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४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन इसका सतत चिन्तन-मनन करना और उसे आचरण में उतारना भिक्षु के लिए अनिवार्य है । व्यवहारसूत्र में कहा है कि तरुण-युवा या वृद्ध सभी भिक्षुओं के लिए इसका स्वाध्याय करना अनिवार्य है। यहाँ तक कहा गया है कि स्थविर, रोगी अथवा अशक्त मुनि को भी लेटे-लेटे इसका स्वाध्याय करते रहना चाहिए ।१७ निष्कर्ष यह है कि अनुकूल प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में आचाराङ्ग का स्वाध्याय करना मुनि का प्रथम कर्तव्य है, क्योंकि साधना का मूल आधार आचार ही है।
आचाराङ्ग जितना सरल, सुगम एवं सुबोध है उतना ही गहनगम्भीर है। उसकी अर्थ-सृष्टि जितनी विराट है शब्द सृष्टि उतनी ही संक्षिप्त है। यह कहा जाय कि उसके प्रत्येक शब्द-बिन्दु में अर्थ-सिन्धु समाया हुआ है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
उक्त विवेचन से यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि आगम-साहित्य में आचाराङ्ग का स्थान सर्वप्रथम है, किन्तु वह रचना की अपेक्षा से प्रथम है या स्थापना की अपेक्षा से? इस सम्बन्ध में आचार्यों में मतवैभिन्न्य है।
आचाराङ्ग के नियुक्तिकार, चूर्णिकार' एवं वृत्तिकार२० इस विषय में एकमत हैं कि सभी तीर्थंकर तोर्थ-प्रवर्तन करते समय सर्वप्रथम आचाराङ्ग के अर्थ (विषयवस्तु ) का ही प्रवचन करते हैं, उसके बाद शेष अंगों का अर्थ कहते हैं और गणधर उसी क्रम से सूत्र-रचना करते हैं। दूसरी ओर नन्दीसूत्र की चूणि एवं वृत्ति में उल्लेख है कि तीर्थंकर तीर्थ-प्रवर्तन करते समय सर्वप्रथम पूर्वगत सूत्रों के अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । यद्यपि गणधर आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग आदि क्रम से ग्रन्थ रचना करते हैं।
इस प्रकार प्रवचन ( अर्थ ) की दृष्टि से 'पूर्व' ( बारहवे अंग ) का निरूपण क्रम प्रथम है किन्तु सूत्र-रचना की दृष्टि से आचाराङ्ग का क्रम प्रथम है ।२१ समवायांगवृत्ति में अभयदेव सूरि ने एक तीसरा मत व्यक्त किया है। उनके अनुसार प्रवचन ( अर्थ ) और रचना दोनों ही दृष्टि से पहले 'पूर्व' है । यद्यपि स्थापना की दृष्टि से आचाराङ्ग सूत्र प्रथम है। ___ इन विभिन्न मतों के बावजूद इतना तो निःसन्देह है कि सम्पूर्ण जैनागम साहित्य में आचारांग का अपना एक विशिष्ट स्थान है। आचाराङ्ग को भाषा:
भावों अथवा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा अनिवार्य
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