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श्रुतसागर । श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY )
Aug-2016, Volume : 03, Issue : 3, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR: Hiren Kishorbhai Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
सम्राट अकबर प्रतिबोधक जगद्गुरु आ. श्री हीरसूरीश्वरजी म. सा.
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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क्षमापना पर्व - संदेश
- राष्ट्रसंत प.पू. आ. श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा.
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“खमीयव्वं खमावियन्वं, उवसमियन्वं उवसमावियन्वं
जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा”
(अर्थ - क्षमा मांगनी चाहिए और क्षमा देनी चाहिए, उपशांत होना चाहिए और दूसरों को शांत करना चाहिए. जो कषाय से शांत होता है वह आराधक है, जो कषाय ग्रस्त रहता है वह विराधक है.)
पर्युषण महापर्व को पाकर हमें विशेष करके धर्माराधना करनी चाहिए. भवोभव के कुसंस्कार, वर्षभर के किये हुए पापाचरण का प्रक्षालन करने का एक मात्र अवसर संवत्सरी प्रतिक्रमण है. आत्मा को उस प्रतिक्रमण के योग्य बनाने के हेतु पर्युषण के 8 दिनों में से 3 दिन श्री अष्टाह्निका प्रवचन का श्रवण व 5 दिन श्रीकल्पसूत्रजी के सभी व्याख्यानों का श्रवण अवश्य करना चाहिए.
पर्युषण के प्रारंभिक 3 दिन में अष्टाह्निका के प्रवचन में- 1. पाँच कर्तव्य, 2. वार्षिक 11 कर्तव्य, 3. पौषधव्रत का महत्त्व बताया जाता है. बाद में 5 दिन श्रीकल्पसूत्रजी का वांचन किया जाता है, उसमें तीन अधिकार- 1. जिनेश्वरों के चरित्र, 2. स्थविरावली, 3. सामाचारी के व्याख्यान एवं संवच्छरी के दिन श्रीबारसासूत्र का श्रवण किया जाता है.
साथ-साथ पर्युषण दौरान पाँच कर्तव्य अवश्य करने चाहियें यथा- 1. अमारी प्रवर्तन, 2. साधर्मिक भक्ति, 3. अट्ठम तप, 4. चैत्य परिपाटी, 5. समस्त साधु भगवंतों को वंदन.
इतना करने के पश्चात् आत्मा को कोमल परिणामी बनाकर सर्व जीवों से अंतःकरण पूर्वक क्षमायाचना करके संवत्सरी प्रतिक्रमण करना चाहिए. जिनपूजा, पाँच कर्तव्य एवं प्रवचनादि से भावित-प्रभावित आत्मा ही अन्य जीवों के प्रति करुणावंत बनकर क्षमा चाहने वाला व क्षमा देने वाला बन सकता है. पर्युषण का व समस्त जीवन का सार क्षमा ही है. क्षमा पर्युषण का प्राण है, इसके बिना प्रतिक्रमण व पूजादि आराधना का खास कोई महत्त्व नहीं रहता. सभी मोक्षाभिलाषि आत्मा पर्युषण महापर्व की आराधना में उत्साह सह प्रवृत्त बनें यही शुभाशीष.
पद्मसागर सूटि
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श्रुतसागर
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र
वार्षिक सदस्यता शुल्क- रु. १५०/- रु. १५/
अंक
शुल्क -
શ્રુતસાગર
SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-३, अंक-३, कुल अंक-२७, अगस्त-२०१६ Year-3, Issue-3, Total Issue-27, August-2016
आशीर्वाद
डॉ. उत्तमसिंह
एवं
राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
* संपादक
* सह संपादक
* संपादन निर्देशक
हिरेन किशोरभाई दोशी
श्री गजेन्द्रभाई पढियार
जैन
Yearly Subscription - Rs.150/Issue per Copy Rs. 15/
महावीर
ज्ञानमंदिर परिवार
१५ अगस्त, २०१६, वि. सं. २०७२ श्रावण - सुद-१२
आराधना
अमृतं
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केन्द्र,
कोबा
5
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तु विद्या
प्रकाशक
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७
फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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1 संपादकीय 2 गुरुवाणी
3 Beyond Doubt
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સંતિક સ્તોત્રની એક
પરિચયાત્મક કૃતિ 5 प्रश्नोत्तर
6 वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अहिंसा
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-
अनुक्रम
का महत्त्व और विश्व अहिंसा दिवस
की अवधारणा
7 पार्श्वनाथ विद्यापीठ
ग्रंथमाला एक परिचय 8 पर्युषण दौरान १२ दिन अहिंसा प्रवर्तन के बारे में विवेकहर्ष, परमानन्द, महानन्द, उदयहर्ष को जहाँगीर बादशाह का फरमान
गजेन्द्र पढियार આ. શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિજી Acharya Padmasagarsuri 8
ગણિશ્રી સુયશચંદ્રવિજયજી
सुरेन्द्र सिंह पोखरणा
राहुल आर. त्रिवेदी
*प्राप्तिस्थान
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
तीन बंगला, टोलकनगर,
हॉटल हेरीटेज़ की गली में,
पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७,
फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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358
10
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24
32
* सौजन्य
स्व. श्री पारसमलजी गोलिया व
स्व. श्रीमती सुरजकँवर पारसमल गोलिया की पुण्य स्मृति में हस्ते : चाँदमल गोलिया परिवार की ओर से बीकानेर - मुम्बई (KUSAM-MECD
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संपादकीय
गजेन्द्र पढियार क्षमा व अहिंसा के संदेश को लेकर नजदीक आ रहे पर्युषण महापर्व की पावन प्रभा पर अहिंसाप्रधान लेखों से हराभरा, रोचक विवरणों से युक्त श्रुतसागर का यह अंक आपके कर कमलों में विद्यमान है. इस अंक के लेख आपके हृदय को जीवदयादि भावों से आर्द्र बनाकर पर्युषण की आराधना में बल देंगे. इस अंक मे गुरुवाणी स्तंभ के तहत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीबुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. का लेख प्रकाशित किया गया है. जिसमें सामायिक, समभाव, निस्पृहता व निःसंगता की बातें वाचक को भौतिक आकर्षण से मुक्त करके उच्च आध्यात्मिकता के शिखर पर ले जाने में सक्षम है. द्वितीय लेख में राष्ट्रसंत प. पू. आ. भ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचनांशों की बुक Beyond Doubt से क्रमबद्ध श्रेणी के तहत संकलित किया गया है। ___ अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के तहत इस अंक में गणि श्री सुयशचंद्रविजयजी म. सा. द्वारा संपादित “संतिकरं स्तोत्रनी एक परिचयात्मक कृति” लेख को प्रकाशित किया जा रहा है. संतिकरं एक ऐसी कृति है जिसका स्मरण प्रतिदिन घर-घर में, हर संघ में किया जाता है. उसका गहन परिचय प्राचीन समय में किसी के द्वारा इतना सुंदर पद्यबद्ध करके दिया गया हो वह वाचकों के लिये एक विशेष बात कही जाएगी. कर्ता अज्ञात है, कृति संतिकरं के प्रभाव के बारे में बहुत कुछ बता देती है. पुनः प्रकाशन स्तंभ के तहत न्यायांभोनिधि प. पू. आ. श्री आत्मारामजी महाराज व अंग्रेज विद्वान डॉ. होर्नल के हुए पत्राचाररूप संवाद का लेख 'प्रश्नोतर' दिया गया है. जिससे वाचकों को दोनों विद्वानों की विद्वता व पाटपरंपरा के बारे में सुंदर माहिती प्राप्त होती है. यह लेख “जैन धर्म प्रकाश” विक्रम संवत १९४६ पुस्तक ६ अंक ५ में प्रकाशित हुआ था.
पर्युषण महापर्व के पावन प्रसंग पर हिंसा की भयानकता व अहिंसा की महत्ता को दर्शाने वाला लेख “वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अहिंसा का महत्व और विश्व अहिंसा दिवस की अवधारणा” दिया जा रहा है. जिसके लेखक इसरो के भूतपूर्व वैज्ञानिक श्री सुरेन्द्र पोखरणाजी है, जिन्होंने बहुत ही सटीक व चौका देने वाली माहिती दी है.
हमारे श्रुतसागर में हमने विविध ग्रंथमालाओं का परिचय देने वाली एक लेख शृखला प्रारंभ की है. जिससे वाचकों को पता चले कि कैसी ग्रथमालाएँ है व किस ग्रंथमाला की गरीमा क्या है. प्रकाशित विशिष्ट ग्रंथ क्या है. प्रस्तुत अंक में इस स्तंभ के तहत “पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रंथमाला एक परिचय” लेख प्रकाशित किया जा रहा है, जो ज्ञानमंदिर के पंडित श्री राहुल त्रिवेदी द्वारा लिखा गया है.
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SHRUTSAGAR
August-2016 पर्युषण महापर्व उपलक्ष्य में कु. नीना जैन संपादित पुस्तक- 'मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों (आचार्यों एवं मुनियों) का प्रभाव मे से पू. मुनि श्री विवेकहर्ष, पू. मुनि श्री परमानंद आदि के सदुपदेश से बादशाह जहाँगीर द्वारा जारी किया गया फरमान का अनुवाद दिया गया है. जगद्गुरु श्री हीरसूरि म. सा. व अकबर के फरमान के बारे में तो काफी वाचक जानते ही होंगे, जैन मुनियों के उपदेश से जहाँगीर बादशाहने भी ऐसा फरमान दिया था वह वाचकों व इतिहास रसिकों के लिये विशेष जानकारी व आनंद का विषय होगा.
विशेष में वाचकों को ज्ञात हो कि- वोल्युम-२ इश्यु-१२ मई २०१६ के अंक में प. पू. आ. श्री योगतिलकसूरिजी म. सा. द्वारा संपादित लेख “श्री वीरजिन हालरथु” जो पत्रांक-८ पर अप्रकाशित कृति के रूप में छापा गया था, तथा इस लेख में प. पू. आ. श्रीयोगतिलकसूरिजी म. सा. द्वारा यह भी उल्लेख किया गया था कि- “वर्तमानमां प. पू. दीपविजयजी म.सा. कृत तथा प. पू. अमीयविजयजी म.सा. कृत बे हालरडा मळे छे. हालरडाना भावमांज पू. आत्मारामजी म.सा. कृत स्तवन मळे छे. अहीं आपेला हालरडां जेवाज शब्दोमां पू. रूपविजयजी म.सा. ना नामे पण आवी कृति हस्तप्रतमां मळे छे.” ___ बाद में प्रस्तुत लेख के बारे में पू. मु. श्री सुधर्मसागरजी म. सा. ने कोबा ज्ञानमंदिर को ध्यान दिलाया कि यह कृति अप्रकाशित तो नहीं बल्की कूट कृति है जो सुप्रसिद्ध कवि श्री दीपविजयजी रचित हालरडा कृति का संक्षेपकरण करके हस्तप्रत में लिख दिया गया है. प. पू. श्री वीरविजयजी जैसे उच्च दरज्जे के विद्वान ऐसा नहीं कर सकते, लेकिन किसी अन्य के द्वारा वीरविजयजी का नाम जोडकर हस्तप्रत में लिख दिया गया है. दूसरी बात यह भी है कि हालरडे की मात्र दो-तीन ही नहीं, प्रायः ११ कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है.
इस विषय में हमारा ध्यान आकृष्ट करने हेतु प. पू. मुनि श्री सुधर्मसागरजी म.सा. के हम आभारी है. हमारे द्वारा प. पू. आ. श्री योगतिलकसूरिजी म.सा. के ध्यान में भी यह तथ्य ला दिया गया है और उनकी ओर से भी सहमती दर्शाई गई है. अतः वाचक वर्ग उपरोक्त वास्तविकता को ध्यान में लें.
पर्युषण महापर्व की पूर्व उषा पर कहना चाहते है कि वर्ष दौरान हमारे द्वारा किसी भी प्रकार से किसी को भी मन दुख का कारण हुआ हो या जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी छाप दिया गया हो तो त्रिविध-त्रिविध प्रकार से मिच्छामि दुक्कडं. उदार मन से हमारी क्षमाप्रार्थना का स्वीकार करे. साथ-साथ आपकी पर्युषण आराधना सुंदरतम बनी रहे ऐसी शुभकामना के साथ...
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ગુરુવાણી
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આચાર્ય શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિજી
सामायिक शीर्षक हेठळ योगनिष्ठ प.पू.आ.भ.श्रीबुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराजे समताभाव अने निस्पृहतानी जे वात करी छे ते खूब ज मननीय छे. तेमां पण पराकाष्ठा अने विस्मयनी वात ए छे के साचो साधक मोक्षनी पण स्पृहा नथी करतो. निःसंगता अने निस्पृहतानी आ पराकाष्ठा समजवा माटे ए कक्षानी योग्यता होवी जरूरी छे तेना विना आवी उच्च आध्यात्मिकतानी वात समजवी घणी अघरी पडे. पू. श्रीए खूब ज सरळ अने सादी भाषामां आ , वात समजाववानो प्रयास कर्यो छे, जरूर वाचकोने आमां रुचि थशे. 'ू'
॥ सामायिक |
मोक्ष भवे च सर्वत्र, निस्पृहो मुनि सत्तमः । प्रकृताभ्यासयोगेन, यत उक्तो जिनागमे ॥ १ ॥
अभिधान राजेन्द्र
उत्तम मुनि खरेखर मोक्ष अने भवमां सर्वत्र निस्पृह होय छे. संसार अने मोक्षनी स्पृहा रहित समभावे मुनिवर रहे छे. चक्रवर्तियो, इन्द्रो वगेरेना सुखनी इच्छा पण निस्पृह मुनिने होती नथी. पोताना सहज सुखमां मग्न एवा मुनिने पौद्गलिक सुखनी स्पृहा क्यांथी होय? समभावमां वर्तनार मुनिवरने मोक्षनी स्पृहा न होय तो भवनी तो स्पृहा क्यांथी होय? समभावमां परिणाम पामेला मुनिवरनी खरेखर आवी उत्तम दशा होय छे. समभाव भावित मुनिवरनो आत्मा अन्तरथी जुदा प्रकारनो होय छे. सूकेला नारिएलना गोलाने अने नारिएलना छोडने जेवो संबंध छे तेवो संबंध समभावी मुनिने अने दुनियाना पदार्थोने होय छे. समभावी मुनिवरने कोइ पण जातनी इच्छा, स्पृहा, प्रगटती नथी.
समभावी मुनिवरनी आवी आन्तरिक परिणाम दशा वर्ते छे, तेने सर्वज्ञ वीतराग देव जाणवा समर्थ थाय छे. ज्ञानी समभावी मुनिवरनी तुलना करनार दुनियामां कोइ नथी. आवी उत्तम निस्पृहताना विचारो जेओना मनमां प्रगटे छे तेवा मनुष्योने धन्यवाद घटे छे, अने जेओ निस्पृहताना विचारोने आचारमां मूकीने
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SHRUTSAGAR
August-2016 निस्पृहतानी मूर्ति अथवा आदर्शरूप बने छे तेओने अमारो नमस्कार थाओ.
स्पृहा ए आत्मानो मूळ धर्म नथी पण ते तो रागरूप विभाग परिणाम छे. आत्माने आत्मरूप अवबोध्या पश्चात् आत्मामां समभाव परिणति प्रगटवा मांडे छे अने तेथी स्पृहा रूप विभाव परिणति सेववा रुचि थती नथी. आत्मा विना अन्य वस्तुओ खरेखर जड होवाथी तेमां ज्ञानी मुनिने स्पृहा प्रगटती नथी. मुक्तिने प्राप्त करनार आत्मा छे. मुनिना आत्मामां समभावनी परिणतिनुं एटलं बधुं न व्यापी जाय छे के तेथी मुनिवर सर्वत्र निस्पृह दृष्टिथी देखी शके छे. काया, उपकरणो अने बाह्य पदार्थोना संबंधमां छतां पण उत्तम मुनि खरेखरो निस्पृह होवाथी कोइ पण ठेकाणे मूर्छाथी बंधातो नथी.
मूच्छापरिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा (दशवैकालिक)
मूर्छा ते ज परिग्रह छे एम ज्ञानपुत्र श्री महावीरदेवे कथ्युं छे. निस्पृह मुनिवरने गच्छादिक संबंधमां रहेतां अने जैन धर्मनी सेवा करतां छतां पण अन्तरथी निर्लेपपणु निःसंगपणुं रहे छे. आवा मुनिनी निस्पृहता जगतने अनुकरणीय छे. जगतमां निस्पृह दशानो प्रकाश थाओ. मनुष्य नारकी वगेरे पर्यायोने धारण करनार आत्मा तो वस्तुतः एक छे.
यथैकं हेमकेयूर कुण्डलादिषु वर्तते नृनारकादिभावेषु तथाऽत्मैको निरञ्जनः ॥२४॥ कर्मणस्ते हि पर्याया, नात्मनः शुद्धसाक्षिण: कर्मक्रियास्वभावो यदात्मा तु न स्वभाववान् ॥२५॥ (अध्यात्मसार)
जेम बाजुबंध अने कुंडल वगेरेमां सुवर्ण एकज छे तेम मनुष्य नारकादि पर्यायमां आत्मा एकज मनुष्य, देव, नरक अने तिर्यंच वगेरे कर्मना पर्यायो छे. वस्तुतः शुद्ध साक्षीभूत एवा आत्माना ते पर्यायो नथी. क्रिया स्वभाववाळु कर्म छे. क्रियाथी कर्म थाय छे अने कर्मथी मनुष्यादि पर्यायो थाय छे एम समजीने ज्ञानी विचारे के आत्मानो स्वभाव तेवो नथी. आत्मानो क्रियारूप स्वभाव नथी तेथी ते कर्मथी न्यारो छे. कर्मना पर्यायोमां आत्मानुं अहं ममत्व घटी शके नहि तेमज कर्म पर्यायोमां हुं आत्मा छु एवी भ्रान्ति करवी ते सत्य नथी.
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श्रुतसागर
अगस्त-२०१६ कर्मना पर्यायोने अने आत्माना पर्यायोने भेदज्ञानथी भिन्न भिन्न जाणीने आत्मज्ञानी हंसनी पेठे कर्मना पर्यायोथी मुक्त थइने आत्माना शुद्ध पर्यायोमां एकता लीनता धारण करे छे अने तेथी ते कर्मना पर्यायो नवा धारण थाय तेवी स्थितिमा पोताना आत्माने मूकतो नथी. आत्मज्ञानी शरीरादिक सर्व कर्मना पर्यायोमां शुभाशुभ वृत्तिथी बंधातो नथी. आत्मज्ञानी पोतानामां शुद्ध निश्चय ज्ञाननो प्रकाश पाडे छे अने तेथी अग्निनी पेठे सर्व कर्मने बाळी भस्म करे छे. अग्नि गमे ते पदार्थोना संबंधमां पोतानो उष्ण स्वभाव छोडतो नथी तद्वत् आत्मज्ञानी सर्वत्र शुद्धोपयोगने धारण करी पोतानुं भाव जीवन धारण करी शके छे. अग्निने जेम उधेइ लागती नथी तेम आत्मज्ञानीने कर्मलेप मोहलेपरूप उधेइ लागती नथी. __ आखी दुनियामां कोइ एवी एक वस्तु नथी के जे आत्मज्ञानीने बंधन माटे थाय. आत्मज्ञानी बाह्य जड पदार्थोनी वचमां पोताना असंख्य प्रदेशी आत्माने रहेलो देखे छे तेथी ते सर्व ज्ञेयोनुं ज्ञान करे छे अने पोताना शुद्ध पर्यायोने प्रगट करे छे. कर्मना पर्यायथी भिन्न एवा आत्माना शुद्ध पर्यायोनो उपयोग धारण करनार ज्ञानयोगीने खातांपीतां, उठतां- बेसतां ज्यां त्यां प्रारब्धथी प्रवृत्ति करतां छतां पण अन्तर्थी निवृत्तिरूप शुद्ध सहज समाधि वर्ते छे ते शरीर वा प्राण पर कब्जो मेळववा करतां कर्म पर्यायोथी दूर रही पोताना शुद्ध पर्यायोने प्रगटावीने अनन्त गुण उत्तम चमत्कारोथी पर एवा आत्मानो कब्जो मेळवे छे. शुद्धनय ज्ञान अने तेनी भावनाथी आत्मामां एकत्व प्राप्त थाय छे. इति शुद्धनयायत्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि अंशादि कल्पनाप्यस्य नेष्टायत् पूर्णवादिनः ॥३१॥ (अध्यात्मसार)
ए प्रमाणे आत्मामां प्राप्त थएवं एq एकपणुं ते खरेखर शुद्धनयना ताबे छे. पूर्णवादिने आत्माना अंश वगेरेनी कल्पना पण इष्ट नथी. पूर्णवादी शुद्ध निश्चयथी पोताना आत्मामां परिपूर्णत्व देखे छे अने तेमां एकत्वभावने पामी आनन्दमां मग्न रहे छे. पोताना आत्मानो शुद्ध धर्म प्रगटाववाने माटे आत्मज्ञानीओए शुद्धनयनुं आलंबन लेवु जोइए. आत्माना परिपूर्ण शुद्धधर्मने शुद्धनय दर्शावे छे माटे शुद्धनयनी दृष्टिथी आत्मानुं स्वरूप विचारतां, ध्यावतां, भावतां अशुद्धता टळे छे अने शुद्धता प्रगट थाय छे. पोताने जो के कर्मनी अशुद्धता लागी छे पण पोतानुं शुद्ध स्वरूप प्रगटाववा माटे तो शुद्धधर्मोपयोग धारण करवानी खास जरूर छे.
(वधु आवाता अंके....)
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Beyond Doubt
Acharya Padmasagarsuri Lord Mahavira said, As I came to know your doubt that is without form, in the same way I also know the karma of all living beings. Pleasure and pain are the fruits of the karmas. Though the soul is pure and perfect in its real nature, owing to attachment, aversion, passions sense pleasures and carelessness it acquires heaps of karma, and to enjoy the fruit of its own deeds, takes birth in this world as one of the eighty four lakh kinds of creatures.
For every action there is a definite cause for it. This has also clearly been explained in your scriptures:
“नाकारणं भवेत्कार्यम् नाऽन्यकारणकारणम्। अन्यथा न व्यवस्था स्यात् कार्यकारणयोः क्वचित ॥"
A cause has to be for any action or activity to take place. Without cause there is no effect. For example without clay one cannot make a pot. Also for a particular effect the assigned cause has to be there. On churning water one will never get butter.
Such a law of cause and effect can never be reversed or changed even a little, and also the cause does not follow the effect. From ghee you cannot get butter, from butter yoghurt cannot be got, from curds one does not get back the milk, so also you cannot grow grass from the milk.
There is lot of variety in this world. No two things and persons are alike. In this world king and beggars, masters and slaves, healthy and sick, young and old, men and women, beautiful and ugly, wise and foolish, good and bad all these dissimilarities exist.
Some are happy and some are sad, some live in palaces and some do not even have a proper hut for shelter. There has to be a cause for all these dissimilarities and that cause is termed as ‘KARMA? Hence I say karma is definitely an existing entity”.
Thus Lord Mahavira explained to Agnibhuti about karma and
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श्रुतसागर
अगस्त-२०१६ Agnibhuti's doubt regarding the same was clarified in little time. Such was the powerful speech and knowledge of the lord.
When the meritorious deeds i.e. punya bear fruit, all circumstances become favourable for the soul. An illustration to explain the same is given as under.
Seth Mafatlal's father was a renowned physician. He served a lot of sick people and managed to accumulate plenty of wealth during his life time. When he expired, his son was unable to continue the practice because he could not become adopt with the skill.
The fortune his father left behind also gradually began to dwindle and finally he was put in such a situation where he could not favour himself with his daily bread.
In those days People seldom fell sick because they took care of the kind of food they ate. because there were not many hotels, hospitals also were not required. The root cause of all diseases is hotels where good care is not taken to prepare food like in the homes. If any 'Vaidya’-doctor walked into some one's house, people thought that a brother of the God of death had come.
“वैद्यराज नमस्तुभ्यम् यमज्येष्ठसहोदर। यमस्तु हरति प्राणांस्त्वं पुनः सवसूनसून ॥”
“Oh, Vaidyaraj, we bow to you, because when Yamaraj comes he only takes away the life with him, but when the Vaidyaraj comes he takes away wealth, peace of mind and finally the life also”. As it is said
पेट को नरम, पाँव को गरम, सिर को रखो ठण्डा। फिर यदि डाक्टर आये तो, मारो उसको डंडा॥
But the scene is altogether different to-day. Death has become very cheap and people are least bothered about what is happening in their society and to their relatives and neighbours.
(Countinue...)
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સંતિકરં સ્તોત્રની એક પરિચયાત્મક કૃતિ
સંપા. ગણિશ્રી સુયશચંદ્રવિજયજી
‘આઠ પ્રભાવક પ્રવચનના કહ્યા, પવયણ તે ધુરી જાણ' આ પંક્તિ જિનશાસનના એ આઠ વિશિષ્ઠ પ્રકારના મહાપુરુષોને ધ્યાનમાં લઇ લખાણી છે કે જે મહાપુરુષોનો જિનશાસનની ઉન્નતિમાં સિંહફાળો છે. એકલી વિદ્વત્તાથી જ તેઓ આવું કરી શક્યા થેવું નથી. કોઈક મહાપુરુષે નિમિત્ત શાસ્ત્રના જ્ઞાનથી તો કોઇકે વાદકળાની શાનથી કોઇકે દુષ્કર તપ તપીને તો કોઇકે શ્રેષ્ઠ કાવ્ય રચીને, કોઇકે અંજનચૂર્ણ વિગેરે તંત્રયોગથી તો કોઇકે ઉચ્ચ પ્રકારના મંત્રયોગથી કોઇકે ઉપદેશ આપવાની કુશળતાથી તો વળી કોઇકે સ્વ-પર શાસ્ત્રની સૂક્ષ્મ બુદ્ધિમત્તાથી તત્કાલીન સમાજ ઉપર બહુ મોટી છાપ ઊભી કરી હતી. તેમની પ્રતિભાથી પ્રભાવિત થયેલા રાજા, સામંત વિગેરે તરફથી તેમને ઘણો આદર સત્કાર મળતો તે મહાપુરુષો રાજાદિક પાસેથી શાસન ઉત્કર્ષના કાર્યો કરાવાના ફરમાનો પણ મેળવતા. શાસનના નાના-મોટા પ્રશ્નોનું નિરાકરણ તેઓની પ્રતિભાથી ક્ષણમાત્રમાં થઇ જતું. પ્રસ્તુત કૃતિમાં આપણે આવા જ એક મંત્રપ્રભાવક આચાર્ય શ્રીમુનિસુંદરસૂરિજીની અને તેમના વડે રચાયેલા સંતિકöસ્તોત્ર અંગેની થોડી માહિતી મેળવીશું
તપાગચ્છની ઉજ્જવળ પરંપરામાં જયાનંદસૂરિની પાટ પર સોમસુંદરસૂરિ નામના પ્રભાવક આચાર્ય થયા. તેમણે સં. ૧૪૯૮માં રાણકપુરતીર્થની પ્રતિષ્ઠા કરી. તે આચાર્યની પાટે મુનિસુંદરસૂરિ નામના આચાર્ય થયા. તેઓ સમર્થ વિદ્વાન હતા. તેમણે ત્રિદશ તરંગિણી, યુસ્મક્-અસ્મદ્ સ્તોત્રાવલિ, સંતિકરં સ્તવ વિગેરે નાની-મોટી ઘણી રચનાઓ કરી છે. સંસ્કૃત-પ્રાકૃતની સાથે-સાથે તેઓ મંત્રશાસ્ત્રના પણ પ્રકાંડ વિદ્વાન હતા. જ્યારે તેમને વડિલો પાસેથી સૂરિમંત્રના ૨ જુદા-જુદા આમ્નાયો મળ્યા ત્યારે તેમણે સૂરિમંત્રની અધિષ્ઠાયકદેવીની સહાયથી (પ્રાયઃ સીમંધરસ્વામી પાસેથી) સૂરિમંત્રનો મૂળ આમ્નાય મેળવ્યો હતો. સરિમંત્રની પાંચે પીઠની તેમણે પ્રાયઃ ૨૪ વાર સાધના કરી હતી. તેમના વિશે ઘણી વાતો વિવિધ ગ્રંથોમાં મળે છે. જૈન પરંપરાના ઈતિહાસમાં પૂ.ત્રિપુટી મહારાજ વડે પણ તેમનું ચરિત્ર આલેખાયું છે.
કૃતિ પરિચય-સંતિક સ્તવ અંગે થોડુઃ
પ્રસ્તુત કૃતિ પૂ. મુનિસુંદરસૂરિ વડે રચાયેલ સંતિકરું સ્તવન માહાત્મ્ય પર લખાયેલી ટૂંકી રચના છે. મરકીના ઉપદ્રવનું નિવારણ કરવા શ્રીસંઘની માંગણીથી સૂરિજીએ સ્તોત્ર રચ્યાની તેમજ પૂજ્યશ્રીને સૂરિમંત્ર પ્રાપ્તીની ઘટનાનું વર્ણન કૃતિમાં શરૂઆતની ૪ ગાથામાં કવિ આલેખે છે. પાંચમી ગાથા થી ૧૫મી ગાથા સુધી સંતિકરું
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श्रुतसागर
अगस्त-२०१६ સ્તોત્રના સ્મરણથી થતા લાભોનું સુંદર વર્ણન છે. જેમકે આ સ્તોત્રનું સ્મરણ કરતા લોકોના વિદનોનો નાશ થાય છે, તેમને સંપત્તિની પ્રાપ્તિ થાય છે. તેમના તુચ્છ ઉપદ્રવો તેમજ મારી વિગેરે રોગોનું શમન થાય છે. વળી (કોઈકે કરેલા) મંત્ર, તંત્ર તથા યંત્ર પ્રયોગો નિષ્ફળ જાય છે. સંતિકર સ્તોત્રને ગણવાથી મનુષ્યના શરીરમાં પ્રવેશેલી વક સ્વભાવવાળી યોગિણી પણ યક્ષરાજ વડે દંડાય છે. બીજું ડાકિણી વગેરે આ લોકના ઉપદ્રવ તથા જન્મમરણાદિ પરલોકના દુઃખો આ સ્તવના ભણવાથી હણાઈ જાય છે.
વળી કવિ કહે છે કે જેમ સૂર્યનો ઉદય થતા અંધકારનો નાશ થાય છે, સિંહની ગર્જનાથી જેમ હાથીઓ ત્રાસી જાય છે, પવનના સૂસવાટાથી જેમ વાદળો વિખરાય જાય છે તેમ આ સ્તવના સ્મરણથી સઘળા સંકટો દૂર ચાલ્યા જાય છે.
કલ્પવૃક્ષ, કામધેનું ગાય, તથા ચિંતામણીરત્ન જેવા આ સ્તવનોનો મહિમા પૃથ્વી પર સુવિદિત છે. જે દેશમાં આ સ્તવ વિદ્યમાન છે ત્યાંથી અવમતિ નાસી જાય છે. ઋદ્ધિ-વૃદ્ધિ તથા ઓચ્છવો ત્યાં મંડાય છે. અષ્ટમહાસિદ્ધિ તે સ્તવ ભણનારને પ્રાપ્ત થાય છે. પરંપરાએ તે જીવ મોક્ષમાર્ગને પામનારો બને છે. છેલ્લેથી બીજી ગાથામાં કવિએ મુનિસુંદરસૂરિ રચિત, યક્ષ-યક્ષિણીથી અર્ચિત આ સ્તોત્રના પ્રભાવથી શાંતિ થાઓ એવી ભાવના વ્યક્ત કરી છે. જ્યારે છેલ્લી ગાથામાં સકલ સંઘની રક્ષા કરતા આ સ્તોત્રના યાવત્ ચંદ્ર-દિવાકરપણાની રજૂઆત કરે છે.
સંપાદનાથે પ્રસ્તુત કૃતિની મૂળ હસ્તપ્રત આપવા બદલ પાર્વીચંદ્ર ગચ્છના પૂ. ભૂવનચંદ્રવિજયજી ઉપાધ્યાયનો ખૂબ ખૂબ આભાર.
अज्ञातकर्तृक संतिकरं स्तोत्र महिमा गीत ॥६॥ संति जिणेसर पय पणमेवी, समरवि हीयडइ सरसतिदेवी,
संतिकरस्तव वर्णवऊ ए. १ सकति मारि जगि रचइ निसंक, संघलोक मनि हुइ आसंक,
ततखिणि तिणि गुरु वीनव्या ए. २ तव सिरि मुनिसुदंर गणधार, करुणासागर जगि साधार,
सूरिमंत्र बहु तपि जपइं रे. ३ सूरिंमंत्र-देवी सुपसाईं महामंत्र पामिउ गुरुराइं,
संतिकरस्तव एह रचिउं ए. ४ संतिकरस्तव समरइं चित्ति, तीहचां विघन पलाइं झत्ति,
गुणतां संपति संपजइ ए. ५
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August-2016 क्षुद्र उपद्रव मारि निवारण, सयलह जीवह रक्षा कारण,
संतिकरस्तव जाणिय भणउ.६ जिणि दिणि सयल देव देवत्तण, छंडवि मंडई जिहां तिहां वत्तण,
____ मंत तंत नवि जंत कलइं. ७ जिणि दिणि मणुअ अंगि वलि छल्लई,चउसठि जोगिणि चउपट चल्लई,
आण न मन्नई कह तणी ए.८ तिणि दिणि संतिकर स्तव रख्खइ, सिक्ख जक्ख रक्खसह दक्खई,
अक्खय, सिवसुह पूरवइ ए. ९ डाइणि-डमर हरइं इह लोए, भव-भय भंजइ पुण परलोए,
संतिकरस्तव महिमनिधि. १० दिणचर-किरणे जिम तम नासइ, सिंहनादि जिम मयगल त्रासई
__अल्भ पडल जिम पवणि गलइ. ११ संतिकरस्तवि तिम सकलांइं, वंकट संकट दूरि पलाइं,
___ गुणतां नव निधि संपजइ ए. १२ सुरतरु कामधेनु चिंतामणि, संतिकर स्तव जाइं नामिण,
महीअलि महिमा झगमगइ ए. १३ देसि नयरि जिणि वतरइ एह, अवमइनि सवि नासई तीह,
रिद्धि वृद्धि उत्सव हुई ए. १४ एह भणइ जे नित नर नारि, अष्ट महासिद्धि तीह घर बारि,
सिव-रमणी भलीइं वरइं ए. १५ सिरि मुनिसुंदरसूरिहिं विरचिय, जैन जक्ष-यक्षिणी ए अरचिय,
संतिकरस्तव संतिकरउ. १६ जां आणंदइ चंद्रलउ तु भमारुली, किरणाउलीअ रसाल, जां महीयलि कणयाचल तु भामारुली, नहयल जां सुविसाल, संतिकरस्तव तां नंदउ तु भमारुली, मंगल कमल दणिंद, सयल संघ रक्षा करउ तु भमारुली, पणमवि संति जिणंद. १७
॥ इति श्री संतिकरस्तव वर्णन ॥
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પ્રશ્નોત્તર
જૈન શાસનમાં આત્મારામજી મહારાજ એક એવું ઝળહળતું નામ છે કેજેનાથી ભાગ્યે જ કોઈ અજાણ હોય. સર્વ ધર્મ તત્ત્વવેત્તા, ન્યાયાભાનિધિ, પડછંદ કાયા પ્રતિભાના ધણી એવા વિજયાણંદસૂરિજી જે આત્મારામજીના હુલામણા નામથી વિશેષ જાણીતા છે તેમના આપણા ઊપર અગણીત ઉપકાર છે. તે યુગના અજોડ શાસન પ્રભાવક, વિદ્વાન અને સાથે-સાથે કવિ પણ હતા જેમની સત્તરભેદી પૂજા આજે દરેક સંઘમાં હોંશે હોંશે ગવાય છે.
દેશ-વિદેશના તમામ ધર્મના વિદ્વાનો તેમની વિદ્વતાનો લાભ લેતા હતા. એવા તે યુગ પુરુષનો એક અંગ્રેજ વિદ્વાન સાથેનો પત્રાચાર અત્રે રજુ કરેલ છે જેનાથી જાણવા મળે છે કે એક અંગ્રેજ વિદ્વાનની જૈન ધર્મના મૂલ્યો અને તથ્યો પરત્વેની જિજ્ઞાસા અને જાણકારી કેવી છે! એક સમર્થ જૈનાચાર્ય દ્વારા અપાયેલ ઉત્તરો અને તેનાથી સંતુષ્ટ થયેલ તે વિદ્વાનની જૈનાચાર્ય પ્રત્યેની ભાવના કેવી છે ! તે જાણવા મળે છે. સાથે-સાથે ગુરુ પરંપરા અને ગચ્છ વિષયક માહિતી પણ
_જાણવા મળે છે.
| (અનેક ગુણ સંપન્ન શ્રીમન્મહારાજ શ્રી આત્મારામજી (આનંદવિજજી) એ બંગાલની એશીયાટીક સોસાયટીના સેક્રેટરી ડૉ. હોર્નલના પ્રશ્નોના આપેલા ઉત્તરો)
પ્રશ્ન કરનાર ડોક્ટર હોલને કોઈ શ્રાવક તરફથી પરભાર્યા ખબર મળેલા કે શ્રીમન્મહારાજ શ્રી આત્મારામજી (આનંદવિજયજી) એ એક જૈનમતના સઘળા આચાર્યોની પેઢી બતાવનારું કોઈ પ્રકારનું વૃક્ષ બનાવ્યું છે.
તે ઉપરથી સાહેબે તેની એક નક્કલ મંગાવેલી તે મોકલાવ્યા બાદ તે વૃક્ષ સંબંધી તેમણે પ્રશ્ન પુછેલા તે અસલ પત્ર જેમાં બીજી પણ કેટલીએક જાણવા લાયક હકીકત છે તે ઈંગ્રેજી પત્રનું ગુજરાતી ભાષાંતર આ નીચે આપ્યું છે અને ત્યારબાદ તે પત્રમાંહેના પ્રશ્નોના મોકલાવેલા ઉત્તરો પણ દાખલ કર્યા છે.
ધી. મદરેસા. વેસ્લી સ્કવેર.
તા.૨૮ ફેબ્રુઆરી સને. ૧૮૮૯. શ્રીમહારાજ મુનિ. આત્મારામજી. (આનંદવિજયજી)
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14.
SHRUTSAGAR
August-2016 પ્યારા સાહેબી
તમારા સંવત ૧૯૪૫ ના માઘ શુદિ ૧૪ ના પ્રીતી ભરેલા પત્ર સારૂ તમારો આભાર માનું છું અને તેના જવાબમાં હિંદુસ્થાન સરકારના (હોમ) વિલાયત ખાતાના સેક્રેટરી હોનરેબલ એ. પી. મેકડોનલ સાહેબનો પત્ર જે મને હમણાજ મળ્યો છે તે આ સાથે તમને મોકલવાને મને ખુશી ઉપજે છે. તેમાંથી તમારા
જોવામાં આવશે કે ઋગ્વદ તમોને મોકલવા સારૂ તા.૧૧ મી ફેબ્રુઆરીએ પારકા રાજ્યોની સાથે સંબંધ રાખનાર (ફોરેન) ખાતા તરફ મોકલવામાં આવેલ છે.
તમારા હાલના ઠેકાણાની ખબર મેં સરકારમાં જણાવી હતી તે હું ધારું છું કે તે તમોને એ શરનામે મોકલવામાં આવશે. આ કાગળ તમોને પહોચવા પહેલાં સો વસા તે પુસ્તકો તમોને ક્યારના મળી ચુક્યાં હશે. આ પુસ્તક તમોને મેળવી આપવાને હું શક્તિવાન થયો તેથી મને ખુશી થવાનું-સંતોષ પામવાનું કારણ મળ્યું
છે.
તમોએ તૈયાર કરેલું જૈનમત વૃક્ષ જે મને મોકલ્યું છે તે મેં લક્ષપૂર્વક તપાસ્યું છે. અને તેને બરાબર રદયમાં ઉતારીને તે વિષે થોડાક સવાલ આપને કરવા ઈચ્છું છું.
૧. મધ્યનું થડ જે તપાગચ્છની પેઢી બતાવે છે તેમાં તમે જેને છેલ્લા બતાવ્યા છે અને ૬૯મે પાટે છે, નામ વિજયરાજસૂરિ લખ્યું છે તેઓ હાલ હયાત છે? જો હોય તો હાલ ક્યાં છે? કદાપિ તેઓ હયાત ન હોય તો હાલમાં તેમની ગાદીએ કોણ છે? અને તમે તપાગચ્છને મધ્યવૃક્ષ કેમ કર્યું છે અથવા ઠરાવ્યું છે.
૨. ખરતર ગચ્છની ગાદીએ છેલ્લા તમે ૭૦મે પાટે, “શ્રી જિનહર્ષસૂરિ લખ્યા છે. પણ તેઓ સંવત ૧૮૫૬માં ગાદીએ આવ્યા તેથી તેઓ હાલ હયાત હશે નહીં માટે તેમના પછી કેટલા સૂરિઓ આચાર્યો) તેમની ગાદીએ થયા અને તેમના શા શા નામ છે તે જણાવો તથા હાલમાં ખરતર ગચ્છની ગીદીએ ઉપરી કોણ છે? તે જણાવો.
મેં ગઇ કાલે ખરતરગચ્છની એક પટ્ટાવલી જોઈ છે તેમાં ૭૧મે પાટે સંવત ૧૯૧૫ના વર્ષમાં જિન મુક્તિસૂરિ બતાવ્યા છે. આ ખરું થઈ શકવા સંભવ છે કારણ કે સંવત ૧૮૫૬ અને ૧૯૧૫માં તેટલો તફાવત છે.
૩. એક લીટીને છેડે તે વૃક્ષમાં તમારું નામ જોવામાં આવે છે; જે શાખા અગર ગચ્છના તમે છો તેનું નામ શું છે? એ શાખા તપાગચ્છનો એક ફોટો જણાય 1. એ પત્રની ઇંગ્રેજી ગુજરાતી નક્કલ આ પત્ર સાથે જ દાખલ કરી છે. 2.આ પુસ્તકો મળી ચુક્યા સંબંધી ખબર વાચકો અગાઉ વાંચી ગયેલા છે.
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श्रुतसागर
अगस्त-२०१६ છે. અને વળી તમારી પોતાની લીટીમાં નીચે પ્રમાણે નામો જણાય છે.
મુનિ મણિવિજય ગણિ, મુનિ બુદ્ધિવિજય, મુનિ ગુલાબવિજય ગણિ, મુનિ સિદ્ધિવિજય, મુનિ મુક્તિવિજય ગણિ, મુનિ વૃદ્ધિવિજય, મુનિ નિત્યવિજય, મુનિ આત્મારામ (આનંદવિજય).
આ પુરુષોને એક-બીજા સાથે કેવા કેવા પ્રકારનો સંબંધ છે તે મને બરાબર સમજાયું નથી. માટે સમજાવશો.
એ જૈનમત વૃક્ષમાં બધા ગચ્છની પેઢી બતાવેલી છે કે કેટલાકની બતાવેલી છે?
આ સવાલોના સંપૂર્ણ જવાબ મેહેરબાની કરી મોકલાવશો તો મહારા ઉપર ઘણો ઉપકાર થશે.
મને માનજો તમારો ખરો
એ.એફ. રૂડોલ્ફ. હોર્નલ. (સાથે મોકલેલા પત્રની ઈંગ્રેજી નક્કલ)
Calcutta, the 26th February My dear Dr. Hoernle.
In reply to your letter dated the 9th instant I have the pleasure to inform you that a copy of professor max Muller's Edition of the Rigveda was received from the India Office for the jain muni Atmaramji and forwarded to the foreign Department on the 11th instant for transmission to him. The cnclosure of your letter is returned herewith.
Yours sincerely, (સદરહુ પત્રનું ગુજરાતી ભાષાંતર)
કલકત્તા.
તા. ૨૬ મી. ફેબ્રુઆરી ૧૮૮૯ મહારા પ્યારા ડાક્તર હોર્નલ
તમારા તા.૧૯મી ફેબ્રુઆરીના પત્રના જવાબનાં તમને લખવાને ખુશી ઉપજે છે કે પ્રેફેસર મોક્ષ મુલરના ઋગ્વદની પ્રત વિલાયતથી હિંદુસ્થાન ખાતાની ઓફીસ તરફથી જેની મુની, આત્મારામજીને અર્પણ કરવા સારૂ આવી હતી,
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August-2016 અને તે તા.૧૧મીએ પારકા રાજ્ય ખાતાની ઓફીસને મુનિને પહોચાડવા સારૂ સોંપવામાં આવી છે.
તમારો ખરો.
એ. પી. મેકડોનલ. પ્રારંભના પત્ર માંહેના પ્રશ્નોના ઉત્તરો
૧. મધ્ય ભાગમેં તપાગચ્છ કે મુનિયોની પરંપરાય લિખનેકા યહ પ્રયોજન હૈ કે પ્રથમ શ્રીસુધર્માસ્વામી કે ગચ્છકા નામ નિગ્રંથગચ્છ થા. તિસહી નિર્ગથગચ્છકા નામ શ્રી મહાવીરસે પીછે નવમે પ સુસ્થિત સુપ્રતિબુદ્ધ નામક આચાર્યસે કૌટીકગચ્છ દૂસરા હુઆ. શ્રી મહાવીરજીસે ૧૫મે પટ્ટે શ્રી ચંદ્રસૂરિ નામકે આચાર્ય બહુ પ્રસિદ્ધ પુરૂષ હુએથે.
ઇસ વાસ્તે કૌટીકગચ્છકા હી નામ તીસરા ચંદ્રગચ્છ હુઆ. સોલમે પસામંત ભદ્રસૂરી હૂએ વે બનમેં હી રહતે થે ઈસ વાતે ચંદ્રગચ્છકો નામ વનવાસીગચ્છ પ્રસિદ્ધ હુઆ. કિતનેક વનવાસીગચ્છકા નામ નાણકગચ્છભી લિખતે હૈ.
વિક્રમા ૮૯૪ વર્ષે છત્તીસમેં પઢે શ્રી સર્વદેવસૂરિ કોં વટવૃક્ષ કે હેઠે આચાર્ય પદ દીના. ઈસ વાતે વનવાસીગચ્છકા નામ વટગચ્છ હૂઆ, પીછે વગચ્છમેં સમકાળ એક હી સાથ ચૌરાસી જૈન સાધુઑકો આચાર્ય પદ દીનાથા ઔર ઇસ ગચ્છકા બહુત વિસ્તાર હુઆ. ઈસ વાતે વટગચ્છકા નામ વૃહતગચ્છ હુઆ. ૪૪મે પ શ્રી જગશ્ચંદ્રસૂરિજી હૂએ. જગશ્ચંદ્ર સૂરિજીને શિથિલાચાર છોડકે ક્રિયા ઉદ્ધાર કરા તબ ચૈત્રવાળા ગચ્છ કે આચાર્ય શ્રીદેવભદ્રગણિ કે પાસ ઉપસંપત્ (ફરકે દીક્ષા લીની. પરંતુ મૂળમેં તો બૃહત્ ગચ્છ હી થા.
શ્રી પાર્શ્વનાથજીકે ચોથે પટ્ટે કેશીકુમાર હૂએ તિનસે ગચ્છકા નામ ઉપકેશગચ્છ હૂઆ. કિસ ઉપકેશગચ્છર્સે કોરંટ ગચ્છ નીકલા ઔર કોરંટગચ્છર્સે ચૈત્રવાલ ગચ્છ નીકલા, તિસ ચૈત્રવાલગચ્છક સંપ્રત્તિ કાળમેં વૃદ્ધ પોશાળીઆ તપગચ્છ કહતે હૈ. ઔર શ્રીજગરચંદ્ર સૂરિજીને બહુત તપ કરા ઇસ વાતે આઘાટપુર, રાણાને વૃહદ્ગચ્છકા નામ તપગચ્છ (તપસ્વીગચ્છ) પ્રસિદ્ધ કરા. પરંતુ મૂળમેં તો વૃહત્નજી નામ થા.
વૃહત્નચ્છમેં સે હી ખતર ૧ પૂનમીયા ૨ અંચલીયા ૩ આગમીયા ૪ સાઢ પૂનમીયા ૫ પાર્શ્વચંદ્રાદિ ગચ્છ નીકલે હૈ. ઔર ઈસ કાલમેં ભી તપગચ્છકા સમુદાય બહુત હૈ. ઇસ વાતે યહ ગચ્છ મધ્ય ભાગમેં લિખા હૈ. ઔર ઇસ વૃક્ષકા
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श्रुतसागर
अगस्त-२०१६ લિખને વાલા મેંભી ઈસી તપગચ્છમેં હું. ઈસવાસ્તે ભી મધ્ય ભાગમેં અપને બડે પુરૂષકો લિખા હૈ. પરંતુ ખરતરગચ્છવાળા કોઈ ઈસી તરેહકા વૃક્ષ લિખે તબ વો અપની પટ્ટાવળી મધ્ય ભાગમેં લિખે તો હમ ઐસે લેખકો વિરૂદ્ધ નહીં માનતે હૈં.
ઊ.૧ આખીર શાખાકા આચાર્ય વિજ્યરાજસૂરિ વિદ્યમાનહૈ. ઔર દેશાનદેશ ફિરતે હૈં. સ્થાનકા નિયમ નહીં હૈ.
ઊ.૨ ખરતરગચ્છ મેં ૭૦મે પટ્ટે જીનર્ણસૂરિ, તિનકે પટ્ટે ૭૧મે શ્રી જિનમહેંદ્રસૂરિ હુએ હૈં ઔર તિનકે પટ્ટે ૭૨મે જિનમુક્તિસૂરિ હૈ.
ઉ.૩ શ્રી મણિવિજય ગણીને તીન શિષ્ય-બુદ્ધિ વિજય ૧, ગુલાબ વિજય ૨, સિદ્ધિ વિજયે ૩. બુદ્ધિ વિજય કે ચાર મુખ્ય શિષ્ય-શ્રી મુક્તિ વિજય ગણિ ૧ વૃદ્ધિ વિજય ૨, નિત્ય વિજયે ૩, આત્મારામ આનંદવિજય ૪. મૈં તપગચ્છમેં હું.
ઊ.૪ જૈનમતમેં શ્રી મહાવીરજીસે પીછે બહુતગચ્છ ઔર શાખા હૂઈ હૈ. તિનોકી પટ્ટાવલીયાંથી પૃથક પૃથક બહુત હૈ. ઔર બહુત પટ્ટાવલીયાં તો ઈસ મધ્યકે ચંદ્રગચ્છ, વગચ્છ, વૃહત્નચ્છસે હી નીકલી હૈ. ઔર વજસ્વામી કે સમય મેં બારાવર્ષ કે દુભિક્ષકાલમેં બહુત ગચ્છ ઔર કુલ ઔર શાખાએ વ્યવચ્છેદ હો ગઈથી ઔર પુરાને ગોમેં ઉપકેશગચ્છ હૈ ઔર પુરાને કુલોમૅસે એક પ્રશ્નવાહન કુલ રહાથા સોભી ઇસ કાલમેં વ્યવચ્છેદ હો ગયા હૈ. - વજસ્વામી કે શિષ્ય વજસેનસૂરિ, તિનકે ચાર શિષ્યોં સે ચાર કુલ હૂએ- ચંદ્ર ૧, નાગૅદ્ર ૨, નિવૃત્ત ૩, વિદ્યાધર ૪, સંપ્રતિ કાળમેં એક ચંદ્રકુળ કે તપા ખતરાદિ ગચ્છ રહ ગયે હૈ. શેષ તીન કુળ ભી વ્યવચ્છેદ હો ગયે હૈ. જે તીન કુલ ૭૦૦ વર્ષ કે પહિલે ઇસ ભરતખંડમેં થે પરંતુ અબ નહીં હૈ. ઇસ વાસ્તે સર્વ ગચ્છોં કા સ્વરૂપ ઇસ વૃક્ષમેં નહીં લિખા હૈ. ઔર ઇસસે અધિક ગચ્છકી પટ્ટાવલીઓ કા લેખ મુઝકો મિલા નહીં ઇસ વાસ્તે નહીં લિખા, ઐસા સમજ લેના.
(ચારે પ્રશ્નોનો ઉત્તર સંપૂર્ણ.) (“જૈન ધર્મ પ્રકાશ” વિક્રમ સંવત ૧૯૪૬ પુસ્તક ૬ અંક ૫ માંથી સાભાર.)
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वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे अहिंसा का महत्त्व और
विश्व अहिंसा-दिवस की अवधारणा
सुरेन्द्र सिंह पोखरणा (भू.पू. वैज्ञानिक, इसरो) आज अहिंसा और जीवदया की सबसे अधिक आवश्यकता है। सन १९७० से २०१० के चालीस वर्ष के अंतराल में पृथ्वी के आधे जीव-जंतु और पशु नष्ट हो गये। हर वर्ष पृथ्वी से लगभग २५,००० जीवों की प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं, जैसे कि आजकल काला हिरन, तितलियाँ, बिच्छू, सांप, चिड़िया वगैरह कम देखने को मिलते हैं। मेडिटेरनियन समुद्र (यूरोप और अफ्रीका के बीच) पर स्थित लगभग २० देशों द्वारा हर वर्ष लगभग २५० लाख चिड़ियाओं की हत्या की जाती है। एक और अन्य वेबसाइट के अनुसार हर वर्ष मांसाहार के लिये लगभग १५,००० करोड़ (१५० बिलियन) जीवों की हत्या की जाती है। इस वेबसाइट में एक काउण्टर लगा है जो हर समय में मरनेवाले जीवों की संख्या देता है। उसके नीचे दी गयी तालिका में लेखक ने जब दो मिनट तक इस वेबसाइट को देखा, उस दौरान पूरे विश्व में मारे गये जीवों की संख्या दी गयी है
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार इस पृथ्वी पर बढ़ते हुए प्रदूषण, जनसंख्या और वातावरण में बदलाव के कारण, अब सिर्फ छः वर्ष बचे हैं, जिसके बाद, 1.जब http://www.adaptt.org/killcounter.html वेबसाइट खोली उसके दो मिनट के अंतराल में मारे गए जीवों की संख्या यानि जुलाई २९ को दोपहर में ०४:४० से ०४:४२ के बीच के २ मिनट में निम्न थी३३६,४०१ समुद्री जीव १७१,५४६ मुर्गियाँ ८,४५५ बतख
४,६५० सूअर ३,२०३ खरगोश
२,५८३ तुरकेयस (एक प्रकार की चिड़िया) १,९९२ एक तरह का हंस १,९२५ भेड़ १,२९० बकरे
१,०९१ गायें और बछड़े २४३ चूहे
२३५ कबूतर और दूसरी चिड़ियाएँ
५२ कुत्ते १५ बिल्लियाँ
१५ घोड़े ११ गधे और खच्चर
७ उँट वगेरह
६० भैंसे
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अगस्त-२०१६ हमारी प्यारी पृथ्वी पर ऐसे परिवर्तन होना शुरू हो जायेंगे जिनको वापस ठीक करना असंभव हो जायेगा।
एक और अन्य वैज्ञानिक शोध के अनुसार हमारी पृथ्वी धीरे-धीरे छठे विलोपन (extinction) की ओर बढ़ रही है। पूर्व में पृथ्वी पर पाँच मुख्य विलोपन (extinctions) हो चुके हैं। यानि ऐसा पहले पाँच बार हुआ है जब पृथ्वी पर बसनेवाली प्रजातियों की संख्या में जबरदस्त कमी हुई थी। वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि पूर्व के ये विलोपन प्राकृतिक थे परंतु छठा विलोपन जिसकी
ओर हम तेजी से बढ़ रहे हैं वह मुख्यरूप से मनुष्यों के क्रिया-कलापों के कारण होगा। छठे विलोपन का मुख्य कारण मनुष्यों के द्वारा वातावरण और जलवायु में परिवर्तन, जीव जन्तुओं के निवासों को नष्ट करना, बढ़ता हुआ प्रदूषण, बढ़ता हुआ मांसाहार, यातायात के साधनों द्वारा होनेवाली जीवों की हानि, विशेषकर समुद्री जीवों का मारा जाना वगैरह। ___ज्यों ज्यों औधोगिक विकास हो रहा है, पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। नए नए खतरनाक हथियारों और रासायनिक हथियारों को बनाया जा रहा है जिनसे लाखों लोगों को मारा जा सके या अर्ध-विक्षिप्त किया जा सके। एक अनुमान के अनुसार, आज विश्व के सब देश मिलकर हथियारों पर इतना खर्च कर रहे हैं कि उस राशि से पूरे विश्व की गरीबी और भुखमरी मिटायी जा सकती है। ___अहिंसा एक ढंग से आर्थिक तंत्र से भी जुडी हुई है। जैसे कि अगर समाज में आर्थिकरूप से ज्यादा भेदभाव होंगे तो अहिंसा के भाव पैदा नहीं हो सकते हैं। वर्तमान में कई देशों द्वारा जो हिंसा का रास्ता अपनाया जा रहा है, उसके पीछे कहीं न कहीं आर्थिक असमानता और आर्थिक भेदभाव के कारण स्पष्ट नजर आते हैं। ___ आजकल विकास का अर्थ सिर्फ आर्थिक विकास हो गया है। जैसे कि अगर किसी देश की आर्थिक विकास की दर ६ या ७ प्रतिशत है तो कोई ये नहीं पूछता है कि उस देश के आध्यात्मिक विकास की दर क्या है ? पर ऐसा लगता है कि विश्व में ज्यों ज्यों आर्थिक विकास हो रहा है, उतना ही वातावरण प्रदूषित
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August-2016 हो रहा है तथा जीवों की संख्या कम होती जा रही है। ऐसा लगता है कि अब आध्यात्मिक विकास की दर को बढ़ाने पर ज्यादा ध्यान देने कि जरूरत है। ___ अहिंसा का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है। अगर अमेरिका के सभी ३२ करोड़ नागरिक सिर्फ एक दिन के लिए केवल शाकाहार भोजन करें, तो पर्यावरण को निम्न फायदा होगा-४,००० करोड़ लीटर पानी की बचत होगी, पशु बचेंगे तो प्राकृतिक खाद में वृद्धि होगी जिस कारण खेतों में अन्न की पैदाइस बढेगी, पौष्टिक गोरसादि मिलने पर आरोग्य बढेगा, २८ करोड़ लीटर गैस की बचत होगी और ३३ टन एंटीबायोटिक की बचत होगी। ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन में कमी आएगी, जिसकी मात्रा होगी १२ लाख टन कार्बन डाई-ऑक्साइड, ३० लाख टन मिटटी का भूस्खलन, ४५ लाख टन पशुओं का मलमूत्र और ७ टन अमोनिया गैस वगेरह । शायद इसीलिए अमेरिकी राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा ने सभी अमरीका के नागरिकों को आह्वान किया है कि वे सप्ताह में एक बार मांसाहार का त्याग करें और जीवों कि रक्षा करें तथा पर्यावरण को बचाने में सहयोग करें।
ईसाई धर्मगुरु श्री पोप फ्रांसिस ने १८ जून २०१५ को पूरे विश्व के नागरिकों से अपील की है कि वे प्राणियों की रक्षा के लिए अपने खाने की आदतों को बदलें, क्योंकि इससे वातावरण को भी भारी नुकसान हो रहा है। ___ अहिंसा और जीव-दया सभी धर्मों का मूलमंत्र है। हिन्दू धर्म , जैन धर्म , बौद्ध धर्म , सिक्ख धर्म , ईसाई धर्म , इस्लाम धर्म , पारसी धर्म व अन्य समस्त धर्मों में अहिंसा और दया का महत्त्व किसी न किसी रूप में बताया गया है।
जैन धर्म में विशेषकर अहिंसा का महत्त्व है, विश्व को अहिंसा का संदेश देनेवाले भगवान महावीर के शासन में आ. श्री हीरविजयसूरीश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से मुगल सम्राट अकरबर ने पर्युषण में जीव-हिंसा निषेध का फरमान जारी किया था। अहिंसा की आवश्यकता मात्र हिंदुस्तान में ही नहीं, पूरे विश्व में है।
वैसे अहिंसा जीवनभर सभी को आदरपूर्वक अपनाने जैसी बात है। फिर भी कम से कम पर्युषण पर्व, भगवान महावीर जन्मकल्याणक आदि दिनों में
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अगस्त २०१६
तो खासकर के उसका पालन होना चाहिए। आज विविध प्रकार के दिन मनाये जाते हैं, उसी तरह अभी कुछ समय पूर्व यानि २१ जून २०१६ को विश्वभर में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया था जिसे सयुंक्त राष्ट्र संघ ने दो वर्ष मान्यता दी थी। उसी प्रकार सयुक्त राष्ट्र संघ ने २००७ में घोषणा की कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन २ अक्टूबर को “विश्व अहिंसा दिवस” के रूप में मनाया जाय । कम से कम एक सर्व धर्म सभा का आयोजन हर ग्राम, सब कस्बों और शहरों में करना चाहिए । अन्य देशों में भी ऐसे कार्यक्रम हों उसके लिए पहल करना चाहिए। अहिंसा के बारे में उपलब्ध साहित्य को घर-घर पहुँचाना चाहिए। अहिंसा विषय पर लघु फिल्मों का निर्माण करना और सब लोगों को दिखाना चाहिए। एक दिन के लिए उपवास या व्रत करना, मौन रखना, कम से कम एक जीव को बचाने का संकल्प लेना, एक दिन के लिये स्वतः मांसाहार का त्याग करना। एक वर्ष में कम से कम एक चीज का त्याग करना जिसको बनाने में कहीं न कहीं किसी प्राणी को कष्ट दिया गया हो या उसे मारा गया हो। जैसे की चमड़े के बने हुए बटुवे, बेल्ट इत्यादि । विश्व अहिंसा दिवस के दिन किसी भी मित्र या रिशतेदार को दुःख नहीं देना चाहये।
-
किसी न किसी निमित्त से विश्व में अहिंसा का पालन होता है तो वह आखिर समस्त मानव कल्याण के हित में ही होगा। संचार माध्यमों जैसे कि टेलीविज़न, इंटरनेट, ईमेल, पत्र-पत्रिकाओं, फेसबुक, ट्विटर द्वारा अहिंसा और उससे जुड़े पहलुओं का प्रचार करना चाहये। दूसरे संगठनों से भी निवेदन किया जाय कि वे भी अपने-अपने शहरों और गाँवों में जोर-शोर से अहिंसा का प्रचार प्रसार करें।
विश्व के सभी देशों के प्रतिनिधि जो दिल्ली में रहते हैं और सभी भारतीय संसद सदस्यों को, मुख्य मंत्रियों को और अन्य जनप्रतिनिधियों को इसके बारे में निवेदन करना चाहिए ।
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सयुंक्त राष्ट्र संघ (U N O) विश्व के सभी देशों को हत्या, आतंक एवं युद्ध बंद करने की अपील करे ।
विश्व में कहीँ भी इस दिन किसी को भी फांसी न दी जाय ।
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August-2016 जिन अपराधियों को लंबी सजा हुई है पर उनका हृदय परिवर्तन हुआ है या उनके व्यहार में सुधार आया हो तो उनकी सजा में कटौती या उन्हें मुक्त करने पर विचार किया जाये।
सयुंक्त राष्ट्र संघ (U N O) से प्रार्थना है कि इस दिन विश्व के सारे देशों से विशेष अपील करे कि वे आने वाले पूरे वर्ष में हिंसा के स्थान पर अहिंसक विधियों को उपयोग करे, अहिंसा के सिद्धांतों को बढ़ावा दे और अहिंसा को व्यवहार में लाये।
अहिंसा के भाव की वृद्धि के लिये विश्व के सभी शस्त्र बनाने वाले कारखाने उस दिन शस्त्र बनाना बंद रक्खें।
सारे विश्व के बूचड़खाने एक दिन के लिए बंद रक्खे जायें ऐसा अनुरोध सभी बूचड़खानों के मालिकों से किया जाय और उन्हें अहिंसा के महत्त्व और विशेषकर पर्यावरण से इसका क्या सम्बन्ध है, उसके बारे में जानकारी दी जाय।
युवा वर्ग एवं बच्चों में अहिंसा की भावना पनपे ऐसे संवाद, नाटक, प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन किया जाय।
पर्यावरण दुषित करना भी हिंसा है, अतः इस दिन पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले कार्य बंद हों।
मानव का पशु-पक्षी एवं पौधों और वनस्पितयों से भी प्यार बढे ऐसे वातावरण के निर्माण की शुरूआत की जाय।
सयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) के द्धारा अहिंसा पर श्रेष्ठ कार्य करनेवालों को प्रमाण पत्र और विशेष पुरुस्कारों से सम्मानित किया जाय। तथा देश की एवं राज्य की सरकारें भी अहिंसा का कार्य करने वाले लोगों के लिए कुछ पुरुस्कारों की घोषणा कर सकती हैं।
संदर्भ
1. http://www.un.org/apps/news/story.asp?NewsID=22926&Cr=no __n&Cr1=violence#.Vb9IQbWN36Y 2. http://www.telegraph.co.uk /news/earth/wildlife/11129163/Half
of-worlds-animals-have-disappeared-since-1970.html and
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श्रुतसागर
अगस्त-२०१६ 3. http://wwf.panda.org/about_our_earth/biodiversity/biodiversity/ 4. http://www.takepart.com/article/2016/03/10/25-million-birds
are-illegally-killed-mediterranean-every-year 5. http://www.adaptt.org/killcounter.html 6. http://www.vegetarismus.ch/info/bilder_oeko/landuse_en.jpg 7. https://en.wikipedia.org/wiki/Environmental_impact_of_meat_
production 8. http://www.alternet.org/story/134650/the_startling_effects_of_
going_vegetarian_for_just_one_day. 9. Elizabeth Kolbert (2014) The sixth Extinction, Bloomsbury
Publishing India Private Limited 10.https://www.theguardian.com/environment/radical-conser
vation/2015/oct/20/the-four-horsemen-of-the-sixth-massextinction
आभार : में पूज्यनीय आचार्य श्री राज्ययश सूरीश्वर महारासाहब का अत्यंत आभारी हूँ जिन्होंने अंतराष्ट्रीय अहिंसा दिवस को मनाने के लिए बहोत ही व्यावहारिक और महत्त्वपूर्ण सुझाव कल (अगस्त १०) को दिए हैं जिन्हें इस लेख में शामिल कर लिया गया है।
પૂ. મુનિશ્રી પદ્મરત્નસાગરજી મ.સા. સમાધિપૂર્વક કાલધર્મ પામ્યા
રાષ્ટ્રસંત પ.પૂ. આ.ભ. શ્રીપદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા. ના સરલ સ્વભાવી સમતાસાધક શિષ્યરત્ન પૂ. મુ. શ્રી પદ્મરત્નસાગરજી મ. સા.પુષ્પદંત શ્રી જૈન સંઘ સેટેલાઈટ મધ્યે વ્યાધિજન્ય ઉપક્રમ લાગતાં નાની વયે સુંદર સંયમની આરાધના પૂર્વક મનુષ્ય સંબંધી આયુષ્ય પૂર્ણ કરી દિ. ૨૬/૭/૨૦૧૬ ના રોજ સમાધી પૂર્વક કાળધર્મ પામ્યા. પૂ. ગુરુભગવંતની પાવન નિશ્રામાં ઉચિત ઉત્તર ક્રિયા કરી પાલખી વેજલપુર ખાતે લઈ જવામાં આવી જેમાં વિવિધ શહેર અને સંઘોમાંથી અનેક મહાનુભાવો જોડાયા હતા. પૂજ્યશ્રી શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્રથી પ્રકાશિત થતા લઘુ પંચાંગના કાર્ય સાથે સંકળાએલા હતા. પૂજ્યશ્રીએ કૈલાસપદ્મ સ્વાધ્યાય સાગર કુલ ૯ ભાગ તથા અન્ય પણ બહુજનોપયોગી પ્રકાશનો સંપાદિત કરી સંસ્થાથી પ્રકાશિત કરાવ્યા હતા. જેમનો શ્રી સંઘમાં ખૂબ જ આદર થયો હતો. આવા મુનિશ્રીના ચરણોમાં ભાવભર્યા શ્રદ્ધા કુસુમ અર્પિત કરીએ છીએ.
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रंथमाला एक परिचय
राहुल आर. त्रिवेदी 'जैनं जयति शासनम्' इस वाक्य से ही हमें अनुभूति होती है कि जैन धर्म शाश्वत है। इसमें कोई शंका नहीं है। कहा गया है 'धर्मो रक्षति रक्षितः' अर्थात् जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा धर्म ही करता है। धार्मिक कार्यों के अनेक मार्ग हैं, उनमें शास्त्ररक्षा ही उत्तम धर्म माना गया है। इस प्रकार का कोई भी कार्य प्रभुकृपा से ही सम्पन्न होता है। __ऐसा ही एक कार्य २३वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ की जन्मभूमि काशी में हुआ। जहाँ जैन व प्राच्य विद्या के केन्द्र के रूप में पार्श्वनाथ विद्यापीठ की स्थापना की गई। जहाँ से कई विद्वानों ने सरस्वती की उपासना कर समाज में ख्याति प्राप्त की है। बहुत छात्रों ने एम.ए. तथा पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर जैन धर्म का आचार-विचार व उद्देश्य विश्वभर में फैलाया है।
इस पार्श्वनाथ विद्यापीठ से बहुत से ग्रंथों का प्रकाशन व संपादन हुआ है। इस कार्य में बहुत से विद्वानों ने परिश्रम कर शोधलेखों, शोधप्रबंध व ऐतिहासिक ग्रंथों का प्रकाशन किया है। इससे देश-विदेश में इसकी ख्याति हुई है और होती रहेगी। पार्श्वनाथ संस्थान की स्थापना एवं उद्देश्य: ___ आज से लगभग ७९वर्ष पूर्व बनारस में श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम की स्थापना हुई थी। स्थापना के समय लक्ष्यबिन्दु यह था कि वर्तमान जैन समाज को ऐसे विद्वानों की आवश्यतकता है जो अपने विषय की गहराई में उतरे हों, जिनकी लेखनी में शक्ति हो और वाणी में ऐसा प्रभाव हो जो विश्वकल्याण को अपने जीवन का ध्येय बना सके।
ऐसे लक्ष्यबिंदु से पार्श्वनाथ विद्याश्रम की स्थापना 'श्री सोहनलाल जैन धर्म प्रचारक समिति-अमृतसर' की ओर से सन् १९३७ में की गई थी। प्रस्तुत समिति पंजाब के सुप्रसिद्ध जैनाचार्य पूज्य श्री सोहनलालजी महाराज की स्मृति में स्थापित हुई । जिसके मूल प्रेरक पंजाब केसरी जैनाचार्य पूज्य श्री काशीरामजी
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अगस्त २०१६
महाराज हैं और दिशा निर्देशन तथा मुख्य प्रयत्न भारतभूषण शतावधानी मुनि श्री रत्नचंद्रजी महाराज का है। अतः शतावधानीजी को चिरस्थायी बनाने के लिए उनके नाम पर विद्याश्रम के अंदर 'शतावधानी रत्नचंद्र पुस्तकालय' की स्थापना की गई।
अब बात यह थी की इस हेतु से ऐसा स्थान पसंद करना था जो विद्याओं का विशाल केंद्र हो। काशी पंडितों की नगरी रही है और हिंदु विश्वविद्यालय ने उसके महत्त्व को बढ़ाया था । यहाँ प्राच्य और प्रतीच्य विद्याओं का सुंदर मेल होने से इसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हो गई।
इसी प्रकार इस संस्था को भी उच्च स्थान प्राप्त हुआ। इस संस्था का नामकरण भी प्रभावित हुआ। क्योंकि काशी भगवान पार्श्वनाथ की जन्मभूमि है। इसलिए उन्हीं की पवित्र स्मृति में संस्था का नाम श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम रखा गया। यह नाम श्रमण संस्कृति के प्राचीन गौरवमय युग का भी स्मरण दिलाता है।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ का लक्ष्य एवं दृष्टिकोणः
आधुनिक भाषाओं में शैक्षणिक कार्य व प्राचीन पाण्डुलिपियों के संपादन, प्रकाशन को बढ़ावा देना और जैन धर्म पर विशेष जोर देने के साथ-साथ श्रमण धर्म के आध्यात्मिक मूल्यों पर मूल शोध को प्रकाशित करने के लिए इस विद्यापीठ की स्थापना की गई।
पुरातत्त्व अवशेषों व पाण्डुलिपियों के संरक्षण हेतु तथा उच्च शिक्षा, अनुसंधान, अनेकांतवाद व अहिंसा के सिद्धांतों को बढ़ावा देना इस संस्था का मुख्य ध्ययेय रहा है।
यह विद्यापीठ जैन अध्ययन हेतु एक अत्यन्त उपयोगी विश्वकोश के रूप में जाना जाता है। वैश्विक स्तर पर इस संस्थान को विकसित करने हेतु विदेशों में भी विद्वानों के साथ उपयोगी बातचीत के साथ-साथ विचारों के संभवित पारस्परिक आदान-प्रदान करने के प्रयास किए जाते रहे हैं।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ का समग्र दृष्टिकोण सभी विभिन्न विचारधाराओं और धर्मों के गैर निरंकुश जैन तकनीकी विषयों के सिद्धांतों का उपयोग करने के
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August-2016 लिए है। अनेकांतवाद और स्याद्वाद के साथ-साथ भारतीय धर्म और संस्कृति में प्रतिष्ठापित उच्च आध्यात्मिक मूल्यों व उनके तुलनात्मक अध्ययन को बढ़ावा देना हमारे प्राचीन आचार्यों और मुनियों का दायित्व है।
इसके अतिरिक्त यह संस्थान भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के माध्यम से अध्ययन, पर्यावरण और मानव जाति की सुरक्षा के लिए अहिंसा और शांति के क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देता है। ___ महान सांस्कृतिक विरासत को समझने हेतु पुरावशेषों का संशोधन व संशोधनात्मक रचनाओं के प्रकाशन के लिए विशेष रूप से जैन धर्म एवं भारतीय संस्कृति से संबंधित पांडुलिपियों को संरक्षित करने के प्रति भी सजग है।
सौभाग्य से विद्या उपासना हेतु १९४८ में सरलता पूर्वक शोधकार्य विभाग प्रारंभ हुआ। इस तरह पुस्तकालय का विकास भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया। इसके अगले साल ही १९४९ में दीपावली के अवसर पर 'श्रमण' मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया। __इसके मूल में विद्याश्रम के विद्वानों का ही उत्साह था। उस श्रमण पत्रिका का उद्देश्य जैन संस्कृति को प्रकाश में लाना तथा जैन धर्म व दर्शन की बातों को सम्यक् रूप से जनता के समक्ष रखना एवं सुधारवादी विचारों को बढावा देना था। इस संस्था के सभी कार्य प्रशंनीय हैं।
१९५३ में जब इस संस्था ने जैन साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथनिर्माण का संकल्प किया उस समय डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल अध्यक्ष थे और उनकी अध्यक्षता में अन्य विद्वानों के सहयोग से जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आठ खंडों में प्रकाशित हुआ। आठवाँ भाग लगभग अप्रकाशित है। जैन साहित्य के बृहद् इतिहास का प्रकाशन इस संस्था की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इस संस्था की उन्नति के मूल में पं. सुखलालजी, डॉ.मोतीचंदजी, श्री अगरचंद नाहटा, डॉ. ए. एन. उपाध्ये और दलसुख मालवणिया जैसे विविध विद्वानों का परिश्रम है। इस संस्था से चार ग्रंथमाला जुड़ी हुई हैं जो इस प्रकार हैं
१. पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रंथमाला, २. पार्श्वनाथ विद्याश्रम लघु प्रकाशन,
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३. पार्श्वनाथ शोधपीठ ग्रंथमाला,
४. पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रंथमाला ।
इन ग्रंथमालाओं के साथ चार प्रकाशक जुड़े हुए हैं
१. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान,
२. पार्श्वनाथ शोधपीठ,
३. सोहनलाल जैन धर्म प्रसारक समिति व,
४. सोहनलाल स्मारक पार्श्वनाथ शोधपीठ ।
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अगस्त-२०१६
इतने प्रकाशक नामों के साथ इस संस्थान ने ग्रंथों के अनुसार ग्रंथमालाओं को चलाकर कृतियाँ प्रकाशित की हैं। ये सभी ग्रंथमाला आपस में जुडी हुई हैं। पार्श्वनाथ संस्थान के निदेशक के रूप में कार्य करते हुए विविध विद्वानों ने प्रशंनीय कार्य किए हैं।
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प्रारंभ में संस्थान का नाम पार्श्वनाथ विद्याश्रम था और बाद में अपर नाम पार्श्वनाथ विद्यापीठ स्थापित हुआ । अतः उस समय के कार्यकालीन निदेशकों के परिश्रम से यह संभव हुआ है। डॉ. सागरमलजी जैन जैसे मूर्धन्य विद्वान के निर्देशन कार्यकाल में पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने सफलता की महत्तम ऊँचाईयों को प्राप्त किया। इन्हींके मार्गदर्शन से यहाँ देश-विदेश के विद्वानों ने अध्ययनसंशोधन का कार्य किया। डॉ. सागरमलजी ने विविध ग्रंथों को प्रधान संपादक के रूप में संपादित किया । इन्हीं कारणों से डॉ. सागरमल जैन इस ग्रंथमाला के प्रधान संपादक के रूप में सम्मानित हैं।
संपादक/संशोधक आदि का संक्षिप्त परिचयः
पार्श्वनाथ संस्थान के उन्नयन में डॉ. सागरमलजी जैन व अन्य निदेशक, संशोधक और प्रोफेसर आदि विद्वानों का भी बहुमूल्य योगदान रहा है। जब ई.सन्१९४४ में इस संस्थान में दलसुखभाई मालवणिया प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए, तब तत्कालीन कुलपति डॉ.राधाकृष्णन् भी दलसुखभाई से अत्यन्त प्रभावित हुए थे ।
डॉ. मालवणिया ने इस संस्थान को सेवा प्रदान करते हुए विविध महत्त्वपूर्ण
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ग्रंथों का संपादन एवं संशोधन किया है । इस संस्था को प्रगति के पथ पर निरन्तर अग्रसर करनेवाले विद्वान् निदेशकों के नाम इस प्रकार हैं- डॉ. शांतिलाल वनमाली शेठ, डॉ. कृष्णचंद्राचार्य, डॉ. मोहनलाल मेहता, डॉ. सागरमल जैन, डॉ.भागचंद्र जैन, डॉ. माहेश्वरी प्रसाद आदि । वर्तमान में डॉ. सुगन सी. जैन के निर्देशन में यह संस्थान अकादमिक प्रगति के पथ पर अग्रसर है।
इस ग्रंथमाला के अंतर्गत प्रकाशित व संपादित विशिष्ट ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
ऐतिहासिक कृतियाँ:
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास- पंडित दलसुखभाई मालवणिया, डॉ. मोहनलाल मेहता तथा डॉ. सागरमलजी जैन के द्वारा सम्पादित जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जैन साहित्य के क्षेत्रमें सम्पादन व संशोधन करनेवाले विद्वानों के लिए एक महत्त्वपूर्ण व उपयोगी ग्रन्थ है।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी द्वारा प्रकाशित इस ग्रन्थ में विशाल जैन साहित्य का सर्वांग परिचय दिया गया है। इसके प्रस्तावित आठ भागों में से अबतक सात भागों का प्रकाशन हो चुका है। इनमें निम्नलिखित विषयों का समावेश किया गया है
भाग-१, अंग आगम का परिचय- इस भाग के लेखक पं. बेचरदासजी हैं। प्रस्तुत भाग में मुख्य रूप से ग्यारह अंग आगमों का परिचय दिया गया है और अन्त के तीन परिशिष्टों में बारहवें अंग दृष्टिवाद, अचेलक परंपरा तथा आगमों के संशोधन व प्रकाशन पर प्रकाश डाला गया है।
भाग-२, अंग बाह्य आगम का परिचय - इस भाग के लेखक डॉ. जगदीशचंद्र जैन तथा डॉ. मोहनलाल मेहता हैं। इसमें बारह उपांगों, छः छेदसूत्रों तथा नंदी व अनुयोग दो चूलिकाओं का परिचय दिया गया है और अन्त में इन आगमों में प्रयुक्त शब्दों की अकारादि अनुक्रमणिका दी गई है।
भाग-३, आगमों के व्याख्यात्मक साहित्य का परिचय- इस भाग में आगमों के टीकादि कृतियों का सर्वांगीण परिचय प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार भाग-1 से 3 का अध्ययन करने से पाठकों को समस्त मूल आगमों तथा उनकी निर्युक्ति,
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अगस्त-२०१६ भाष्य, चूर्णि तथा विविध टीकाओं का पूर्ण परिचय प्राप्त हो सकता है। अन्त में इस ग्रन्थ में प्रयुक्त शब्दों की अकारादि अनुक्रमणिका भी दी गई है। ___ भाग-४, कर्मसाहित्य व आगमिक प्रकरणों का परिचय- इस भाग में आगमिक प्रकरणों तथा कर्मसाहित्य का परिचय दिया गया है। कर्मसाहित्य का परिचय डॉ. मोहनलाल मेहता ने दिया है तथा आगमिक प्रकरणों के विषय में प्रो. हीरालाल कापडिया के द्वारा लिखे गए गुजराती परिचय का प्रो. शांतिलाल वोरा के द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है।
भाग-५, दार्शनिक व लाक्षणिक साहित्य का परिचय- इस भाग के लेखक पंडित अंबालाल शाह हैं । इस ग्रन्थ में लेखक ने छंद-अलंकार, शकुन, ज्योतिष, व्याकरणादि २७ लाक्षणिक विषयों के साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया है, जो प्राचीनकाल में प्रचलित विषय थे और आज भी उपयोगी माने जाते हैं।
भाग-६, काव्य-साहित्य का परिचय- डॉ. गुलाबचंद्र चौधरी द्वारा लिखित इस भाग में मुख्य रूप से जैन काव्य साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया गया है। जैन काव्य-साहित्य का तात्पर्य उस विशाल साहित्य से है, जो दृश्य, श्रव्य, चम्पू आदि के रूप में लिखा गया हो।
इसके प्रथम खण्ड में पौराणिक महाकाव्य तथा सभी प्रकार की कथाएँ, दूसरे खण्ड में ऐतिहासिक काव्य, प्रबन्ध साहित्य, प्रशस्तियाँ, पट्टावलियाँ, प्रतिमालेख, विज्ञप्तिपत्रादि तथा तृतीय खण्ड में ललित वाङ्मय, छंद-अलंकार, नाटकादि विषय पर लिखे गए साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया गया है।
भाग-७, तमिल, कन्नड व मराठी जैन साहित्यों का परिचय- पं. के. भुजबली शास्त्री द्वारा लिखित इस खण्ड में दक्षिण भारतीय भाषाओं में रचित साहित्यों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। इसके तीन उपविभागों के अन्तर्गत कन्नड, तमिल व मराठी जैन साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया गया है।
भाग-८, अपभ्रंश साहित्य का परिचय- प्रायः अप्रकाशित.
उपयोगिता- इसके उपयोग से विद्वानों तथा शोधकर्ताओं का कार्य अत्यन्त सरल हो जाता है। ग्रन्थसूची तथा संशोधन-संपादन के कार्य में इस के उपयोग से बहुत ही सरलता होती है। इसके अध्ययन से आगमादि जैन साहित्य, उसके
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August-2016 टीकाग्रन्थ, कर्मसाहित्य, प्रकरणादि, लाक्षणिक साहित्य, जैन काव्य साहित्य तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं में रचित जैन साहित्य के विषय में प्रामाणिक परिचय प्राप्त हो सकता है।
हिंदी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास- हिन्दी भाषा का प्राचीनतम स्वरूप जो जैन साहित्य के रूप में सुरक्षित है उससे हिंदी विद्वत् जगत् आज भी अपरिचित है। यह चार भागो में प्रकाशित हुआ है।
भाग-१ में मरु-गुर्जर या प्राचीन हिंदी के आदिकाल से लेकर १६वीं शती के अंत तक के कवियों और उनकी रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया गया है।
भाग-२ में १७वीं शताब्दी (वि.सं.१६०१-१७००) के हिंदी जैन लेखकों की रचनाओं का विवरण दिया गया है।
भाग-३ में १८वीं (वि.सं.१७०१-१८००) तक हुए जैन साहित्यकारों और उनकी सुलभ रचनाओं का विवरण दिया गया है। इस काल को स्वर्ण युग माना जाता है।
भाग-४ में १९वीं (वि.सं.१८०१-१९००) शताब्दी के जैन साहित्यकारों के साहित्य का विवरण दिया गया है। इस तरह इस इतिहास से लोकोपयोगी जैन साहित्य एवं साहित्यकारों का परिचय प्राप्त होता है। ___ तपागच्छ का इतिहास- श्वेतांबर मूर्तिपूजक समुदाय में तपागच्छ का स्थान सर्वोपरि है। वि.सं.१२८५ में आचार्य जगच्चंद्रसूरि को आघाटपुर के शासक जैत्रसिंह से 'तपा' बिरुद् प्राप्त हुआ था। इस आधार पर उनकी शिष्य संतति तपागच्छीय कहलायी।
इस शोधकार्य के लेखक डॉ. शिवप्रसाद हैं। इन्होंने प्रारंभ से २०वीं शताब्दी तक के इतिहास को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया है। ___ अचलगच्छ का इतिहास- श्वेतांबर मूर्तिपूजक समुदाय में अचलगच्छ का अंत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वि.सं. ११६९ में आचार्य आर्यरक्षितसूरि के द्वारा विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसका पालन करने के कारण यह गच्छ अस्तित्व में आया।
इस गच्छ के गौरवशाली आचार्यों का विवरण इस ग्रन्थ में दिया गया है।
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अगस्त-२०१६ इसमें समय-समय पर विभिन्न कारणों से अन्य शाखायें अस्तित्व में आयीं, जिनमें मुख्य रूप से कीर्तिशाखा, गोरक्षशाखा, चंद्रशाखा, पालितानाशाखा, लाभशाखा और सागरशाखा आदि प्रमुख हैं। इसमें उन सभी शाखाओं का वर्णन किया गया है। इस महत्त्वपूर्ण कृति के लेखक डॉ. शिवप्रसाद हैं। ___ स्थानकवासी जैन परंपरा का इतिहास- इस ग्रन्थ के लेखक डॉ. सागरमल जैन व डॉ. विजय कुमार जैन हैं । इस इतिहास के लेखन में मुख्य रूप से सूचनाएँ भिन्न-भिन्न ग्रन्थों से संकलित की गई हैं।
इसमें वर्णित गुजरात की परम्परा का इतिहास लेखन में अधिकांश सूचनायें 'आ छे अणगार अमारा' और 'मुनि श्री रूपचंदजी अभिनंदन ग्रंथ' से संकलित हुई हैं। साध्वीवृंद का उल्लेख नहीं हो पाया है। इस इतिहास ग्रंथ को ई. सन् २००२ तक अद्यतन बनाने का प्रयास किया गया है।
मध्यकालीन हिंदी साहित्य पर जैन दर्शन का प्रभाव- इस ग्रन्थ के लेखक डॉ. रमेश कुमार गादिया हैं। इन्होंने इस ग्रंथ को सात अध्यायों में विभाजित किया है। मध्यकालीन हिंदी जैन साहित्य की ज्ञात रचनाओं पर ही विचार करें तो वि.सं. १२०१ से लेकर वि.सं. १६०० तक, इन चार सौ वर्षों की अवधि की लगभग १५०० रचनाएँ उल्लेखित हैं। इनके लेखकों की संख्या भी लगभग १००० है। यही जैन साहित्य की व्यापकता है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह कर्ता का महत्त्वपूर्ण व उत्तम शोधकार्य है। ___ इस तरह अन्य भी कई विशिष्ट ग्रंथों का प्रकाशन श्रीपार्श्वनाथ विद्यापीठ से हुआ है। जैसे उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन, कर्मविपाक अर्थात् कर्मग्रंथ, जैनधर्म और पर्यावरण संरक्षण, सागर जैन विद्या भारती जैसे अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए है। आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में उनमें से १५२ ग्रंथ सुरक्षित रूप से उपलब्ध है।
‘आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा' में उपलब्ध प्रकाशनों के आधार पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित ग्रन्थमालाओं की सूचनाओं का संकलन कर इस लेख में संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया गया है। आशा है इस संकलन के माध्यम से वाचकगण लाभान्वित होंगे।
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पर्युषण दौरान १२ दिन अहिंसा प्रवर्तन के बारे में विवेकहर्ष,
परमानन्द, महानन्द, उदयहर्ष को जहाँगीर बादशाह का फरमान
अल्ला हो अकबर (ता० २६ माह फर्वरदीन, सन् ५ के करार मुजीब के फरमान की)
तमाम रक्षित राज्यों के बड़े हाकिमों, बड़े दीवानों, दीवानी के बड़े-बड़े काम करने वालों, राज्य कारोबार का बन्दोबस्त करने वालों, जागीरदारों और करोड़ियों को जानना चाहिये कि दुनिया को जितने के अभिप्राय के साथ हमारी न्यायी इच्छा ईश्वर को खुश करने में लगी हुई है और हमारे अभिप्राय को पूरा हेतु तमाम दुनिया को जिसे ईश्वर ने बनाया है—खुश करने की तरह रजू हो रहा है। उसमें भी खास करके पवित्र विचार वालों और मोक्ष धर्म वालों को जिनका ध्येय सत्य की शोध
और परमेश्वर की प्राप्ति करना है—प्रसन्न करने की ओर हम विशेष ध्यान देते हैं। इसलिए इस समय विवेकहर्ष, परमानन्द, उदयहर्ष, तपा. यति (तपागच्छ के साधु) विजयसेनसूरि, विजयदेवसूरि और नन्दिविजयजी, जिनको “खुशफहम" का खिताब है के शिष्य हैं, हमारे दरबार में थे। उन्होंने दरखास्त और विनती की कि— “यदि सारे सुरक्षित राज्य में हमारे पवित्र बारह दिन जो भावी के पर्युषण के दिन हैं तक हिंसा करने के स्थानों में हिंसा बन्द कराई जायेगी तो इससे हम सम्मानित होंगे और अनेक जीव आपके उच्च और पवित्र हक्म से बच जायेंगे इसका उत्तम फल आपको और आपके मुबारकि राज्य को मिलेगा।”
हमने शाही रेम-नजर हरेक धर्म तथा जाति के कामों में उत्साह दिलाने बल्कि प्रत्येक प्राणी को सुखी कर दुनिया का माना हुआ और मानने लायक जहाँगीरी हक्म हआ कि उल्लिखित बारह दिनों में प्रतिवर्ष हिंसा करने के स्थानों में, समस्त सुरक्षित राज्य में प्राणी हिंसा न करनी चाहिए और न करने की तैयारी ही करनी चाहिये इसके सम्बन्ध में हर साल नया हुक्म नहीं मांगना चाहिए, इसको अपना कर्त्तव्य समझना चिहिए।
नम्रतिनम्र, अबुल्खैर के लिखने से और महम्मदसैयद की नोंध से।
(कु. नीना जैन संपादित पुस्तक- 'मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों (आचार्यों एवं मुनियों) का प्रभाव' मे से साभार)
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اس البر
فعان ار قرار نار دست نشت ماء زہردے منده | حکام کرام وریایتان عظام ومتصرا گیولین ناظان استالسلطاني ولجا در دلیر وکروریان کل مالک محروسے برا ننرکچون همکھ۔ عدالت برای جهانی در تصل رنات الے مصروف و تایے نیت خداط در پرست اوردرخاطراف برایاکہ میراع معبردرراجر واجب الوجود معطر واستحصرا در استرضان قلب فاليتان ولصقا اندیشا کم وجہ مقصود و مطالويشان جحوحونی وخراطل حربے دیکیست عایت لحم مبررلے میدارم همرا درين ولاکر بکھر کوراندوهات واورو له تاجت کربل بجيز سوربجي ديوبوروند حقش مهم که درین مدت دریایی سرمرسلطنت میلبورتاجون التماس واستدعا پرندک کی کل مالک محروس در دوازده روز معبرا کر روت
غادرت حین باشد در مسلنا ان ي جاورها و حیوانات کن سودمهب سرخراسه این مسکان خاهربرد وچندتا تھا
من وبرکت این حر الاسراع خلاص خواهریافت وام کر بردكارفخنٹ حضرت ادرساشو هاون عايد خواهد کرديرارالجاک شاهدنا باتحاد مطالب را ربح بطل ونخل ازهر زوتر وهطايتريك اسرك كافاتار مصريف رات براعملت اورا یقول مفرق داشت که مطلع وإجمالاتباع يحيا كبری شرق اصراريافت که در روار، رزمنکریا سال دکل عبالك محجر در سلماجاورنکشنر ویرامون این امر
بورتريت وتمرد
مورد نظر می یابدحسب
सम्राट संप्रति संग्रहालय, कोबा स्थित फरमान, जिसे जैनमुनि विवेकहर्ष आदि के उपदेश से बादशाह जहाँगीर द्वारा पर्युषण में १२ दिन राज्य में अहिंसा पालन हेतु
जारी किया गया. (हिन्दी अनुवादार्थ देखें पृष्ठ ३२)
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City so, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-338 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. 5 . Kartounf ચાયૅ શ્રીમદ્ વિજય ભુવનભાનુસૂરિ सुमार शुरोगाम्यो पनि के હોલ સંવત .स.२००१ 900004 प. पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी म. सा. के शिष्यरत्न प. पू. मुनिश्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. समाधि पूर्वक कालधर्म प्राप्त हुए. पुष्पदंत जैन संघ, सेटेलाइट से निकली पालखी का दृश्य. BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252, फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org Printed and Published by : HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat. Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI For Private and Personal Use Only