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चक्रवर्ती सनत्कुमार ने अपने बड़े पुत्र को राज-सिंहासन सौंपा और उपवन में विराजित विनयंधर सूरि आचार्य के पास पहुँचे। उन्होंने आचार्य से निवेदन किया।
हे महामुने ! मेरा मन | इस भौतिक संसार से विरक्त हो चुका है। कृपया मुझे दीक्षा देकर आत्म जागृति का पथ दिखाइये।
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रूप का गर्व
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विनयंधर आचार्य ने उन्हें दीक्षा प्रदान कर दी। मुनि सनत्कुमार एकल विहार करते थे। एक दिन उन्होंने विचार किया
"शरीरं व्याधिमन्दिर" - शरीर तो रोगों का घर 'है। साथ ही "शरीरं मोक्षसाधनम् " - इससे मोक्ष की साधना भी होती है। इसलिए रोग मन्दिर का योग मन्दिर बनाने में ही समझदारी है।
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रानियाँ, पुत्र, मंत्री आदि परिजन विलाप करते हुए उनसे प्रार्थना करने लगे- हे नाथ ! आप हमें मत छोड़िये, हम आपके साथ-साथ रहेंगे। जब तक आप वापस नहीं लौटेंगे हम आपके पीछे-पीछे घूमेंगे।
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| किन्तु निस्पृह चित्त मुनि ने किसी की भी पुकार नहीं सुनी। छह महीने तक परिजन उनके पीछे रहे, किन्तु मुनि सनत्कुमार ने आँख | उठाकर भी नहीं देखा। तब उदास-निराश होकर सब चले गये। और फिर उन्होंने संकल्प लिया
अब मैं जीवन पर्यन्त दो-दो दिन का उपवास, तप करूँगा।
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