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रूप का गर्व.
कुछ समय बाद रानी ने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। बारहवें दिन पुत्र का नामकरण उत्सव मनाया गया। परिजनों के बीच पण्डित ने कहा
राजकुमार सनत्कुमार चिरायु हों।
कुंभ राशि होने के कारण
बालक का नाम सनत्कुमार होना चाहिए।
सनत्कुमार आठ वर्ष का हुआ तो राजा ने कलाचार्य को आमंत्रित किया और कहा
(आचार्य प्रवर ! जैसे कुशल कुंभकार माटी को मनचाहे मनोहर आकार में ढाल देता है। उसी प्रकार आप इस बालक का जीवन निर्माण कीजिए।
राजन् ! यह बालक तो स्वयं कल्पवृक्ष का अंकुर है, मेरा काम तो केवल जल सींचकर विकसित करना है!
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गुरुकुल में ही महेन्द्र नामक एक क्षत्रिय कुमार के साथ सनत्कुमार की मित्रता हो गई। एक दिन महेन्द्र बोलादेखो, मित्रता करके मित्र, जैसे मेरी काया के छोड़ मत देना। साथ छाया लगी है। वैसे ही मैं कभी तुझे अपने से दूर नहीं होने दूँगा।
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आचार्य के साथ सनत्कुमार गुरुकुल में आ गया। सनत्कुमार और महेन्द्र गुरुकुल में शास्त्र और शस्त्र दोनों प्रकार की विद्यायें सीखने लगे।
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