Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ ३७८ ] किसी खल जन को विद्या प्राप्त हो जाती है तो उसकी जीभ में खुजली 'चलने लगती है । वह विवाद करने के लिए उद्यत होता है और दूसरों को नीचा दिखला कर अपनी विद्वत्ता की महत्ता स्थापित करने की चेष्टा करती है । वह समझता है कि दुनिया की समग्र विद्वत्ता मेरे भीतर ही श्रा समाई हैं । मेरे सामने, सब तुच्छ है, मैं रर्वज्ञ का पुत्र हूँ ! किन्तु ऐसा ग्रहकारी व्यक्ति दयनीय हैं, क्योंकि वह अपने अज्ञान को ही नहीं जानता ! जो सारी दुनिया को जानने का दंभ करता है, वह यदि अपने ग्रापको ही नहीं जानता तो उससे अधिक दया का पात्र अन्य कौन हो सकता है ! सत्पुरुष विद्या का अभिमान नहीं करता और न दूसरों को नीचा दिखा कर अपना बड़प्पन जताना चाहता है ! -- 1 खल जन के पास लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से यदि धन की ५ प्रचुरता हो जाती है तो वह मद में मस्त हो जाता है और धन के बल से कुकर्म कर्म के अपने लिए गड़हा खोदता है । अगर उसे शक्ति प्राप्त हो जाय तो दूसरों का है, उसे उसी में ही उसकी सार्थकता समझता है । को पीड़ा पहुँचाने अनादि ११ 1. मगर सज्जन पुरुष की विद्या दूसरों का प्रज्ञानान्धकारे दूर करने में काम प्राती है । उसका धन दान में सफल होता हैं । सज्जन पुरुष धन को दोनों प्रसहायों और अनाथों को साता पहुँचाने में व्यय करता है और इसी में अपने धन एवं जीवन को सफल समझता है । सज्जन की शक्ति दूसरों की रक्षा में लगती है । वह यह नहीं सोचता कि अगर कोई पीड़ा पा रहा है, किसी सबल के द्वारा संताया जा रहा है, तो हमें क्या लेना देना है ! वह जगत् की शान्ति में अपनी शांति समझता है । देश की समृद्धि में ही अपनी समृद्धि समझता है और अपने पड़ोसी के सुख में ही सुख का अनुभव करता है ! : शक्ति की सार्थकता इस बात में है कि उसके द्वारा दूसरों के दुःख को दूर किया जाय । अपनी ओर से किसी को पीड़ा न पहुँचाना अच्छी बात है किन्तु कर्त्तव्य की इति श्री इसी में नहीं है । कर्त्तव्य का तकाजा यह है कि

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443