Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 388
________________ .. राष्ट्रीय संकट और प्रजाजन संस्कृत भाषा में एक उक्ति. प्रसिद्ध है- चक्रवत्परिवर्तन्ते दुःखानि सुखानि च' । अर्थात् दुःख और सुख चाक की तरह बदलते रहते हैं। संसारी जीव का जीवन दो चक्रों पर चलता है, कभी दुःख और कभी सुख की प्रबलता हे.ती है । प्रत्येक प्राणी के लिये यह स्थिति अनिवार्य है. क्योंकि कर्म संक्षेप में : दो प्रकार के हैं-शुभ और अशुभ । शुभ कर्म का परिणाम शुभ और अशुभः कर्म का परिणाम दुःख होता है। जिस जीव ने जिस प्रकार के कर्मों का बन्ध : किया है, उसे उसी प्रकार का फल भोगना पडता है।.. : :: . .. कर्म के बन्ध और उदय का यह गोरखधंधा अनादि काल से चल रहा है । पूर्वबद्ध कर्मों का जब उदय होता है तो जीव उनके उदय के कारण रागद्वेष करता है और राग-द्वेष के कारण पुनः नवीन कर्मों का बन्ध कर लेता है। इस प्रकार बीज और वृक्ष की अनादि परम्परा के समान. रागादि विभावपरिणति और कर्मबन्ध का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है.। अज्ञानी जीव इस तथ्य को न जानकर कर्मप्रवाह में बहता रहता है। .: मगेर ज्ञानी जनों की स्थिति कुछ भिन्न प्रकार की होती है । वे शुभ कर्म का उदय होने पर जब अनुकूल सामग्री की प्राप्ति होती है तव हर्ष नहीं मानते और अशुभ कर्म का उदय होने पर दुःख से विह्वल नहीं होते। दोनों ... अवस्थाओं में उनका सम्भात्र अखण्डित रहता है। पूर्वोपाजित कर्म को . समभाव से भोग कर ग्रंथवा तपश्चर्या करके नष्ट करना और नवीन कर्मबन्ध से बचना ज्ञानी पुरुषों का काम है। ......

Loading...

Page Navigation
1 ... 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443