Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 389
________________ [ ३७७ जब मनुष्य सुख की घडियों में मस्त होकर ग्रासमान में उड़ने लगताः है, नीति अनीति और पाप-पुण्य को भूल जाता है और भविष्य को विस्मृत कर देता है तब वह ग्रपने लिये दुःख के बीज बोता है । रावण यदि प्राप्त विभूति : एवं सम्पदा के कारण उन्मत्त न बनता और दुष्कर्म की ओर प्रवृत्त न होता तो सर्वनाश की घड़ी देखने को न मिलती । जन, धन, सत्ता, शस्त्र, विज्ञान, .. बल आदि अनेक कारणों से मनुष्य को उन्माद पैदा होता है । यह उन्माद ही मनुष्य से अनर्थ करवाता है । वह ग्रपने को प्राप्त सामग्री से दूसरों को दुःख में डालता है उनके सुख में विक्षेप उपस्थित करता है । उसे पता नहीं. होता कि दूसरों को दुःख में डालना ही ग्रपने को दुःख में डालना है श्रौर दूसरे के सुख में बाधा पहुँचाना अपने ही सुख में बाधा पहुँचाना है। सुख में बेभान होकर वह नहीं सोच पाता कि यह कार्य मेरे लिए मानवसमाज तथा देश, एवं विश्व के लिए हितकारी है अथवा ग्रहितकारी ? इतिहास में सैंकड़ों घटनाएं घटित हुई हैं जबकि शासकों ने उन्मत होकर दूसरों पर आक्रमण किया है, यहां तक कि अपने मित्र, वन्धु और पिता पर भी चाक्रमण करने में संकोंच नहीं किया । महाभारत युद्ध क्या था ? भाई का भाई के प्रति अन्याय. करने का एक सर्वनाशी प्रयत्न ! श्रीकृष्ण जैसे पुरुषोत्तम शान्ति का मार्ग निकालने को उद्यत होते हैं, महाविनाश की घड़ी को टालने का प्रयत्न करते हैं, भारत को प्रचण्ड प्रलय की घोर ज्वालाग्रों से बचाने के लिए कुछ उठा नहीं रखते, किन्तु उनके प्रयत्नों को ठुकरा दिया जाता है। कोरव वैभव के नशे में बेभान न होगए होते, उनकी मति यदि सन्तुलित रहती तो क्या वह दृश्य सामने श्राता कि भाई को भाई के प्रारणों का ग्रन्त करना पड़े श्रौर शिष्य को अपने कलाचार्य पर प्राणहारी श्राक्रमण करना पड़े ? मगर शक्ति के उन्माद में मनुष्य पागल हो गया और उसने अपने ही सर्वनाश को ग्रामंत्रित किया ! ठीक ही कहा है ।। विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्ति: परेषां परिपीडनाय खलस्य, साथीविपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षरणाय ॥

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