शुक्लध्यानसे प्राप्त होता है। मोक्ष अजर है। अमर है। किसी प्रकारकी वहाँ बाधा नहीं है। सब दुखोंसे रहित है।। चिदानन्दस्वरूप है। परमसुख और शान्तिमय है। पूर्ण है। मुमुक्षु भव्यात्माओं द्वारा सदा आराधन और प्राप्त करने योग्य है। निर्जरा और मोक्ष में भेददेशेनेकेन गलेकमविशुद्धिश्च देशतः सेह । स्यानिर्जरा पदार्थो मोक्षस्तो सर्वतो द्वयोर्मिदिति॥१७॥ अर्थ-एक देश कर्मोका झड़ना और एक देश विशुद्धिनिर्मलताका होना निर्जरा है तथा सर्वदेश कर्मोका नाश होना और सम्पूर्ण विशुद्धि होना मोक्ष है। यही इन दोनों में भेद है। + 'जन्मजरामयमरणैः शोकैर्दुःखैभयैश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।।'-रत्नकरण्ड श्रा० १३१ 4 'द्रयोभिरिति' मुद्रितप्रतौ पाठः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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