________________
३१
आदिनाथ- चरित्र गुरु को वन्दना कर रहा था, कोई धर्म-कथा कह रहा था, कोई श्रतका उद्देश अनुसन्धान कर रहा था, कोई अनुज्ञा दे रहा था और कोई तत्त्व कह रहा था । सार्थवाह ने सबसे पहले आचार्य महाराज को और पीछे अनुक्रम से अन्यान्य मुनियों को वंदना किया। उन्होंने उसे पाप नाश करनेवाला "धर्मलाभ" दिया । इसके बाद- आचार्य के चरण-कमलों के पास, राजहंस की तरह, बैठकर सार्थवाहने, आनन्द के साथ, नीचे लिखी बातें कहनी आरम्भ की:क्षमा प्रार्थना ।
1
“हे भगवन् ! जिस समय मैंने आप को मेरे साथ आने के लिये कहा था, उस समय मैंने शरद ऋतुके मेघ की गर्जना के समान मिश्रा संभ्रम दिखाया था, क्योंकि उस दिन से आजतक न तो मैं आपको वन्दना करने आया और न अन्नपान तथा वस्त्रादिक से आपका सत्कार हो किया जाग्रतावस्था में रहते हुए भी, सुप्तावस्था में रहने वाले के समान, मैंने यह क्या किया ? मैंने आपकी अवज्ञा की और अपना वचन भङ्ग किया । इसलिए हे महाराज! आप मेरे इस प्रमादाचरण के लिए मुझे क्षमा प्रदान कीजिये । महात्मा लोग सब कुछ सहनेसे ही हमेशा "सर्वसह की उपमा को पाये हुए हैं ।
* पृथ्वी को "सर्व सहनी " इसीलिये कहते हैं, कि उसे संसार खूँदता है और उसपर अनेक प्रकार के अत्याचार करता है; परन्तु वह चुपचाप सब सहती है। महापुरुष भी पृथ्वी की तरह ही सब कुछ सहनेवाले होते हैं, इसीसे "सर्वसह" की उपमा मिली है।