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दिवाकर चित्रकथा
अंक ३८ मूल्य १७.००
प्राकृत
रूप का गर्व ही
अकादमी
सुसंस्कार निर्माण
विचार शुद्धि : ज्ञान वृद्धि
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11000000
भारती
मनोरंजन
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(रूप का गर्व
चक्रवर्ती सम्राट संसार के सबसे विशाल साम्राज्य और अखूट संपदा का एक छत्र स्वामी होता है। इस युग में बारह चक्रवर्ती सम्राट हुए जिनमें चौथे चक्रवर्ती सम्राट थे सनत्कुमार।
सनत्कुमार के रूप-लावण्य एवं शरीर-सौंदर्य की देवता भी चर्चा करते थे। ऐसा अद्भुत सौंदर्य धरती पर किसी अन्य का नहीं था।
विशाल साम्राज्य से भी अधिक चक्रवर्ती सनत्कुमार को अपने रूप का गर्व था। देवताओं ने सम्राट का यह गर्व मिटाने के लिए ब्राह्मण वेश में आकर कहा-आपका
शरीर सौन्दर्य तो सचमुच अद्भुत है, परन्तु जिस शरीर पर आपको इतना गर्व है, उस - शरीर के भीतर कितने रोग छिपे हैं, "जरा विचार करो।" इसी बात का प्रत्यक्ष अनुभव
करने से सम्राट की शरीर के प्रति आसक्ति और गर्व भंग हो गया। अहंकार टूट गया और वे मुनि बनकर तपस्या करने लग गये।
ज्ञानियों ने इस उदाहरण से यही शिक्षा दी है कि "शरीरं व्याधि मन्दिरम्"शरीर तो रोगों का घर है। इस शरीर का महत्व सुन्दरता से नहीं, इससे कल्याण साधने में है। यही इस कथा की प्रेरणा है। -महोपाध्याय विनय सागर
-श्रीचन्द सुराना "सरस"
सम्पादक : श्रीचन्द सुराना "सरस"
प्रकाशन प्रबंधक:
संजय सुराना
चित्रांकन : श्यामल मित्र
प्रकाशक
श्री दिवाकर प्रकाशन ए-7, अवागढ़ हाउस, अंजना सिनेमा के सामने, एम. जी. रोङ, आगरा-282 002.
फोन : (0562) 351165. मोबाइल नं. : 98370-49530. सचिव, प्राकृत भारती एकादमी, जयपुर
13-ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर-302 017. दूरभाष : 524828, 524827 अध्यक्ष, श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर (राज.)
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२०पक (सनत्कुमार चक्रवर्ती)
प्राचीनकाल में हस्तिनापुर में अश्वसेन राजा का राज्य था। राजा की पटरानी थी सहदेवी। एक रात रानी सहदेवी ने चौदह स्वप्न देखे।
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प्रातः उठकर उसने महाराज अश्वसेन को बताया। राजा ने राज-ज्योतिषी को बुलाकर स्वप्नफल पूछा
राजन् ! यह अद्भुत स्वप्न "किसी चक्रवर्ती सम्राट् के आने की सूचना देते हैं। आने ल वाला बालक अवश्य ही कोई चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा। न
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रूप का गर्व.
कुछ समय बाद रानी ने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। बारहवें दिन पुत्र का नामकरण उत्सव मनाया गया। परिजनों के बीच पण्डित ने कहा
राजकुमार सनत्कुमार चिरायु हों।
कुंभ राशि होने के कारण
बालक का नाम सनत्कुमार होना चाहिए।
सनत्कुमार आठ वर्ष का हुआ तो राजा ने कलाचार्य को आमंत्रित किया और कहा
(आचार्य प्रवर ! जैसे कुशल कुंभकार माटी को मनचाहे मनोहर आकार में ढाल देता है। उसी प्रकार आप इस बालक का जीवन निर्माण कीजिए।
राजन् ! यह बालक तो स्वयं कल्पवृक्ष का अंकुर है, मेरा काम तो केवल जल सींचकर विकसित करना है!
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गुरुकुल में ही महेन्द्र नामक एक क्षत्रिय कुमार के साथ सनत्कुमार की मित्रता हो गई। एक दिन महेन्द्र बोलादेखो, मित्रता करके मित्र, जैसे मेरी काया के छोड़ मत देना। साथ छाया लगी है। वैसे ही मैं कभी तुझे अपने से दूर नहीं होने दूँगा।
आचार्य के साथ सनत्कुमार गुरुकुल में आ गया। सनत्कुमार और महेन्द्र गुरुकुल में शास्त्र और शस्त्र दोनों प्रकार की विद्यायें सीखने लगे।
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रूप का गर्व ध्ययन पूर्ण करके सनत्कुमार एक दिन बसन्त ऋतु के समय सनत्कुमार और उसका मित्र 1106762
में बैठने लगा। उसका अद्भुत महेन्द्र नगर के बाहर मकरंद उद्यान में गये। उधर से घोड़ों (animandir@kobatirth.org/न्दर्य देखकर लोग चर्चा करते- का एक व्यापारी गुजर रहा था। रामकुमार को वहाँ देखकर
का एक अपने कुमार को देखकर ऐसा लगता है
उद्यान में आ गया। महेन्द्र ने उसका परिचय दियाजैसे स्वर्ग का इन्द्र या कामदेव ही धरती पर आ गया है। कितना तेजस्वी रूप है इसका।
राजकुमार ! यह अपने सा ही नगर के प्रसिद्धहॉ , राजकुमार ! मैं अश्व-व्यापारी हैं। कौशाम्बी से उत्तम जाति के
अश्व खरीदकर लाया हूँ।
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रामकुमार को घुड़सवारी का बहुत शौक था। वह सनत्कुमार ने घोड़े को एड़ लगाई कि घोड़ा जैसे हवा में | अश्व-पारखी भी था। उसने एक चपल श्वेत उड़ने लगा। अश्व को छाँटा और उस पर सवार हो गया।
महेन्द्र ! तुम यहीं रुको। मैं जरा घुड़सवारी का आनन्द
लेकर आता हूँ।
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देखते ही देखते वह सबकी आँखों से ओझल हो गया।
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रूपका गर्व काफी देर तक महेन्द्र और अश्व-व्यापारी राजकुमार का यह सुनते ही महेन्द्र तुरन्त नगर से सैनिक लेकर इन्तजार करते रहे। जब राजकुमार शाम तक वापस नहीं| राजकुमार की खोज में चल दिया। आया तो व्यापारी ने चिन्तातुर स्वर में कहा
देिखो, उधर घोड़े के खुटरों के PROPOLI
निशान और झाग पड़े हैं।
वह उसी तरफ गया है। लगता है घोड़ा वक्र शिक्षित था। राजकुमार को कहाँ ले जाकर छोड़ेगा मालूम नहीं?
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सैकड़ों सैनिक उसी दिशा में बढ़ चले। तभी अचानक भयंकर आँधी-तूफान चलने लगा। आकाश कुछ समय बाद वर्षा रुकते ही महेन्द्र सनत्कुमार को खोजने में बिजली कड़कड़ाने लगी और मूसलाधार वर्षा प्रारम्भ हो घने जंगल की ओर चल दिया। उस भयानक जंगल में भटकते गई। सभी पेड़ की ओट में खड़े हो गये
हुए सभी सैनिक महेन्द्र से बिछुड़ गये। वह अकेला ही घोड़े की लगाम पकड़े सनत्कुमार को खोजने के लिये घूमता रहा।
SH (लगता है आज प्रकृति का भयंकर किधर गये होंगे MEIN (कोप हआ है। इस वर्षा और तफान राजकुमार? किस
सनत्कमार। से घोड़े के सब निशान मिट जायेंगे। ओर खोलूँ उन्हें?
सनत्कुमार अब राजकुमार को खोजना और | । अधिक कठिन हो जायेगा।
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रूप का गर्व एक वर्ष तक लगातार जंगलों में भटकते हुए एक दिन महेन्द्र ने आकाश में सारस, हंस, बगुले आदि पक्षियों को पूर्व दिशा की ओर जाते देखा। उसने सोचायहाँ आसपास
अवश्य कोई विशाल सरोवर होना चाहिए।
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पक्षियों के पीछे-पीछे वह सरोवर के किनारे पर पहुंच गया। वहाँ देखा-अनेक सुन्दर तरुणियाँ नाच रही हैं। गीत गा रही हैं। तरुणियों के बालों में तरह-तरह के फूल लगे हैं। घुघल बँधे हैं। कुछ तरूणियाँ मृदंग बजा रही हैं तो कुछ वीणा के स्वर छेड़ रही हैं। और उन तरूणियों के बीच ऊँचे शिला पट पर अत्यन्त रूपवान युवक बैठा है। महेन्द्र एकदम रोमांचित हो गया।।
क्या उस चट्टान पर बैठा यह युवक मेरा मित्र ) सनत्कुमार ही है? या कोई),
इन्द्रजाल है यह।
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पति
उसने-उधर घोड़ा दौड़ा दिया। पास पहुँचकर महेन्द्र ने अपने मित्र को पहचान लिया। वह घोड़े से उतरकर युवक से लिपट गया। Aaeमित्र ! -
ओह महेन्द्र तुम
दोनों मित्रों की आँखों में आँसुओं की धारा फूट पड़ी। वे एक-दूसरे से लिपट गये।
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सुन्दरियाँ नृत्य बन्द कर आश्चर्य से उन्हें देखने लगीं। कुछ देर बाद सनत्कुमार ने पूछामित्र ! यहाँ कैसे कुमार ! पहले तुम बताओ, ये सब कौन पहुँचे। नगर में हैं? उस अश्व ने तुमको कहाँ पटक दिया फिर क्या हुआ ?
सब कुशलक्षेम तो हैं।
रूप का गर्व
तभी एक तरुणी फल और शीतल पेय लेकर आ गई। दोनों मित्र वहाँ शिला पर बैठकर बातें करने लगे। कुछ देर बाद पास में बैठी एक रूपवान तरुणी से सनत्कुमार ने कहाबकुलमति ! तुम अपने देवर को वह सब सुनाओ जो घटित हुआ।
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बकुलमति सुनाने लगी-उस दिन आपके मित्र को लेकर अश्व घने जंगल में दौड़ता रहा, दौड़ता रहा। अन्त में थककर इन्होंने लगाम छोड़ दी। घोड़ा चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा। उसके मुँह से झाग निकले और मर गया। उस भयानक मरुस्थल में भूखे-प्यासे भटकते हुए ये एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठे, वहीं मूर्च्छित हो गये। उस वृक्ष पर एक यक्ष रहता था। उसने देखा
कोई पुण्यशाली पुरुष आपत्ति में फँसा है। मुझे इसकी मदद करनी चाहिए।
कोमल हृदय यक्ष ने सनत्कुमार के चेहरे पर सनत्कुमार का कण्ठ प्यास से सूख रहा था। शीतल जल छिड़ककर उसे सचेत किया।
यक्ष ने उसे जल लाकर पिलाया।
लो ! इस शीतल जल से अपनी प्यास बुझाओ।
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जल पीकर सनत्कुमार ने पूछा
रूपका गर्व
यहाँ पास में ही मेरे शरीर में दाह मानसरोवर है, उसी का लगी है क्या आप मुझे यह अमृत जल है। मानसरोवर तक पहुँचाने क्यों नहीं, यह
की कृपा करेंगे? हमारा कर्त्तव्य है।
देव ! आप कौन हैं? और यह अमृत के समान जल कहाँ से लाये?
देवता ने सनत्कुमार को मानसरोवर में पहुंचा दिया। आर्यपुत्र ने शीतल जल में प्रवेश किया। शरीर सनत्कुमार मानसरोवर में स्नान कर रहा था कि अचानक की क्लान्ति, दाह सब शान्त हो गई। एक क्रूर यक्ष वहाँ प्रकट हुआ और फुकारता हुआ बोला
वाह ! मानसरोवर जैसे भूखा सिंह हाथी को Ke- के शीतल जल से शरीर के खोजता है, वैसे ही मैं बहत। सब दाह शान्त हो गये।
| दिनों से तेरी खोज कर रहा हूँ।
अब तू बचकर कहाँ जायेगा? /
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रूपका गर्व उस क्रूर यक्ष ने एक विशाल वटवृक्ष को जड़ सहित | फिर यक्ष को पकड़कर दो-तीन जोरदार मुष्टि के उखाड़कर सनत्कुमार पर प्रहार किया। सनत्कुमार ने प्रहार किये। अपनी दोनों भुजाओं में उसे रोक लिया।
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यक्ष घबराकर चीखता हुआ भाग छूटा।
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स्नान आदि करके सनत्कुमार वहाँ से चल दिया। कुछ आगे चलने पर एक सुन्दर उद्यान में क्रीड़ा करती आठ विद्याधर कन्याएँ मिलीं। सनत्कुमार को देखकर बोलीं
AVENorm आइये कुमार ! हम आपका ही
हैं ! मेरा इन्तजार !! यह
क्या मायाजाल है? इन्तजार कर रही थीं? 4A
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फुटनोट # यह यक्ष पिछले जन्मों से सनत्कुमार के साथ शत्रुता रखता था। कई जन्म पूर्व की घटना है। विक्रमयश नाम का एक राजा था। उसने एक बार नागदत्त नाम के सेठ की सुन्दर नवयौवना पत्नी को देखा। उस पर आसक्त हो अपहरण कर लिया। वह युवती भी उसके प्रेम में फँस गई। नागदत्त बहुत दुःखी हुआ, परन्तु राजा के अन्याय का वह कुछ भी प्रतिकार कर न सका। दुःखी और ग्लानि से भरा नागदत्त घर छोड़कर जंगल में चला गया। प्रतिशोध की भावना के साथ मरा इस जन्म में वह यक्ष बना। विक्रम राजा भी बाद में अपनी भूल पर पश्चात्ताप करने लगा। वह साधु बनकर तपस्या करने लगा। कई जन्मों तक तप करने के बाद वही सनत्कुमार बना।
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रूप का गर्व आठों कन्याएँ उसे नगर के अन्दर अपने पिता राजा यह सुनकर रामा भानुवेग मुस्कराया और भानुवेग के पास ले गईं। राजा भानुवेग ने उसका जोरदार समाधान करते हुए बोलास्वागत किया। सनत्कुमार का दिमाग अभी भी चक्कर खा |
KARob कुमार ! एक नैमित्तिक के कहे रहा था। आखिर उसने भानुवेग से पूछ ही लिया-5
innon/ अनुसार इस घड़ी आपका आगमन राजन् ! ऐसा लगता है आप
सुनिश्चित था। मेरी आठों कन्याओं सब मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे
के वर भी आप ही होंगे। इसलिए थे। क्यों? किसलिए? क्या
हम आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। आप मुझे पहचानते हैं?
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राजा भानुवेग के आग्रह पर सनत्कुमार ने उन आठ
विद्याधर कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कर लिया। रात्रि के समय सनत्कुमार अपने शयन-कक्ष में सोया हुआ था। उसी कुछ देर बाद सनत्कुमार की नींद खुली। वह समय वही दुष्ट यक्ष वहाँ से गुजरा। उसने सनत्कुमार को देखा- चारों ओर देखने लगा
ओह ! यह तो सनत्कुमार सोया हुआ है। आज बदला अरे मैं कहाँ हूँ? मेरी लेने का अच्छा अवसर है। सब पत्नियाँ कहाँ हैं?
यहाँ तो चारों ओर | जंगल ही जंगल है।
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उसने सनत्कुमार को उठाया और घने जंगलों में फेंक दिया।
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फिर वह अकेला ही उस बियावान वन में भ्रमण करने लगा। तभी एक सात मंजिला महल दिखाई दिया
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रूप का गर्व
महल का द्वार खुला हुआ था। वह सीधा महल के अन्दर घुस गया। घूमते-घूमते जैसे ही पहली मंजिल पर पहुँचा उसे एक नारी का क्रन्दन सुनाई दियाकोई मेरी रक्षा करो ! बचाओ। मुझे यहाँ से निकालो।
इस जंगल में
यह महल ! जरूर
कोई मनुष्य भी यहाँ होगा?
वह महल की ओर चल पड़ा।
यह सोचकर वह सावधानी से क्रन्दन की दिशा में चलता हुआ एक कक्ष में पहुँचा। देखा एक रूप लावण्यवती आभूषणों से सजी सुन्दरी पलंग पर बैठी करुण स्वर में पुकार कर रही है। अरे! यह तो मेरा नाम हे कुरुकुल कलाधर पुकार रही है। कहीं सनत्कुमार ! इस जन्म में कोई मायाजाल तो नहीं न सही अगले जन्म में है। मुझे होशियार आप ही मेरे पति बनना। रहना चाहिए।
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यहाँ नारी का क्रन्दन ! चलकर देखना चाहिए?
फिर सावधान होकर सुन्दरी के सामने जाकर उससे पूछा- सुन्दरी ! यह सनत्कुमार कौन है? तुम कौन हो? यहाँ कैसे आई और क्यों रो रही हो?
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अपने सामने एक सुन्दर वीर पुरुष को खड़ा देखकर सुन्दरी हर्षित हो पलंग से उठ गई। नीची नजर किये। वह बोली
देव ! आप कौन हैं, मैं नहीं जानती । किन्तु लगता है आप कोई दयालु वीर पुरुष हैं, मेरे दुःखों को दूर करने में समर्थ हैं इसलिए आपके प्रश्नों का उत्तर देती हूँ।
एक दिन मैं अपने महल की छत पर सोई थी तब एक विद्याधर ने मेरा अपहरण कर लिया और विद्याबल से इस प्रासाद का निर्माण कर मुझे यहाँ अकेली छोड़ गया।
रूप का गर्व
सुन्दरी ने अपनी कहानी सुनाईराष्ट्री कन्या सुनन्दा हूँ। मैंने अपने | स्वप्न के अनुसार कुरुकुल के सूर्य सनत्कुमार को अपना पति स्वीकार किया है, वे महान् पराक्रमी हैं। मेरे माता-पिता ने भी अंजलि दान कर मुझे उनके लिए दान कर दिया है।
(सुन्दरी ! विश्वास रखो, तुम सत्य कहोगी तो तुम्हें। कोई कष्ट नहीं। होगा।
क्या वह भाग गया?
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नहीं, वह कुछ दिन बाद आयेगा और मेरे साथ जबर्दस्ती विवाह करने का प्रयास करेगा
हाय ! अब मेरा क्या होगा?
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फिर क्या हुआ ?
तुम सनत्कुमार के पास गई क्यों नहीं?
सुन्दरी ! तुम डरो मत! मैं ही कुरुवंशी सनत्कुमार हूँ, जिसे तुमने स्वप्न में देखा है।
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यह सुनकर सुनन्दा आश्चर्य और हर्ष के साथ उसकी तरफ देखने लगी।
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मूर्ख ! इसकी रक्षा तू क्या करेगा, पहले अपनी रक्षा कर
रूप का गर्व
सच ! अहा 'मेरा भाग्य जाग उठा ! आप ही हैं कुरुकुल के सूर्य ?
तभी वह विद्याधर भी आ गया। उसने सनत्कुमार को देखकर हुँकार कीकौन है तू तस्कर ! यहाँ मेरे महलों में किसलिए आया?
तस्कर मैं नहीं, तू है। तुमने एक आर्य कन्या का अपहरण किया है मैं इसकी रक्षा करने आया हूँ।
विद्याधर सनत्कुमार को तभी सनत्कुमार ने विद्याधर के मस्तक पर जबर्दस्त पाद-प्रहार किया।
दोनों हाथों में उठाकर | आकाश में उड़ गया ।
ले दुष्ट, अपनी करनी का फल चख ।
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प्रहार से विद्याधर मूर्च्छित होकर आकाश से सीधा
समुद्र में गिर पड़ा।
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सनत्कुमार भी समुद्र में तैरता हुआ | |किनारे पर आया और वापस महल में| आकर सुनन्दा से मिला। बोला
रूप का गर्व वहीं दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया। तभी विद्याधर की बहन संध्यावली बिफरी हुई सी वहाँ आ पहुँची। उसने पूछामेरे भाई को किसने मारा? -
सुनन्दा ! अब तुम निश्चिन्त हो जाओ ! वह दुष्ट अपने पापों का फल
पा चुका है।
सुन्दरी ! तुम्हारा भाई मेरे हाथों मर चुका । है। उसे अपने पापों का फल मिल गया।
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यह सुनकर संध्यावली सनत्कुमार के वह बातें कर ही रहे थे तब तक संध्यावली का पिता अशनिवेग चरणों से लिपट गई। बोली
अपनी सेना लेकर आ गया। उसने सनत्कुमार को ललकारादुष्ट ! तूने मेरे पुत्र का वध किया है। अब यमलोक जाने को तैयार हो जा।
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आर्यपुत्र ! नैमित्तिक ने कहा था, जो मेरे भाई की घात करेगा वही मेरा पति होगा। इसलिए आप ही मेरे स्वामी । हैं। मुझे स्वीकार कीजिये !
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रूप का गर्व उसी समय उन आठ कन्याओं के पिता भानुवेग भी सेना अब अशनिवेग की सेना ने सनत्कुमार के समक्ष लेकर सनत्कुमार की खोज करते हुए आ पहुंचे। दोनों समर्पण कर कहा
| हे पराक्रमी कुमार ! कृपया सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। सनत्कुमार ने चक्र द्वारा
| आप हमारे साथ वैताढ्य पर्वत अशनिवेग का मस्तक काट डाला।
हे देव ! अब आप ही)
पर पधारें। हम आपके विजय हमारे स्वामी हैं।
के उपलक्ष्य में उत्सव का VVVT
आयोजन करना चाहते हैं।
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अनेक विद्याधर राजाओं के साथ सनत्कुमार वैताढ्य पर्वत पर
गया। वहाँ आठ दिन तक उसका विजयोत्सव मनाया गया। एक दिन वैताढ्य पर्वत निवासी विद्याधरों के राजा ने सनत्कुमार ने हँसकर कहासनत्कुमार से कहा- /कुमार ! मैंने बहुत दिन
पहले एक ऋद्भिधारी मुनि के दर्शन किये थे। उनके दर्शन कर मैंने पूछा
हमारे भाग्य ने आपको तब तो बिना बुलाये गुप्त आमंत्रण दिया है। ही हम आ गये? अनुग्रह कर हमारी यह
st: भेंट स्वीकार कीजिए!
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ऋषिवर ! मेरी बकुलमति आदि सौ कन्याओं का पति कौन होगा?
राजन् ! चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार यहाँ आयेंगे और वे ही इन कन्याओं के पति होंगे।
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रूप का गर्व सनत्कुमार ने विवाह के लिये स्वीकृति दे| दी। उसी वैतान्य पर्वत पर हम सौ बहनों का आर्यपुत्र के साथ पाणिग्रहण हो गया।
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यह कहकर बकुलमति हँसकर बोलीदेवर मी, इतना सब कुछ पाकरमानी कि जिन भी आर्यपुत्र सदा आपकी याद में उदास रहते थे। यहाँ मानसरोवर पर आकर भी इन्हें आपकी कमी
खटकती रही थी।
माता-पिता की याद आते ही सनत्कुमार भी उदास हो गया, और बोला- NOR
तभी सनत्कुमार उठकर आये। बोले
मित्र ! तुमने मित्र ! मेरी कहानी का सार हमारी आप बीती यही है कि आपके माता-पिता सुन ली! अब
पुत्र-विरह में रात-दिन आँसू अपनी सुनाओ! बहा रहे हैं। इसलिए अब
हस्तिनापुर चलना चाहिए।
मित्र ! तुम्हारा कथन सत्य है, अब शीघ्र ही हमें हस्तिनापुर
पहुंचना चाहिए।
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सनत्कुमार, महेन्द्रसिंह और सभी सुन्दरियाँ विमानों में बैठकर वैताढ्य पर्वत पर आ गये।
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रूपका गर्व शुभ दिन देखकर सनत्कुमार ने हस्तिनापुर के लिए विमानों में बैठकर प्रस्थान किया। उसके साथ अनेक विद्याधर राजा भी सेना लेकर चल पड़े। विमान हस्तिनापुर के पास पहुंचे तो वहाँ नगर निवासी आश्चर्य से देखने लगे-
पीन पान पनि छ
(इतने सारे विमान एक साथ इस ओर? अवश्य कोई विद्याधर सम्राट
आ रहा है इन विमानों में।
अरे ! यह तो अपने राजकुमार हैं? चलो महाराज को खबर करें।
राजा अश्वसेन को सनत्कुमार के आगमन का समाचार मिला। राजा अश्वसेन और रानी सहदेवी पुत्र की अगवानी करने नगर-द्वार पर पहुंचे। विशाल सेना और सैकड़ों राजाओं के साथ सनत्कुमार ने नगर में प्रवेश किया। राजा-रानी पुत्र को देखकर आनंदित हो गये।
नों तक नगर में उत्सव मनाया जाता रहा।
आज कितने वर्षों बाद ये आँखें तृप्त हुई हैं।
अश्वसेन ने पुत्र को हृदय से लगा लिया।
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रूप का गर्व
कुछ दिनों बाद तीर्थंकर धर्मनाथ स्वामी हस्तिनापुर पधारे। देशना सुनकर राजा अश्वसेन ने प्रार्थना कीराजा अश्वसेन, सनत्कुमार आदि हजारों नगरजन उनके दर्शन करने गये। प्रभु ने देशना में कहा
मनुष्य सोचता है, अभी जवानी है, संसार के सुख भोग लूँ, बुढ़ापे में संयम लूँगा, परन्तु मृत्यु का क्या भरोसा, बुढ़ापा आने से पहले ही मृत्यु आ गई तो यह जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा। इसलिए शुभ कार्य करने में विलम्ब मत करो।
राजा ने सनत्कुमार का राजतिलक किया। महाराज वत्स ! प्रजा को पुत्र की सनत्कुमार चिरायु हों।) भाँति स्नेह करना ।
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प्रभु ! मैं संसार त्याग कर दीक्षा लेना चाहता हूँ।
राजन् ! जो सत्कर्म करना है, शीघ्र करो !
| महेन्द्रसिंह को सेनापति पद दिया। (आज से महेन्द्रसिंह को हस्तिनापुर की सेनाका सेनानायक नियुक्त किया जाता है।
फिर राजा अश्वसेन रानी सहदेवी तथा अनेक लोगों के साथ तीर्थंकर धर्मनाथ स्वामी के पास दीक्षित हो गये।
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रूप का गर्व एक बार महाराज सनत्कुमार राजसभा में बैठे थे। तभी आयुधशाला के द्वारपाल ने आकर समाचार दिया
शुभ समाचार है महाराज! आयुधशाला में चक्र रत्न आदि दिव्य शस्त्र प्रकट हुए हैं।
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सनत्कुमार ने आयुधशाला में जाकर चक्र रत्न की सुगन्धित जल, फूल आदि से पूजा अर्चना की।
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फिर षट्खण्ड विजय की तैयारियाँ प्रारम्भ हुईं। सेनापति महेन्द्रसिंह ने मित्र राजाओं को सूचना भेज दी
महाराज सनत्कुमार के राज्य) में चक्रवर्तित्व के प्रतीक के १४
रत्न प्रकट हो गये हैं। अब षट्खण्ड विजय यात्रा में आप
सब सम्मिलित होवें। For Private 1ersonal Use Only
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रूपका गर्व सभी मित्र राजाओं के साथ विशाल सैन्य बल लेकर चक्रवर्ती सनत्कुमार | कई वर्षों में भरतक्षेत्र के छह खण्ड विजय कर षट्खण्ड विजय यात्रा पर निकल पड़े।
सनत्कुमार हस्तिनापुर लौटे। हस्तिनापुर में एक विशाल विजय महोत्सव का आयोजन हुआ। Latrena
चक्रवर्ती सनत्कुमार की जय !
ASAAYA
सौधर्म देवलोक के स्वामी शक्रेन्द्र कुबेर अनेक अलौकिक उपहार लेकर चक्रवर्ती सनत्कुमार की | ने कुबेर को बुलाकर कहा- सेवा में उपस्थित हुआ। हे चक्रेश्वर ! हम आपके हे कुबेर ! चक्रवर्ती सनत्कुमार
जाणा मित्र सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से 66001 पूर्व जन्म में सौधर्मेन्द्र थे इसलिए
यह दिव्य उपहार लेकर / वे हमारे बंधु होते हैं। उनके
आये हैं। हमारी भेंट/ चक्रवर्ती पद महोत्सव पर हमारी
स्वीकार करें। तरफ से अभिषेक किया जाय।
जो आज्ञा देव!
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रूपका गर्व देवताओं ने पवित्र जल से चक्रवर्ती फिर तिलोत्तमा, उर्वशी, मेनका और रंभा ने दिव्य देव नृत्य का अभिषेक किया।
प्रस्तुत किया। नारद ने वीणा वादन किया, तुम्बुस ने मृदंग बजाये, गंधर्व कुमारों ने विविध आश्चर्यजनक करतब दिखाये।
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इसके बाद राजाओं, श्रेष्ठियों आदि ने विविध उपहार भेंटकर चक्रवर्ती का अभिनन्दन किया। अन्त में चक्रवर्ती | सनत्कुमार ने प्रमाजनों को सन्देश दिया
चक्रवर्ती सम्राट् की आज्ञा से मेरे राज्य में जो धर्म एवं नीतिपूर्वक चलेंगे
| हस्तिनापुर राज्य में १२ वर्ष तक उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं होगा। हम सब
। किसी प्रकार का कर, दण्ड तथा प्रजाजनों को अभय और परस्पर प्रेमपूर्वक
शुल्क आदि नहीं लगेगा। रहने का संदेश देते हैं।
इस प्रकार हस्तिनापुर की प्रजा चक्रवर्ती के राज्य में पूर्ण शान्ति, सुरक्षा और सुखपूर्वक रहने लगी।
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रूप का गर्व एक दिन सौधर्म देवलोक में एक विशेष नाटक हो रहा था। उसी समय किसी दूसरे स्वर्ग का एक तेजस्वी देव वहाँ आ गया। उसको देखकर देवगण कहने लगे
देवताओं को इस तरह विस्मित देखकर शक्रेन्द्र ने कहा
इस देव ने पूर्व जन्म में आयंबिल वर्धमान तप किया था। उसी तप के प्रभाव से अद्भुत |
रूप व कांति मिली है।
वाह! क्या अद्भुत तेज है इसके चेहरे पर,
क्या मोहक सौन्दर्य है ANA इसका?
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सभा में बैठे दो देवों को शक्रेन्द्र की बात सुनकर शंका हुई। वे बोले
तब देवताओं ने पूछा
(देवराज ! क्या इसके समान दूसरे किसी को भी ऐसी रूप-ऋद्धि,
प्राप्त है?
देवराज ! हम प्रत्यक्ष देखना चाहते हैं।
क्यों नहीं! हमारी अनुमति है। आप मनुष्यलोक में जाकर
अवश्य देखिये।
हाँ है ! मनुष्यलोक में
सनत्कुमार चक्रवर्ती इससे भी बढ़कर रूपमान
एवं तेजस्वी हैं।
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रूप का गर्व
दोनों देव आकाश से पृथ्वी पर आये और और चक्रवर्ती सनत्कुमार के महल के द्वार पर ब्राह्मण का रूप धारण किया।
पहुँचे। द्वारपाल से कहा
चक्रवर्ती सनत्कुमार प्रातः व्यायाम और तेल मालिश करने के बाद स्नान की तैयारी कर रहे थे। तभी द्वारपाल ने आकर निवेदन कियाराजन् ! दो वृद्ध ब्राह्मण अभी इसी
समय आपका
दर्शन चाहते हैं।
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प्रजा के लिए मेरा
द्वार सदा खुला है। उन्हें आने दो।
आप यहीं ठहरिये। मैं आज्ञा लेकर आता हूँ।
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वाह ! क्या शरीर का गठन है?
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दोनों ब्राह्मण विशाल स्नानागार में आये और विस्मित से चक्रवर्ती की अद्भुत सुन्दरता को निहारने लगे
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हम चक्रवर्ती के दर्शन करना
चाहते हैं।
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कितनी सुकुमारता और कोमलता है ?
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कितना अद्भुत तेज है? सम्पूर्ण देह जैसे स्वर्णमयी है, सचमुच जैसा सुना था उससे अधिक ही है।
रूपका गर्व दोनों देवों की फुसफुसाहट सुनकर चक्रवर्ती बोले
विप्रदेव ! क्या चाहते हैं आप?
राजन् ! आपके अद्भुत रूप-लावण्य की चर्चा तीनों
लोक में हो रही है। हम (भी अपने नेत्रों से निहारने
के लिए आये हैं।
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मंद मुस्कान के साथ चक्रवर्ती बोले
READARANA AAAAANIAMOM/nyoanal फिर चक्रवर्ती अपने श्रृंगार कक्ष की तरफ इशारा करते हैं।
/मैं वस्त्राभूषण पहनकर (शीघ्र ही सभा में आऊँगा। सौन्दर्य देखना हो तो तब
आप देखिये।
विप्रवर ! अभी तो शरीर पर तेल व उबटन लगा है, सुन्दरता का क्या पता चलेगा।
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देवता नमस्कार करके चले जाते हैं।
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रूपका गर्व कुछ समय बाद सुन्दर वस्त्र-आभूषणों से सम्जित फिर कुछ उदास होकर सिर धुनने लगेहो चक्रवर्ती सिंहासन पर आकर बैठे। ब्राह्मणों को रामसभा में बुलाया गया। दोनों ब्राह्मण आये कुछ देर तक शरीर को देखते रहे।
नहीं ! अब वह
विप्रवर ! क्या फर्क बात नहीं रही।
पड़ गया इतनी-सी
देर में?
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ब्राह्मण
ब्राह्मणों ने विनम्रतापूर्वक कहा
राजन् ! हमने स्वर्ग में | आपके अद्वितीय रूप-लावण्य की प्रशंसा सुनी थी। हमें विश्वास नहीं हुआ, किन्तु व्यायामशाला में आपको देखकर शक्रेन्द्र का
कथन सत्य लगा।
राजन् ! अब आपका ।
वह सौन्दर्य क्षीण हो परिहा है। शरीर में अनेक
रोग घुस चुके हैं -आखिर यह मानव-देह का तो क्षण-अंगुर जो है।
तो फिर अब क्या परिवर्तन हो
गया?
चक्रवर्ती ने ब्राह्मणों का उपहास करते हुए कहा
ऐसा कैसे हो सकता है। तुम्हें भ्रान्ति तो
नहीं हुई?
महाराज! प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या जरूरत है। अभी आप
थूककर देखिए।
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रूपका गर्व चक्रवर्ती के सामने ही सोने का स्वच्छ थूकदान रखा था। उन्होंने उसमें थूका।
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सनत्कुमार ने वापस राजमहल आकर अपना मुख दर्पण में देखा
अरे ! मेरे मुख की कांति तो क्षीण हो रही है, मुख मुआयासा लग रहा है। पसीने की
गंध आ रही है?
तो आँखें आश्चर्य से फटी-सी रह गई।
हैं ! यह क्या ?
थूक में कीड़े!
शरीर की नश्वरता पर विचार करते-करते
चक्रवर्ती का मन संसार के भोगों से विरक्त तभी दोनों देव अन्तर्ध्यान हो गये। हो गया। उन्होंने तुरन्त निर्णय लिया
अब यह शरीर सनत्कुमार सोचने लगे। सोचते-सोचते
रोगग्रस्त होने उनकी चिन्तनधारा बदल गई।
से पहले ही (जैसे दीमक हरे-भरे वृक्ष को ।।
तप-साधना कर भीतर से खोखला कर देती है। वैसे ही व्याधि शरीर को भीतर ही
लेनी चाहिए। भीतर नष्ट कर डालती है। क्या मैं इसी क्षणिक सुन्दरता पर इतना
अभिमान कर रहा हूँ।
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चक्रवर्ती सनत्कुमार ने अपने बड़े पुत्र को राज-सिंहासन सौंपा और उपवन में विराजित विनयंधर सूरि आचार्य के पास पहुँचे। उन्होंने आचार्य से निवेदन किया।
हे महामुने ! मेरा मन | इस भौतिक संसार से विरक्त हो चुका है। कृपया मुझे दीक्षा देकर आत्म जागृति का पथ दिखाइये।
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रूप का गर्व
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विनयंधर आचार्य ने उन्हें दीक्षा प्रदान कर दी। मुनि सनत्कुमार एकल विहार करते थे। एक दिन उन्होंने विचार किया
"शरीरं व्याधिमन्दिर" - शरीर तो रोगों का घर 'है। साथ ही "शरीरं मोक्षसाधनम् " - इससे मोक्ष की साधना भी होती है। इसलिए रोग मन्दिर का योग मन्दिर बनाने में ही समझदारी है।
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रानियाँ, पुत्र, मंत्री आदि परिजन विलाप करते हुए उनसे प्रार्थना करने लगे- हे नाथ ! आप हमें मत छोड़िये, हम आपके साथ-साथ रहेंगे। जब तक आप वापस नहीं लौटेंगे हम आपके पीछे-पीछे घूमेंगे।
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| किन्तु निस्पृह चित्त मुनि ने किसी की भी पुकार नहीं सुनी। छह महीने तक परिजन उनके पीछे रहे, किन्तु मुनि सनत्कुमार ने आँख | उठाकर भी नहीं देखा। तब उदास-निराश होकर सब चले गये। और फिर उन्होंने संकल्प लिया
अब मैं जीवन पर्यन्त दो-दो दिन का उपवास, तप करूँगा।
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रूप का गर्व एक बार दो दिन के उपवास, तप का पारणा लेने वे एक गृहस्थ फिर गृहस्थ के हाथ से वही भिक्षा ग्रहण की के घर पर गये। गृहस्थ ने कहा
और पारणा किया। उन्हें लगा जैसे शरीर की ममता और अहंकार एक साथ चरमराने लगे हैं। जिस शरीर को छप्पन भोगों का प्रसाद चढ़ता था आज उसे यह रूखा
नीरस भोजन !
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मुनि ! मेरे यहाँ तो केवल छाछ और उबला हुआ जौ है।
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निरन्तर तप-आतापना, पद-विहार और रूखा भोजन आदि के कारण धीरे-धीरे शरीर में रोगों का प्रभाव बढ़ता गया। किन्तु फिर भी मुनि सनत्कुमार ने कभी शरीर की चिन्ता नहीं की।
तभी विरक्ति ने उन्हें ललकारा
। इतने पकवान
खाकर भी जो शरीर धोखा देता है, उसे तो
यही दण्ड मिलना 1 चाहिए न?
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रूपंका गर्व एक बार देव-सभा में बैठे देवराम ने मुनि सनत्कुमार को सूर्य के सामने देवताओं ने चकित होकर पूछा- पृथ्वीलोक पर आतापना लेते हुए देखा। उनके शरीर पर फोड़े-फुसिया, गाँठे आदि देवराज ! आप / महामुनि सनत्कुमार निकली हुई हैं। जीव-जन्तुओं के काटे का घावों से खून रिस रहा है। सिर पर बैठे पक्षी चोंच मार-मारकर कानों का माँस नोंच रहे हैं, फिर
|| किसकी प्रशंसा विपुल-वैभव को त्यागकर घोर भी मुनि अडोल खड़े हैं। देवराज ने सिंहासन से उतरकर वन्दना की
कर रहे हैं?/ तप कर रहे है। उनका शरीर
अनेक महारोगों से आक्रान्त धन्य हो
है, फिर भी उसकी परवाह महातपस्वी ! इतना
किये बिना तपोलीन हैं। अद्भुत तप ! इतनी
घोर तितिक्षा!
(फिट रोग की पीड़ा क्यों सह
रहे हैं?
| यही तो श्रमणों का घोर तितिक्षा व्रत है।
शारीरिक रोग पूर्व कर्मों का भोग है। इसे भोगे बिना मुक्ति कैसे होगी? इसी कारण घोर व्याधियों को समभावपूर्वक सहते हुए मुनि अपने तप में लीन हैं। (ऐसे अद्भुत तपस्वी सदा वन्दनीय हैं।
देवता बोले
आप अनुमति । दें तो हम इनकी चिकित्सा करें।
आप क्या चिकित्सा करेंगे? तप प्रभाव से उनके थूक, पसीने और मल-मूत्र आदि में भी ऐसी दिव्य शक्ति विद्यमान है कि उसका लेप
करने से वे कुष्ठ आदि सब व्याधियों से मुक्त हो सकते हैं।
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गणणणणपणे देवेन्द्र की बातें सुनकर वे दोनों देव मुनि सनत्कुमार की परीक्षा लेने वैद्य का भेष बनाकर पृथ्वीलोक की ओर चल दिये।
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मुनि सनत्कुमार ध्यान पूर्ण करके चलने ही वाले थे कि तभी वे दोनों देव वैद्य का रूप बनाकर बगल में झोली लटकाये हाथ में अनेक जड़ी-बूटी लिए हुए उनके सामने आये। बोलेहे तपस्वी ! आपके शरीर में तो कुष्ठ महारोग हो गया है।
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दोनों देवों ने आश्चर्य से पूछायह भाव रोग क्या होते हैं?
रूप का गर्व
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वत्स ! यह तो शरीर का स्वभाव है।
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आप इसकी चिकित्सा क्यों नहीं करवाते? हमारे पास सब रोगों की औषधि है। हम आपको शीघ्र ही रोग मुक्त कर देंगे।
क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय आदि भाव रोग हैं। ये जन्म-जन्म तक कष्ट देते हैं। कुष्ठ आदि तो शरीर के रोग हैं। शरीर के साथ ही छूट जाते हैं। इनकी क्या चिन्ता है ?
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वैद्यराज ! रोग दो प्रकार के हैं-द्रव्य रोग और भाव रोग। आप किन रोगों की चिकित्सा करते हैं?
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देव लज्जित से होकर बोले
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नहीं, इन रोगों की बात हम नहीं करते। हम तो शरीर के रोगों की चिकित्सा करते हैं।
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रूपका गर्व मुनि ने अपनी एक व्रण ग्रस्त अंगुली पर थूक लगाया क्षणभर में वह पूर्ण स्वस्थ सुन्दर हो गई।
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फिर बोले
शरीर के सब रोगों की चिकित्सा इसी के भीतर विद्यमान है, परन्तु मुझे इन रोगों की जरा भी चिन्ता नहीं है। न ही ये मुझे कष्ट दे रहे हैं।
देवता अवाक् से मुनि की मुख-मुद्रा देखते रह गये। मुनि ने कहा-
मुझे तो भाव रोगों की चिकित्सा करनी है और उसी के लिए तप-संयम-ध्यान की
साधना में लगा हूँ।
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रूप का गर्व
देव अपने असली रूप में आ गये। उन्होंने भक्तिपूर्वक मुनि को प्रणाम कियाधन्य है अद्भुत तपोयोगी ।
क्षमा करें महामुने ! हमें शक्रेन्द्र की बात पर विश्वास नहीं हुआ था, परन्तु आज आपकी उग्र तितिक्षा-सहिष्णुता, देह के प्रति अनासक्ति और तपोलब्धियाँ देखकर हम चकित हो गये।
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तीन प्रदक्षिणा कर देवताओं ने मुनि सनत्कुमार की वन्दना की और स्वर्ग को चले गये। मुनि सनत्कुमार ने ७०० वर्ष तक इसी प्रकार की घोर तप साधना करने के बाद अन्तिम समय में संलेखना ग्रहण की। जा
पंच-परमेष्ठी का ध्यान करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्यागकर वे पाँचवें सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न हुए।
कथाबोध
प्राणी जो शुभ कर्म करता है उसका इस जन्म में और अगले जन्म भी शुभ फल मिलता है। तो किसी के साथ द्वेष और शत्रुता करके उसके बुरे फल भी पाता है। सनत्कुमार का चरित्र यही सचाई प्रगट करता है। पूर्व जन्मों में की तपस्या और सेवा के प्रभाव से वह चक्रवर्ती सम्राट बना। इतना सुन्दर और आकर्षक रूप मिला, कि देखकर देव भी दाँतों तले अंगुली दबाने लगे। इस रूप का गर्व उनके मन में हुआ किन्तु देवताओं ने उनके अहंकार की पोल खोल दी कि जिस शरीर-सौन्दर्य पर आप इतना गर्व कर रहे हैं, उस शरीर में कितने रोग और व्याधियाँ छिपी हैं? शरीर की इस वास्तविकता को पहचानो ! वास्तव में परोपकार, तप ध्यान आदि करने में ही मानव देह की सार्थकता है।
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भावपूर्ण सचित्र पुस्तकों का अनमोल संग्रह
भक्ति रस का महाकाव्य सचित्र भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी) (ऋद्धि, मंत्र, यंत्र सहित) भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का भावपूर्ण रंगीन सुन्दर चित्र। सामने मूल श्लोक, अंग्रेजी उच्चारण (रोमन लिपि में) हिन्दी, गुजराती एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ भक्तामर के सैकड़ों संस्करणों में सर्वोत्तम दर्शनीय और पठनीय। आर्ट पेपर पर बहुरंगी छपाई। पक्की जिल्द में। मूल्य 325/- रुपया मात्र
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सचित्र तीर्थंकर चरित्र (हिन्दी/अंग्रेजी अनुवाद सहित) भारतीय संस्कृति में 24 अवतारों की एक पवित्र परम्परा रही है। हिन्दू धर्म में तीर्थकर चरित्र 24 अवतार, और जैनधर्म में 24 तीर्थंकर। 24 तीर्थंकर परम पूजनीय श्रद्धेय महापुरुष हैं। उनका पवित्र जीवन, नाम-स्मरण और दर्शन मानव जीवन को कृतार्थ करता है। इस पुस्तक में 24 तीर्थंकरों का प्रामाणिक जीवन चरित्र हिन्दी ‘एवं अंग्रेजी भाषा में, इतिहास-शैली में लिया गया है। बीच-बीच में इनकी जीवन घटनाओं को जीवन्त करने वाले मनमोहक मुँह बोलते 54. रंगीन चित्र हैं। अन्त में विविध प्रकार की ज्ञानवर्द्धक जानकारी देने वाले 14 परिशिष्ट व तालिकाएँ भी हैं जो अपने आप में एक सन्दर्भ ग्रन्थ हैं। मनभावन आवरणयुक्त, पक्की जिल्द वाला ग्रन्थ । बॉक्स पैकिंग युक्त। मूल्य केवल 200/- रुपया
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* दूसरों की सेवा करने में कितना सुख मिलता है।
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अनुभव
अनुभव करके देखिए
अपराधी को क्षमा करने में कितना आनन्द मिलता है। जरूरतमन्द को समय पर सहयोग देने में कितना सन्तोष मिलता है।
एक हिंसक और मांसाहारी को - शाकाहारी जीवन शैली सिखाने में कितनी प्रसन्नता मिलती है।
जीवन में सुख, सन्तोष और प्रसन्नता पाने के लिए लेने की जगह देना और सिखाने की जगह करना सीखिए ।
जहा विश्वास ही परम्परा है
आपका शुभचिन्तक:
शाकाहार एवं व्यसनमुक्ति कार्यक्रम के सूत्रधाररतनलाल सी. बाफना ज्वेलर्स " नयनतारा ", सुभाष चौक, जलगाँव - 425001 फोन : 23903, 25903, 27322, 27268
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________________ जैन साहित्य के इतिहास में एक नया शुभारम्भ सचिा आगम हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ जैन संस्कृति का मूल आधार है आगम। आगमों के कठिन विषय को सुरम्य रंगीन चित्रों के द्वारा मनोरंजक और सुबोध शैली में मूल प्राकृत पाठ, सरल हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रस्तुत करने का ऐतिहासिक प्रयत्न। अब तकप्रकाशित आगमन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र मूल्य 500.00 सचित्र दशवैकालिक सूत्र . मूल्य 500.00 (भगवान महावीर की अन्तिम वाणी अत्यन्त शिक्षाप्रद, जैन श्रमण की सरल आचार संहिता : जीवन में पद-पद पर ज्ञानवर्द्धक जीवन सन्देश।) काम आने वाले विवेकयुक्त संयत व्यवहार, भोजन, भाषा, विनय आदि की मार्गदर्शक सूचनाएँ। आचार विधि को रंगीन सचित्र अन्तकृद्दशासूत्र मूल्य 500.00 चित्रों के माध्यम से आकर्षक और सुबोध बनाया गया है। अष्टम अंग। 90 मोक्षगामी आत्माओं का तप-साधना पूर्ण रोचक जीवन वृत्तान्त। सचित्र नन्दी सूत्र मूल्य 500.00 ज्ञान के विविध स्वरूपों का अनेक यक्ति एवं दृष्टान्तों के सचित्र ज्ञाता धर्मकथांगसूत्र (भाग 1,2) |साथ रोचक वर्णन। चित्रों द्वारा ज्ञान के सूक्ष्म स्वरूपों को प्रत्येक का मूल्य 500.00 जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान महावीर द्वारा कथित बोधप्रद दृष्टान्त एवं रूपकों आदि मूल्य 500.00 को सुरम्य चित्रों द्वारा सरल सुबोध शैली में प्रस्तुत किया गया है। जैन धर्म के आचार विचार का आधारभूत शास्त्र। जिसमें सचित्र कल्पसूत्र मूल्य 500.00 अहिंसा, संयम, तप, अप्रमाद आदि विषयों पर बहुत ही पर्यषण पर्व में पठनीय 24 तीर्थंकरों का जीवन-चरित्र व सुन्दर विवेचन है। भगवान महावीर की साधना का भी स्थविरावली आदि का वर्णन। रंगीन चित्रमय। रोचक इतिहास इसमें है। संचिका आचारागसूत्र ACHARANGA SUTRA प्रकाशित सचित्र आगमों के / सैट का मूल्य 4,000/ प्राप्ति स्थान : श्री दिवाकरप्रकाशन ए-7, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-282002. फोन : (0562) 351165 सवित्र उत्तराध्ययन ध्ययन सा रोपादक-श्री अगर मुनि सचित्र E KALLASUTRA दशवैकालिक सूत्र (@ occare साताधर्मकथाङ्क सूत्र श्री कल्पसूत्रा श्री अमर मुनि LILUSTRATED PASAVATKALIKA SUUR Unata Dharma Kathanga Sutra