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किसी खल जन को विद्या प्राप्त हो जाती है तो उसकी जीभ में खुजली 'चलने लगती है । वह विवाद करने के लिए उद्यत होता है और दूसरों को नीचा दिखला कर अपनी विद्वत्ता की महत्ता स्थापित करने की चेष्टा करती है । वह समझता है कि दुनिया की समग्र विद्वत्ता मेरे भीतर ही श्रा समाई हैं । मेरे सामने, सब तुच्छ है, मैं रर्वज्ञ का पुत्र हूँ ! किन्तु ऐसा ग्रहकारी व्यक्ति दयनीय हैं, क्योंकि वह अपने अज्ञान को ही नहीं जानता ! जो सारी दुनिया को जानने का दंभ करता है, वह यदि अपने ग्रापको ही नहीं जानता तो उससे अधिक दया का पात्र अन्य कौन हो सकता है ! सत्पुरुष विद्या का अभिमान नहीं करता और न दूसरों को नीचा दिखा कर अपना बड़प्पन जताना चाहता है !
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खल जन के पास लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से यदि धन की ५ प्रचुरता हो जाती है तो वह मद में मस्त हो जाता है और धन के बल से कुकर्म कर्म के अपने लिए गड़हा खोदता है । अगर उसे शक्ति प्राप्त हो जाय तो दूसरों का है, उसे उसी में ही उसकी सार्थकता समझता है ।
को पीड़ा पहुँचाने
अनादि ११
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मगर सज्जन पुरुष की विद्या दूसरों का प्रज्ञानान्धकारे दूर करने में काम प्राती है । उसका धन दान में सफल होता हैं । सज्जन पुरुष धन को दोनों प्रसहायों और अनाथों को साता पहुँचाने में व्यय करता है और इसी में अपने धन एवं जीवन को सफल समझता है । सज्जन की शक्ति दूसरों की रक्षा में लगती है । वह यह नहीं सोचता कि अगर कोई पीड़ा पा रहा है, किसी सबल के द्वारा संताया जा रहा है, तो हमें क्या लेना देना है ! वह जगत् की शान्ति में अपनी शांति समझता है । देश की समृद्धि में ही अपनी समृद्धि समझता है और अपने पड़ोसी के सुख में ही सुख का अनुभव करता है !
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शक्ति की सार्थकता इस बात में है कि उसके द्वारा दूसरों के दुःख को दूर किया जाय । अपनी ओर से किसी को पीड़ा न पहुँचाना अच्छी बात है किन्तु कर्त्तव्य की इति श्री इसी में नहीं है । कर्त्तव्य का तकाजा यह है कि