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६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
यथा-'विसोत्तियं,' 'आमगंध' 'महासड्ढी', 'वसुमं, 'अहोविहार, 'धुववण्णो' आदि। इसकी अपेक्षा द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा शिथिल एवं व्यास प्रधान है । उसके वाक्य भी मिश्र, लम्बे एवं अलंकारपूर्ण हैं । इस तरह द्वितीय श्रुतस्कंध की भाषा प्रथम श्रु तस्कन्ध की तुलना में अधिक विकसित है।
जैनागमों की भाषा में परिवर्तन का एक मुख्य कारण यह रहा है कि लिपि दीर्घकाल तक कण्ठस्थ करने की परम्परा थी। बाद में जैन आगम का बहुत सा भाग विस्मृत होने लगा तब उसका पुनःसंयोजन ( व्यवस्थापन ) हुआ। वीर नि० सं० ९८० ( मतान्तर से ९९३ ) में बल्लभीपुर में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में आगमों को ग्रन्थ बद्ध किया गया। तभी आगम साहित्य का निश्चित रूप स्थिर हो पाया। इतने लम्बे समय तक मौखिक रूप में रहने के कारण समय, परिस्थिति तथा उच्चारण वैभिन्न्य का प्रभाव आ जाना स्वाभाविक है। आचाराङ्ग को शैली:
जैन आगम साहित्य में गद्य-पद्य और चम्पू इन तीन शैलियों का प्रयोग हुआ है । आचाराङ्ग में गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। दशवकालिक के चूर्णिकार ने आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को गद्यविभाग में रखा है तथा उसको शैली को चौर्णपद माना है। नियुक्तिकार३° के अनुसार भी आचाराङ्गसूत्र गद्य शैली को नहीं अपितु चौर्ण शैली की रचना है। वे कहते हैं कि अर्थबहल, महार्थहेतु, निपात, उपसर्ग से गम्भीर, बहपाद से विराम रहित आदि लक्षणों से युक्त शैली ही चौर्णपद है। इस व्याख्या से यह स्पष्ट है कि आचाराङ्गसूत्र एक विशिष्ट शैली की रचना है। उसमें गद्य का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है, किन्तु गद्य भी पद्य रूप हो है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम दो चूलिकाएँ गद्यमय हैं । तृतीय चूलिका में कुछ अंश पद्य में और कुछ अंश गद्य में है। 'विमुक्ति' नामक चतुर्थ चूलिका सम्पूर्ण पद्यमय है। इन पद्यों में उपजाति छन्द प्रयुक्त हुआ है। प्रथम श्रु तस्कन्ध के 'विमोक्ष' नामक आठवें अध्ययन का आठवां उद्देशक पद्यमय है । 'उपधानश्रु त' नामक नौवां अध्ययन भी पद्य में ही है। शेष छः अध्ययनों में गद्य के साथ कहीं पद्य का सुमेल स्पष्ट परिलक्षित होता है । कहीं-कहीं तो गद्यभाग के मध्य एकाध पद्यांश इस तरह सम्बद्ध हैं कि उन्हें अलग करना कठिन है। उपनिषदों की
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