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वीर सेवा मन्दिर-ग्रन्थमाला
विशेषगुणका स्वरूपतस्मिन्नेव विवक्षितवस्तुनि मग्ना इहेदमिति चिजाः । ज्ञानादयो यथा ते द्रव्यप्रतिनियमितो विशेषगुणाः || ८ ||
अर्थ - उस एक ही विवक्षितवस्तु में 'इसमें यह है' इस रूपसे रहनेवाले और उस द्रव्य के प्रतिनियामक विशेषगुण कहलाते हैं, जैसे जीवके ज्ञानादिक गुण ।
भावार्थ- जो गुण किसी एक ही वस्तुमें असाधारणरूप से पाये जाते हैं वे विशेषगुण कहलाते हैं; जैसे जीवद्रव्य में ज्ञानादिक गुण। ये विशेषगुण प्रतिनियत द्रव्यके व्यवस्थापक होते हैं । पर्यायका स्वरूप और उसके भेदव्यतिरेकिणो ह्यानित्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयश्वापि । ते पर्यायाद्विविधा द्रव्यावस्थाविशेष-धर्मांशाः || ६ ||
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अर्थ - जो व्यतिरेकी हैं क्रमवर्ती हैं, अनित्य हैंपरिणमनशील है, और पर्यायकाल में ही द्रव्यस्वरूप हैं उन्हें पर्याय कहते हैं । वे पर्यायें दो प्रकारकी होती हैं-१ द्रव्यकी अवस्था विशेष और २ धर्मांशरूप ।
भावार्थ- द्रव्यके विकारको पर्याय कहते हैं*। ये पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं - प्रथम एक पर्याय हुई, उसके नाश होनेपर दूसरी और दूसरीके विनाश होनेपर तीसरी पर्यायकी निष्पत्ति होती है। इस तरह पर्यायें क्रम क्रमसे होती रहती हैं अतएव उन्हें क्रमवर्ती कहते हैं । पर्यायें अनित्य होती हैं—वे सदा एक रूप नहीं रहतीं, उनमें उत्पाद-व्यय होता रहता है । द्रव्यकी अवस्था
* 'दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो । - सर्वार्थसिद्धि ५-३८
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