Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 416
________________ .. ४०४ .. ..: .. संयम का सरल अर्थ है-अपने मन, वचन और शरीर को नियंत्रित करना, इन्हें उच्छवल न होने देना, कर्मबन्ध का कारण न बनने देना। मन से अशुभ. चिन्तन करने से. बागी का दुपयोग करने से और शरीर के द्वारा अप्रशस्त कृत्य करने से कर्म का बन्ध होता है। इन तीनों साधनों को साथ लेना ही साधना का प्रथम अंग है। जब इन्हें पूरी तरह साध लिया जाता है तो कर्मवन्ध रुक जाता है । नया कर्मवन्ध रोक देने पर भी पूर्ववद्ध कर्मों की सत्ता बनी रहती है 1 उनमे पिण्ड छुड़ाने का उपाय तपश्चर्या है। तपश्चर्या से पूर्वबद्ध कर्म विनष्ट हो जाते हैं। भगवान् महावीर ने तपश्चर्या को विशाल और आन्तरिक .: स्वरूप प्रदान किया है । साधारण लोग समझते हैं कि भूखा रहना और शारीरिक कष्टों को सहन कर लेना ही तपस्या है। किन्तु यह समझ सही नहीं है। इन्द्रियों को उत्तेजित न होने देने के लिए अनशन भी आवश्यक है। ऊनोदर अर्थात भूख से कम खाना भी उपयोगी है, जिह्वा को संयत बनाने के लिए अनुक रसों का परित्याग भी करना चाहिए, ऐश-आराम का त्याग करना । भी जरूरी है, और इन सब की गणना तपस्या में है, किन्तु सत्साहित्य का पठन, चिन्तन, मनन करना, ध्यान करना अर्थात् बहिर्मुख वृत्ति का त्याग कर अपने मन को अात्मचिन्तन में संलग्न कर देना, उसकी चंचलता को दूर करने । के लिए एकान बनाने का प्रयत्न करना, निरीह भाव से सेवा करना, विनयपूर्ण ..." व्यवहार करता, अकृत्य न होने देना और कदाचित् हो जाय तो उसके लिए प्रायश्चित पश्चाताप करना, अपनी भूल को गुरुजनों के समक्ष सरल एवं... निप्पट आव से प्रकट कर देना, इत्यादि भी तपस्या के ही रूप हैं। इससे आप समझ सकेंगे कि तपस्या कोई 'होया' नहीं है, बल्कि उत्तम जीवन बनाने .. : के लिए आवश्यक और अनिवार्य विधि है। जिसके जीवन में संयम और तप को जितना अधिक महत्त्व मिलता है, : उसका जीवन उतना ही महान् बनता है । संयम और तप सिर्फ साधु-सन्तों की चीजें हैं, इस धारणा को समाप्त किया जाना चाहिए। गृहस्थ हो. अथवा गृहत्यागी, जो भी अपने जीवन को पवित्र और सुखमय बनाना चाहता है, उसे

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