Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 420
________________ ४०८] इसका दूसरा अर्थ है-विछाकर सोने का उपकरण पट्टा श्रादि । पैरों को समेट कर सोने लिए करीव अढ़ाई हाथ लम्बे बिछीने को 'संथारा-संस्तारक' कहते हैं। प्रमाद की वृद्धिान हो, ऐसा सोचकर साधक सिमट कर सोता है। इससे नींद भी जल्दी खुल जाती है । आवश्यकता से अधिक निद्रा होगी तो साधना में बाधा पाएगी, विकृति उत्पन्न होगी और स्वाध्याय-ध्यान में विघ्न होगा। बह्मचारी गहा विछा कर न सोए, यह नियम है । ऐसा न करने से प्रमाद तथा विकार बढ़ेगा। साधु-सन्तों को औषध-भेषज ना दान देने का भी बड़ा माहात्म्य है। . औपच शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार होती है-ग्रोपं-पोपं धत्त, इति औषधम् ।। सोठ, लवंग, पीपरामूल, हर्र आदि वस्तुएँ औषध कहलाती हैं । यूनानी चिकित्सा पद्धति में भी इसी प्रकार की वस्तुओं का उपयोग होता है। प्राचीन काल में, भारत वर्ष में प्राहार-विहार के विषय में पर्याप्त संयम से काम लिया जाता था। इस कारण उस समय. औषधालय भी कम थे। कदाचित् कोई गड़बड़ हो जाती थी तो बुद्धिमान् मनुष्य अपने ग्राहार-विहार में यथोचित् परिवर्तन करके स्वास्थय प्राप्त कर लेते थे। चिकित्सकों का सहारा क्वचित् कदाचित् ही लिया जाता था। करोड़ों पशु-पक्षी वनों में वास करते. हैं। उनके बीच कोई वैद्य-डाक्टर नहीं हैं। फिर भी वे मनुष्यों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ रहते हैं । इसका कारण यही है कि वे प्रकृति के नियमों की.... . : अवेहलना नहीं करते। मनुष्य अपनी बुद्धि के घमण्ड में आकर प्रकृति के कानूनों : को भंग करता है और प्रकृति कुपित हो कर उसे दंडित करती हैं। मांस-मदित . ..आदि का सेवन करना प्रकृति विरुद्ध है। मनुष्य के शरीर में वे प्रांते नहीं होती । जो मांसादि को पचा सकें। मांसभक्षी पशुओं और मनुष्यों के नाखून दांत आदि की वनावट में अन्तर है। फिर भी जिह्वालोलुप मनुष्य मांस भक्षण करके प्रकृति के कानून को भंग करते हैं । फलस्वरूप उन्हें दंड का भागी होना पड़ता है। पशु के शरीर में जब विकार उत्पन्न होता है तो वह चारा खाना छोड़ देता है। यह रोग की प्राकृतिक चिकित्सा है । किन्तु मनुष्य से प्रायः यह भी नहीं

Loading...

Page Navigation
1 ... 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443