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August-2016 लिए है। अनेकांतवाद और स्याद्वाद के साथ-साथ भारतीय धर्म और संस्कृति में प्रतिष्ठापित उच्च आध्यात्मिक मूल्यों व उनके तुलनात्मक अध्ययन को बढ़ावा देना हमारे प्राचीन आचार्यों और मुनियों का दायित्व है।
इसके अतिरिक्त यह संस्थान भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के माध्यम से अध्ययन, पर्यावरण और मानव जाति की सुरक्षा के लिए अहिंसा और शांति के क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देता है। ___ महान सांस्कृतिक विरासत को समझने हेतु पुरावशेषों का संशोधन व संशोधनात्मक रचनाओं के प्रकाशन के लिए विशेष रूप से जैन धर्म एवं भारतीय संस्कृति से संबंधित पांडुलिपियों को संरक्षित करने के प्रति भी सजग है।
सौभाग्य से विद्या उपासना हेतु १९४८ में सरलता पूर्वक शोधकार्य विभाग प्रारंभ हुआ। इस तरह पुस्तकालय का विकास भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया। इसके अगले साल ही १९४९ में दीपावली के अवसर पर 'श्रमण' मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया। __इसके मूल में विद्याश्रम के विद्वानों का ही उत्साह था। उस श्रमण पत्रिका का उद्देश्य जैन संस्कृति को प्रकाश में लाना तथा जैन धर्म व दर्शन की बातों को सम्यक् रूप से जनता के समक्ष रखना एवं सुधारवादी विचारों को बढावा देना था। इस संस्था के सभी कार्य प्रशंनीय हैं।
१९५३ में जब इस संस्था ने जैन साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथनिर्माण का संकल्प किया उस समय डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल अध्यक्ष थे और उनकी अध्यक्षता में अन्य विद्वानों के सहयोग से जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आठ खंडों में प्रकाशित हुआ। आठवाँ भाग लगभग अप्रकाशित है। जैन साहित्य के बृहद् इतिहास का प्रकाशन इस संस्था की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इस संस्था की उन्नति के मूल में पं. सुखलालजी, डॉ.मोतीचंदजी, श्री अगरचंद नाहटा, डॉ. ए. एन. उपाध्ये और दलसुख मालवणिया जैसे विविध विद्वानों का परिश्रम है। इस संस्था से चार ग्रंथमाला जुड़ी हुई हैं जो इस प्रकार हैं
१. पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रंथमाला, २. पार्श्वनाथ विद्याश्रम लघु प्रकाशन,
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