Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 408
________________ ३६६] " घड़ी दो करण्यास महान् ।.. बनाते जीवन को बलवान् ।। - महात्मा आत्म शान्ति नलिए साधना करते हैं, परन्तु उनकी साधना का फल उन्हीं तक सीमित नहीं रहतां । तारा जगत् उस फल मे लाभान्वित होता. है । मंगवान् महावीर ने जो उत्कृष्ट साधना की उसका पाल सारे संसार को मिला । महापुरुप ऐसे कृपण नहीं होते कि अपनी अनुभूतियों को लुकाछिया कर ... रक्खें और दूसरों को उनसे लाभान्वित न होने दें। उनका अन्तःकरण बहुत विशाल होता है और उसमें दया का महासागर उमड़ता रहता है। अतएव जगत् के दुखी और अज्ञानान्धकार में ठोकरें खाने वाले जीवों पर अपार करुणा करके वे अपनी साधना जनित अनुभूतियों को जगत् के सामने प्रस्तुत करते हैं। प्रत्येक सत्पुरुष के लिए यही उचित है कि उसके पास जो कुछ भी साधन-सामग्री है, उससे दूसरों को लाभ पहुँचावे । जिसने ज्ञान प्राप्त किया है, वह दूसरों का : अज्ञान दूर करे, जिसके पास बन है, उसका कर्तव्य है कि वह निर्धनों, अनाथों ।। * एवं आजीविकाहीन जनों की सहायता करे । हस प्रकार अपनी सामग्री से दूसरों को सुख-साता पहुँचाना ही प्राप्त सामग्री का सदुपयोग कहा जा सकता है । . जसे कंजूस श्रीमन्त अपने धन का लाभ दूसरों को नहीं देता, अपने . समाज और अड़ोस-पड़ोस के लोगों की भी वह सहायता नहीं करता, वह अपनी ... दुनियां को अपने और अपने परिवार तक ही सीमित समझता है; मानों दूसरों . . .. से उसका कोई वास्ता ही नहीं; इसी प्रकार जानी जनों ने अगर कंजूसी से काम .. लिया होता तो इस संसार को क्या स्थिति होती ? अाज हमें शास्त्रों के रूप में '' . जो महानिधि प्राप्त है, वह कहाँ से प्राप्त होती? हमें अपने कल्याण का मार्ग . कैसे सूझता ? उस दशा में दुनियां की स्थिति कितनी दयनीय और दुःखमय दन गई होती ? मगर ऐसा होता नहीं है उदारहृदय महात्मा अपने प्रात्मकल्याण में विघ्न डाल कर भी जगत् के जीवों का. पथप्रदर्शन करते हैं । अपने अनमोल वैभव को दोनों हाथों से लुटाते हैं और मानव जाति के श्रेयस् के लिए बत्नशील रहते हैं। .

Loading...

Page Navigation
1 ... 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443