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श्रुतसागर
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अगस्त-२०१६ इसमें समय-समय पर विभिन्न कारणों से अन्य शाखायें अस्तित्व में आयीं, जिनमें मुख्य रूप से कीर्तिशाखा, गोरक्षशाखा, चंद्रशाखा, पालितानाशाखा, लाभशाखा और सागरशाखा आदि प्रमुख हैं। इसमें उन सभी शाखाओं का वर्णन किया गया है। इस महत्त्वपूर्ण कृति के लेखक डॉ. शिवप्रसाद हैं। ___ स्थानकवासी जैन परंपरा का इतिहास- इस ग्रन्थ के लेखक डॉ. सागरमल जैन व डॉ. विजय कुमार जैन हैं । इस इतिहास के लेखन में मुख्य रूप से सूचनाएँ भिन्न-भिन्न ग्रन्थों से संकलित की गई हैं।
इसमें वर्णित गुजरात की परम्परा का इतिहास लेखन में अधिकांश सूचनायें 'आ छे अणगार अमारा' और 'मुनि श्री रूपचंदजी अभिनंदन ग्रंथ' से संकलित हुई हैं। साध्वीवृंद का उल्लेख नहीं हो पाया है। इस इतिहास ग्रंथ को ई. सन् २००२ तक अद्यतन बनाने का प्रयास किया गया है।
मध्यकालीन हिंदी साहित्य पर जैन दर्शन का प्रभाव- इस ग्रन्थ के लेखक डॉ. रमेश कुमार गादिया हैं। इन्होंने इस ग्रंथ को सात अध्यायों में विभाजित किया है। मध्यकालीन हिंदी जैन साहित्य की ज्ञात रचनाओं पर ही विचार करें तो वि.सं. १२०१ से लेकर वि.सं. १६०० तक, इन चार सौ वर्षों की अवधि की लगभग १५०० रचनाएँ उल्लेखित हैं। इनके लेखकों की संख्या भी लगभग १००० है। यही जैन साहित्य की व्यापकता है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह कर्ता का महत्त्वपूर्ण व उत्तम शोधकार्य है। ___ इस तरह अन्य भी कई विशिष्ट ग्रंथों का प्रकाशन श्रीपार्श्वनाथ विद्यापीठ से हुआ है। जैसे उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन, कर्मविपाक अर्थात् कर्मग्रंथ, जैनधर्म और पर्यावरण संरक्षण, सागर जैन विद्या भारती जैसे अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए है। आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में उनमें से १५२ ग्रंथ सुरक्षित रूप से उपलब्ध है।
‘आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा' में उपलब्ध प्रकाशनों के आधार पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित ग्रन्थमालाओं की सूचनाओं का संकलन कर इस लेख में संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया गया है। आशा है इस संकलन के माध्यम से वाचकगण लाभान्वित होंगे।
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