Book Title: Prakrit Chintamani
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-व्याकरण-न्याय-ज्योतिष आदि विविध विषय मर्मन जैनाचार्य श्री घासीलाल जी महाराज प्रणीत प्राकृत चिन्तामणि [लघु सिद्धान्त कौमुदी-दीपिका समन्वित ] संप्रेरक ध्यानयोगी तपस्वी खामदेश केशरी पंडितरत्न मुनिश्री कन्हैयालाल जी महाराज प्रकाशक आचार्य श्री घासीलाल जी महाराज साहित्य प्रकाशन समिति इन्दौर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आगमवेत्ता परम पूज्य पं० मुनि घासीलालजी महाराज स्थानकवासी जैन समाज के एक ऐसे मनीषी संत हुए हैं, जिन्हें कई शताब्दियों तक विस्मृत करना संभव नहीं होगा। उनका जन्म मेवाड़ के वनोल ग्राम में (१८८४ ई०) हुआ, दीक्षा १६०१ ई० में जैनाचार्य श्री जवाहरलालजी (१८७५-१६४३ ई०) ने दी तथा ३ जनवरी १६७३ को उनका निधन हुआ। वे ८८ वर्ष जिये। उनका यह विश्ववन्द्य जीवनकाल न केवल जैन समाज के लिए बरनु संपूर्ण भारतीय वाङमय के लिए ऐतिहासिक सिद्ध हुआ। १६०१ ई० में जब उन्होंने मनि-दीक्षा ग्रहण की तव जैन साधुओं के लिए संस्कृत का अध्ययन निषिद्ध था । परम्परानुसार उन्हें संस्कृत पढ़ने की अनुमति नहीं थी. किन्तु जैनाचार्य श्रीजवाहरलालजी ने उन्हें न सिर्फ संस्कृत पढ़ने की अनुमति प्रदान की. अपितु उन्हें हर कृत भाषा और साहित्य का एक गारंगत विद्वान बनाने में भी गहन रुचि ली, फलस्वरूप उन्होंने न केवल संस्कृत का गहन अध्ययन किया बल्कि उस पर इतना अधिकार प्राप्त कर लिया कि आगे चलकर उनमें विपुल साहित्य का निर्माण भी किया। वे न सिर्फ एक सूत्रकार व्याख्याकार ही थे अपितु शब्द-शिल्पी भी श्वे अर्थात् कारयित्री (सृजनधर्मी) प्रतिभा के धनी भो थे । उन्होंने जैन समाज में नबक्रान्ति के सुत्रधार लौकाथाह पर एक सफल महाकाव्य लिखा है। स्तोत्रों और स्तुतियों का तो कोई हिसाब ही नहीं है । वे महाकवि थे, मनीपी साहित्यकार थे। उनके सम्पूर्ण साहित्य को हम आठ वर्गों में संयोजित कर सकते हैं—आगभ साहित्य, उपांग साहित्य, मूल साहित्य (व्याख्या), छेद-साहित्य, न्याय-साहित्य, व्याकरण, कोण और काव्य । उनका अधिकांश-साहित्य अभी प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। यह सुखद और मंगलमय है कि इन्दौर स्थित पूज्य श्री घासीलालजी महाराज साहित्य प्रकाशन समिति ने उनके इस साहित्य को प्रकाशित करने की एक व्यापक योजना तैयार की है। मुझे विश्वास है इसके द्वारा परम पूज्य प्रातः स्मरणीय पं. घासीलालजी महाराज की मनीषा का अमृत-पान हम कर सकेंगे । फिलहाल उनके तीन ग्रन्थों के प्रकाशन का दायित्व समिति ने अपने कंधों पर लिया है। ये हैं-'प्राकृत चिन्तामणि', 'प्राकृत कौमुदी' (पाइय कोमुई) तथा 'श्री नामार्थोदयसागर कोश' । उक्त तीनों Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ न केवल जैन साहित्य की बल्कि विश्व-साहित्य की बहुमूल्य धरोहर हैं। हमें विश्वास करना चाहिए कि इनके प्रकाशन से हिन्दी भाषा के अध्ययन-अनुसंधान के मयेद्वार तो खुलेंगे ही, साथ ही संस्कृतसाहित्य भी समद्ध होगा । 'नामार्योदयसागर कोश' एक तरह का पर्यायकोश है. जिसमें शब्दों की नाना विवक्षाओं (अर्थछवियों) पर बहुत गहराई से प्रकाश डाला गया है। अंग्रेजी में तो इस तरह के कोश-संपादन की परम्परा है किसुसंस्कृत में नाम से जगा में इसका अवतरण एक महत्त्वपूर्ण कार्य है ! इस कोश से हिन्दी की भाषाशास्त्रीय संपदा अवश्य समृद्ध होगी। इस ग्रन्थत्रयी की शृंखला में से सर्वप्रथम प्रकाशित हो रहा है, 'प्राकृत चिन्तामणि', जिसके कुल मिलाकर १० पट है: किन्त ये सब गागर में सागर हैं। टाइप छोटा है किन्त इस बात की परी सावधानी रखी गई है कि यह भाषा और मुद्रण की दृष्टि से पूर्णतया निर्दोष हो। उक्त ग्रन्थ में प्राकृत भाषा (पृष्ठ १-६६), शौरसेनी भाषा (६७-८०), मागधी भाषा (७१-७३), पैशाची भाषा (७३-७५), तथा अपभ्रश भाषा [७७-८६) की संरचना पर विचार किया गया है। यह काम ५६८ मूत्रों में संपन्न हमा है । व्यवस्था इस प्रकार है-सूत्र, कौमुदी, और दीपिका । सूत्र और गौमुदी (अर्थ-विवृति संस्कृत में हैं: किन्तु दीपिका में संबंधित सूत्र या सूत्रों के सरल हिन्दी में अनुवाद दे दिये गये हैं। इस तरह 'प्राकृत चिन्तामणि' संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषा-भाषियों के लिए उपयोगी बन गयी है। वस्तुतः आज हिन्दी और संस्कृत के जानकार तो उपलब्ध है; किन्तु 'प्राकृत चिन्तामणि' में जिन लोकभाषाओं के व्याकरण को प्रतिपादित किया गया है, उनके जानकार प्राप्य नहीं हैं । जहाँ तक जैन वाङमय का प्रश्न है, उसकी गहराइयों में उतरने के लिए प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्रश भाषाओं का गहन अध्ययन आवश्यक है। इन्हें जाने विना अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। वस्तुतः इस ग्रन्थ के प्रकाशन से जैन साहित्य के अध्ययन-अनुसंधान के नये क्षितिज खुलेंगे और प्राकृत के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त होगा। हम तपस्वी ध्यानयोगी मुनि श्री कन्हैयालालजी महाराज के कृतज्ञ हैं जिन्होंने इतनी अमूल्य अप्रकाशित निधि को प्रकाशित करने का अवसर प्रदान किया । मुझे विश्वास है कि पूज्य श्री घासीलाल जी महाराज साहित्य प्रकाशन समिति, इन्दौर निकट भविष्य में ही उनके संपूर्ण वाङमय के निर्दोष प्रकाशन में सफल होगी। दीपावली १९८७ —नेमीचन्द जैन संपादक 'तीर्थकर', इन्दौर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका अथाधिकारप्रकरणम् संज्ञाप्रकरणम् परिभाषाप्रकरणम् लिंगव्यवस्था सन्धिप्रकरणम् अथान्त्यहल्विकारप्रकरणम् अथचन्द्रविधिः अथाजादेशादिप्रकरणम् अथसाज्झलाजादेशप्रकरणम् अथासंयुक्तादिहलादेशप्रकरणम् असंयुक्ताघनादिहलादेश असंयुक्तानादिहलादेश अथकवर्गादेशः अथ चवदेशः अथटवर्गादेशः अथतवर्गादेशः अथपवर्गादेशः अथयणादेश: अथशषसहादेशः अथासंयुक्तानादिव्यंजनलुष्प्रकरणम् अथ साज्झलुप्रकरणम् अथनिपातप्रकरणम् अनसंयुक्तह्लादेशः अथसंयुक्तावयवलुप्प्रकरणम् अथद्वित्वप्रकरणम् अथागमप्रकरणम् अथव्यत्ययप्रकरणम् अथतद्धितप्रकरणम् अथाव्ययप्रकरणम् अथसुबन्तप्रकरणम् तत्रपूलिंगाःसामान्य शब्दाः आकारान्ताः पु० शब्दाः अथ-इदुदन्ताः पुं० शब्दाः इदुदन्ताः सा. पु० शब्दा अथ ऋदन्ताः अथाजन्त स्त्रीलिंग प्रकरणम् अथा इदुदन्ताः स्त्रीलिंग पब्दाः अथ ईदन्ताः अथ ऊदन्ताः अथ दन्ताः अथ नपुंसक प्रकरणम् अथ इदुदन्ताः अथ ऋदन्ता नपुंसकलिगाः अथसुवन्तविशेपशब्दाः अन्नन्त पुल्लिग आत्मन् शब्दाः अथहलन्तस्त्रीलिंग विशेष शब्दाः Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ७७ अथहलन्त नपुंसकलिंग विशेष शब्दाः अथसर्वनामप्रकरणम् अथ यच्छब्दः अथ तच्छन्दः एतच्छब्दः किम् शब्दः अदश्शब्दः अथयुष्मदस्मत्प्रकरणम् अथसंख्यावाचकद्विशब्दाः संख्यावाचक विशदाः संख्यावाचक चतुःशब्दाः अथसर्वनामस्त्रीलिंगप्रकरणम् अथनपुंसकेसर्वादिशब्दाः अविभक्त्यन्तादेशप्रकरणम् अमीप्रभावित अयोत्तरातिङन्तप्रकरणम् तिइन्तप्रकरणम् अथण्यन्तप्रक्रिया अथभात्रकर्मप्रक्रिया अथधात्ववयवादेशागमाः अथधात्वादेशाः अथ ण्यन्त धात्वादेशाः अथकृदन्तप्रक्रिया प्राकृत भाषा समाप्त।। शौरसेनी भाषा अथशौरसेनीभाषायामादेशविधिः आख्यातप्रकरणम् अथतिइन्तप्रक्रिया अथकृदन्तप्रक्रिया मागधी भाषा अथपैशाचीभाषा ७३.७५ अथ चूलिका पैशाची प्रारभ्यते अथापभ्रश प्रकरणम् ७७-८९ अपभ्रशे अधिकारविधि: अपभ्रशे अजादेशः अपभ्र गे सुबन्तेसामान्यविधि: अथ स्त्रीलिंगशब्दा: अथ नपुंसकलिगाः अथसर्वनाम पुल्लिगा अथ स्त्रीलिंगा सर्वादयः अथ नपुंसके सर्वादयः अपभ्रशे सर्वादौ युष्मदस्मत्प्रकरणे युष्मनछन्दः अपभ्रशे सर्वादी युष्मदस्मत्प्रकरणे अस्मच्छद्धः अथ तिङन्तप्रकरणम् अथ धात्वादेशाः अथगुरुवर्णस्य लघूच्चारणप्रकरणम् अथादेश प्रकरणम् अथाव्ययप्रकरणम् अथस्वार्थिकाः प्रत्ययाः अलिगव्यवस्था प्राकृत चिन्तामणिस्थ सूत्र सूनी १०-१०० शोर सेनी भाषा सूत्राणि मागधी भाषा सूत्राणि पैशाची भाषा सूत्राणि अथापन शभापा सूत्राणि ग्रन्थकर्ता प्रशस्तिः ६७-७० ६७ ७१-७२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीः॥ ॥ मंगलाचरणम् ॥ देवाहिदेवं जिणरायरायं -गुणायरं य गणिरायरायं । पाइयसत्थस्स पवेसणह्र-पगम्म चिंतामणि मा कहेमि ।।१।। छापा --वेवाधिवेषं जिनराजराज गुणाकरं च गणिराजराजम् । प्राकृतशास्त्रस्य प्रवेशार्थ प्रणम्य चिन्तामणि मा कथयामि ॥१॥ (२) सिद्धिः स्या • स्याद्वावलोकाच्च । १.१.२। [अयाधिकारप्रकरणम्] मिलेंगे। संष स्पष्ट है। अनुक्त अन्य व्याकरणवत् सूत्र होता है। (१) अथ प्राकृतम् । १. १,१। (४) बहुलम् । १, १,४। को अयमप्यधिकारस्तव । तेनाऽत्र प्रायः पर्वमेव (३) अनुक्तमन्यव्याकरणवत् । १.१,३। कार्य क्वचित्स्यात क्वचिन्न, क्वचिढ़ा क्वचिदन्य देवेति यथास्थानं वक्ष्यामः। कौमुदी (५) आर्षम् । १.१.५। ___ आशास्त्रसमाप्तेरिमेऽधिकाराः । प्रकृति: संस्कृ कौ० अयमपि तथा । पार्षे सर्वेविधयो विकल्प्यन्ते । तम् । तत्र भवं तत आगतं वा । तद्विविधम् । तत्सम तदपि अग्रे दर्शयिष्यते । इत्याधिकार प्रकरणम् । तद्भवं ष। तद्भवमपि द्विविधं सिद्ध-साव्यसंस्कृत भेदात् । आद्य-द्रव्ये दवं । सर्वत: सव्व ओ । [संशाप्रकरणम् द्वितीयं-वृक्ष-सि वच्छाओ इत्यादि । प्राकृते । (६) आदि द्वितीयोकिली। १, १,६। प्रकृति प्रत्यय लिङ्ग कारक समाससंज्ञादयः संस्कृत __ कौ० शब्देषु प्रथम द्वितीयौ वर्गों क्रमात्किखि संजवद् भवन्ति । स्वयग्यासंयुक्तौडनी, प्लुतथिसगौं, कौस्तः । ऋऋलए औ शषाः चतुर्थीविभक्तिः द्विवचनं चैते न ० शब्दों में प्रथम तथा द्वितीय वर्ण क्रप से कि तपा भवन्ति । क्वचिद् ऐ, औ, चतुथ्यो एकवचनं च खि संजक होता है। भवन्ति । तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यते । (७) संयुक्त स्किः । १, १,७ । कौ० संयुक्ताहल: स्किसंज्ञकाः स्युः । द्रव्यम् । वोपिकाअथेति । शास्त्रसमाप्तिपर्यन्त प्राकृत आदि का (4) चन्द्रोऽनुस्वारः । १.१,८। अधिकार है। प्राकृत में प्रकृति प्रत्यय लिङ्ग कारक तथा । कौ० अनुस्वारश्चन्द्र संश: स्यात् । समाससंज्ञा आदि संस्कृततुल्य होता है। स्वर्गीय से (६) इपलब्धः शास्त्र । १,१,६। असंयुक्त इन प्लुस-विसर्ग ऋऋ ल ए औ श—ष चतुर्थी को० शास्त्रमात्रे य उपलभ्यते नतु प्रयोगे स इत्स्यात् । विभक्ति, सर्वत्र दिवचन प्राकृत में नहीं होते हैं । कहीं ऐ ओ (१०) लुप् तस्य । १, १, १० । तथा चतुर्थी के एक वचन होते हैं. यथास्थान उदाहरण कौ० इत्संज्ञकस्य लुप् स्यात् । १. क्रम-सर्वप्रथम सूत्र, फिर संस्कृत में कौमुदी तया हिन्दी में दीपिका इस प्रकार क्रम सर्वत्र समझना चाहिए । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २) प्राकृत चिन्तामणि (११) उपलब्धाऽदर्शनं लुप् । १. १, ११ । बी० दामादिभिन्न सान्त-नाम्ल-शारत्-तरणि तथा प्रावृष कौ० उपलब्धस्यादर्शनं लुप् स्यात् । शब्द पुल्लिग में प्रयुक्त होते हैं। तरणि-पुस्त्रीलिङ्ग (१२) वानिवर्तकं चित् । १, १, १२ । पुल्लिग में ही होगा। कॉ० चित् विकल्पस्य निवर्तकं स्यात् । [सन्धिप्रकरण {१८} सानुगारियड नित् ।। . १६ (१२) या सन्धिरपदे । १, १, २२। कौ. नित्कार्य सानुनासिकोच्चारं स्यात् । कौ० प्राकृते पदयोः संधि स्यात् । अपदे इति निषे॥ परिभाषा प्रकरणम् ।। धात पदयोरिति लभ्यते । ख्यार्षिः -वा-सेसी। (७) दी| दिति । १, १, १४ । वास इसी विसमाययो, विसम आयवो। अपदे को० दिति परे पूर्वदीर्घो भवति । 'जमशसोद्लुप् इति किम् । कपिः कवि वर्वा= कई। बाहुलकाव1३, १, ४) जिणा। चिदेके पदेऽपि । करिष्यति, काही काहिइ कर्मइ । (८) ठितोवित्वम् । १, १, १५ । दी वेति । प्राकृत में दो पदों में सन्धि विकल्प से होती को ठकारेत्संज्ञकस्य कार्यस्य द्वित्वं स्यात् । मि है। व्यास-ऋषि-सु-२, ३, ६८ व्या-वास= १, ३, सठाब स्त्रियाम्' (३, १, ६) जिम्म, जिणस्स। ३६, ४, ३६ पि-इसि-प्र० सू० वै, सन्धि ३, १, २५ स्यादिकार्य-वासेसी, वासइसी। विषम-आतप-प्र. सू० (१०) सूत्रम् समासे परस्पर वीर्घह्रस्यौ । १, १, १६। । दीर्घ-विकल्प =१,४,३६ ष-स २, २,१,३ त य कौ० समासे परस्परमचा दीर्घह्रस्वौ बहुल स्त:। ३, १, १३,-बिसमायबो (=-पो २,१,४१) पने अन्तर्वेदि:--अन्तावेई। क्वचिन्न । जुवइजणो। विसमायवो। कृ-स्य-ति-२, ३, १.२७-४, ५= क्वचिबिकल्पः । वारिमई बारीमई। दीर्घस्य काहि-३=प्र० सू० वा–सन्धि काही-काहिइ। ह्रस्वः शिला-स्खलित- सिलाखलि। क्वचिद्वा गोरिहरि गोरीहरि। (१३) श्वो न यण् । १, १, २३ । वो० समेति । समास में परस्पर दीर्घ को ह्रस्व, ह्रस्व को कौ० इदुतो न स्यात् । दहि-एत्थ । मह-एत्थ। दीर्घ होता है। अन्तर-वेदि-सु-१, १, २८ रेफ दी० य्वोरिति । इ-तथा उ को यण नहीं होता है। दधिलुप् प्र० सूत =न्ता २, ३, १, १, २६, ३, १, २५= अत्र, मधु-अत्र २, १, ७ ध=ह. १, २, २३-२, ४, १७ अन्तायेई। कहीं पर नहीं होता है - जुबड्=जणों अत्र-एत्य दहि-एत्य, महु-एत्य यहाँ क्रम से इ= इत्यादि। य, उव नहीं होता है। [लिङ्ग व्यवस्था] (१४) एकोऽचि । १, १, २४ । (११) पुसि स्नान्लशरत्तराणिप्रावृउवामादि। कौ० एदेतोरचिपरे न सन्धिः । देवीए-एत्य । देवो १, १, १७। एत्थ। कौ० दामादिभिन्ना: सान्तनान्ताः शरत् तराणि बी० एकोऽचीति । एकार तथा ओकार को सन्धि नहीं होती प्रावृषपचैते पुसि प्रयुज्यन्ते । स्नान्तं च क्लोवमेव है। देवीटा-३, १, ३१= देवीए-एत्य देव-सु = नतुस्त्रीलिङ्गम् । तेनाप्सरसाशीषादीनां न पुंस्त्वम्। ३, १,१३-देवो--एत्य प्रसू. सन्धि निषेध से ए-त्री तमस्-समो। जन्मन् जम्मो । सरो। एसो तरणी। ' को अय.. भव नहीं होता है। पाउसो । दामादेस्तु दाम सिर इत्यादि। 'वावचनादिलोचनार्थाः' 'क्लीवे गुणादिः' 'स्त्रियामज- (१५) तिडोऽचः । १, १, २५ । ल्यादीमान्तो' 'वाहोराच' (१, १, १८-२१) इस्येतानि कौ० अचि तिङामचः सन्धिर्नस्यात् । होइ-इहप्रा. को० द्रष्टव्यानि। (भवतीह गा अत्र न दीर्घः) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | ३ दी. तिडोग्य हसि 1 अच् से पूर्व तिड के अच् को सन्धि २, ३, ६,०६९- खु३, १, २५-स-भिक्खु । सद्नहीं होती है। प्र-सि-४, १, २, ३,३,१=होह- जन-सुज२, ३, ६७. ७५ दजज्ज -सज्जणो। इह- दीर्घ नहीं। (१९) आस्त्रियाम विद्युतः । १, १, ३३ । (१६) शेषे । १, १, २६ ।। कौ० लुबपबाद: 1 स्त्रियामन्त्यहल: स्थाने आचस्यात् । पि सत्यवशिष्यमाणोजचपरे न सन्धिः। संपा। वाहलकात्यश्रतिः =संपया। विद्य तोन, रजनीचर:- रयणीअरो । बाहुलकात्कुम्भकारा- विज्जु । 'रान्तेरा' ३४। गिर-गिरा। 'क्षुत्कम्मोह:' दीनां वा । कुम्भारो कुम्भआरो। चक्रवाकशात- ३५ 1 छुहा । कतुहा । 'वा धनुषि' धणुहो धणू । बाहनयोः सन्धिरेव । चक्काओ। सालाहणो । एत- 'आयरप्सरसोः सः ३७ । आयसो आयु 1 अच्छरसा त्प्रतिषेधादेव समासेऽन्यः सन्धौ पृथक्पदत्वम् । अच्छरआ। दिनावृषोः सच्' ३८ दिसा । पाउसो। बी० शेष इति । हल-लुप होने पर शष अच से पूर्व अच 'वा सदाशिषः' ३६ । आसीसा आसीआ। इत्यादि को लुप् होता है। रजनीचर--सु---२,१,३२ नाणी प्रा० कोद्र०॥ आजपवादः । २, २, १. च लुप्-अ-प्र. सू. असधि = रथ ! -ज२, दी। आजिति । स्त्रीलिंग में अन्त्यहल को अर होना है २,१. ३) णी-अरो। बाहुलकात्-कुम्भकार-सु-२, २, विद्युत शब्द में नहीं । सपद्-तृप्-वाधकर-मासपा १ का= आ प्र० स० वा असधि = कुम्भारो कुम्भआरो। २,२,३ सपना । विद्युत-सु = १, १, २८ त् = नुए २, ३, चक्र-वाक्-सु-२, ३, ६६.७५ =क्क २, २, १. बा २१. ७५ ३१. २५ - विज्जू । २, ४२४ म्वाल -राप =मा पक्कायो । शासवान-सु= १, ४, ३६, २, १, २३ = बिज्जुला । शात - साल २, ३, २, १ का - आ = सालाहणो । यहाँ (२०) शरदादेरख् । १, १, ४० । पर सन्धि निस्य है। कौ० अन्त्यहलोऽस्यात् । सरओ । भिसओ। (१७) लुप् । १, १, २७। बी गरेति । भरवादि के अन्त्यहल क अ होता है। कौ० अचोऽचि बहुलं लुपस्यात् । तिअसीसो। शरत =आ-चाधकर प्र० सू० म ११,१७ पस्त्व ३, ॥ इति सन्धि प्रकरणम्॥ १.१३ स्वा. का= सरो । भिस-ष १, ४, ३६ । पी. लुविति । अब से पूर्व अचू को बहुस प्रकार से लुप् भिसओ। होता है। २, ३, ६६ त्रि-ति २, २, १, १, १. २६, १, [अथ चन्द्रविधि: ४.३६-दश=तिअस= ईस-तिमसीसी। [अथान्त्यहल्विकार प्रकरण] (२१) मश्चन्द्र च । १, १, ४२ । कौ० अन्त्यमस्य चन्दः स्यात् । जलं । वाहुलकाद(१८) हलोऽन्त्यस्या श्रवुदी । १. १, २८ । नन्यस्यापि । वाम्म बणमि । 'अचि वा' ऋषभकौ० अन्त्यहलोलुप् स्यात् । तावत् = ताव । श्रिदु- मजितं च वन्दे =उसभमजिअं उसभं अजिअं य वन्दे। दोन) सदा। अगयो। समासे तु भयम् । सभि- इत्यत्यहल्विकारविधि: क्ख । सज्जणो । नाऽभ्यन्तरश्व 'उपरोद्लु' दी० मश्चेति । अन्त्य म को अनुस्वार होता है । जल-अम् (१, १, ३०, ३१) अन्तरङ । अन्ताउरि। ३१, ३ म-प्र० सू० चन्द्र = जलं । वण (=न २, वी० हल इति । अन्त्यहल को लुप् होता है। श्रद तथा १,३२)-डि=३,१६.१.१.१३ म्मि-वाइलक-अनन्त्य उद में नहीं । १, ४, ३६, २३, ६६ थ-स=सदा । २, म चन्द्र = वर्णमि । १, ३, ४५, ४, ३६ ऋषभ ३, ६७ उद्ग =उम्ग-२, २.१, ३ त य-सु= जग्गयो। उसभ-भ (= अम्) अजिस( त) म्-१.१, ४२ ॥ समास में उभय। सद्-भिन- सुप्र० सू० साद-लूप चन्द्र-उसभमजिअं पक्ष उसभं अजिब। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | प्राकृत चिन्तामणि (२२) हल्पमो वन्त्यिस्य चित् । १. १, ४५। बी०१द से पर इति के आदि अच् को निस्य लुप होता कौ० हलिपरे वर्गान्त्यानां इत्रणानां चन्द्रो नित्यं है । किं (= किम्) प्र० सू० इति = ति = फिति । तथास्थान्नत मस्य। अङ्क:-अंको। 'दर्शनादिष्वचः' इमि१, २, ३३,२१,७ था-ह १,२,६ इति= दसणं । बयंसो। अबरि इत्यादि। क्वचिच्छन्दः तितहत्ति । इति जिन वचनं १, २, ४३ ति-इ-अ, पूत्तौ देवनाग सुवषण । 'क्त्वासुपोणिसूभ्याम्' २, १, ३२ न=ण २, २, १, ५= इअ जिणवयणं । जिणाणं, ण । काऊणं ण । जिणे सु, सु । "लुप् (२७) दीघोलुरतयवरशारिरि । १,२,७ । तस्यकास्यांदौ" कासं कंस । मास मंसं इत्यादि । कौ० शषसाः शर इति पाणिनीये । येन शरा संयुक्ता"तदन्त्योवर्ग" पङ्को पंको अञ्जली अंजलीत्यादि । शाद। याद्या लुप्तास्तस्मिन्शार परे आदेरचो दीर्घः स्यात् वशत्यादौ त्या दुलूप च" विशति= बीसा। यति पास। विश्वासः=वीसासो इत्यादि । त्रिंशत् = तीसा इत्यादि। "दक्षिणे हे" (१, २, ८) दाहिणो । हे इति किम् । ।इत्यनुस्वार प्रकरणम्। दक्षिणो। बी० हलीति । हल से पूर्व म-भिन्न वर्गान्य को अनुस्वार दी. दीर्घति । जिन श=ष-स के संयुक्त य-ब-र। होता है । उ० स्पष्ट है। लुप्त हुए हैं उन शेष श-प-स से पूर्व आदि स्व' को दीर्घ अथाजादेशादि प्रकरणम्] होता है। कश्यप-विश्वास-विश्राम-शिष्य इत्यादि में २, ३, (२३) आवेः । १,२,१। इस्यधिकृत्य ६८, ६६ य-व-र-सुप-प्र० स० दीर्घ १, ४,३६ श-ष-स (२४) अव्ययत्यदादेस्तदचों या लुप् । १. २,२। २,१,४१ प-३, १.१३म्बादिकार्य-कासयो यीसासो को आभ्यां परयोरनयो रेवादरचोबासुपस्यात्। विसामो सोगा उत्यादि । दक्षिण-सु-२, ३, ६४ क्ष-ह जइमा, जहइमा । अम्हेत्थ अम्हे एस्थ । 'अरण्या- १, २, ८ द-दा ३, १, १३ सु= ओड्= दाहिणो । लाग्दोः (१,२,३) रणं अरणं । लाऊ अलाऊ। हत्वाभावे-२, ३, ६.७६ -ख-दक्षिणो। बी० अव्वयेति । अध्यय सधा त्यादि से पर अव्यय तथा (२) वा समृद्ध यावो । १, २, ६ । त्यदादि के अन् को लुम् बिकल्प से होता है। यदि १, ४, को आदेरचोवादीपः सामिद्धी समिद्धी समद्धि २८ य= २, २,१ दि-t=जइ-हमा । जइमा । प्रसिद्धि प्रकट प्रतिपद् प्रसुप्त प्रतिसिद्धि, सदृक्ष अम्हे-एत्य । लुपि= अम्हेत्व । अरण्य-सु-१,२,३ आदि मनस्विन मनस्विनी अभिजाति प्ररोह प्रवासिन् -r=लुप २, ३, ६८. ७५ ण्य = पण ३, १,२६ सु प्रतिस्पद्धित इति समृद्ध गादिः । म् १, १, ४२ चन्द्र =रणं, पक्षे अरण्णं । अलाबू.-सु वी० देति । समद्धयादि में आदि अच् को दीर्घ होता है। प्र० मूल अ-सुप् २,२, १ व--सुप १, १, २६ असंधि समृद्धि-सु प्र० सू० वा-दीर्घ १, ३, २६ = ३, १,२५ ३,१, ११ सु-लुप्-लाऊ, अलाऊ । सु-हाज समिती । पक्षे समिद्धी। मनम्बिन-मनस्विनी (२५) पदारपेः । १.२, ४। । 'दर्शनादिप्वचः' २२ नं २,१. ३२ णव १, १, २८ न् को आदेरचो वा लुप् । कि पि1 किमवि । केण लुप् =प्र०म० दीर्घ-मणंसि(-स्वि-२,३,६६)णी। वि । केणावि 1 पदात्किम् अपि गच्छसि । माणसिणी । मार्णसी मणसी । इत्यादि । बी० पदादिति । पद से पर अपि के अकार को विकल्प मे लुप हो जाता है। (२६) मृदङ्गावावस्येच् । १, २, १० । (२६) इतेश्चित् । १, २, ५।। कौ० आदेरस्य स्थाने नियमिच्स्यात् । मिइङ्गो कौ० पदारपरस्य-इतेरादे स्वो नित्यं लुप् स्यात् । मुइङ्गो। सिविणो सिमिणो । आर्षे-सुमिणो । मृदङ्ग किंति । "अचस्त;" (१, २, ६) लुवपवादः । तहत्ति। स्वप्न इषत् वेतस कृपण उत्तम मरिच व्यत्नीक 'तेरितौवाफ्यादौ १,२,४३ इस जिणवयणं । व्यजन दत्त इत्यादि। दिण्णं । वाहलकादणत्वेन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि |५ स्यात् । दत्तं। वा पक्व ललाटाङ्गार घेतसे । ११ । १.२, १६ व–अ = 3, २, २, १ –लुप् १, १, २६ पिक पक्क [इङ्गालो अङ्गारो] पिडालं णडालं असंधि-स्वादिकार्य = गयो । वेडिसो वेअसो। 'खे: सप्तपणे'। (२. १, १२) ४ (३१) सर्वज्ञादौ णेः। १, २, २० । छत्तिषणो छत्तवण्णो। 'चित्कप्तममध्यमे' (१, २, १३) कइमो मज्झिमो। कौ० जम्नोः' (२, ३. ३६) इतिणत्वे णकागकारस्य नित्यमुत्वं स्यात् । सर्वष्णू अहिण्णू। आगमण्णू दी अतइति । सदङ्गादि में आदि के स्थान में इल इत्यादि । यत्र णत्वे सत्युत्वं दृश्यते स सर्वज्ञादिः । नित्य होता है। मृदग-१, ३, ३७ मृ-मि-मु-प्र० सू० तेन प्राज्ञः पण्णो इत्यादौ न । णे इति किम् । सव्वददि , २, २,१, ११, २६. ३,१, १३-मिइनो ज्जो अहिज्जो। मुहङ्गो। स्वप्न-२, ३, ६६ स्व-स-सि २, ३, ६६ प्न=पिन' २, १, ३२, ४२ विण २, १, ५१ वै० म० सी० सर्वेति । सर्वज्ञादि में अ को उत्व होता है । सवंगसिविणो सिमिणो । दत्त-२, ३, ३४.७५ त्त- पण = अभिश-आगमन-२, १.७ भि-हि, २, ३, ६६.७५ दि-दिण्णं । णत्वाचा भावे दत्तं । परकंबं. इत्व, २, ३, वं = व्य-२, ३, ३६.७५ = पण =प्र० सू० उत्व २,१, ६६. ७५ श्व-म - पिक्कं पक्कं । ललाटं =१,४, ३१ २५, ग्वादिकार्य =सन्चपण अहिण आगमण । जहाँ श आदि ल=ण-वं.इत्व २.१,१७८ वेतस-त=ति को णत्व होने पर उत्व दीखता हो वह सर्वजादि है । प्रतः -२, १,१ डि-वेडिसो पक्षे२, २,१,वेअसो २, प्राश १, २, ३६ हरव-२, ३, ६६ र-लुप = पण्णो ४,३ ध्यत्यय =णिठालं जहालं, २,१,४७ र=ल = इत्यादि । २.३,७१-ज-ब लुप ७५ द्विस्व = पतालो. पक्ष अङ्गारो ।। सप्तपणे १.४, ३५ स-छ सवज्जो इत्यादि में णत्वाभाव में उत्व नहीं होता है। २, १, ४२ पब २, ३, ६७, ६६. ७६. ७५ प्त = त, (३२) कन्दुकावावेच । १, २, २३ । - ण 'ले: १, २, १२ त-4. इत्व -त्ति-त्त= कौआदेरेवर्णस्य नित्यमेव स्यात् । गेन्द्र । सेज्जा। छत्तिणणो छत्त०। कतमो--मध्यमो-त-य-इत्व, कन्दक, शय्या, सौन्दर्य, ग्राह्य, अन इत्यादि । 'चे २, २, १, १, २६ लुप्-- असंधि- कइमो। २, ३, २४. ब्रहारचर्ये १.२.२४ धम्मधेर। 'खेरन्तर्पश्चात्कर्म ७६ ध्यि-क्षि-मज्झिमो। पुराकविवर्यपारावते' (१, २, २६) णत्वं वा । मन्ते (३०) प्रथमे प–योहत् । १, २, १६ । आरी पच्छेकम्म पच्छाकम्मपुरे, रा कम । कौ० प्रथमे प-योरस्यक्रमादक्रमाच्चोत्वं वा स्यात् । अच्छेरं, अच्छरिअं! पारे, रावयो। पुढमं पदुमं पुलुमं पढमं । "ध्वनिसास्नास्तावक- धी० कन्दुकादि में आदि अवर्ण को नित्य एत्व होता है । योश्चित्' १, २, १८ झणी। सूहा। शुषयो। कन्दुक-प्र० सू० आदि-अ =ए १, ४, १४ के - मे, 'विष्यग्गवयवे वः' १, २,१६। बीस गउओ। क-- लुग्गे न्दुओं। शय्या-१,५३६ =स २, ३, २०.७५ ग्या- ज्जा-त्व सेज्जा । शेषं स्वयं समझलें। दी. प्रथम शब्द में प-सभा थ में अ-को म तथा अक्रम से उत्व विकरुप से होता है । २, १, २.५-- (३३) पद्मम्योत् । १, २, २६ । पुहम ४ । ध्वनि--२, ३, १५ 64 = १, २, १८ क्षु कौ० द्विरुक्त मकारे परे आदेरस्य नित्यमोत्वं स्यात् । ३२ -३,१, २५-झणी। २, ३.३४-सास्ना= पोम्म । 'छदम पदमे (२,३. ) त्य 'सुण्डा ! २,३,१८ स्ता=आउ २,३,४२ स्तु-- त पउम। खेः परस्परनमस्कारे (१. २, ३, १, ३ === स्वादिकार्य थुक्यो । २, ३, ६६ परोप्पर । नमोक्कारो। 'स्को ह्रस्वः' (१, २, ३६) ध्व- - लुप १, २, ७ दीर्घ = १, २, १६ उत्त्व = यीसु इति ह्रस्वेतु एसो पंच नमुक्कारो। अपौं वा (१, २, १, १, २८ क्लुप् १, १, ४६ सुसुवीसु। गवय - ३२) ओप्पि अप्पियं । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ | प्राकृत चिन्तामणि to द्विरुक्त स्म से पूर्व पद्म पाब्द में अरवि अ. को बो होता है। पद्म २, ३, ६७. ७५ दुम =म्म – प्र० सू० पापो पोम्मं । २, ३, ९६.२, २, १, पउम । २, ३, ६५, ७५ स्पप्प, स्कक्क १, २, ३१ र रो, ममोपरोप्परं नमोक्कारो । अर्पितं = १, २, ३२ ओप्पि अप्पि | ३३ ॥ (३४) आतोऽव्ययचामराविघञन्तेत् । १, २, कौ० एष्वादेरातः स्थानेऽत्वं वा स्थात् । अहब, अहया । चमरो चामरो। चामर, उत्खात कालक ( कुमार नाराच हालिक बलाका प्राकृत तालवृन्त खादर ब्राह्मण पूर्वाह्न) स्थापि तेत्यादि चामरादिः । घञन्ते । पवहो । पवाहो क्वचिन्न । राग = रायो भागः भायो । दा = या सया | निचर १, ४, ३६ शा=सा प्र० सू० सि० २२, १ स्व = लुप् असंधि निसिबरो । पक्ष श्रुति निसाय। कुर्पास २, ३, ६६. ७५ पप्पा २, २, ३ प्यासी बहुलाविकार से अथवा लाक्षणिक होने से १, ३, १५ उ को ओ नहीं होता है । (३६) वा सदावावित् । १, २, ३६ । कौ० आदेश इत्वं वा स्यात् । सइ सया । निसिअरो निसायरो । कुप्पिसो कुप्पासो । बाहुलकात् 'को' (१, २, १८) इत्योत्वं न प्रवर्तते । (३७) जिचा वाचायें । १, २, ३७ । कौ० आचार्यस्थे चाकारे आत: स्थानेऽजिचौस्तः । आइरियो, आयरियो । बी० आत इति । अव्यय - नामरादि तथा घनन्त में आदि (३८) स्त्यानखल्वाटयोरीच् । १, २, ३८ । आकार को अत्व विकल्प से होता है । (३५) चन्द्र कांस्या | १, २, ३४ । to आदेरातो नित्यमत्वं स्यादनुस्वारे सति । कंसं मंसं इत्यादि । चन्द्रकम् । कार्स मासं । कांस्य मांस पांसु पांसन कांसिक वांसिकेत्यादि कांस्यादिः । 'श्यामाक महाराष्ट्र म्हो: (१, २, ३५) सामयो । मरहट्ठ मरहट्ठो । बो० वेति । सदादि में आदि आकार के स्थान में इकार विकल्प से होता है। सदा - प्र० सू० ० मा २,२, १, १, १, २६ व् लुप् असन्धिस, पक्ष में २, २, १३ वी० आषार्थं शब्दस्य वा में आ को अ तथा इ नित्य होते हैं । आचार्य - २, ३, ८७रिय प्र० सू० चा = आ अइ- २, २, १, ३ च् लुप्य३, १, १२ सु-भोड़ - आइरियो, वायरियो । = कौ० अनयोरात ईत्वं स्यान्नित्यम् । ठीणं थीणं यिण्णं । 'खल्लीडो' । संखायं इति तु 'संस्त्योढ, मोः संखोद मो' ( ४, ४, १०) इति संखादेशोक्तं प्रत्यये सिद्धयति ॥ दी० चन्द्र इति कांस्यादि में आदि आ को अनित्य होता है, अनुस्वार लुप् होने पर नहीं होता है। कांस्यं मास - ११,४८ चन्द्र लुप् = मासं, २, ३,६८ - लुप्कांसं । लुपो भावे प्र० सू० आअ कंसं मंसं । श्यामाश्या २, ३, ६८, १.४, ६६ सा प्रा० सू० मा २, १, ३, फ-यसामयो। मरहट्ठे कौ० यथादर्शन स्कोपरदीर्घा ह्रस्वो भवति । कव्वं २, ४, १६६० ) । (३) स्कौह्रस्त्रः । १, २, ३९ । मुणिन्दो जिणिन्दो । बी० स्काविति । संयुक्त से पूर्वदीर्घ स्थादर्शन ह्रस्व होता वी० स्त्यानेति । स्त्यान तथा खरुबाट में आ को ई होता है । त्यान-सु-२१, ३२, न २, ३, ३६ त्या ठा प्र० सू० ठी ३, १,२६,११,४२, सुम-चन्द्रटीणं । ठत्वावाभावे २, ३, ४२, ६८ श्रीगं २, ३,७६ योणं १, ३, ३६ ह्रस्व थिण्ण। खल्बाट सु = २,३, ६६. ७५ त्वा = तला प्र० सू० ल्ली २,११७ ट= ३, १, १३ = बल्लीडो | न काव्य – सु मुनीन्द्र-नरेन्द्र-सु, प्र० सू० २ १, ३२ २, ३, ६०. ७४ व्यव्३, १, २४.१३ स्वा० काकवं, मुणिन्दो | | एवितो वा । १,२,४० ॥ कौ० स्कोपरे आदेरिति एत्वं वा । पिण्डं, पेण्डं । सिन्दूरं सेन्दूरं । नवचिन्न । चिश्ता | Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क - - - - - प्राकृत चिन्तामणि [७ #० संयुक्त से पूर्व इ को ए विकल्प से होता है। (४२) सुपिसिंहनिरोश्चन्द्ररेफयोरीच् । १, २, ४६ । (४०) अल्पथि पृथिवी प्रतिश्रुन्मूषिक विमोलको फौ० सिहे चन्द्रस्य निरिरेफस्य लुपि सति-इतः स्थाने ।१, २, ४२। ईन्स्यात् । सीहो मियाण सलिलाणगंगा' (सू० कृ० को० एष्वादेरितः (१, २, ४३) स्थाने एत्वं स्थानि- १, ६, २१) णीधीसो। लुपीति किम् । सिंघो। त्यम् । पहा (पथिन) पुहवी पुढयो। पडसुआ। णिग्घोसो। नीसरइ (=निघसर) नीसासो (= मूसओ, वहेऽयो। तेरितौ वाकादी' इअ सियावायो। निश्वास) 'दीपो' १, २, ७ इत्येव सिद्धम् । हे ० अदिति । पथ्यादि में इ-को एत्व नित्य होता है। जिह्वायाम् । १, २, ४७ । जीहा हे किम् । जिम्मा । पथिन्-सु-१, १, २८ धन्-लुप् प्र० सू० थिय= २, बी० लुपीति । सिंह में अनुस्वार तथा निर् में र को लुप १७ ह. ३. १, १३= पहो । पृथिवी २, १, २६ ५ ० होने पर 5 के स्थान में ई नित्य होता है। सिंह-सु = १, ४० पक्षे २,१,७ह-प्र० सू० इ= =१, ३,३३ पृ= १,४३ चन्द्र लूप प्र० सू० सि-सी ३,१, १३ सुपु-पुढधी, पुहवी। प्रतिश्रुतप्रसूति१, १, ओड़-सीहो । निर्घोष-सु-१, १,२६ रेफ-लुप् प्र० सू० ३३. त-आ २, १, १८ तह १. १,६४ लु २,३, नि=नी =१.४, २३ वैणी ३६षस, मु- ओस् ६६ र-लुप्,४,३, ६ शु-सु पंडसुआ। भुषषि ) णांघोसो। लाप-प्रसांत-२, १, ५३४-=सिंघो । -सु १, ४,३६, २, २, १, ३, ३, १,१३=मूसयो। २.३,६६.७६ ?- घो-णिग्यो । जिह्वा-सु-२.३, विभीतक-सु-१, ३, ८, २, १७ भीहे १८ तड हा -हाळ१, २, ४७ जि=जी-३, १, ११ सु२,२, १, ३, क-य ३, १, १३= बहेडयो इति । स्या- लप = जीहा । २, ३, ४७, 8-4-७६ म वादः१,२,४३ ति-त २२, १, ११, २६ इ., २, जिसभा। ३, ८७. १, १, २८ स्याद= सिया २, २, १, ३ ३=य (४३) अद्वायुधिष्ठिरे । १, २, ४८ । ३, १, १३ सु ओद -- इभ, सियावायो। को आदेरित उत्वं वा स्यात् । जदिलो, जहि(४१) चा हरितगादशिथिले। १, २,४५। ठिलो । “द्विन्योः" १, २, ४६ । इत उत्वं बहुल कौ० एप्वादेरितोऽत्वं वास्यात् । हलदी, हलददा। स्यात् । क्वचिन्नित्यम् दुषिहो दुरेहो। क्यचिता । हलिदी हलिदा। अज अं इंगअं। सढिल दुउणो विउणो। क्वविचन्न । द्विजः-हिओ। द्विरदः सिदिन। णिम्मायं णिन्मिमिति त निर्मात दिरओ। निमग्न:=णुमन्नो। क्वचिन्न । निर्माताभ्यामेव सिद्ध यति। निवाइ। बी० वेति । हरिद्र इङ्गद तथा शिथिल में मादि इकार को बी० युधिष्ठिर में आदि इ को उ विकल्प से होता है। विकल्प से अ होता है। हरिद्रा-प्र० स० ०रि- ६अ युधिष्ठिर-सुप्र० सू० घि-धु- वि०२, १, ७६ २, १, ४७ र-ल २, ३, ६१.७५ - दद् ३,१,३५० १, ३, २६, ४,२८ यु ज २, ३, ६७.७६ ष्ठिडीप्-३, १, ११ स्वाविकार्य = हद्दी ४ । इङ्ग द-सु छि २,१, ४७ र ल ३,१, १३= जहकिलो । पक्ष -२, २, १, १, १, २६ लुम् असंधि ३,१,२६, १, १, अहिट्ठिलो । द्वि-नि-मे को उ-बहुस प्रकार से ४२ स्वा० का० प्र० सू० अ- अङ्ग अ। पझे इङ्ग.होता है। अतः क्वचिन्नित्य = द्विविध-द्विरेफ-मुसिहि (-शिथि १, ४, ३६. २, १, २८) लं (सु३, इ--उ २, ३, ६६ व—लुप्२, १,७ ह ३, १, १३ = १,२६, १, १, ४२) प्र. मु० सि= सढिल । निर्मात- दुविहो । दुहो । दिगुण-सु-ज वि० ०.२, १, १, १, निर्मित-सु-२,३,६६, ७५ म=म्म २, २,१,३. त्-लुप ३६ दुखणो २, ३, ६७ = लुप्-बिउणो। स्यचित् या ति १, ४, २३ निव०णि ३, १, २६. १, १, ४२ नहीं। द्विज:-विरद-सु -लुप, ज्–लुप, दय = स्वा० का०-णि (नि)म्मायं,णि (नि) म्मि। अत सूत्र दिओ। दिरओ। निमग्न-मु-नि-१, ४, २३ में ग्रहण नहीं किया है। णु २, ३, ६७. ७५ रन = ==ोहणु (नु) मनो। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि क्वचित् नहीं निपतु ( ३, ४, ११, ३० अक) २, ३, १, तिइनि २, १४, निवइइ | (४४) इशु प्रवासिनोश्चित् । १, २, ५० । कौ० अनयोरितोनित्यमुत्वं स्यात् । उच्छू । पावालु 1 पवासू to इक्ष्विति । इक्षु तथा विकल्प से होता है । इजु १५ न छः ७६ च्छ३, दोघं उच्छू । प्रवासि सू०] उ १, २, ६ अ दलुप् -- दीघं – पावासु – वासु । (४५) ओच्च द्विधा कृञ द्विवचने । १, २, ५१ । प्रदासिन शब्दों में इको उ सुप्र० सू० ३ – उ २, ३, १२५. १. १. १२ सुलु१ १,२०० २, ३, ६६ र–लुप् – की० अनयोरित ओवं चादुत्वं च नित्यं स्तः । द्विधा क्रियते दोहाकिज्जइ दुहाकिज्जइ । दोवयणं दुवयणं । 'ना निर्झरे वा' १, २, ५२ । ओज्झरी निज्झरो । - ० कृ धातु के योग में द्विधा शब्द में तथा द्विवचन शब्द में इको ओ तथा उ होता है । द्विधाकिज्जइ ( तू – य - ते ३, २, १ ते ३३, ४, ४८ य = इज्ज १, १, २७ —---लुप् प्र० सू० द्वि-इ-ओ-३२,३,६६ बू - लुप् दु - हाकिज्जइ । बाहुलकारक चिटकेबल में भी होता है, यथा-हा-वि ससुर बहू सत्यो द्विवचनं (३,१, २६.१, १, ४१ सुचन्द्र प्र० सू० ६= ओ - २, १,३२ न - २, २.१, ३ दोवयणं दुवयणं । निर्झर सुन सहित इनि को ० ओ २, २. ६६. ७६ भंज्झ स्वा० का० = ओउझरो मिज्झरो । (४६) हरीतकी कश्मीरयोरीतोऽजाओ । १, ३, १ । कौ० अनयोरीतः स्थाने क्रमाद जाची स्तः। हरउई । कम्हारो | "गभोरादावित्" ( १, ३, २) । गहिरं । 'वा पानीयादी' (१, ३, ३) पाणियं । 'जीर्णेउत्' (१, २, ४) जुष्णाणि मुणीयां इहलो आदोणि सत्तभयाई । जिणो अ भट्टविहो जाइकुलाइमयो । 'ह्य तीर्थे' १, ३, ५ तह । होत्येव । तिस्थं । 'वाहनविहीनयो:' हृणं विहूणं । == बी० हरीति । हरीतकी तथा कश्मीर में आदि ई को क्रम से अ आ नित्य होता है । हरीतकी सु = प्र० सू० री र २ १ १ त २, २, १, १,१.२६ की - ई. असंधि ३ १ ११ सुलुप् = हरउई । कश्मीर – सु प्र० सू० - आ २, ३, ५०, ५३ शर्म म्मम्ह, ३, १, १, १३ स्वा० का ० कम्मारो कम्हारो । गभीरादि में आदि कोइ २१, ७ गहिरं । पानीयादि में विकल्प = २१, ३२ न२, २१, १, १, २६= पाणि पाणी । जोणं में विकल्प से उ-जीर्ण-जस् २, २, ६६. ७५ पूर्ण ण ३१, २७ जस् दि १, १, १२ दीघं जुष्णाणि । पकने १, २, ३६ ह्रस्व ३, १, १३ स्वा० का ० जिष्णो । तीर्थ में इपरे ऊ ष्व २, ३, ६४ ६० ह, ती तू ३, १,२६ स्वा० तुहं इत्वाभाव में १, २, ३६ ह्रस्व २, ३, ६९, ७६ पंत्य = तिथं । हीन तथा विहीन में विकल्प -- २१, ३२ पक्ष हूणं बिहूणं । -- F (४७) नोडपीठयोरेत् । १, ३, ७ । कौ० एत्वं वा । नेडं नीडं पेढं पीढं । "कोरशेह शापीड विभीत- केस्वेच्" १ ३ ८ । एषु नित्यम्। फेरिलो इत्यादि । बी० नीड तथा पीठ में ई को विकल्प से ए होता है। २, १, १७, ६ । शेषं स्पष्टम्। फोहक – ईदृश - मापी - विभीतक में नित्य १, ३, ४३ हरि०१, ४, ३६३, ११३ स्वा० = केरिसो, एरिसां । २, १,१५, ३६ लप आमेलो २, १,४१ वे = आवेडो दहेडयो ४० सू० द्र० । (४८) उतोऽन्मुकुरायौ । १, ३, ६ । कौ० मारुतोऽत्यं नित्यं स्यात् । मउरं । भुकुलं = मडलं । 'वागुरुकोपरी' गरुअं गुरुअं । अबरि उवरि । 'आज्विद्र ते' चित्वान्नित्यम् । विद्दानो तिविहो roat मुणी । तिस्त्रिविधो गर्यो मुनीनाम् । बी० उतइति । मुकुरादिगण में उ को नित्य अ होता है । मुकुर – मुकुल - सुप्र० सू० उ = म २, २, १, १, १, २६ क — लुप् - असधि २ १ २६ स्वा० = मउर, मडलं ॥ ३ ॥ गुरुक – उपरि में विकल्प- गरुणं गुरुमं । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | २, १, ४१ पद १, १, ४६ रि= रिअरि उरि (५१) ओस्को । १, ३, १७ । ||१|| विद्रुत में fr:- का २.६६मान-२. सौ आदेरुतः स्थाने नित्य मोच स्यात् संयुक्त परे । २, १, १, १, २६-लुप्-असंधि ३. १. १, १३ स्वा० तोण्डं मोण्डं । १७ । वा कुतूहले ह्रस्वश्चोतः । १८ । विद्याओ।११॥ कोउहलं-कोहलं कुऊहलं । १८ । (४६) र पुरुष भ्र कुटाविच । १, ३, १२ । की. ओजिति । आदि उ को ओ होता है संयुक्त पर में होने को रेसन्धिन उत इत्यं नित्यं स्यात् । विजिअ पर । तुण्डं तोण्डं । कुतूहल से उऊ विकल्प, तथा तू कसाओ चिम (= एव) पुरिसो । मिउडी । “ईच्छुते' में ऊ को ह्रस्व । २, २, १. १. १, २६ ते-तुप्--- ।३। छोरं । असंधि कोऊहले कोजहलं । पक्षे कुऊहलं । १, ४, ६ पी० रः इति । पुरुष- कुटि णब्दों में रेफ सम्बन्धी उ कुतू-तू-ओ= कोहलं ।। को इ नित्य होता है। पुरुष =सुप्र० सू० रु-रि १. (५२) अचूतः सूक्ष्म दुकूले लाचद्विः । १, ३, १६ । ४, ३६ ष=स० स्वा० का पुरिसो। भ्र कुटी-प० सू० कौ० ऊतोऽत्वं वा स्यात् । सोहं सुण्हं । आर्षे सुहमं । भ्र --निं २, ३, ६६ र-लुप् २, २. १, १, २६-क- दुअल्ल दुऊलं । आर्षे दुगुल्ल ।। ईदुव्यूढे । २१ । लुप् असंधि २, १, १७ ट == भिउही ॥१२॥ ईत्ववा। उन्बीर क्षतं-में उ २.३.१८ क्ष= छ, त-नु दो० अदूत इति 1 सूक्ष्म-दूकूल में ऊ को म होता है। असंधि छुझं ॥१३॥ विकल्प से सथा ऊत्व होने पर ला को द्वित्व होता है। (५०) सच्छोश्वनुत्सन्नोत्साहे । १, ३, १४ । मूक्ष्म-सु प्र० मू० ऊ= २, ३, ३६, म -- पह ३, को सच्छयो : परयो सदेहत ऊत्व स्पान्नित्यम । १,२६ स्वा-सहं । पक्ष १, २, ३६ हस्व- मुहं। उत्सवः-ऊसवी । उदता:शकायस्मात्स उच्छुकः- २, ३, ४०, ३ सुहुमं । उद्व्यूढ-सु-२१ सू० जई ऊसओ अनुत्सन्नोसाहे इति किम् । उच्छन्नो अछाहो २, ३, ६७, ६८, ७५: द्रव्य = च्व० स्वा० का० = उन्वीळ । १४ । वा मुसल सुमगयोः । १५ । मूसलं मुसल। पक्ष उच्चूहूँ । सहवो सुहको ।। दुरिलृपि । १६ । र-पि-ऊत्वं (५३) वातूलकण्डूयहतमत्यूच् । १, ३, ३२ । या । दुर्भगः= दुहवो ॥ १६॥ कौ ऊत उत्वं स्यान्नित्यम् । बाउलो। कण्डम उ । बी० सच्छोरिति । त्सतपच्छ से पूर्व ड को ऊ होता है हणमन्तो। वा मधुके । २३ । उत्वं वा। महुअं उत्सन्न तथा उत्साह में नहीं होता है । उत्सव-सु-उच्छु महूअं। इदेतो नूपुरे । २४ निअरं नेउर । पक्षे। (=जद्-शु) क-सुबमा प्र०सू० उक २, ३, ६७ त्स- नूर । च्छन्द्-चतुप् ३, १, १३ स्था ऊसबो ऊसुओ चोल वेति । वातूलादि में ऊ को उ नित्य होता है। (2क २,२,१) उत्सन्न-उत्साह-सु में २, ३, २०, ७६ यातून-सुप्र० सूतू =तु २,२,१, १,१,२६-नुप स-च्छ---स्वा०का उच्छन्नो उच्छाहो ।१४। असंधि ३,१,१,३=स्था =वाऊलो। हनू-मन्तमुसलं सुभगं- सूमें ऊ विकल्प २,१, ७. ११ भग% (=मत् ३, ४,१३) मु २ .१, ३२ नू=णू. स्वादि० = हब ३. १, १३, २६ स्वा० मूसलं, मुसलं, सूहको, सुहयो प्र० सू० ऊ-उ= हणमन्तो। कण्डूय-इ (= ति-- वत्वाभाबे २,२, १, ३-ग-योक्स सुहयो । १५ । दुर् ३.३,१)प्र० सू० ऊ= उ-२, २, १, ११,२६ यच उपसर्ग में रेफ-लुप होने पर उऊ विकल्प होता है। लुप्-असंधि-कणुअइ। मधुक--सु-ऊ-वै. उ दुभंग-सु-१, १, २६ -लुप् प्र० सू० दू-दु २, १. २,१,७६० क-लुप्-असंधि, स्था=३,१,२६११ ग=व ७ म ह ३, १, १३ स्वा० दहबो । ऊत्वाभाबे महु मह । २४ । नूपुर में ऊ=4० इ--- -तुप २,२,१,३ ग य=दुयो ।।१६।। असंधि स्वा० निर, नेउर । पक्ष में मूबर । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० | प्राकृत चिन्तामणि (५४) ओस्स्थ तुणे । १, ३, २५ । (५६) ऋष्यादाविच । १, ३, २९ । को० अनयोरुत ओत्वं वा स्यात् । थोणा, घृणा, तोणं, कौ० ऋष्यादिगणे आदेऋतोनित्यमित्वं स्यात् । सूर्ण । 'चिस्कूपर तूणीर कुण्याण्डी गुडूची मूल्य ऋषिः = इसी। कृपा- किवा । इत्यादि । २६ । स्थूल ताम्बूले । ।२६। नित्य भूतः - ओत्वं स्यात् । वाधृष्ट मृत्युशृङ्गमसूण मृगांके 1 ३० । धिट्ठो कोप्परं. तोणीरं, कोहण्डी, कोहली, गलोई मोल्लं, घट्ठो 1 मिन्नू मच्चू । मिङ्ग सङ्ग । मसिणं मसणं थोर, तम्बोल। मिअंको। मयंको । ३० । अनिवृत्त वृन्दारके वृषभेबी० ओदिनि । स्थूणा तथा तूण में के को बो विकप मे तुवुः । ३२ । निवृत्तं निअत्तं । बुन्दारयो वन्दारयो। होता है । स्थूणा प्र० सू ऊ =ओ २, ३, ६७ स-लुप् उसह सहो । ३२ । - योणा । पर थूणा । एवं तोणं तुणं । २५ । पूर्वरादि वो. ऋत्येति । ऋष्यादि में आदि ऋ को इ नित्य होता में को नित्य ओ होता है पर- = ० सू० ... प्र. सू. ३-६ १, ४, ३६३।१: ओ२, ३, ६९.७५-पप्प. स्वादि० कोपर। २५= इसी । कृपा-प्र० स० =कि २.१.४१ प= नुणीरतोणीरं । कूष्माण्डी-प्र. सू०= = को ब फिवा । २६ । धृष्टादि में विकल्प से क्र= इ पो २७ १, २, ३६. २, ३, ६५.६१ . ७५ प्माण्डी-हल्ली= अविष्ट = २, ३, २८ . ७६ ष्ट-ट्ठ ३, १, १३ कोहली, लत्वाभावे-कोहण्डी। गुड्ची-प्र० सू = स्वादिः =धिो -धो । सि-म-त्यु २.३, १४ . ७५ डो२, १, १७ १ १.३.६ ग २,२,१, च- त्युच्चू ३, १, २५ स्वादि० मिच्चू मच्चू । शिन्स = लुप् १, १.२६ असंधि= गलोई। मूल्य-सु-प्रा सू. १.४.३६ स-सिंग संग । मसि-म, णं। मि -ममूमो २, ३, ६८, ७५ ल्य=ल्ल, स्वादिकार्य = ग=२,२.१---लु ५, असंधि = मित्रको, ३, य-मयको। मोल्लं । स्मूलं-स्य-२,३.६७-सु-सुप् प्र. सू. ३. निवृत्त-सु-वृ=३२ बु. -३७ व २, ३,१. ऊ=ओ २, १.५० ल=र पोरं । ताम्बूलं १, २, ३६ व-तूप, असंधि स्वादि० -निअत्तं, निवृत्तं । वृन्दारकतात प्र० सू० ऊ-ओ-तम्बोल ।२६। सु-वृ-बु-ब-२, २, १, ३ कम्य, स्वादि = (५५) तोऽन् । १, ३, २७ । वन्दारयो वन्दारयो । वृषभ... मु-वृ उ, व=षस, कौ० आदेश तोऽत्वं स्यान्नित्यम् । कयं । दिहा कियं २,१, ७, मह स्वादि०= उसहो, वसहो । (-विधाकृतमिति ऋष्यादित्वात्। घयं । २७ । (५७) ऋज्वादावुघ् । १, ३, ३३ । माता कृशा मृदुत्व मृदुके । २८ । कासा किसा। कौ० आदेत उत्र स्यात् । ऋजु: = उज्जू । ऋतुः माउक माउत्तणं । माउनक, मउअं। - उऊ । इत्यादि ।।३३। गौणे। ३४ ! पिउहाँ । दो ऋत इति । आदि ऋ को अनित्य होता है। कृत इंदूतीमातरि । ३५ । माइ, उहरं। क्वचिदगोणेऽपि घुत-तृण- सु--प्र० म०ऋ- २,२,१,३ -य । ३६ । माईणं ( = मातृणाम) 1 ३, १.२६ स्वादि.- कयं घयं तण । विधाकृत-ऋष्यादि पाठाद कृ=ऋ==क्यि, २, १,७५६२, ३, ६६ दो० ऋज्वेति । ऋजु अदि में आदि ऋो उ होता है। --लुप्-दिहालयं । कुशा-२८ सू० ऋ ० आ, ऋजु:--ऋतु. “ मप्र मू० = उ २.३, ८० जु" पक्षे २६ इ-१, ४, ३६ =स- कासा, किसा। ज्जु, म्वादि० - उज्जू। २.२, १.१, १, २६= उऊ । पितृ---गृह-३४ ऋ= उ२,२,१६ गृह = घर २, १,७ मृदुत्व-सु-मृदुक-सु-प्र० सू० म-बै० मा पर्छ २७ म २, ३, १, १, १, २६ दुन्द् -लुप्-असंधि घह पिउहरं । मातृ-हर, (-गृह) ३५, ऋइ २, ३, २ व= ७४ द्वित्व म्वादि० माउवकं । अत्थे -उत्-'लुप-असधि= मारहर, माउहरं । मातृ-- २. ४, २० स्व तण = मउत्तणं । मृटुक =२, ३, ७६ क ाम् =३६ ऋ= इ, ३.१.१० आम् = णद् १, १, १२ -द्वित्व, पाजिले २, २,१,,१,२६ कू-लुप असंधि पूर्व दीर्घ-त-लुप् असंधि = माईण, १, १,४५ चन्द्र = माउवक मउ। २८ । माईण । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A (५८) पृथग्वृष्टिवृष्ट नप्तृक दंगे । १, ३, ३७ । कौस्थाने स्तवं हि पुहं । विट्ठौ वुट्टो । विट्ठो वुट्ठो । नत्तिओनत्तुओ मिङ्ग मुङ्गो । ३७। वृहस्पती वा । ३८ । sant वास्त: । विप्पड वुहष्कई । पक्षे वह फई | ३८ | इजेड चोवृते । ३६ । विष्ट, वेण्ट, बोण्टं । मृष्यृज्जोचः । । ४ । मृषावाद : मुसावायो, मुसावायो, मोसावायो । ऋपोऽरिदृप्ते । । ४१ । हरि । आहते दुढिः । ४२ । आढियो । 1 पह बी० पृथगिति । पृथग्दृष्टि वृष्ट नप्तृक तथा मृदङ्ग में ऋको ६ तथा उ होता है पृथक् १, १, २८ कुलुप् २, १, ७, ८ . ६ ४ ३ १ २६ स्वादि पुरं पिद्य पुषं । वृष्टि-सु-वृष्ट-सु- प्र. सु. इ – २, ३, ३८, ७६ष्ट – २, १, १३, २५ स्वा० विट्ठी बुट्ठी विट्ठी चुट्टो । नप्तुक सु. प्र. सू. इ उ २, ३, ६७.७५ तत्त २. १. १ कलु १ १ २६ असंधिनसिओ, नत्तूओ । मृदङ्ग - सुभ सू. ए उद्- लुप् अधि १, २, १० अ६३, १, १२ स्वा०मिङ्गो मुइङ्गो । ३७ । वृहस्पति – सु = ऋ - ३३ - वि० २३,४६,७६ स्पष्फ २, २, ११, १ २६ तू – लुप् – असंधि = ३. १, २५ स्वा० बिफर्ड युद्धप्फइ । पक्ष १, ३, २७ अ = वहष्फई । ३८ । वृन्तः सु = ऋ - ३ – ए – भो, २. ३, ३७ पट २१.२६ स्वा० = विष्ट वेण्ट वोटं । ३६ । मृषावाद — सु = ऋ, ऊ. ओ १, ४, ३६ ष स २. २, १. ३. य स्वा० मुसावायो, भूमाबायोमोवायो । ४० । सुऋ अरि २. २. १. १, १, २, ३, ११३ दरिओ तु 'हप्तेऽरिता' इति सूत्र, दरिओ इति रूप न ( १२ ) त्रिविक्रमेण कृतं तच्चिन्त्यमेव । दरिओ इति रूपासिद्ध: । दरीनि रूगपत्तेश्च । ४० ।। आहत - सुदृढि स--लुप्असंधि स्वा० = अढिओ ॥ ४२ ॥ (५९) दृशि विकक्सेरि: ।१, ३, ४३ ॥ को० 'त्यदादिषु' 'क्सश्च' (पा०सु०वा० ३ २ ६० ) इतिविहिता ये क्विन कन्सास्तदन्ते दृशधात हस्थाने रिः स्यात् । सरी, सरिसो | सरिक्षो । ४३ । प्राकृत चिन्तामणि | ११ केवलस्य । ४४ । रिद्धी, रिच्छो । ऋषि ऋण, ऋजु ऋतु ऋषभे वा । ४५ । रिसी इसी । रिण रिज्जू अज्जू । रिक उक । रिसहो उसहो अणं । । ४५ । बी० दृणीति । ३२ ६० पा० सू० वा०से विहित विनादिप्रत्ययान्त - दशधातु में टू के स्थान में रि आदेश होता है । सदृशू, ग, क्ष- सु = ५. सू. ६१ १.२५ मा लुप् १, ४, ३६ श= स= २३. १८.७६ ५= च्छ ३,१२६ १३ स्वा० सरी । सरियो सांग्च्छां |४३| ऋऋऋद्धि सुचि स्वा० रिच्छो रिद्धी । ४४ । ऋषि ऋण ऋजु-धातु-ऋषभ - सु = ४५ ऋ = रिः १, ४, ३६ = २१, ७ भ=ह २. २५० जज्ज २२. १. १. १२६ तू लुप् असंधि ३ १२५, २६. १३ - स्वा०रिसी, ण ज्जू ऊ सहो । पक्ष १ ३२७२६३३-अ, इ, उ = अणं । इसी । उज्जू, उऊ उसी । (६०) इलिचक्लृन्नवलृ तेलृतः । १, ३, ४६ । कौ० स्पष्टम् । किलिन्नो । किलितो । (प्त २, ३, ६७. ७५) ।। ३, १, १३ सु = ओड् । (६१) इदेतो वा चपेटा वेदना केसरे देवरे । १, ३, ४७ ॥ कौ० चपेटादिष्वेतद्वत्वं वा स्यात् । चविडा चयेडा विवेणा कि, केसरं दिल, देवरो ॥ ४७ ॥ उत्स्तेने । ४८ । धूणी घेणो । दो० इदेत इति । चपेटादि में ए को इ विकल्प से होता है। चपे - २, १ १५, १७. ४१. टल. ड. प्र. सू. २, २. ० ए इ चवि, बेलाढा । वेदना देवर१. – लु १, १, २६ अघि २ १.३२, ६. १. ११, १३, स्वा विवे– अणा दिअसे देव) | ॥ ४३ ॥ स्तेन मु२. २. ४२ स्ते थे, न. रदा० एक = थू, पेण ॥४६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ | प्राकृत चिन्तामणि (६२) एजेतः । १, ३, ४६ । कौ० आदेरतो नित्यमत्वं स्यात् । केलासो । वैरादिपाठात्कलासो | वेज्जो । बाहुलकात्क्वचिन्न । कैतवं अवं । ४६ सैन्धवशनैश्चरयोरितु । सिन्धवं । सणिच्छरो । ५० सैन्यैवा । सिन्नं सेन्न । । ५१ । दैन्यादौ चाइच । दइन्नं । दैत्यः = दइच्चो | चात् सैन्यै सइन्नं । ५२ । वादेवरादौ । | दइवं देवं । दव्वं दिव्यं । वरं वैरं इत्यादि । ५५ । धेर्य ईच् । ५५ । धीरं हरइ बिसायो । ५५ । = वी० एजिति । आदि ऍ को ए नित्य होता है । कैलासवैद्य - सुप्र० सू० ऍ ए २३, २१, ७५ वज्ज ३, १, १३ स्वा० = वेज्जो केलासी । १, २, ३६ ह्रस्व बिज्जो वैरादित्वात् = ऐ = अइ कइलासा । ४६ । संन्ध - पानेश्वर ३१,२६ स्वा० सिन्धवं । १, ४, ३६ श स २१३२ - २, ३ २०, ७६ श्च=च्छ ३.१, १३ स्वा० सनिच्छरो । ५० । सैन्य – सु = ऐ इ – ए २, ३, ६८, ७५ न्य= न्न स्वादिसि सेन्नं । ५१ । देन्य- दैत्य - सुऐ= अइच्, न्यन्न, स्वादिदन्नं । २, ३, १४, ७५ त्य च्च, स्वा०] दइच्चो । सैन्यं सन्नं १ ५२ । दैवं वैरादि में विकल्प से ऐ = अइ = वइरं वैरं । दइ देवं, २, ३, ७६ व व दइच्छं । ५३ । धैर्य – सु = ऐई २, ३, ५५ ० र स्वा० = धीरं । रस्वाभारे १, २, ३९ ई – ह्रस्व २, ३, २७, ७५ यं ज्जधिज्जं । ५५ । (६३) asन्योन्यातप्रकोष्ठ मनोहर सरोरुह शिरो बेदना -- स्वदोस्तोवश्य । १, ३, ५६ । कौ० एष्वोतः स्थानेऽत्यं वा सतिचात्वे तकयोश्चवः स्यात् । अम्मन्नं, अन्नुन्नं आवज्जं आउज्जं । पट्टो पउट्टो । मणहरं मणोहरं । सररुहं सरोरुहं । सिरविणा सिरोविअणा । ५६ । गव्यउजा मजाइचः । गोगव गाओ गाई । ५७ । | उच्सोच्छ्वासे छश्चसः सूसासो । ५८ । 1 दो० वेति । अन्योन्यादि में ओ के स्थान में अ विकल्प से होता है । तथा आतोद्य प्रकोष्ठ में तक को व होता है । अन्योन्य – सुप्र. सू. ओउ १, २, ३६ अ न्य २, ३, ६८, ७५ अ - २ १ २६ स्वा०- अनन्त, अन्नुतं । आतोष प्रकोष्ठ सुतो को . ब - प ह्रस्व, कृ तू –२, २, १ लुप् असंधि, २, ३, २१, घ - जे ६८ ६८३७५ ७६ ज्ज, ठ, स्वा० अविज्ज आरज्जं । पचठ्ठे पउ । २. ३, ६८ रे---लुप् ॥ २, ३, ३२ न = णमण, पोहरं । १, ४, ३६ शिसिर, रो १, ३, ४७ वि, वेणर । ५६ । गो—सु में बोअर, माथ, माड ३,१, १३, २५ स्वा०ऊ) गाओ, गाई || ५७ || सोच्छ्वास सु २, ३, ६७. ६९ च् - ब् लुप् । ओऊ छस ३, १, १३ स्वा सुसासी ।। ५८ ।। (६४) ओत् । १, ३, ६४ ॥ to आदरीत स्थाने ओत्वं स्यात् । कोमुई कोसम्बी । नौः नावा । ५६ । र । ६० । गारतं । अउ मीनादोच । ६१ । मौनं मउण | पौरं = पउरं इत्यादि । चात् गौरवं गउरवं । उच वा कौक्षेयके । ६२ । कुच्छेअयं । चात् - अजक उच्छे अयं । पक्षे कोच्छेअयं । विकल्प सामर्थ्यानि ह्रस्वः । उच्सौन्दर्यादौ । । ६३ । चित्वान्नित्यम् । सुन्दरं । वीर्य तुल्यत्वात् सुन्दरियं ॥ इत्यजादेश विधि प्रकरणम् । वी० ओदिति । मादि ओ के स्थान में ओ होता है । कौमुदी—कोस ( शा १, २, ३६, ४, ३६ ) म्बी सु= प्र. सु. ओ ओ २, २, ६, ६ – लुप् असंधि ३, १, ११ सु-- लुप् == कोमुई कोसम्बी । ६४ । कौक्षेयक–सु = ६२. ओउ अउ २, ३, १७६६च्छ— २, २, १,३ य्-लुप् क य ३, ४, २६ स्वा०कु कउ, कोच्छे अयं । सौन्दर्य, सु६३ सौ सु १, २, २३ न्द =न्दे २, ३, ५५, ८७ र, रिय= सुन्दरं, रियं । अन्य स्पष्ट | अजादेश प्रकरण समाप्त । है । [ अथ साज्झलाजादेश प्रकरणम् ] (६५) उमो निषण्णे वा साज्झलाऽचः । १, ४, १ । कौ० निषण्णो परेण साज्झलाऽदेरचः = - इषेत्यस्थ स्थाने उम आदेशो वा स्यात् । णुमण्णो, णिमण्णो | १ | कदलविचलिधोरेत् । २ । केलं कयलं । लिङ्गविशिष्ट परिभाषया केली कयली । वइल्लं Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | १३ विल्लं ।। खे: कणिकारे ।३ । कण्णेरो कषिण- पउत्थो चटग्गुणो चउद्दहो चउच्चारो। सुकुमार-सुआरो॥ स्थविरायस्कारत्रयोदशादौ चित् । ४। २, १, ४७ र–ल, सुफु =सो स्वा० सोमालो-- सुकुमायो । थेरो । एक्कारो । तेरह तेवीसा इत्यादि। ऐदयौवा ।। अप—स..-ति = " सू० अप=*० ओ३, ३. १ । ५। ऐ वीर ! तुमं चेअमे सरणं । अविवार ! ति =३३, ४, २५ स सर ओसरइ । पक्षे २, १, ४१ त्वमेव मे शरणम् । प थ अवसरड । अव-ओ २, २, १ का=आ १,४, बी० अम इति । निषण्ण शब्द में पर सस्वर व्यंजन सहित ३६ श=स-ओआसो । पक्षे २,२,१.३ का-या= आदि-इष के स्थान में उम आदेश विकल्प से होता अवयासी । उ=ओ--वणं । २, २,१ त-लुप-उथ है। निषण्ण-सु=१,४,२३ नण. प्र० सू० इष= म ।७ । लपाध्याय उप को ऊ, अपिना ओ-२, ३, २४.७६ ।७ । लपाध्याय उप काऊ, उम, ३, १, १३ सु=ओडणुमणो निमण्णो। १। ध्य-ज्झा ऊज्झायो बीमायो । पो उज्झायो। कदल-विकिल-सु--२ सू० भद-- हच् =ए, स्वा० इति साजालाजादेश प्रकरणम् ।। - फेलं वेहल्लं (=ल=२, ३, ५०) पक्षे २, २, १, ३ ॥ अथासयुक्तादिहलादेश प्रकरणम् ।। दथे-कंगलं । २, २,१ कि=इ-विइहरुलं । स्थविर (६७) हलोस्केरायावतः । १, ४, १२ । --सु-२,३, ४२ स्थ ध अवि=ए, स्वा० का. कौ० यावदि (प्रा० २. २. १०) त्यादि सूत्रयावदरो। अयस्कारो-अय =ए २, ३, ६७. ७५ स्का यमधिकारः। तस्मादितः परमस्के रसंयुक्तायादेहे. क्का-एक्कारी । त्रयोदस-२, ३, ६६र- लुप् प्र० सू० लोवक्ष्यमाणं कार्यं स्यात् । अयो-ए२,१,२२,५१ दश=रह- लेगह। प्रयोविंशतिः दो० हल इति । २, २, १० सूत्र तक इलोऽस्के: का अधि१, १, ५२ तेवीसा। मार होने वध्यमाणकार्य असंयुक्त--आदि हल के स्थान में (६६) लवणमयूरमयूषासूखलादूखलकुतूहलाचतुर्धचतुर्वश चतुगुणधतुर्यासुकुमारण्वोत् कोलकपरेखः कब्जेत्व पुष्पे । १, ४, १३ । ।१०१६॥ कौव्वादेरसंक्तस्य हलः स्थाने स्व: स्यात । कौ० एषु परेण साज्झलाऽदेरच: ओद्वा स्यात् । लोणं खीलो। खप्परो। खुज्जो। पुप्पेतु-वन्धेचं कुज्ज लवणं इत्यादि । अपावेतेषु । ७ । ओसरइ अवसरह। पसूणं (=वद्धवा कुज्जप्रसूनम्) । १३ । कसित ओआसो अवयासो। ओवणं उभवणं । ऊदप्यूपे कासित योरार्षे । १४ । खसि खासिकं । लोकेतु |८1 उपाध्यायः ऊज्झायो उज्झाओ उवज्झाओ। कसिझं । कन्दुकेगः । १५ । झाडलो जडिलो गन्दुअं। इति साज्मलादेश प्रकरणम् । जातोकिराते चः । १५ । चिलाओ । कामरुपिणितुदो० लवणादि ग्यारह शब्दों में परवर्ती सस्वर व्यंजन नमिमो हरकिराये। झोवा जटिले । १६ । चछौ सहित आदि अच् को ओ विकल्प से होता है। लवणं -- तुच्छे । १७ । चुच्छं छुच्छं । तूवर तगर सरेटच सव= यो लोणं, लवणं । मो (= अयू) रो, मयूरो। ।१८ । टूवरो टोवरो टगरो। दंशदहोर्डः । १६ । मयूख--सुअन =ो २, १, ७ ख -ह- मोहो मयूहो। इसई उहह । धो दीप्यतो । २२ । धिप्पड़ दिप्पई अलु' =जदू-ओ० र्खह२, ३, ७५, ७६ पख- नाणदीवो। ओहलं । पक्षे ओक्खलं, उसूहलं । दू-२, २, १–क= दी० कील-कर्पर में लथा पुष्प भिन्न कुरुज में आदि हत उऊहुलं । कुतूहल । कुम्हल--१, ३, १८ द्र । चतुर्दश चतुर्गुण को ख होता है । कर्पर-सुप्र० सू० क ख २, ३, चतुरि चतुर्थ = (र्थी) प्र० सू० चतुः =चो २, ३, ६६. ६६ . ७५ ब्ज =ज ३, १, १३ म्वा = खप्परो । कुम्ज ७५, ७६ = चोत्यो (त्थी)। बोरगुणो। खोस्यारो २, ३, = खुज्यो । पुष्प अर्थ में कुजो। कसित-कासित-सु ५१ वश= वह =चोद्दह । पक्षे । २,२, १, १, २६ - -क-ख २, २, १द–लुप् ३, १, २६ ख, खासियं । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ | प्राकृत चिन्तामणि भाग-१ गेन्द्र १, २. २३ द्र. । किरातः= कि:-चि २,१,४७७०) योजः । १, ४,२ः । रा=ना २, २, १३ य ३. १. १३= चिलाओ। जटिल कौ० पदादेरस्केर्यकारस्य स्थाने ज: स्यात् । यमः । ===ज =३० २.१,१७ टि-डि, स्वा० जमो। वाहलकास्वचिदनादेरपि । संयमः, संजमो। झडिलो. जडिलो। तुच्छ =तु = वा-चु.-छु-युच्छ तोऽर्थेवाचि युष्मदि । २६ । युष्मदीयः- तुम्हेकेरो। हुन्छ । तूबर-नगर असर--सू = ल= ३, १, १३-- अर्थवाचिनि तु जुम्हदम्हपयरणं। लोयष्टी । ३० । टुक्रो टमरो २, ३.६७ र-लुप - सगे। देश-ति ली। णोललाटे। ३१ । णिहालं णडालं ।। वा दह --ति-- ३, ३, १. लि-३, ३, ४, ३० अक १, लाङ्गल-लाङ्ग ल लाहललोले । ३२ । णङ्गलं १, ४६ चन्द्र--चा-लुप -१, ४, ३६ श-स= डसह णाङ्ग.ल जाहली गोहलो । पक्षे । लम, म.लं, ला, डंसइ । डल्हुइ । दीप ..-अ (३.४, ३०) ते =द - वि० लोहलो। भो विहवले भे । ३३ । भिन्भलो। ३, ३. १ ते-६४,२,१५-१४, २, ३६ हस्व- विभलो इत्येव । विहलो। छ: शिरायाम् । ३४ । धि, दिप्पद छिरा सिरा। षट्सधा-शावशमीसप्तपणे छन् । ३५ । षष्ठः=छट्टो। छुहा छावो। छमी, छत्तिवण्णो । (६६) नोणः । १, ४, २३ । आदेरित निवृत्तम् । कौ० पदादेर स्केर्नस्य णत्वं वा स्यात् । णरो नरो । इत्यसंयुक्तादि हलादेश प्रकरणम् । णई नई । लण्ही निम्बनापितयोः । २४ । लि, निम्बो। वी० योज इति । पद के आदि संयुक्त यकार के स्थान में ज पहा, नावित्री। फच पादि बनस परिखा परिघ आदेश होता है। यम-यास (१.१.१७ बापस्त्व २८ ररुष पारिभद्र । २५ । ण्यन्ते पाटिघाती पनसादी स्-लुप् १, ४.३६ श स प्र० सू० य =ज ३,१, १३ वास्केरादेईल: स्थाने नित्यं फ: स्यात् । पाटयति- स्वा० -जमो जसो। बहुलाधिकारात संज (य) मो फालेइ फाडेइ। फणसो। वः प्रभतमम्मथे। २६ । संजो (-यो) गो। क्वचिद अन्यदेव-आर्ष प-लुप = वहृत्तं वम्महो । भोविसिन्याम् । २७ । भिसिणी। यथाजातं = २, १, ७ थाहा २, २, १, ३ त=4 ० न इति । पदादि में असंयुक्त आदि नकार को बिकल्प अहाजाय । १, २, ३६, २, ३, ६८. ७६ अहवायं (= से श होता है । नए-सु, नदी-सु-प्र० स० वण: अहक्खाय) 1 २८ । युष्मदीय:-युष्मद्-छ १, १,२५६ -लुप् ३,१, १२, २५ स्वा०=णरो नरो णई मई। लूग, यु- २, ३, ५३ प्म-म्ह, ४, ५, छ-केर ३, निम्ब-नापित सुनिलि, ना=गहा=लिम्बो ११ १,१३ स्वा०तुम्हरो। अषवापी-युष्मद्-स्मत्ध१, २, १ . ४१ = हायिओ। पक्षे निम्बो नाविभो। पट करणं =२८ यु-जुम्हदपयरणं (=प्र० २, ३, ६६ क-णि-ति-प्र० सू० पफ २, १, १५, १७ट्ले २, २. १, ३) । यष्टि-सु-य-ल २, ३, २७. ७६ , ष्टि-ट्ठि ३,१,२५ स्वा० लट्ठी । णिहाल--१, २, । ३,३, १ति=३, ११ गि-अ १६ फ=फा २१ १०, ११ टी०ए० । लाज, ग.ल-सु-१, २, ३६ भए= फालेडेइ । पनस-परिखा–परिष—सु० = लाल =णङ्ग, गलं । ला, लोहस-सु-ल-ण = २.१, ७ ख-ह ३२ न-ण ३.१, ११, १३ जाहलो, कोहलो। विहवल-सु२,३,४८. ७६ बरकम "वाफणसो फलिहा फलिहो । पारिभद्र-सु-२, १, ४, ३३ वि-मि, स्वा० --भिवमलो, पक्षे-विमले१,७भ-ह-४७ रिलि ' २, ३, ६६, ७५ द्र-६ . ह-भ-अभाव में २, ३, ६६ ब्तुप -बिहनो। 12-फ, स्वा पालिहद्दो । परुष-सु==फ ष-स षष्ठः-सुधा शापा समां-सप्षतर्ण-सू-प्र. ३५ सू० == फरसो। २ । प्रभूत-मन्मथ-सु-२, ३, ६६ प्र आदि-छ. २.३, ६७.७५ ठ ट्ठ, २, १, ७, धार-प्र० मू० व, २. १, ७ भय ह २, ३, ८० त=त हा ४१५-३.१, ११, १३ स्वा०-छट्ठो-छुहा छादों ३, १, २६ स्वा०-बहुत्त । आदि म-2 २, ३, ५०, छमी । छमिवण्णो १, २, १२ द्र, | शिरा-सु ३४ शि= ७५ मम्म, स्वा० बाहो। भि= वि २, १, ३२ की 4. छि, पक्षं १, ४,३६ सि-छिरा सिरा। आदेः T=विसिणी। की निवृत्ति हुई। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि १५ ।। अथा संयुक्ता घनादिहलादेश ।। २८ -लुप १.१, ३६ ती = ति प्र० ० =वैग (७१) सर्वशषोः सः । १, ४, ३६ ।। २, १, ३२, न = ण ४,३,३६ स्था-1 ६६.७६ र्य कौ० सर्वत्र= आदावनादाबना दोवा वर्तमानयोः =त्य ३.१. २५. १३ स्वा० = रण गवासी, तित्यशषोः स्थाने स: स्यात् । श । सद्वोकुसो। ष । सण्डो गरो। लोकस्योद्योतकर जस् --प्र० ३ सू० क-वै निहसो (=निकषो) शेष: सेसो विसेसो। इत्य- ग १, २, ३६ स्यो-स्यु २, ३, २१.६८. ७५ द्यो :- जती संयुक्ताचनादि हलादेश प्रकरणम् । स्यु-स्सु २, २, १. व-लुप् १.१.२६ असधि :, १. ४जम्न् दलप्१.१.१२, पूर्व दीर्थ = लोग-मुज्जोजमग । मो० सर्वेति । सर्वत्र = आदि अथवा अनादि में स्थित पक्षे २, २,१, ३ क-य-ठाणयवामीत्यादि । श--ष को सहोता है । घाब्द-पण्ड-निकष--शेय शीकर-सु-१, ४,३६ मी=40 ४ सू० क भ -.. विशेष--.सु प्र० सू० श ष स २, १,६ कह, २, ३, ६६.७५ = ३, १, १३ म्वा० -सद्दी सण्डो ह =सीभरो सीहो। २.२.१ क-लुप सीगे। चन्द्रिका -कामा २, ३, ६ र-- लुप् चन्द्रिण। निइसो सेतो बिसेसो। चिकुर. निकष स्फटिक-- सु-छ - १, ४, ॥ अथासंयुक्तानादिहलादेश प्रकरणम् ।।। प- २,३,६७ म्फ-फ,२,१.१४ टि = लि. -६. (७२) अधोऽकरायावतः । २, १, १। १. १३ सु -- प्रोड् = चिहुरो निहसो फलिहो । ६ । को अधिकारोऽयं 'यादि (२, २, १०) त्यादि सूत्र (७४) खघयधभाम । २. १, ७ । यावत् हलाऽस्तै रितिवर्तते एच। तस्मादितः परं वक्ष्यमानां कार्य प्रायाकानं परस्यास्यं संयुक्ता कौ० असंयुक्तानादीनामच; परेषां खादीनां स्थाने मादेहलः स्थाने स्यात् । इतः परम शासन पायो हः स्यात् । साहा मेहो रेहो। महु, मुह । अस्कैरित्येव। मुख्यः-मक्खो। अरित्येव । मलुवपवादा: स्युरिति। गज्जन्ते खे मेहा । प्राय इत्येव । सरिसवखला। बी० अच इति । २,२,१० सूत्र तक अचोऽके: अधिकार पलयघणो, जिणधम्मो प्रणटुभयो । ७ । घोवा है, अत: अग्रिम कार्य प्रायः असंयुक्त-अनादि हल के पृथकि । ८ । भागिनी पुन्नागे गो मच । । । भागिणी स्थान में होगा। पुम्नामाई। लश्छागे ।। १० । छालो। वः सुभग ॥ अथ कवर्गादेशः ।। दुर्भगयोरुत्वै । ११ सूहयो दूहवो। उत्वे किम् । (७३) कोगो मदकलमरकते। २,१,२। सुहयो दुह्यो। इति कवदिशः । को अचः परयोरनयोरनादेरस्क: कस्य गः स्यात्। खति । अच से पर असंयूक्त अनादि सघयघम के मयगलो। मरगयं। लुबपवादः । वा स्थानक स्थान में प्राय: है मादेश होता है । गाम्बा वास्यादो। २,१,३। ठाणगवासी। तित्यमरी। शुभ -सू=१, ४, ३६ श-स प्र० सूख, घ–थ व लोगस्सूज्जोअगरा इत्यादि । पक्षे यथाप्राप्त भ-४३, १. ११.१३. २६ Faro =साहा 1 आदि । लुबादि। ठाणयवासीत्यादि। भही शोकरे । ४। __ मुख्य-सु-३.३.६.५६ ख्य-बखा-मुबखा, खे सीभ-हरी। सीमरो। भच्चन्द्रिकायाम् । ५। यहां संयुक्तादि में नहीं प्राय: होता है अतः प्रसयधनघन्द्रिमा। हश्चिकुर निकस्रस्फटिके । १६ । चिहरो सर्षपखल, जिनधर्म प्रनष्टभय मे नही होता है २.३. निहसो फलिहो। ६६ प्र० प ७५ र्म =म्म २८.७६. ष्ट-ट्ठ ८५ . बी० क इति । अच् से पर अनादि-असंयुक्त फ के स्थान रिष १, ४, ३६ प स २, १, ३२, ११ प--२६९ में ग होता है । मदकल-भरकत-सु--प्र. सू. कग न = स्वा० =सरिसव खलो इत्यादि । ७ । पृथक- . २,२, १.३ ६= =य ३, १, १३, २६ स्वा. = पिछ १, ३,३७० । भमिनी-६ सू० ग-म २, ३, अयगलो, मरगयं । स्थानकवासिन-तीर्थकर सू-१, १, ३२ न=ण भामिणी । पुम्नाग .. जस =ग-३,१,२७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ | प्राकृत चिन्तामणि जम् धामाई। सुगल, स्वा = तिष्ठति =चिदछ। खड-खगो। अकेरेव । छालो (ली - गो) सूहयो दुहवो १, ३. १४-१५-१६ द.। टक्को। ठाइ। डिम्मो। क्वचिन्न अटइ । ३१ । ॥ अथ चवर्गादेशः ।। । इति वगदिशः । (७५) वासल्लौखवित पिसाचयोश्चः । २,१,१२। बी० टठडामिति । अन् से परअसंयुक्तानादिट----- कौर क्रमादयनयोश्वस्य मल्लौवा स्तः । खसिना को कम से ----ल होते हैं। उदाहरण स्पष्ट हैं। खइश्री पिसल्लो पिसाओ। ।। अथ तवर्गादेशः ॥ बोर वेति । प्रथा का FIR दोन है. तमाम प्रत्यादौ उस्तोरप्रतिज्ञादावित्वे तु वेतसे हल आदेश होता है। खवित -पियाच-सु-१२ ।२,१,१८। चि=सि, ब-न स्व-खो ( २.२.१..कौ० प्रत्यादिष्वचाऽस्करके स्तवर्गस्य उः स्यान्नत १, २६) १. ८.३६ मा=पा-शि १, २, ३६ सा- प्रतिज्ञादी। प्रतिहारः-पडिहारो। प्रभृति =पहुति । स=सिल्लो। पक्षे त्राओ पिसाओ। प्रतिज्ञादौ तुन । १९ । पदण्णा पइछेत्यादि । इत्वेतु ॥ अथ टवदेशः ॥ वेतसे-वेडिसो। अनित्वे-वेअसो। गभितेण: । १६ । गम्भिणो। वाऽतिमुक्तके । २० । अणिउतयं (७६) कैटभ शकट सटा सुटोठंच् । २, १, १३।। अइमुतयं । रूदिते सदेणच् ।२१। कृण्णं (२, १.२१ । को० अचोऽस्करेके रेषु टोः टवर्गस्यल्लोनित्यं स्यात् । दी०प्रत्येति। प्रत्यादि में अच से पर अनादि असंयुक्त केडवो। सयढो । सढा । स्फटिकाङ्को ढयोल्लल्ली । १४। फलिहो । अङ्कोल्लो । लावा पाटि चपेटा वेणु तवर्ग के स्थान में ड होता है । प्रतिज्ञा में नहीं । वे उस में वडिशादो। १५ । काले इ. फाडेइ । चविला चविडा इत्र होने पर होता है। प्रतिहार–सु-प्रभृति--२, ३, बलिसोवडिसो आमेलो आवेडो पिठरेहो ६६ प्र-7, प. सूति-डि स्वा०-पडिहारो। १,३, ३३. २. १,७ भृ= प्र० सू० तिम्-डि=पहति ।। रएचडः । २, १, १६ । पिहडो पिढरो। २, १, १६ । प्रतिज्ञा प्रतिष्ठा - प्रT, २, २,१, १, २६ ति = वी. कैटमेति । कैटभ शकट तथा सा में असंयुक्तानादिर इ२, ३, २८.७५ ष्ठा=ट्ठा ३६. ७४ शा=ण्णा ३, को होता है। कंटम-सु-१, ३, ४६ कै =के प्र०१३ १.११ सु=लुपदण्णा पट्ठा । इत्यादि । वेरिसो ट-२,१, ४०भव, स्वा०-केदवो। शकट-सटा। १, २,११ द्र० । गभिति-सुतण २, ३, ६६.७६ -सु-ट-तु, यस कन्य, स्वा-सयढो सठा। भि-मि, स्वा० गम्भिणो। अतिमुक्तक-सुतिफलिही ३, १, ६. द्र० । अझोठ-सु-ठ-हल. स्वा० वा-ण २, २, ५ मु वा - २, ३, ६७ कत, -अहोस्लो । पाटयति = फालेइ.-१, ४, २३. २५ द्र. । २, २. १,३ कय३, १, २६ स्वा० अणिउँतर्य । रपेटा - चविला, हा १, ३, ४७ द्र. । वेणु-सु=णु- णत्वाभावे-अइभूत्तयं । २० । पदित-सु=दित =ण्ण लू-३, १, २५ स्वा. वेलू । पक्ष-थेणू । बडिश- --स्वा० = रुपणं ॥२१॥ सु-हिवा –ल, स्वा० = बलिसो (-श-) वडिसो । (७९) रसप्तत्याबावतरौकवल्याम् । २, १, २२ । आमेलो १, ३,८द्र । पिठर-सु-१६, ४-ह. र कौ० स्पष्टम् । सत्तरी, सत्तरह तेरह मग्गरं । करली । स्वा =पिहडी। १७ == पिढरो। १, ३, १६ 1 तरोतु कयली केली ।२२। प्रदोपिदोहदातसीशात(७७) टठडां उदलाश्चित् । २, १, १७ । वाहनेलः । ।२३। पलीवेइ । दोहलो। अलसी । कौ० अचः परेषामसंयुक्तानादीनां टठडा स्थाने क्रमेण सालाहणो। वा पलितनितम्वकदम्वे २४। पलिल डढलाः स्युश्चित्वान्न विकल्पः। घटघडो । मठ: पलियं । णि (नि) लम्बो णि, नियम्बो। कलम्बो -महो । गरुडो गहलो । अचः परस्यैव । घण्टा। कयम्बो 1२४ ले पीतेयः । पीव, अलं पीअं । भरतबेकुण्ठो कुण्डं =कोंडे। अस्केरित्येव । खट्वा = खट्टा। वसतौहः ।२६। भरहो भरयो । बसही वसई । ककुद Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | १७ कातरवितस्तिमातुलिङ चित् ।२७ । कउहं, काहलो. द-व २, ३, २६. ७५ धि = ट्टि २, २, १, ३ प. विहत्थी, माहुलिङ्ग । २७ । हो निषेधप्रथममेथि- स्वा० = व कट्टियो । २, १, ३१ ॥ शिथिर शिथिले । २ । णि, निसढो पढमो मेढी (८०) नरय णः । २, १, ३२। मिढिलो । २८ । वौषध पृथ्वीनिशीथे। २६ । बोस । ___को० अचोऽस्केरकेर्नस्य णत्व स्यात् । वचनं बदनं ओसहं । पुढची पुहवी । णि, निसीढो णि, निसीहो । वा-वयणं ।(==द २, २, १.३) ।२६। कदनवैदूर्ये डः ।३०। कणं । कयणं । वेइज्जं । इति तवर्गादेशः । वेरुलिअ । ३० । दो वमकदथिते । ३१ । कट्टियो ॥ अथ पर्वर्गादेशः ।। २,१,३१ । (८१) पोः पापद्धौरः । २, १, ३३ । बो० र: सप्तेति । सप्तत्यादि तथा जरुवाची कदली शब्दों कौलपो: पवर्गस्य र: स्यात् । पारद्धी । यमौ कबधे। में तवर्ग को र होता है। सप्तति सु सप्तदश = गद्गद ।३४ । कयन्धो कमन्धो । कवन्धो इति (त्रि. व्या. -सू-कदली-सु-प्र० सू० तिर २, ३, ६७. १.३, ६२) ।। शबरेमच :३५। समरो।वा नीपा७५ प्त त्त. दग=ग २, १, ५१ - ३, १,२५, पीडे। ३६ । नोमो, वो । आमेलो, आवेडी। ३६ म्वा० सत्तरी ससरह गरगरं करली। केली, तेरह ही पोरिति । पापनि से अच से पर असयुक्तानादि पवय १, ४, २, ४ द्रः । प्रदीप् =णि-ति२, ३, ६ = प० प्र० सू० दीली ३,३,१, सि६ ११ णि को रंफ होता है। पापाद्ध-सुप्र० मृग पर -३, २१ ए=२.१, ४१ पे वे--पेपीवेइ । शतिवाहन-- १.२५ पारद्धी। कबन्ध----सु =३४ ब-म-य, त्रि. =त=ल १, ४, ३६ शा--सा २,१, ३२ न=ण ग. व-स्वा० = क य, म, वं-धो । शबर-सु-३५ २.२, १ वा= आ १,१, २. संधिस्दा० मालादुनो। बम, १.४, ३६॥ = स, स्वा० समरो। नीयप्रायोऽलुपि-मालवाहणो । पलित-कदम्ब-नितम्ब सु- सु=३६ प=म, पझ२, १,४१ व १,४, २३ (= तद २४ ल, पक्षे २,२, १, ३ य, स्वा० पलिम णि, नी- वाणी = णीमो वो । आमेलो १, ३, ६ द.) (=नि १,४,२३) लम्बो णियम्वो। कल, यम्बो। २) फो भहौ।२,१,३७। पषिलं २, ४, २३ टी० २४ २०। मरत-वसति--सु को. अचोऽस्केरके: फस्य त बहुलं भही ना स्तः । २६ तह पक्षे २,२, १, ३, तम ति= स्वा० = भरहो, यो। बसही, ई। ककूद - कातर-बितस्ति पवचिद्भः । रेफः = रेभ: । क्वचित्तुहः मुत्ताहल । मातुलित- सु=२७ द -- स-६ २,२, १, १,२६ क्वचिद्वयम् । समलं महलं । क्वचिन्न । कसरणमु=उ-स्वा = उहं । २,१, ४७ र --ल-कालो । फणी । अचः परस्यैव । गम्फइ । अस्केरे वा । पुप्फं। २, ३, ४२. ७६ स्ति-ति, स्था० - विहत्यी । गहु अकरेव । फणी । ३७ । विषमभ्रमरयासो।३८ । लिङ्ग । निषेध-प्रथम--मेथि-शिथिर - शिथिल- विमढो विसमो। भसलो भमरो 1 मोऽभिमन्यौव: सु २८ ५ -- य = ठ, स्वा० कार्य १, ४, २३, ३६ निः । ३६ । अहिवन्न अहिमन्नू ।। कैटभे चित् । ४० । थाणि , प= =स २,१.४३ र=ल=णि, निसढो केढवो । मेठी--सिढिलो। परमो १,२, १६ द्र. । औषध- दी० फाइसि । अच सं पर असयुक्तानादि फ के स्थान में पृथिवी--निशीथ-सु-२६ =थ =वा-- २, १, भ... हटादेश बहुल प्रकार से होता है। रेफ---सि (= ह १,३, ३४ औ=ो ४,२३ नि-णि ३६ प.- शि) फा----भ-स्वा० = रेभो सिमा । मुकाफलं /श-हु स्वा० - पोसहं, हैं। पि, निसीहो, हो । पूरवी--- सू३,१,१, ४२) --भह २, २,१,३ का-या ३, १, २, ४२द्र.। कदन--वैदूर्य-सु ३०८-२.१, १,२५, २६ स्वा०-सभरी, महरी । सेभालिया, मेहा३२ न=ण १, ३, ४६ बैबे २, ३, २१, ७५ य= लिया। समलं सहल । क्वचिन्न । कृष्णफणिन्-~१,१, ज्ज, स्वा० करणं बैडज्ज । पक्षे २, २, १.३ द- २८ लूप २,३,१५ण-पिण १, ४, ३६ पि= य=कयणं । २, २, २४ बेरुलि। कथित-सु३१ सि– स्वासणफणी। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ | प्राकृत चिन्तामणि अभिमन्यु.....सु :-३६ म=२, १, ७ भिहि २, दी. वेति । कृद... य, तीय तथा अनीय में यण् के स्थान ३,६८, ०५. न्यु नु =३, १,२५ स्वा० = अहिमन्नू में ज्ज प्रादेश होता है। उत्तरीय में द्वितीय सण को होता पक्षं अद्विषन्नू । विषम-म(=२, ३, ६८) मर-सु ३८ है। पेशा-द्वितीय--करणीय-उत्तरीय-सू-प्र० स० क्रम में मनस -वा १, ४, ३६५-स -३.१, १३ यज्ज ३, १, ११, १२, २६ स्वा=१, २, ३६ ती, स-ओड़=पिसहो, मो। भसलो (-र २, १, ४७)। णी,री हस्व २, ३, ६७ विवि २,२, १ति इ १, १, (-भमरो) केढयो २.१.७ टी. १३ द्र० १२, १, ४० ।। ०७॥ २६ असंधि पेज्जा, त्रिइज्जो करणिज्ज उत्तरिज्जे । (८३) प्रायः पधयोः । २. १, ४१। वा संधि १, १,२२ क्वचिदेकपदऽपि --दि-इयवीय = फो. अचोऽसंयुक्तानधोः परयो वै:स्यात् । कविल। य-नुप बीओ २, २, १, य–लुम् १, १, २६ असंधि = सब (-ब) लो। अचः परस्यैव । कंप। स्केन । करणी उत्तरी पेक्षा । ४२ । छाया -सु-४३ या - अप्पमत्तो। केनं। पढ़ई। प्रायइत्यक्त नहि । कपि- हा ३, १, ३५ हा=या ही =३, १, ११ सु.-लुप = कई। रिपुः-रिऊ। छाही छाया । छुतो-मुखच्छाप२, १, ७ खन्-मुहच्छाया में याहा नहीं होता है। ४३ । कतिपय-सु-४४ ॥ इति पवर्गादेशः ।। यहद १, १, १२ दीर्घ -२, १,४१ प २ , २. १ दी० प्राय इति । अच् से असंयुक्त--अनादि-पत थाव ति..-लुप =असंधि कहवाहं । =वं. यं = लुप् असंधि= के स्थान में होता है । कपिल-बल- सु प्र० सू० कइअघ । ४४। बेर-भेर....-फिरि-सु=४५ र-उ, प=वध १, ४, ३६ श-स, स्वाकविल सवलो1 स्वा० वेडो भडो किडी । ४५ । करवीरः ४६ करकप-ते-३, २,१ते - कंपड़ यहाँ अच् मे पर कण. स्वा०कणवीरो। ४६ । नहीं है । अप्र० भत्त-सु २, ३, ६६, ७५ प्र=प्प = (८५) लो बरुणादौ । २, १, ४७ । स्वा०-अप्पमत्तो में सयक्त प्प को नहीं होता। पढ़ति-२, १, १७४-३३,४,३० मध्ये अक=पड को० अचोऽस्केरकेर्यणो ल: स्यात् । बलुणो कलणो में आदि प की नहीं होता है । प्रायः कथन से कपि-कवि- हलिद्दीत समोसा क सि हलिद्दीत्यादि । वा वठर जठर निष्ठुरे । वढरो, लो जढलरं । नि, पटलो, रो। ४८ । भ्रमर चर. रिपु-आदि में २, २, १ प-लुप् १, १, २६ असंघि-- स्वा०-कई रिक। णयोः सत्वपादयोश्चित् । ४६ । भसलो। चलणो। ॥पवर्ग का आदेश समाप्त । सदवपादयोः किम् । स्थूलेरः। ५० । थोरं। थूल भदो इतितु वरुणादिलत्वे स्थूरस्य स्यात् । मोवा ।। अथ यणादेश। नीवीस्वप्ने । ५१ । नीमी नीधी। सिमिणो सिविणो (८४) वा कृघतीयानोयेपणो ज्जः खेरुत्तरीये । २, १, ५१। ।इति पणावेशः। ।२,१, ४२। बी० लोइति । वरुणादि में असंयुक्तामादि पण को ल होता कौ कुद्यसीयानीषु प्रत्ययेषु यणः स्थाने ज्जादेशो वा है। करुण...--दरुण-.--हन्द्रिा--सु-प्र० सू० रनल = खेरुत्तरीये। कृधे। पेज्जा। पेआ। द्वितीयः- २, ३, ६६. ७५ द्रा=दा ३, १, ३५ हावा =द्दी= बिइज्जी बीओ। करणोय करणिज्ज । करणीअं। स्वा० =कलुणो बलुणो हलिद्दी, दा । ४७ । छर-जठरउत्तरिज्ज उत्तरि। छायाया मधुतोहः । ४३। निष्ठु-सु=४८र-वा-ल २, १. १७ छाही छाया। धुतोतु महाया। कतिपये हद्- स्वाबलोरी । अढलं. रं । २. 3. । बचौ । ४४ । कइवाहं कइअब 1 वेरभेर किरोडः टु = १, ४, २३ निवा =णि = fण, निठुलो, रो 1 ४५ । वेडो (भीरु:-शरमः करभो मण्डूको दुन्दि- । ४ । भसलो। २, १, ३८ द्र, । वरण---सुलम र = भि वा) मेरो भेडो। किडी (किरि) खराहो मूषि- ल= चलणो । अन्यत्र चरणकरणं । अलत्वे भमरों । ४६ । कोगर्लोगन्धर्वो वा । केः करवीरे 1 ४६ । कणवीरो। स्थूल- थोरं १, ३, २६ द्र. । ५० । नौवी-सु-५१ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बी वामी नीमी वी सिमिणो १, २, १० ६० । ॥ यणादेश समाप्त ॥ ५१ । ॥ अथ शषसहादेशः ॥ (६) वशदिवसपाषाण प्रत्यूषे शरोहः । २१, ५२ । कौ० एष्वचोऽस्वयकीनां शषसांवाहः स्यात् । दह, दस वाजम्मी । दिव्हो, सो पाहाणी पासाणो । पच्चूहो, सो । ५२ । स्नुषायां ण्हः । ५३ । सुहा सुसा । ५३ | चन्द्राच्चहोघः । २१, ५४ । संघारो संहारो । सिवी सोहो । चादचः । दाहो दोधो । २, १, ५४ ।। ॥ इति शलादेशः । ॥ अथासंयुक्तानादि व्यंजन लुप् प्रकरणम् ॥ (८७) प्राोलुप कचतयगजवयवाम् । २, २, १ । कौ० अचः परेषामवस्क्यकीनां कादीनां प्रायो लुप् स्यात् । क तित्थयरो | च । सई । त । समिद्दीं । पारिऊ । ग । मयङ्की । ज । गजः । गयो । द । गदा गया । दयालू । व वडवानलः =त्रलयालो। अचः इत्येव । संकरो कंचणं अंतर कंपो संगम धणजयो संवदं । केनं । कुलं चलणो तत्रो परो गयो जल दया वेरा । स्केन । अर्को अवको । चर्चा = - चच्चा धूर्त: घुतो विप्रवित् । सर्गः - सग्गो | अर्जुनः अज्जुणो । उद्दम । सव्वं । प्राय इत्येव । सुकुसुमं सचापं सुतारं सपाव लोगस्सुज्जोअगरा ( favratri) || नविर्णात्परः । २ । शवहो सावो । आत्किम् । चिऊलं ॥ २ । यश्रवणोऽवर्णः । ३ । तित्थयसे जलयरो इत्यादि । अवर्णादित्येव । देअरो । क्वचित्स्यात् । पिवति पियइ ।। = बी० प्राय इति । अथ से पर असंयुक्त अनादि क गज दव को प्राथ लुप् होता है । नित्ययरो इत्यादि । १ । अवर्णं से पर प को लुप् नहीं होता है । सवही इत्यादि । अवर्ण से पर शेष अवणं को यश्ववण होता है । तित्य इत्यादि । शेष उदाहरण स्पष्ट हैं । = (८) मोजित्कामुक चामुण्डा यमुनासु । २, २, ४ । to वचोऽस्केर लुप् जित्स्यात | जिलाच्चो प्राकृत चिन्तामणि | १६ कारः सानुनासिकः काउंसो चाउँण्डा जणा । अतिमुक्तके वा । ५ । अणितयं अमुतयं । ५ । ॥ इति असंयुक्तानादि व्यंजनलुप् प्रकरणम् ॥ to मोजिदिति । कामुकादि में म को जिंदलुप होता है । जित्या उकार सानुनासिक होता है। अतिमुक्तक में विकल्प से होता है। अणिजतयं २ १ २० द्र । शेष स्पष्ट है। ॥ अथ साज्झलुप्प प्रकरणम् ॥ (८) साचोकोरागत प्राकार व्याकरणे । २,२,६ । कौ० वालुवित्यनुवर्तते । जितुन साचो हलोलुचिधानात् । एष्वचः परयोरचासहितयोगंकीबालुप् । आयो आगयो । पारो पायारी वारणं वायरणं । जोदनुजभाजन राजकुले । ७ । दणुवही दणुअवहो । भायणं भाणं । राउलं रायउलं । ७ । यो हृदय किसलय कालायसे । । हियं हिययं । किसलयं किसलं । कालासं कालायसं । ८ । दो दुर्गा देवी पादपीठ पादपतनो दुम्वरे । दुग्गावो दुग्गाएवी। पावोढ पायवीढं । पावडणं पायवडणं उम्बरो उम्बरी । ६ । यावदावर्तमानानट जीवित तावदेव कुल प्रावारके - यः । १० । कस्त्येवमेवे । जाजाव । अत्तमाणो आवत्तमाणो । बडो अवडो । जीअं जीविअं । ताताव । देउलं देवउलं । पारयो पावारयो । एमेव एवमेव । केरित्युक्तेन नित्यस्य । २. २, १० ॥ अचोऽकेरस्केरिति निवृत्तम् । । इति लुप् प्रकरणम् । दो० साचोरिति । बालुप् की अनुवृत्ति है। परन्तु अच् सहित हल विधान सामथ्र्यं से जद को नहीं होती है । आगनादि मे अच् पर असताना दिग तथा कको विकल्प से लुप होता है। जगत प्रकार-व्याकरण- सु-प्र० सू० ग क लुप् २, २, १,३ त== ३, १, १३, २६ स्वा० आया आगयो पारो पाया २. ३,६८ प्रायः पाका वारणं वायरणं । ६ । दनुजबध - भाजन राजकुल- सुर मे ७ सूज लुप् २, १, ७ धनण स्वा० दणुवही भाग राउल । = Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० | प्राकृत चिन्तामणि - - Kare - - पशे २,२, १. लुम् ३. पदवहो भायण राय उलं । ७। बी० माविति । मातृ-पितृ-स्यस =प्र० मूग नछा-- हुथ्य-निरालयः - कालायस--.. सू० य=लप १, सिया-१, ३, ३३ तृ८ -३२, २, १ त लुप् १ ३, २६ ह-हि-स्वा० -हिवं किसलं कालासं । पक्ष १, २६ असन्धि-माउच्छ: माउसिआ पिच्छा हिययं फिसल कालायसं ।। दुर्मा-देवी पादपीठ पिउसिना । पादपतन-चुम्नर-- सु = F देद-लुप् २, ३, ६६, (२) दादा दंष्ट्राचाः । २, २, २१॥ ७५ गाना - दुम्माकी । २, १, १७. ४१ प-वढ- को० दंष्ट्रायाः दाढा स्यात् । दंष्ट्रा-दाढा। ढ पाबीलं । २, १, १८ त-पावण । उम्बो । वा वृक्ष पूर्वयों रुक्ख पुरिमौ ।२,२, २३ । ले २, २, १, दलुप् असंधि दुग्गाएवी उउम्बगे। अनयोरेती क्रमाद् वास्तः। वृ= रुक्नो वच्छो । २,२, १.३५ -यवीद पायवरणं । ९ । यावत् . पूर्व =पुरिमो पूच्चो। क्षिप्तवैदूर्ययोश्ट वेरुलि। आवर्तमान-अवट --जीवित–तायन्– देवकुल -प्रावा- २, २, २४ । छूढ खित्त । वेरुलिअं वेडुजं । रफ-सु-१० सू० व-सुप्-वा- १, २८ - दी० देति । वृक्ष यो रुख पूर्व को पुरिम आदेश विकल्प लुप १, ४, २८या जा १, २, ३६ ह्रस्व २, ३, ६६. से होता है। वृक्ष-सु-१, ३, २७ वृ-व-पूर्व-सू ७६ ततः प्राप, २, २, १. तज कु= ३, प्र० स० वृक्ष = रुक्म्न पूर्व = पुरिम, पक्षे १, ३, ३६ पूक-य-- जावता अत्तमाणो डडो (८ २, १, १७) =२, ३६, ७६ क्षक्ल । जीओ देउलं पारयो। पक्ष-जाय-ताच बाबत्तमाणो ॥ अथ संयुक्त हलादेशः ।। देवउल पाषारयो। एवमेव -- आदि ब-लुपु एमेवा पक्ष (६३) स्कः । । २, ३, १॥ एवमेव । २, २,१०। ॥ इति साज्माल्लुप प्रकरणम् । कौ० अधिकारोऽयमायादय परिसमाप्तेः । तस्मादितः परं करिष्यमाण कार्य स्के:- संयुक्तस्य हल: संबंधि।। अथ निपात प्रकरणम् ॥ स्यात् । (EO) धति दुहित भगिनी वनिताना दिहि धुआ ) वादष्टरुग्णमदुत्वमुक्तशक्तकः । २,३,२। बहिणी विलयाः । २, २, १४ । कौ० एषु स्के; को वा स्यात् । डक्को, डट्ठो । लुक्को, कौ० धृति प्रभृतीनां स्थाने दिह्यादयो वा स्युः । दिही लुग्गो । मासक्क, माउत्तणं । मुक्को मुत्तो। सक्को धिई। धुआ दुहिआ। वहिणी भइणी। विलया सत्तो । २। 'खस्तीक्षणशुष्के-स्कन्देतुके: । ३ । वाणआ। घरोगृहस्यापतो। १५ । देवधरं । अपती तिववंतिण्हं । सुक्खं सुकं । खन्दो कन्दो। ३ । विति किम् । गवई । वृहस्पतो वृहोभयः । २, २, स्फेटिकादौ । ७ । खाड़ओ। खेडयो। ७ । संज्ञायां कस्कोः । ८ । णि, निक्खं । खन्धो । संज्ञायां किम् । बी० धुतीति । धृति को दिही, दुहित को घुआ भगिनी। णिक्कम्पो जमक्कारो।। क्षस्यक्वापिछजावपि को वहिणी, वनिता को बिलया आदेश होता है। देव-गृह लक्खणं । झीणं झिज्जइ । ६ । वारक्तशुल्फयोगङ्गी। सु-गृह घरं ३,१, २ स्वा० का देवर। अपतौ १० । रग्गो, त्तो । सुग, क्क । १० । शृंखले । ११ । क्यों ? गृहपति-सु में नहीं होता है. .-२, १, ४२ पतिपव २,२.१ति-इ ३.१.२६ स्वागहबई १, च । ११ । सङ्कलं । २, ३. ११ ॥ दो० बादष्टेति । दष्टादि में संयुक्त को विकल्प से क होता ३, २७ गृ-ग गहवई । बृहस्पति- सु-प्र० सू० है। दष्ट -रूण-मृदुत्व. मुक्त-शत-सुप्र० सूक वृह -- भयशेष २, ३, ६७. ७५ प --मू तिई पूर्व- t- -त्व---त क -२, ३, ७५ के १, ४, २० वत् = भयस्सई। दबा -है स्वाः 'डक्को । २. १, ४७ - लु (६१) मातृपितुः स्वसुश्च्छसि। २, २, २०। लुक्को । १, ३, २८ मृ=मा २, २, १. १. १, २६ कौ० आभ्यां परस्य स्वसृशब्दस्यतावादेशोस्तः । g=पु असंधि =माउक्त । मुक्को। १. ४, ३६ माउला माउसिआ पिउच्छा. सिआ। सक्को । पक्ष २, ३, २८.७५ ष्ट-छ, ६७. ७५ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि ] २१ तत्त= इवो मुत्तो सत्तो । ४, ४, ३५ निपानन, (६६) प्रायस्त्व व द्वध्वां च छ ज झाः । २, ३, १४ ॥ रुग्णो लूम्गो। २, ४, २० त्व-दा- तण २, ३,६६,७५ को लादीनां प्रायश्चादयः क्रमात्स्युः । णच्चा । तमाउत्तण-मातुतं । २ । तीक्ष्ण= शुष्क- ..सु- १. पिच्छी। विज्ज । बुज्झा सावसं = सज्झसं । १४ । २, ३६ एनी =ति, ४, ३६ शु-सु प्र० सू०४णक ऋक्ष्योत्सवोत्सुक सामर्थ्य छ: । १७ । रिच्छो, न्छ । २. ३, ७६ वख ३, १. २६ स्वा० = तिक्खं सुखं । रिखो, वखं । उच्छवो ऊसयो । उच्छुओ ऊसओ। पक्षे २, ३, ३६ क्ष्ण =ह =तिण्ह । ६७, ७५ = सामच्छ, त्थं । १६ ।। पककक सुक्क । स्कन्द-सु ३, स्क= =३.१, १३ वी०प्राय इति । त्यादि को क्रम से चादि होता है। ज्ञात्वा =खन्दा । पक्षे २, ३, ६७ स्फ-कन्दो। ३ । स्फेटिक १, ३,३६ ह्रस्म २, ३, ३६ ज्ञ=ण १४, ७५ त्व क्षेटक-सु-७ स्फे न्-क्षे =खे २,१, १७ टि =हि २, च्च-च्चा । पृथ्वी-१, ३, २६, ३३,=पि-पु२, २,१,३ अ, य--स्वा = खेडिओ, यो । ७ । ३, ९५ च्वी-शुवी वा पक्ष १४, ७५ च्छी २,१,७ निष्क स्कन्ध–सु= क = स्क-ख= २, ३, ७६ -दख १,४,३६ नि-या-णि-स्वा=णि, निक्स्यो । खन्धी शु-है-पि, पृहुवा, पिच्छी । विद्वम्-सु = १.१, ११1८ असंज्ञा में निष्कम्प-सुन्-२,३,६७, ७५=tक वा--पलीवत्व २८ - नुस् २.३.१४.७५ -उज ३.१,१३. २६ स्त्राः =निज्जो विज्ज । 4 -वर. कक-णि-कम्पो । णमुक्कारो १, २, ३१. । । १.४१) ता-२, ३, १४,७६ मावज्झा । साध्वस लक्षण-सु-२, ३, ६,७६क्ख : स्वा = लक्खयां । क्वचित् - - -क्षी-स्त्री-झी-छी- _ -सु-१, २, ३६ लग्न. व =ज्झ-म्दा.- सन्यमं 3 :२९ ल' छोणं । श्रीणं शीणं। शी--य---ते =शी ३, ४,४८ - ।१४। ऋत - उत्सव-उत्सुक-सामध्यं—मु-२.. य= इज्ज १.१.२७ मी-ई = थ्यं = नुपु ते १६.७६ क्षत्स , ३, ३ छ १,३, ४४ ऋ=रि, १ इ-शिज्जद। रक्त शुल्क-सु-१०=क्त ग -२, वा--पक्षीवत्व-स्वा०-रिछो, च्छं। यामच्छं। पक्ष ३, ७५ गारग्यो । करु-शु-सु-सूज । पक्ष २. ३, ६.६८. ६६, ७६ -ख, थ्यं =च्छ =रिक्त्रो , २, ३, ६६. ७५ = रत्तो सुबकं । १०। शुखल-सु-११ ... वख । सामत्यं । उच्छतो उच्छुओ{-क-लुप -असंधि)। ड्ड-स्वा० १, ३,२७. ४, ३६ शससकलं कसबो कसुओ १, ३, १४ ः। ।। २३, ११ ।। (६७) लक्षम्यादौचित् । २, ३, १७ । (६५) चश्चत्वरकृत्तौ । २, ३, १२। कौ० लक्षम्यादीस्केनित्यं छ: स्यात् । खफयोरपवादः । लच्छी। स्पृहा-छिहा । आर्षे-इक्खू खीरं सारिकौ० अनयोः स्केः नित्यं च: स्यात् । चच्चरं । क्वमित्यादि। १७क्षमाक्षणयोरिलामहयोः । १८ । किच्चा। १२ । त्योऽचैत्ये । १६ । सत्यं-सच्च । छमा छगो । इलामह्यो-खमा खणो।१८। ह्रस्वादरेत्येतु = चइत्तं चे इयं। निश्चलेत्सप्सभ्यश्चाम् ।१६। मच्छसो अच्छरा पी० चइति । चत्वस्कृति में स्व-त्ति को नित्य च होता मिच्छा पच्छिमो। निच्छलेतु-णि, निच्चलो। है। चत्वर कुति-सु-त्व-सि-च-२,३, ७५ च्च- बी० लक्ष्म्येति । लक्ष्म्यादि में नित्य छ होता है । लक्ष्मी३.१.२५, ३६ स्वा०-१,३, २६ कृ-कि- चञ्चरं । रगृहा-सु-प्र०सूक्ष्म -स्य-छ् २.३.७६च्छ-स्वा० किच्ची । १२ । सत्य- कृत्य- भृत्य-सुत्म -च- -लच्छो छिहा । आर्ष में इक्षु-सादृक्ष-क्षीर-२.३. -इ-स्वा०सच्चं किच्चं भिच्चो। चैत्य में १,३,६९--अस्तु-ख. झी=स्वी. १, ३, ४३ - ५३ ऐ-अ६२,३,६८.७५ त्य-त स्वा० पत्ता रि-स्वा०%इक्व, सारिखं । खीरं ।१७।१८ । । ८७ । स्म-तिय १, ३, ४६ चचे २,२,१ ति मत्सर-मिथ्या-..-पश्चिम–मु-१९ छ=च्छ-स्वाक १, १, २६% इयं । आर्षे चीवन्दणं । १३ । मच्छरो आदि। अरछरा १,१, ३६ .। निश्चल Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ | आकृत चिन्तामणि सु १, ४, २३. २, ३, ६७, ७५.३, १२, १३ = णि. (१००) स्ठः । २, ३, २७ । निश्चलो । १६ । (८) जोय्पर्धाम् । २, ३, २० । कौ० सेज्या सायाज्जादाभिमन्यो । २१ । अहिमज्जू, ज्जू, वष्णू, मन्नू । २१ । झोध्वजे । २२ । झयो धयो । २२ । योश्चित् । २३ | झाणं । गुझं । सज्झममितितु 'प्रायस्त्वदुब्वा । २, ३, १४ मित्येव सिद्धम् । इन्धौझा | २४ | समिज्झाइ ! घो० जोय्येति । व्य-ष-यं-रोज होता है । सेज्जा १,२, २३. सा सासु १, २, ३६ = अ- - प्र० सू० ज = २, ३, ७५ ज्म - स्वा० सावज्ज अज्जी | २० | अभिमन्यु सुप्र० सू० भ्युज्ज - ज = ७५ज्ज २१, ७ भि= ३२ मा पक्ष २, ३, ६८. ७५, न्यु =न्तु–३, १२५ स्वा० बज्जू, अहिवज्जू, मज्जू, एथे अहिवन्तु मन्नू । २१ । ध्वजसु २ २ १ ३ जय स्वा यो धयो को नित्य होता है। ध्यान = मुह्य २, ३, ७५ - = २, १३२ न ज्झ =गुज्झां | सज्झसं २, ३, १४. सम्-इन्छ– (ति–३, ३, १) छ्झा-३, ३, ७५ झा ३, ४, ३१ वा - अ समिज्झाइ, कृ । २३, २४ । (C) टोsवातावर्तः । २, ३, २५ ॥ कौ० वार्तादिभिन्र्तस्य टः स्यात् । केवट्टो । वार्तादौ तु वत्ता- कित्तां । २५ । वृत्तप्रवृत्तपत्तनमृत्तिका - कदयितोष्टेष्टासंदष्टे । २६ । वट्ट, पयट्ट, पट्टणं, मट्टिया कवहिन, मट्टो, इट्टा, सदट्टो । उष्टेष्टासंदष्टेषु ठापवादः । बी० [टोऽवेति । वातविभिन्न शब्दों में तं को ट होता है । के (=कै – १, ३, ४६) वर्त - सुप्र० सू० ७५ तं ट्ट २, ६, १३, सु = ओकेबट्टो । वार्तादि में नो वार्ता कोति १, २, ३९ ह्रस्व २, ३, ६६ तंत्त ३, १, ११. २५ स्वा० =वत्ता किती । २५ । ब्रु-नृ= १, ३, २७ न, म, २, ३, ७५ तथं = ष्टष्ट=ट्ट स्वा०वट्टं । पय (प्रव २, २, १,३३ ६९) । पट्टणं (न) = २ १ ३२ मट्टिआ (का) कट्टियो २, ९,३१ । उट्टो इट्टा दट्टो । २६ । कौ० मुट्ठी । लट्ठी । दिट्ठी । २७ । अस्थिविसंस्वार्थेऽधने । २८ | अट्ठी । विठ्ठलं । अट्ठो (म्) । ने तु अत्यो । (धनस् ) । २८ । बा चतुर्थस्त्याने । २६ । चउट्ठो, त्यो । ठी, योणं । वी० टस्येति । ष्ट को ठ होता है। मुष्टि-दृष्टि-सु प्र० सू० ष्ट= ठ= '७६ ट्ठि २१, २५ स्वा० = १, ३, २६ = त्रिदिट्ठी मुट्ठी । लट्ठी १, ४, २० टी० ३० द्र० । अस्थि - ( १, १, १८ वा पुंस्त्व) अर्थ--सु प्र० सू० स्थि=थं = ७६ विसंस्थूल सुप्र० सू० स्थू = ठू३, ९, १३, २५, २६ स्वा० अट्ठो अट्ठी विसंठूलं । धनवाची अर्थ - २, ३, ६९ - स्वा॰ = अत्थो । २८ । चतुर्थ – सु- २६, ७६ र्य = ङ. अन्य १, ४, ६ . । ठीणं १, २, ३८ द्र० । २, ३, २६ । (१०१) गतं विछदसम्मर्दनक्ति कपर्दे स्वेच् वातु गर्दभे । २, ३, ३० ॥ = I story द्वितयस्य स्केनित्यं ङः स्यात् । गतॅटापवादः । गड्डो । विअड्डोत्यादि । गर्द मे तु वा गद्दहो गड्डहो । ३० । मूर्द्धाधं श्रद्धद्धौढोवा । ३१ । मूण्डर अड्ढ सड्ढा रिड्ढो इड्ढी । पक्षे मुद्धा अद्धं सद्धा रिद्धी इद्धी । ३१ । वृद्ध वृद्धि दग्धविदग्धे चित् । ३२ । बुड्ढो बुड्ढो डड्ढो विअड्ढो । ३२ | वी० गर्तति । गर्मादि में द्वितीय संयुक्त को उ होता है । गर्दभ में विकल्प से होता है। गतं वितदि--छदि— विच्छेद – सम्मर्द – मदित - कपर्दे —सु में द्विः संयुक्त को प्र० सू० डः ७५ ड्ड स्वा० कार्य गड्टो । विभ ( = २, २, १, १, १, २६) ड्डी छुड्डी, बिछडी, सम्मड्डो, कद (२, १४१, प ) ड्डी । गर्दभ - सु वाड्ड पक्ष २, ३, ६७.७५ २, १,७ ह स्वा० = गड्डहो गद्दहो । ३० । मूर्द्धम् अर्ध-श्रद्धा- ऋद्धि-सु = ३१ ढड्ढ — स्वा० अड् स (श्र २, ३, ६६. १, ४, ३६) १, ३, २६.४४ ऋ = इ-रिइड्डी रिड्डी । १, १, ४६.५०, २, ३६ मुढा पक्ष २, ३, ६६ मुद्धा | अर्द्ध श्रद्धा दद्धी रिद्धी । ३१ । वृद्ध-वृद्धि – दग्ध— विदग्ध – सु = ३२, ग्ध = द्वा-स्वा० = १, ३, ३३= बुड्ढो बुढी । |७६== = F Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | २३ १, ४, २० टड्ड-द-वा -हड्ढो-दहो। विम पी० स्तपिचति । नत को जिता पी० स्तश्चिदिति । स्त कोप नित्य होता है। स्तुति-इस्त (=द २, २, १ लुग-असंघि) ड्ढो । ३२॥ -सुम्बा प्र० सू० स्त-थ-७६ स्थ२, १ (१०२) दत्तपञ्चदशपञ्चाशतिणः ॥२,३,३४॥ ति ईथुई, इत्थो। रतव-उत्साह-म-प्र० स० कौ० एषु स्के नित्यं णः स्यात् दिणं, पण्णरह, स्त-प-ह-र-स्वा-यवो, ७६ प य = पण्णासा । ३४ । ज्ञम्नयोः । ३५ । णाणं । पज्जुण्णं उत्थारो। पक्षे २, ३, ६७ स्त =त तयो । उम्छाहो १, ३, १४ द्र०। ४० । माथु-चिहन-सु-४२ न्युमन्तु, 1 ३५ | पटोवृन्ते । विण्टं । ३६ । ण्ड:-कन्दरिकार्मि इनन्ध -स्वा = मानू २,२, १ प्राय: अनादि = भिन्दिपाले । ३७ । कण्डलिया। भिण्डिवालो लुम् - इन्धं । पर्श-२, ३, ३८ हन=ह. ६८.७५ । २, ३, ३७ । न्य ==मन्नू पिण्हं । ४२ 1 बी० दत्तति । दत्तादि श्रय में संयुक्त को ण होता है। दिण्णं १, २,१०० पञ्चदश पश्चाशत् =प्र० स० च= (१०५) पो भस्मात्मनि । २, ३, ४३ । ग=७५ द्वित्व २, १, २२. ५२ दश =रह = पण्णारह। कौ० अनयोः स्कर्वापिः । भप्पो भस्सो। नान्तत्वा१. १, ३३ तू आ–दीर्घ ४, ३६ शाम सा-पण्णसा । सुस्त्वम् । अप्पा अप्पाणो, अत्ता । ४२ । कमङ्मोज्ञान-प्रद्युम्नी-प्र० सूशण २,१,३२== श्चित् । ४४ । प्पिणी। रुक्मी-रुम्मी वि० व्या० णाणं । प (-२, ३, ६६) ज्जु (-धु २१, ७५) १, ४, ४३) (है. रुच्मी ८, २, ५२.) इत्यपि । ड्य । म्न-३५ ७५ ण-स्वा० = पज्जुणो। विष्टं १, ३, ३७ कुम्पलं । भीष्मष्प-स्पांफः । ४५ । भिष्फो । शस्प: टी० ३६ ६० । कण्ड (=म्द ३७) लि (= २. १, ४७ =सफो । स्पन्द: फन्दो । ४५ । खेश्लेिष्मणि ।४६। रि)२, २, १ का=आ–१, १,६= कण्डलिया। सफो । सिलिम्हो। होर्वेमः । ४७ । जिहा-जिभिन्दिपाल–सु ३७ न्दि =ण्डि २,१, ४१ पावा- भा जीहा। विह्वल:-मिन्मलो विठभलो विहलो। स्वा०=भिण्डिवालो। ३७। उभं उद्धं । ग्मोमः । ४८ । जुग्गं तिमां न्मोमच् । (१०३) क्षणश्नष्णस्नणहनाह । २, ३, ३८ । । ४६ ! जम्मो (नान्तत्वात्पुस्त्वम्) । वम्महो। ४६ । खेम्भिः कश्मीरश्लेष्मब्राह्मणब्रह्मचर्ये । ५० । को० क्षणतिण्हं सह, (श्न) पण्हो । देण्हू (स्न) कम्मारो। कम्हारो। सिलिम्भो सिलिम्हो। ब-मण जोहा । वह्निवण्ही । पूर्वाहणः-पुवण्हो । ३६ बम्हणो । बम्भचरे बम्हचरें। ५० । आम्रताम्रम्वच सूक्ष्म म क्षोण्हे हो । ३६ । साह सुण्ह सुहुम ।३।।५१ । अम्बं तम्बं । अम्बिरं, तम्बिरं चेति देश्यो। वी० क्षणति । क्ष्णादि को एह होता है। तिण्हं २, ३, २, बी० पो भस्मेति । भस्मन् तथा आत्मन् में संयुक्त को प ३, टी० ए०। प्रलक्षण–प्रश्न'-विष्णु-ज्योल्ना विकल्प से होता है। मस्मन् (१.१.१७ पुस्त्व)पूर्वाह्ण-वह्नि-सुप्र० सू० क्षणादि =म्ह २, ३, ६८ आत्मन्-१,१,२८=न = नुप् २, ३, ६ मा=अ प्रक ज्यो -जो ६९ प्र प, पल =श (१,४, ३६-स) , सू० = स्म-त्म-प-७५ प्प-३.१.१३ सु- मोड़ = २, ३६ ह्रस्व २, ३, ६६. ७५ व-ब्व-स्वा० मा सह भरपो अ३,१.४६.५७ आत्मन् --अन-आ-आण ३.१, पण्हो वि. वे (१, २, ४०) ण्हू, जाण्हा, पुन्वण्हो वही । ११, १३ सु-लुप - ओह अप्पो, अपाणी । पक्ष ३,३. 1 ३६ । सूक्ष्म-सुण्हं १, ३, १६ द्र० । २, ३, ४० ।। ६७. ६८, ७५ भरसो अत्ता 1 ४३ । रुक्मिणी-२,३, (१०४) स्तश्चित् । २, ३, ४१। ४४.७५ क्मि=प्पि- रुपिणी । रुक्ष्मी=म्म -मकौ० स्तस्थो नित्यं स्यात् । हत्थो धुई। थोवास्त- मम्मी रुमी । ४४ । कुहमल-इम -- प= १, १, ४६. चोत्साहे बेरोइश्च । ४० । थवो तवो। उत्थारो ५" कुम्पलं कुंपलं । ४४ । भीष्म-मु १, २, ५६ ह्रम्व उच्छाहो। मन्युचियोन्तिन्धो । ४२ । मन्तू २, ३, ४५. ७६ ष्म = प्फ....स्वा० =मिष्फो। शप्यमन्नू । इन्धं चिण्हं (१४२) स्पन्द-१, ४, ३६ पास, - सप्फो फन्दी । ४५ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्राकृत चिन्तामणि श्लेष्मन्-सु१, २,२८-१२,३, ४६ म=फ -सुका ५३ हैर, शा=सा स्वा० =दसारो। ५३ | ६६ पले-घो=से-सेको । फवाभावे.-५० भ. नद बम्भचेरं २, ३, ४३ टी० ए० । धीरं १, ३.४६ टो० - भावे २, ३५३ मह म झले' -शिले १, २, ३९ हस्व' ५५१० । मुन्देर १, ३, ६४ टी०-६३ द्र० । तवं.४, ३६ शि=सि-सिनिम्भो, हो। ४६ । जिहा- सा (= शो १, ३, ६४, ४, ३६) हीर्य-सु प्र० स० १, २, ४७ द्र० । विह्वल-१, ४, २८ दी० ३३ द्र०५४ य-र ३.१.२६ रुवात हा मोगहीर । २३. उर्व - ४७.७६ म, पक्षे में ६, ७६ द= पूभं उद्ध! ५४ । पर्यन्त..-सु-१, २, २५ प २, ३, ५५ य. । ४७ । युग्न-तीग्म--सु-१, २, ३६, ४३३ ती स्वा० पेरन्तऽप्रत्याभावे २, ३, २१. ७५ र्य-ज्जनि, पुखु २, ३, ४६. ७५ सम=म्म स्वा० मा जुग्मं पजन्त तिम्म ६८.७५ ग्ग = जुग्गं तिग्गं । ४८ | जन्मन्- (१०७) आश्चर्यज्ञोऽररिअरी अरिष्जाच सु-११, १७ पुस्त्व २६ = लुप् ४६. ५५ न्म = ।२, ३, ५६ । म्म-३, १, १३ सुबोड् - जम्मो । बम्महो १, ४, कौ० आश्चर्येऽतः परस्यर्यस्य स्थाने 'अर, रिस, रोज, २३ टी० २६ १० । ४६ । सम्मारी १.३.१०।। रिज्ज' इत्येते चत्वार एकाराच्च परस्य तु रः प्रलेष्म २, ३. ४६४० । बाह्मण ब्रह्मचर्य -सु-१, २, आदेशाः स्युः । अच्छअरं। अच्छारिअं अच्छी ३६. ५० झ=म्भ पक्ष ५२ म्ह ५४ यंर १, २, २४ अच्छरिजं अच्छे । ५६। पर्यस्तसौकुमार्येल:व= ३६ वा= २, १, ४१ ब-च स्वा० =वम्मणो वम्हणो नम्भचेरं बम्हचरं । ५०। आनः -ताम्र-स स्तस्तु टो वा । ५७ । पल्लट्टत्थं । सोअमल्ल १५७। वी० आश्चर्वति । आश्चर्य में अकार से परार्य को अर, ५१ नम्ब१, २, ३६ ह्रस्व =अम्बं तम्बं २,३। रोज रिज्ज तथा ए मे पर र्य को र होता है। आश्चर्य-- सु १, २, ३६ ह्रस्व-२, ३, २०. ७६ च =च्छ १, (१०६) म्हच् पक्ष्म श्म म स्म ह्यामरश्मिस्मरे।। २, २६ वा---ए = च्छे-च्छ प्र० सू० अर, रिअ शैभ, रिज्ज, र=अच्छभर, ४, अच्छेरं । ५६ । को० मादीनांम्हच् स्यान्लतुरश्मिस्मरयोः । पम्हें । पर्यस्त-सौकुमार्य-सु = १, २, ३६ मा कम्भारो। गिम्हो ।विम्यो । बह्मणो । रश्मि स्मरे म २, ३, ५७. यं ल =७५ स्ल-स्त =, १, ३, ६. ६४ तुरस्सी । सरः । रोदशाहे । ५३ । दसारो। र्य सौकुन्साक २,२,१.१,१,२६ कु= स्तर्य शोण्डोर्य सौन्दर्य ब्रह्मचर्ये धैर्य तवा । ५४। तर स्वा० कार्य पल्लहं । सोअमल्ल । ५७ । सोण्डोरं सुन्दरं बम्भ, म्ह चेरं । धोरं धिज्ज । सूरसूर्ययाः संस्कृतयोरेव = सूरं सुय्यं इति रूपेस्तः ।५४ । (१०८) हलोल्हच । २, ३, ६१ । एतः पर्यन्ते । ५५ । पेरन्तो। एत्वाभावे-पज्जस्तो। कौ० पल्हायो कल्हार ।६१। वनस्पति वृहस्पतो सो बा । ६२ । वणस्सई, फई। वह-स्सई वहप्पई भयबी० म्हजिति । पक्ष्मन में आम तथा रश्मिस्मरस्थ से भिन्न- स्सई भयप्फई । ६२ । तोर्थ वीर्घ दुःख दक्षिण-वाष्पे म.-म-स्म-म को म्ह नित्म होता है। पक्षमन- हः । ६३ । तूह तित्वं । दोग्ध दिग्घं। दुहं दुक्खं । दाभादिनिषेध से स्वाभाव १.१.२८ न लप प्र०स० दाहिणो दक्खिणो । वाष्पे व्यवस्थिताविभाषात्वात्द. क्ष्म-म्ह–स्वा० = बम्ह । कम्मारो, बम्हणो २, ३.४३ श्रुणि एबहः वाहो-नेत्रजलं अन्यत्र वष्को उष्मा। टो०५० ० । गि (=ग्री २, ३, ६६.१, २, ३१) । ६३ । चित्तूष्माण्डी कार्षापणे केः । ६४ । कोहल्ली ष्म-विस्मय-सुप्र० सू० म= स्म-म्ह ३,१, १३ काहण्डा य-स-प्र० स०म-स्म ३ कोहपडा । का, कीहावणो । देशः। स्वा०-गिम्हो विम्हो। रश्मि-स्मर-स में २, ३, ६८म- बी० हलोल्हजिति । प्रहलाद कहलार--सुप्र० सू० लुप-सरो । शि=सि-स्वा०-रस्सी । ५२ । दशाह हला=ल्हा २, २, १३६- ३,१,१३, २६ स्वा. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | २५ = पहलायो कम्हारे 1६१ । बनस्थति वृहस्पति-सु-६३, दी येति संयूक्तयों में ऊर्वस्थित कादि को लुप ७५ स्प स्स पक्षे=४६ एफ-ति२, २,१,२,१, होता है। में नहीं होता है। भुक्त-षट्पद-उत्पात-गुप्ति २६ इ३.१, २५ स्वा=२, १, ३२ नण १, ३, -दा-बांग-मदगर-दू-ब-अन्त पात--निश्चल२७३ -यणस्स, प्फेई । वहस्स, फई। २, २, ११ गोण्डी-स्नेह-म-प्रे. सू. के-ट-त-प-ग-इभयस्सई, फई-विह०१, ३. ३७.टी०३८ द्र० । ६२। द-कप - --स-- लुप् ७५ द्वित्व ७६ पूर्ववर्ण तुहं १, ३, १, टी०५१ दाहिणो १, २,०टी० ८ द्र। -(३.१.१३, २५, २६) --स्वादिकार्य ... भुत्तं । १, ४, दी -२, ४,३० स्वार्थ र दुःस्व ---- सु प्र० सू० ह ३५ ष=छ=२, २.१,२, द-य-छप्पयों उप्पायो ३,१,२६-दीहरो, दीहो दुहं । पक्ष, २. ३६ ह्रस्वं अन्तप्पायो। इत्यादि । में २, ३,७२ से 7 लुप ७५ २, ३, ६७. ६६. ७५. ७६ =दिग्ध दुक्ख । बाप्प-गु द्विस्य समुदो चंदो मन्द । लपाऽभावे अदनिषेधसेट= ह्रस्व, पन्है, ४६. ७६ फ्फया हो (अर्थ) बस्फो लुप्- समुद्रो चन्द्रो मन्दं । (उष्मा)। कुम्माण्डी-सु= १, २, २५ टी० २६ द.। नमपाश्मश्रुश्मशानेऽधः । २, ३. ६७ ।। कार्षापण-सु--/---हा २,१.४१ प व १, २, ३३ का-वा.... क-कहावणो काहावणी। कौ० संयुक्तोष्वधः स्थितानां नमयां लुप् श्मधुश्ममाने योन । न । नगगो। म । रस्सी । या 1 कुडं तिविह प्रकरण समाप्त। सल्लं । श्मश्रुश्मशानयोस्तु मासू मंसू मस्स। [अथ संयुक्ताबयवलुप् प्रकरणम्] मसाणं । निष्प्रभनिस्पृहपरस्परस्तम्बतमस्तेषसोलुप दो० नमामिति । संयुक्त में अघस्थित न म य को लुम् होना है । मध तथा शमशान में नहीं होता है। नग्न-- कौ० पषयोरपवादः । एषु स्केरेकषेशयोःषसोलुंप कुड्य-सुप्र० सून-म=लुप् ७५ द्वित्व-सुप्र० स्यात् । णिप्पहो, णिपिहो, परोप्पर, तम्वो, सून-म-लु ७५ वित्व, स्वा.नागो कर रस्मिसमत्तो। रस्सो -२, ३, ५२३० । बी० निष्प्रभेनि । निष्प्रभादि में संयुक्तावयब-पकार तथा मकार का लुप् होता है। २, ३, ४८ प ४६ फ का रलवामुभयेवामन्द्र । २, ३, ६८ । अपवाद है। (मिर =नि १, ४, २३ दि०) प्रभ-णिस्प- को संयुक्तध्वधिस्थिताना र-ल-वां लूप स्यान्नशन-निस्पृह-परस्पर-स्तम्ब-समस्त-सू-प्र. सु. तुवन्द्र । अत्त झाणं । सूक्कनाणं। सहो। अधः । स्त-प्र-स्प ----सुप २, ३,६६. ७५ प्र. गेही पिक्क सह । अत्तं रुद्द तहा धम्म सबके प्प २,१, ७भ-ह- स्वा-णि, निप्पहो। १, ३, २१ झाणं चउम्विहं । तत्थ मोत्तण वे अज्जे घेत्तब्वे ऋ---इ-णि, निपिहो। परोप्परं १, २,२६टी ३१ द्र एव सम्बो समत्तो। ___ आर्त रौद्र तथा धर्म शुक्लं ध्यानं चतुर्विधम् । कटलपगडद =के पशरामूलमन्द्र । २, ३, ६६। तत्र मुक्त्वा आद्ये ग्रहीतव्येचरमे द्वे । १ । अवेन्द्र को० संयुक्त पूर्व स्थितानामेषालुप् स्यान्नतु ।। इति निषेधसामर्यादिह धात्रीचन्द्रोपमेरः' इति का । भुतं । द । छप्पयो । त। उप्पायो बा । गुत्ती। विकल्पो न प्रवर्तते । वन्द्र । (समूह)। ग। दुवं । ड। खग्यो । ६ । मोगरो=। ख। वो. रलेति । संयुक्त में उर्ध्वाधः स्थित र-ल-4 को दुक्ख । प । अन्तप्पायो ।श। णिच्चलं । ष । गोठी लुप होता है। बन्द्र शब्द में नहीं। आतं-रौद्र धर्म। स । नेहो । देतु समुद्रो चन्द्रोमद्र इत्यादि । धात्री- शुक्ल स (=श १, ४, २६) ब्द = सु-- प्र० सू० र -ल चन्द्रतुल्येरः (२, ३, ७२) इतिलुपोऽभावे प्राप्तस्य -व-लुप् ७५. ७६ = १, २, २६ ह्रस्व-स्वा = अत्तं द-लुपोनिवर्तकोऽद्र इति निषेधः। रुद्द धम्म सुवक । एवं सर्वम् । १ . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ! प्राकृत चिन्तामणि मध्याह सर्वज्ञोपमयोर विज्ञाने हो; । २, ३, ७०। य= २, ६ को-कं २. ३, ६७ स्य – स' अनुस्वार से कौ० मध्याह्न हस्य विज्ञाने भिन्न सर्वश तुल्ये च पर है स्वच् से पर नहीं होने से 5 द्वित्व म्वा० -- कसं वयंसो। त्रस्य वा लुग । मज्झण्णो मज्झण्हो। सब्वज्जो अको क्यों ? खम्भो तम्बो २, ३. ४. ६५ में आदि न-- सव्धष्णू । विशाने तु विपणाण। त को द्वित्व नहीं होता है। असंयूक्तयोः क्यों ? न्यन्दो मन्तू इति लुप्रकरणम्। में संयुक्त न्द न्त को द्वित्वाभाब के लिये है। २, ३, ४३, बी० मध्येति । मऽवाहन में तथा सर्वज्ञ तल्य में नको १० । अहो: क्यों विहली कहावणों में को अद्वित्वार्थ । विकल्प से लुग होता है। मध्याह्न--सु०-प्र० सू० १. ४, ३३, २, ३, ६४८० | १, २, ३६ ह्रस्व -- हल-है - बा० लुप् २. १, ३२ युग्माभ्यां प्राक्पूवौं । २, ३, ७५ । न=ण २, ३, ७४ पण, २, ४.७५ ध्य = उडा ३.१.१, -माझा को द्वित्व प्रसंगे वर्गस्य युग्माभ्यां प्रथम द्विती: २, ३. ३८ हल ::: -- __ याश्यां पूर्व क्रमात्पूर्वी प्रथम द्वितीयौ स्तः । शेष । मज्झण्ही । सवष्णू १,२, २० । विज्ञानं-२,१, १२ न=णं २, ३, ३५. ७४ ज्ञा-- गणा =दिणाणं । वग्यो । आदेश भियख। समासे । बद्धप्पल । हरयहाँ बलुप नहीं । । लुप्रकरण समाप्त । खन्दा । मुकादो-नवखा महा। प्रभतादौ-ओक्खलं । द्वित्व प्रसंगे सत्येव । ख्यात: खायो स्तम्भः - [ अद्वित्व प्रकरणम् ] खम्भो । द्वित्यमदीर्घा दयोचोऽका वस्ययोः शेषादेशयोरहोः वी० मेति । हिन्ध प्रसंग में नाबादि के द्वितीय से पूर्व में १२, ३, ७४ । प्रथम तथा चतुर्थ से पूर्व तृतीय होता है। व्याल्यानको० अनादौ स्थितयोरदीर्घादचः परयोरसंयुक्तयोः । ध्यान-सु–१, २, ३६ ह्रस्व २, ३, ६७.६८ य-र शेषादेपायोद्वित्वस्यान्नतु हस्य । भुतं छप्पयो । रगों - लुप् शेष ख --- करन. घ-- रघ---३, १, १३, २६ भिवख्न । दीर्घात्तु कासवो पास । अचः किम् । कसं । रवा = वग्यो, वडा--। व २, १.३५) भिकाजू वयंसो। अहोरिति किम् । बिहलो कहावणी घार १२.३, ६) में आदेश । अशेषानादेश बद्ध-फल २,३। सामोपडी सन्देरं बम्हचेरं अच्छेरं पेरन्तं इत्यादो दिन प्रसगे-- एफ = वद्धप्पलं । आदेशे-हरस्कन्दीरेफस्य न द्वित्वं दसारो अदीर्घादिति निषेधात् । २, ३, ३, प्र० स० स्क- ख ३, २, ४० ओ= जस् अकाविति किम् । स्तम्भःखम्भो। स्तम्वः -- ३,१. ४ दलुप १.१.२ दीर्घ-- हरवखन्दा । नख-जस् तम्बो । अस्कोरिति किम् । चन्द्रः = चन्दो। मन्युः। =७८ द्वित्व प्र० प्रकृत सू० व – उस पक्ष २. १. ७४मन्तू। -११, १५ थचनादि पुस्त्व, स्त्रा-नवखा नहा । बी०दित्वमिति । दीर्घ अन से पर अनादि-असंयूक्त ओवखलं १, ४, ६ द्र० । ७४ । -fusशेष तथा आदेश को द्वित्व होता है। भिक्षुसु शेषातादेशयोश्च समासे । २,३,७७३ =२, ३, ७५ क्षुदखु- स्वाभिमनु । १० रग्गो। __ को० चात् शेषादेशयोश्च द्वित्वं वा स्यात् । सपि६७ | भुस छप्पयो इत्यादि ६०1 अदीति क्यो? . वासो सप्पिवासो। बद्धफलं बद्धप्फलं शेषे। कुसूकश्यप-सु-२, ३, ६७ श्य-य-लुप १,२,७ दीर्घ वासास ४, ३६ श=स २, १, ४१ पच ३, १, १३ सू'- मप (प्र) यरो कुसुमपयरो। आदेशे। हरओड कासबो, पाश्र्व-म, -२, ३, ६८ -लुप्श-स खन्दा। देवत्थुई देवथुई । आणालक्ख, खम्भो। ३,१, २६ स्वा० =पासं यहाँ दीर्घ से परस को तथा धीर, २, ४, १द्र। तुरं मच्छर पेरन्तं दसारं आदि में रेफ को द्वित्व नहीं होता तो समास में अशेष-अनादेश तथा शेष-आदेश को है। अचः क्यों? कांस्य-सु-वयस्य--सु १,१, ४६ विकल्प से द्वित्व होता है। देवस्तुति-सु-२, ३, ४२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | २७ स्त =थ-प्र० सू० थ प २,२,११,१,२६ ति= ग्गिा३, १, २५ सू= दलूप् १,१, १४ दीर्ष अगणी १३, १, २५ स्था० =-देवत्थुई देवथई । शेष स्पष्ट है। (=नी २, १, ३२) अग्गी । मूकादौ । २, ३, ७८ । (सेवादों है-८, २, ६) पंतप्तवत्र क्रियास्वित् । २, ३, ८४। को मुकादिषु यथादर्शनं मनादी हलो वा द्वित्वं कोर्ष योस्त प्तादिषु च स्केरन्त्य हल: प्रागिद् वा स्यात् मुक्को पुको शवला बा । अकोराः । दरिसणं दसणं ।। परिसं वास । दी० मुकेति । भूकादि (सेवादि) में यथादर्शन (अनादि) तविओ तत्तो। वन्दामि अज्जारं। वज्ज। हल को ढिस्व विफल्प से होता है । मूक -सु-प्र. सू५ किारया । हयनाण कियाहाण ।। क= द्वित्व १, २, ३६ ह्रस्व पक्ष में २, ३. १, १, १, श्रीहीहं दिष्टया कृत्स्न हर्षामर्ष परामर्शचित् २६ क-तृप्–असंधि = मूस्को मुओ । अस्मद–२, ४, ।२,३,८५ ।। ५ केर–प्र० सू० कक्के १, १, २८ द-लुप् २, ३: कौ० चित्वान्नित्यमिति । सिरी । हिरी। है । वरिहो ५३ स्म-म्ह–स्वा० = अम्हकरं। अरिहो । दिदिया। कसिणा। हरिसी । अमरिसो। प्रभूतादौ चित् । २, ३, ७६ । परामरिसो। है-८, २,६८) बी० ?ति । र्श-र्ष तथा तप्तादि में अन्त्य हल से पूर्व बी० पीति । —ष तथा त की० चित्वान्नित्यं द्वित्वं स्यात् । पहु ( --प्रभू) तं। इकार होता है । दर्शन-आदर्श -- मु= प्र०यू० शं =रि तल्ल ।। न धष्टद्युम्नेण: ॥२.३.३० । घटठज्जणा - ११, ३६ श-स २५, ३२ न=ण :२.१३६ ॥इति द्वित्व प्रकरणम। सय ३.१, १३, २६-आयरिसो दरिसणं । पक्ष?? ४६ -दं २, ३, ६८, सं = =प्रायसो दसणं । वर्ष दी० प्रभूतेति । प्रभूतानि (तैलादि) में यथादर्शन हल् को .-सुप्र०सू०र्ष = रिप पक्षे २, ३, ६८५ प १, २० वित्व नित्य होता है। प्रभूत-तैल-सुप्र० सूत.७ववा १, ४, ३६ष=स३, १, २६ स्वार वरिस ल-द्वित्व १, २, ३८ ह्रस्व, ३, ४६ ऐ..-ए, २. १,७ वास । तप्त-यज-क्रिया-सु-प्र० सू० प्तना पित. ऊ-उ, ३, ६६ प्रप३, १, २६ स्वार= पहत्तं च जिर, कि= किरि पक्ष २, ३, ६६.६८.७८.५ तेल्ल । ७६ । धृष्टद्युम्न-सु=१, ३, २७ धु=ध २, ब स, पाउज कि-- कि-वा०-२,१, १पि३, २८. ७५ ष्ट=छ २१, ७४ धु = ज्जु ३६ मत=ण वि२, २, १. त--अ-जि-३, १.१.२६ असंधि८० । द्वित्व निषध ३.१,१३ सू= ओड़ = धज्जुणी सविओ बहर किरिया, पक्षे तत्तो बज्ज किया । ४। ॥द्वित्व प्रकरण समाप्त । श्री-ही-अहं-हर्ष-अमर्ष–परामर्भ--स्न-- [ अथागम प्रकरणम् ] दिष्टया-सुप्र० मू० से रन-य से पूर्व इ-१. ३, २७ कृ= ४, ३२..- =स, २, ३, ८, ७५ क्ष्माश्लाघारत्नेऽन्त्यहलः । २. ३, ८२।। टि-ट्ठिी ६६ सि-सि बाहुसकादद्वित्वं-वाकौ० प्रागदित्यनुवर्तते । एषु स्केरन्त्यहल: पूर्वमका- सिरी, हिरीत्यादि । ५। रागम: स्यात् । छमा । सलाहा। रयणं । वाऽग्नो। यात्स्याच्चैत्यमध्यवार्यतुल्ये । २, ३, ८६ । १३ । अगणी अगदी। कौ० एषु स्कर्थात्प्राङ नित्यमित् स्यात् । स्याद्वाद: बी० मेति । क्षमा-इलाधा-रत्न-मु=प्र० सू० मा = =सियावायो। चेइयं । भवियो। बीयतुल्येषु । क्षमा-ला-शला-..-ल-तन--.२.३.१८ क्ष=छ, वोरियं बरियं चोरियं इत्यादि। ५६। लादक्लम१.४, ३६ श स २, १.३२ न = ण २, २. १, ई त = तुल्ये । ८७ । क्लेशः - किलेसो। सिलेसो सिलिय ३१. ११. १३ स्वाs = छमा सलाहा रयणं । ६६ । महो। क्लमतुल्येतु-क्लम: कमो। क्लीवः - अग्नि-सुप्र० सू० ग्नि = गनि, पक्ष २.३, ६७. ७४ कीवो।७।नात्स्वप्ने । म । सिमिणो सिविणो। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ | प्राकृत चिन्तामणि आर्षे सुमिणो । ८८। उत्सूक्ष्मस्र नेमात् ।१२। हरदे) मरहट्ठ। आणालक्ख, खम्भो। अलचपुरं सुहुमं । सुरुग्धं (नगर)।१२। पृथ्व्या वा । ६५। ।१। वाराणसीकरेण्बारणो: ।२। वाणारसी । पिलवां पुहवी पिच्छी । ६५ । छद्म पदम द्वार- कणेरू। मूर्ख।१६। छउमं, छम्म,पउमं, पोम्भ। द्वार- बी० व्यत्येति । हद-महाराष्ट्र---ालान (स्तम्भे) ती मोति । हा वार, वारं दारं देरं मुरुक्खो , मुक्खो । ६६ । अचलपूर--स्-१.२, ३५, ३६ हारा हर प्र० सु, अजिचौचाहति । ६७ । अईन अरहन्तो अरिहन्तो रहल-द्र० । लन == नल, चल= लच-३, १, १३, अम्हन्तो । २, २, ६७ । इत्यागम प्रकरण समाप्तम्। २६ स्था० =द्रहो । आर्षे–१. १, ५ बाहुलकास्दी० यादिति । स्यादादि में संयुक्त य से पूर्व में नित्य ह्रद-हरद-२,२,१, १, २६ द-अ३, १,१, १४ होता है। स्याद्-वाद् --चैत्य- भव्य--वीर्य-वयं- ङि: एडहए। २, ३.२८.६८, ७५ ट ट्ठ १. चौर्य--सुप्र० सू० य से पूर्व इ १, १, २८ द्-नुप १.१८ बा० पुस्त्व-स्वा०- मरहट्ठं हो। २,१, २,२,१, ३३-य ३,१,१३ सु-सियावायो भथियो। ३२ नाणा (स्तम्भ-स्त=२,३.४ स-७७ वा= १, ३, ४१ चे ६४ चोचो २, २, १.१, २६ ख-आणालय, खम्भो। अलचपुरं। वाराणसीति-इ, असंधि=३. १, २६, स्वाधेश्यं वीरियं करेण--सुप्र० सू० र -- णण-र ३, १, ११, २५ घोरियं । ६६ । कलेस-(-श) फ्लेष—सु प्र० स० स्वा०-वाराणसी । कणं रू। २, ४,२। क्ले किले-स्वा० किलेसो। सिलेसो। सिलिम्हो २, हय-सह-लर-रसायलद्युकललाट हरितालेषु वा ३.४३ टी०४६ द्र० । क्लमतुल्य में नहीं होता है । अतः । २, ४,३। क्लम-लीन-सु=२, ३, ६८. ३,१, १३-कमो कीवो। १७ । सिभिणो १.२, १० द्र० । सुहमं १, ३, कौ० एषामेषु वा व्यत्ययः स्यात् । सहयं = सटह - १६ द्र० स गन --सु= ६२ सू० न.- सूरु २, ३, ६७, सज्झं । गुटह गुज्झं । घस्यहत्वेव्यत्ययः । हलुअं ७५ ग्घ्न ग्ध -स्वासुरुग्छ । ६.२ । पिहृषी २.३, लहुआ। णिडाल णडाल। णोललाटे (१, ४, ३१) १४ द्र० । २, ३, १४ द्र० । १५ । पउमं १, २.२६ द्र। इत्यादेर्णत्व विधानाद्वितीयस्य व्यत्यय: । हरिमालो हलिआरो। १३ । निवहरूकरणयोवहकरो। ४ । छद्म---१, १, २८ लुप् प्र० सू० झ-दृम २.२.१, णि, निवहो णि, निवहो। (समूह) दब्बीरयोदश्यीअरो दुस-3-"असंघि ३, १, २६ स्वा०-छउमं । पक्षे २, 5, (सर्प-)।४। ॥इति व्यत्यय प्रकरणम् ६६.७४ दम =म्म = छम्म। द्वारं -प्रसू० द्वावारं । पक्षे २,३, ६६ (दिव्यादौ यथासम्म) द- बी० हयेति । ह्यादि में यादिको विकल्प से व्यत्यय सुप् - बार, ३–लुम् दारं, १, २, २५ वा-ए-वरं। होता है। सा-गृह्य-लहुँ (-घु २,१,७) कमूर्ख-सु=१.२.३६ मू= मु--प्र० सू० खं = स्व २, हरिताल-सु प्र० मू० वा-ह्य ठह पक्षे २, ३.२, २, ७६, ७५ ब क्स , पक्षे ६६, ७५ खं- क्ख-.३, १, ३७, ७५ जम, ल-ह-हल, रल-लर ३, १, १३, सु- ओड मुरुक्षो , मुरखो। ६६ । अहंत-स३३, २६ स्वा० =क--ता-२,२,१, १,१,२६ लुप-- १३ ४१ अईन्त प्र० सू० ई - रि, रु ह–स्वा असंधि =अ---आ गुरहं गुज्झं इत्यादि । णिडाल १.२, अरहत्तो अरिहन्तो अरुहन्तो। १० टी०११ द्र०।३। णि (=नि १, ४, २३ वा०) ॥इत्यागम प्रकरण समाप्त। वह- दब्बी (= २, ३,६८, ७४) कर-सुप्र० [अथ व्यत्यय प्रकरणम्] मू० वह-हेद, कर रक-३, १, १३ सु-ओड्व्यत्ययोदह-हर-सन-चला हवमहाराष्ट्रालाना णि, नि-यो, बहो । दध्वीरयो ( =क-२, २, १, ३) ष । २.४,१। दवी (- २, २, १.१, २६) रो। २४ कौ० द्रहो। आर्येतु हरए महापुण्डरिए (-ह्रदे ॥इति व्यत्यय प्रकरण समाप्त । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि २६ [अथ तद्धित प्रकरणम् ] २, २, १.१,१,२६, ७२... अ-लुप् स्वा०-विआरुइदम करच । २, ४, ५॥ हस्लो । गर्व-मत्-इर १.१.२७ -अ-लुप को० इदमीय प्रत्ययस्य स्थाने करेचस्यात । तम्ह २, ३। ६८, ७४ स्वा० =गठिवरो । काव्य-मत्-इत्त केरो । अम्हकेरो। बाहलकात्ववाचिन्न । मदीय -सु-१, २, ३६ ह्रस्व २.३.६७. ७५ व्य= व. पक्खो। पाणिणीयं । ५। युष्मदस्मदोरणाडेच्चयः १.१, २३ अपदे असंधि, स्था०- कध्वइत्तो। कथा। योष्माक-तम्हेच्चयं । आस्माक-अम्हेच्चयं। इन्म-मया-हर १.१.१६, हा-ह कह ।८। आत्मनोणयः । ७। आत्मीयम:-अप्पणयं इन्ती । पुण्य-"मत्-मन्त-स-२, ३, ६५.७४ श्य = = पुण्यमन्सो। भक्ति- मत् = वन्त-स-२,३, ६६.७४ ति= सि-मत्तिमन्नो। १६ । वी० देति । इदमीय प्रत्यय के स्थान में केरच आदेश होता है । अस्मद् = छ= प० सू. फेर-सु= १, १, २८ लोहहित्थाः ।२, ४, १७ । द्लुए २, ३, ५२ म्म = म्ह ३, १, १३ सु-बोड्= कौ० अल:स्थाने हादयः स्युः। यत्र-जह जहि जत्थ अम्हकेरो। तुम्हकेरो १, ४, २८ टी० २६ द्र० । तु (- ।१८ । वातसो दोत्तो। १६ । सव्व (-4-२. ३. ६८.७४) दो, सम्वत्तो 1 पक्षे सवओ (-त: ३,१. -- - अद्-लुप् २, ३, ५२ प्म-स्म-म्ह-स्वा० १३.२,२,१, १,१,२६) --तुम्हेज्वयो अम्हेच्चयो । ८ | आत्मन्-छ-प्र० सू० डिमात्तणी त्वस्य । २, ४, २१ । णय-सु-१, १, २८ -लुप् २, ३६ आ म २, ३, ४३. ७४ हम-प-स्वा० - अप्पणम् । ७ । कौल त्वप्रत्ययस्य डिमात्तणी वा स्तः। पीणिमा। मतुपो मामणाल्वालेल्लोल्लेरेत्तेतमन्तवन्ताः पीणेत्तणं । पक्षे पीणत्तं । त्वस्येति किम् । पीनतागोणया । शौ०पीणदा। बी० डिमेति । त्व के स्थान में डिमा--हण दो आदेश को मतपः स्थाने यथा प्रयोगमेकादशादेशामादय: स्यु: । मा। हणुमा। मण। धणामणो । आलू । होते हैं। पौन-- - डिमा. -सण-सु . १. . न=ण डिवाहिलोप--३, १, ११.२६ दयालू । आल । रसालो। इल्ला। सोहिल्लो। कर = उल्ल । विआरुल्लो। दूर । गटिवरो। इत्त । कन्व पीणिमा । पीणतणं । पक्ष २, ३, ६८.७४ त्व= त - इत्तो । इन्त । कथावान् -कहइन्तो । मन्त । पुण्ण पीणतं। पीनता-२,१,१,३ पीणया ५.१.१ता= मन्तो । वन्त । घणवन्तो । मतुप इति किम् । धनी-- दा= पीणदा । धणी। अर्थी-पाथी। वा स्वार्थेकश्च । २, ४, २३ 1 | वी० मतुप इति । मतुप के स्थान में प्रयोगानुसार मा मणः कौ० स्वार्थे कः चाद् डिल्लच् डुल्लच इत्येते त्रयः इत्यादि ग्यारह आदेश होते हैं। हनु-मत्-प्र० सू० प्रत्यायाः वा स्युः । चन्द्र: चन्दयो । हियययं । द्विरमा २,१, ३२ नु-हणुमा सु-३, १, ११ सु- पिस्यात् । बहुअयं । बहु । ककारोच्चारण पंशाच्या स-लुप् =हणुमा । एवं धण (--न) मत् = मण=सु श्रवणार्थम् । यदनकवतनक । निजितकषायः-३, १, १३ सुमओड्=धण-मणो । दया-मत् r-या--प्रणो। टया-मन- णिज्जियकसापिल्लो । मख-महा पक्षे-चन्दो, आलु-दीर्घ ३, १, २५ स्वा० - दयालु । रस-आल- हिययं, णिज्जियकसायो, मुहं । २३ । विद्युदन्धपीतसुरसाली। शोभा-हल्ला १, ४, ३६, सो सो पत्राल्ल । २४ । विज्जुला विज्जू । अन्धलो, अन्धो। २.१, ७ मा-हा-१,१,२७ आ-- लुप् = सोहिल्ला पीवल, पीजल, पीअंपत्तल पसं। २४ । डियंशनस -सु ओ =सोहिल्लो। विकार-मत्-उल-सु- ।२७। सणियं। डयंचवामनाक: । २८ । मणियं । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० | प्राकृत चिन्तामणि मणयं मणा । इलियोमिश्रात् । २६ । मोसालिय निर्धारणे । सवाणं साहूर्ण ठाणगवासी साहूकम्म। २६ । दीर्घा द्रः । ३० । दोहरो दीहो । २, ४, ३० । दलने सूरो। सर्वेषां साधूनां स्थानकवासो एव कर्म ।इति तद्धिताः। दलने शूरः ।। दी वेति । स्वार्थ में नाम से पर तथा चकार से डिल्ल- कैवले णवर णवर। २, ४, ४६ । डल्ल ये तीन प्रत्यय विकल्प से होते हैं। पन्द्र-क-सु. कौ० जिणवयणं सण। बरं सदोरयमुहबत्यियहि (-ह १, ३, २६) य (=६ २, २, १.३) प--क- गेडसि । केवल सोदरक मुख बस्त्रिका गृहासि। म --क-य २.३.७२ न्द्र सन्द १,१३.२६ स्वा० = स्वयमोऽपणाऽप्पणो । २, ४, ७०, ६७ । चन्दयो चन्दो -हियपयं । दो बार भी होता है -बहु+------बहुत बड़ा कारोबार की को० अप्पणाणइकल्लाणं कुणइ जणो। स्वयमेव भाषा के लिये है। वदन -कं =क्तनक ५.२.१९.। कल्याणं करोति जनः । अप्पणो चेअ मुणीकसायं निर्जितकषायः =बिल्ल-मुख-- डुल्ल-स्=१, ४,२३ छडुइ । स्वयमेव मुनिः कषायं मुञ्चति । नि=णि ३६ ष- २, १,७ व-ह, २, २.१.३ एवाय गइरच चिअचंभ। २, ४, ५४ । त =य ३, ६८. ७४ जि-जिज - णिज्जियकमाथिल्लो कौ० मुणी चि धम्म मुणइ । मुनिरेव धर्म मुहल्लं । पर णि यो मुहं । २३ । विद्युत...१, १, ३३ जानाति । एवं णइच्च चेअ इत्येते प्रयोज्याः । .. अन्ध–पत्त (त्र २, ३, ६८. ७४) ---पीत-प्र. मू. इर किर हिर किलार्थे । २, ४, ६८ । ल- स्त्रा० अन्धो, लो। पत्तो लो। पीत-- २.१, और सो जाण इर सियावाय रहस्स। स २५ त-का-व पक्षे २, २, १, १, १, २६ अल पीपल जानाति किल स्याद्वादरहस्यम् । एवं किरहर । पीअल पीर्थ । २४ । स(स–१, ४,३६) नेश =डिय पक्षे किल । -स्-जोर=सणियं । मनाक् -२८ बा-डर्म-डियं सिद्धा इवार्थे पिव मिव व व विक्ष घिव । २, ४, -आक खोप, पक्ष में १, १, २५ -लुप् २,१, ३२ न =ण मग, भियं-मणा । २८ । पीस (=मिश्र २, ३, ॥ इत्यव्यय प्रकरणम् । ६८. १, २, ७, ४. ३६) हालिय -दी. लु-स्वा* मोसालिवं मीसं । दीहरी २, ३, ६३० । ३० । [अथ सुबन्त प्रकरणम ] ॥तद्धित सम्पूर्ण। ॥ तत्र पुलिङ्गाः सामान्य शब्दाः ।। आहणात् सुपोनाम्नः । ३, १,१। [ अथाव्यय प्रकरणम् ] कौ० 'हं' (३, २, ३२) मिति सूत्रं यावदयअव्ययम् । २, ४, ३२ । मधिकारः । तेन इतः परं वक्ष्यमाण कार्य नाम्नः को० अधिकारोऽयम्पाद समाप्ति यावत् । तेनेतः परं परस्य सुपो विभक्ति विपरिणम्य सुपिपेर नाम्नश्चवक्ष्यमाणा अध्यय संज्ञा स्युः। स्यादिति बोध्यम्। तत्रादी-जिन-सु=इति प्रश्नविमर्शयोः फिणोमणे । २, ४, ३३ । स्थितो--- कौ० क्रमादनयोरर्थयोरेतो प्रयुज्यते । किणी तिण्णि बी० आण्हादति । ३, २, ३२ सूत्र तक अधिकार होने से आगे होने वाला कार्य नाम से पर स तथा विभक्ति वि मुत्ताओ करेसि । किम् तिस्तोऽपि गुप्तो: करोषि! विपरिणाम से सप से पूर्व नाम का सम्बन्धी होगा। यह मणे अयंमुणा । किस्विमुनिः । ३३ । जानना। निश्चयनिर्धारणयो र्वले । २, ४, ३५ ॥ चिद् विसर्गस्य चाक्लीवे उत्वार्षे । ३, १, १३ । कौ० बले ठाणगवासी मुणो । स्थानकवासी मुनिरेव। कौ० अत: परस्य विसर्गस्य सोपच रोड् स्यात् Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = नतु क्लीवे डित्याट्टिलोपः । एवमग्रेऽपि । वानिवर्तकं चित् । १. १, १२ । सर्वतः सव्वओ । जिणो । आर्षे जिणे । वलीये तु हेमाण ! | बी० चिदिति । अकार से विसर्ग तथा सु के स्थान में वित् तया वितृ को होता है। डित्व होने से टिलोप होता है! चित्व से लकी है / २, ३, ६८, ७४) तः (तस्) प्र० सू० तः तो २ २१, ते – लुप् ११ २६ असंधि = मध्यको । जिण (२ १. ३२ ) - सुप्र० सू० ओ (ड्) - जियो | आई में-(एड- जिणे) हे गाण ३१,२६० । अश्शलोक्लुप् । ३, १, ४ । कौ० नाम्नः परयोर्जप्रशसो क्लुप् स्यात् । दित्वात्पूर्व दीर्घः । द्विवचने बहुवचनम् । ३ २,४० इति द्वित्वे बहुन्वे च जसिजिना | सम्बोधने - हे जिण= इति स्थिती सु= बी० जसति । नाम से पर जस् तथा शस् को दित् लुप् होता है। जिन औ३ २ ४० जस् प्र० सू० लुप् १. १, १४ दीर्घ जिणा । जिन जिना इत्यर्थः । वा क्लुखोडौ । ३, १,४१ । कौ० नाम्नः परस्य संबुद्ध: सो: स्थाने 'अक्ली वादि (२, १, २५) ति' 'चिद्विसर्गस्यचे (३,१, १३) ति च प्राप्तावेतौ वास्तः । पक्षे सोलुप् । ३, १, ११ ॥ इति लुप् । हे जिण । जसि - हे जिणा । दो० नाम से पर सु को लुप् तथा ओड् विकल्प से होते है। जिसुप्र सु० वा ओड्- पक्षे सुप्= हे जिणो हे जिण । जसि पूर्ववत् । अमोमच् । ३, १, ३ । कौ० नाम्नः परस्यामो मच् स्यात् । मश्चन्द्रच् । १, १, ४२ । चन्द्रोज्नुस्वारः । १ १ ६ । जिणं । वी० नाम से पर अम् के स्थान में मच् होता है । जिणअम् - १, १, ४२ चन्द्र = जिणं । वादोत्तोभ्यस्सोरेत् । ३, १, १७ । कौ० दु- दो-तो इत्येतान् वर्जयित्वाभ्यसादेशे सादेशे च दपि परे नाम्नोऽतः स्थाने एत्वं वा स्यात् । जिणे जिणा । प्राकृत चिन्तामणि | ३१ वो० दु- दो सौ चिन भ्यसादेश तथा शमादेश से पूर्व अको ए विकल्प से होता है । जिण-शस् ३. १.४ लुप् प्र० सू० वा—णणे जिणे पक्षं जिषा । टाया डेणजातस्तु णः । ३, १, १७ । कौ० अतः परस्याष्टाया डेणच् स्यादादन्तात् सस्तु गः । जिणेण जिणणं । दी० अत से परदा के स्थान में हितु तथा चित् एण तथा भदन्त पुल्लिंग से पर टा कोण होता है। जिण टा प्र० सू० एण-- टिलोप १ १ ४७ वा० चन्द्र = जिणेण जिणेण । हिहिहिंभिसः । ३, १५ । कौ० नाम्नः परस्य भिसः स्थाने एते श्रयः स्युः । भिस्सुषि चित् । ३, २, ३७ ॥ कौ० मिस्सुयोः परयोरत: स्थाने नित्यमेत्वं स्यात् । जिणेहि हि हि । बी० नाम से पर भिस के रथान में हि हि हिये तीन आदेश होते हैं। जिण भिस्० मु० हि-हिहिंण योजणेहि ३ । सर्वत्र चतुर्थ्यन्ते । ३, २, ३७ । कौ० प्राकृते सर्वत्र चतुर्थ्यन्ते षष्ठयन्तं प्रयुज्यते । वसन्तं तादर्थ्यते । ३, २, ३८ । जिणहस | जिणाण, णं । जिणस्स जिणाय वा । जिनार्थमित्यर्थः । बी० सर्वति । प्राकृत में सर्वत्र चतुथ्यंन्त के स्थान में पष्ठयन्त प्रयुक्त होता है एवं ताभ्यंन्त के स्थान में विकल्प से पी के एकवचनान्त प्रयुक्त होता है। प्रक्रिया षष्ठी में द्र० । अणो तो पञ्चम्यामचोबीर्घः । ३. १, ८ । कौ० 'णोत्तो' इत्येतत्यक्त्वा पंचम्यादेशेषु नाम्नोऽचोदीर्घः स्यात् । अणो तो इति किम् । मुणिणो जिणतो । वी० अणोत्तो इति । जो तथा सो वर्ज पंचम्यादेश से पूर्व नाम के अच् को दीर्घ होता है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ | प्राकृत चिन्तामणि ङिङियो । ३, १, १४ । कौ० वेत्यनुवर्त्य । अतः परयोङिङसो क्रमोदपौ वास्त: 1 जिणा पक्षे 4 हिन्तोदोत्तोडसे : ३,१, ६ । चत्वारः कौ० नाम्नः परस्यङसे रेते जिणाहिन्तो, जिणाउ, जिणाओ जिणत्तो । स्थाने दामः । ३१, ११ । पञ्चम्या हिः । ३, १, १५ । कौ० नाम्नः परस्याऽऽम स्थाने दित् णः स्यात् । कौ० अतः परस्याः पञ्चम्याङसेसरच हिर्वा जिणाण जिणाणं ङौ-जिणे जिर्णाम्म । बर्षे स्यात् । जिणाहि पक्षे- सिः ० ति । अतू मे पर ङि को एड् तथा ङसि को दलृ एवं पंचमीङसिभ्यस् को ही विकल्प से होते हैं । जिण इसि प्र० सू० दलुप् पक्ष में हि- १, १ = दीर्घ - जिणा, जिणाहि । स्युः । बी० नाम से पर ङसि के स्थान में दु- दो - हिन्ता तो ये चार आवेश होते हैं। जिग-उस् - प्र० सू० द्रुदो - हिन्तो सो सृ० दीर्घ- जिणार, मोहिन्तो । artat निषेध से दीर्घाभाव - जिणतो । मुषिणो २१. २३८० । सुन्तो वयसः । २१, ७३ कौ० नाम्नः परस्य पंचम्याभ्यासः स्थाने सुन्तो चादुदो हिस्तो त्तो इति में पंचादेशः स्युः । जिर्णोहि, जिणाहि, जिणेसुन्तो जिण सुन्तो । जिणेहिन्तो जिणाहिन्तो जिणाउ जिणाओ जिणतो । बी० सुन्तो इति । नाम से पर पञ्चमी भ्यस् के स्थान में सुन्तो आदि पांच आदेश होते हैं। जिण भ्यस् — १५ वा - हि पक्षे प्र० सू० सुन्तो— हिन्तो उ-को (दु-दौ) तो- १० सू० वा० अ पक्ष में ८ दोघं जिणे, णा - हि। जिणे णा हिन्तो । जिणे णा —सुन्तो । अदुोतो निषेध से एल्वा भाव जिणाउ, ओ । मत्तो तो निषेध से जिपत्तो । ङिङसोमिट्सठौ । ३, ४, ६ स्तः । जिणस्स । वी० कीति । नाम से पर ङि तथा इस को क्रम से मिठ् तास होता है। जिल० ० स (६) -- १. १. १५ स्स – जिणस्स । पूर्वचन्द्रः | ३. ११० । जिणंसि । सुपि - जिणेसु जिणेसु । एवं वीरगणधर गौतमादयोऽदन्ताः । बी० पढेति । नाम से १८ आम् में स्थान मे ण (द) आदेश होता है । जिण आम् प्र० सू० ण (द) १, १, १४ दीर्घ -- त्रिणाणः । ४७ णं जिणाणं । जिण – दि. - ३, १. १० जिसि २१, १४ वा ए (ड्) टिलोप क्षे मिठ् १. १. १५ द्वित्व - जिणे जिणम्मि। जिण सु (पु) = ३, १, १८ प णे १, १, ४७ वा चन्द्र जिणेसु जिणेस । एवं वीर गणधर गौतमादि । अदन्तों के रूप जिनवत् होते हैं । [ आकारान्ताः पु. शब्दाः ] कौ० गोपा गोवा – गोवा । हे गोत्रा २ । अभिगोवां । शसि - गोवा टायाडेण जातस्तु णः ३, १, १६ । गोवाण, णं । भिसि गोवाहि हि हिं । इसीगोवा हिन्तो, उ, मो, तो गोवत्तो। अदन्तत्वा भावान हिदुलुप भ्यसि – गोवा – सुन्तो, हिन्तो– उ तो अदन्तत्वादेव त्वम् । ङ ङ सोः – गोवस्स । भ्य सामो:- गोवाण, णं ङौ - गोवामि । सुपि - गोवा गोवासु एवं विश्वथा हाहादयोऽपि । || इत्याकारान्ताः । ०गांपा २१, ४१ पावा गोवा-सु-जस् प्रा.२, १, ११, ४ लुप् गोपा ३, संबोधन – गांवा २। गोवा - अम३ १ ३ म (च्) १, १, ४२ = गोवा | गोवा – टॉ= ३, १, १६ व १, १, ४७ वा-चन्द्र गोवा – ण णं गोवा - भिस् ३, १,५० गोवा - हि. हि. हि । गोवा ङसि - ३, १, ६ हिन्तो, ड, ओ तो, गोवा - हिन्ती, उ, ओ १, २, ३६ ह्रस्य = गोषतो । भ्यम् = सुन्तो, हिन्तो उ, ओ, तो गोवा सुन्तो इस् ३, १६, १, १, १५ १, २, २६ = गोवस्स । यस् आम् = ३, ९, एस १० ण कौ० नाम्नः परयो ङिङसोः क्रमान्मिट्सठी ५। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | ३३ गोवाण णं । डि-३, १, ६, १, १, १५, १, २, ३६ = हिं, हिँ। क्वचिन्न । दिल भूमिसु दाण जलोल्लिगोवम्मि । गोषासु, सु। एवं वीसबा (=विश्वपा–२, याई । द्विज भूमिषु दान जलोस्लितानि । क्वचिद्वा। ३, ६८, १, २, ७, ४, ३६, २, १,४१) हा हा इत्यादि के भ्रमिषु = भमिसु भमोसु । रूप गोवावत् । गौ सुन गई: Fut m से पुर्व इकारोकार [अथ—इदुदन्ताः पुशब्दाः] प्रत्येक को दीर्घ होता है । मुणिभिस् = ३, १, ५ हि, हि. अक्लीवात्सो दलुप् । ३, १, २५ । हि प्र० सू० दोघं = मुणी-हि ३ । कहीं नहीं तपा कही विकल्प उ. सं. टी. द.। को० इदुदन्तादनपुसकात्सोद्लुप् । मुणी। हे क्लीवाच्च ङसिङसोः । ३, १, २३ । मुणी, हे मुणि। कौ० इदुदन्तात् क्लीवात्पु सश्च परयोङसिङसो बी० अमलीति । इदन्त तथा उदन्त क्लीव से पर सु को ा णो स्यात् । मणिणो । पक्षे मुणीहिन्तो, उ, ओ, दित् लुप् होता है। मुणि-(-मुनि २. १. ३२)-सु- णितो। भ्यसि–मुणीसुन्तो ५। ह इसो:-- दलप -१, १, १४ दीर्घ-मुणी । हे भुणि-सु ४१ मणिणो मणिस्स । भ्यसामो:-भूणीण, णं। डीद्लुप्-विकल्प, पक्षे ११ सुप् = हे मुणी, मुणि । मणिम्मि । सुपि-मुणीस, सू। एवं यतिगिरिकगिपुसो जसो उउ डओऽवोऽप्यतस्तु । ३, १, २१ । कव्यादयः । एवम् साधु वायु भान्वादयः । कौ० पुलिङ्गादिदृदन्तात् परस्य जसो डितो-अउ, केवलं जसि-साहवो वायवा भाणको इति । अओ, उदन्तात्तुऽवोऽपि वा स्युः । मुण्डउ मुणगे। दी० पीदेति । इदुदन्त पुल्लिङ्ग तथा नपुसक से पर पक्ष-.. सि--हुस् के स्थान में विचल्म से णो होता है । मुणिशसस्वणो । ३,१,२२। सि = मू० वा. पो अणोत्तो ३, १, ८ निषेध से कौ० उक्ताज्जएशसोः स्थाने वा णो स्यात् । मुणिणो। अदीर्घ = मूणिणो । पक्ष में ६ हिन्तो, उ, अ, तो। पक्षेद्लुप् । मुणी ! अमि–मुणि । शसि [इदूदन्ताः सा पुशब्दाः ] मुणिणो--मुणी। ईदूतो विधपः । ३, १, ३६ । बी० पुसइति । इदुधात पुल्लिग से पर जस को डउ; कौ० क्विबन्तयो रीदन्तयो ह्रस्वः स्यात्। ग्रामणी पओ, उदन्त से डबो भी होते हैं. एवं जस्-शस् को गो .. ग्रामणि, खलपू,-खलपु–गामणां खलपू इत्यादि विकल्प से होता है। मणि-जस्=प्र० सू० डउ उओ मुनिधत्. साहूबच्च। टिलोप =मुणउ, ओ। पक्ष में २२ गोमुणिणो पक्षे ३, दो इदतोरिति । विषष्प्रत्ययान्त ईदन्त तथा ऊदन्त को १, ४, १, १, १४ = मुणी। सम्बोधन में जस्बत् । हस्त्र होता है। ग्रामणी-खलपू-सु-प्र. सू. ह्रस्व= मुणि-अम् -३, मच् १, १, ४२ = मुणि । मुणिणों २, ३, ६८ ग्रा-गा स्वा.*गामणी खलपू । शेष मूनिवत् मुणी ! जस्वत् । तथा साधुबत् । टाया णाच् । ३, १, २४ । [अथ ऋदन्ताः ] कौ० पुक्लीवादिदुदन्तात्परस्याष्टाया णाच कौ० कत्त (- २, ३, ६८. ७४)-सु इतिस्यात् । मुणिणा। स्थिती-- दी० देति । इदुदन्त पुनपुसक से पर टा को णा आदेय साक्षात् । ३,१५० । होता है । मुणि--27प्र० सू० णा= मुणिणा । कौ सौ परे ऋत: स्थाने आत्वं वा स्यात् । कत्ता। इबुतोवीर्घः । ३, १, १६ । पक्षे 'सुप्यारच्' । ३, १,४५। कत्तारो। जसिकौ० भिस्सुपोः परयोरिदुतो नित्ये दोघं । मुणीहि, कत्तारा। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] प्राकृत चिन्तामणि बी० सावादिति । स से पूर्व ऋ को आ विकल्प से होता त= लुप् ३, १, १३ सुमओड्=पिअरो। पिअरहै । पक्ष में सुप् से पूर्व आर नित्य होता है । कत-सु= जस-३, १, ४ लुग् = पिअरा इत्यादि जिननत् ।। प्र. मूत--तार ३, १, ११, १३ सु=लुप् औड- डरं संशायाम् । ३, १, ४४ । टिल पत्ता , कत्तारो । कतार–जस् = ३, १, ४, १, कौ० ऋदन्तात्परस्या. संबुद्धेः सो ईरं वा स्यात् । हे १, १४ कत्तारा। पिअरे । पक्षे तोडहेपिअ । 'अरच'हे पिअरोहे ऋतोडः । ३,१,४३ । पिअर । क्वचित्त संज्ञायां यथादर्शनं धाड स्वमा मीत्युक्त': जमश सिङस्सुपिउणो। रायां-पिउण । कौ० ऋदन्तात्संबुद्धेः सोडि: स्यात् । हे कत्त । पक्षे भिसि----पिऊहि, हि हिं। सुपि-पिऊस पिऊसु । हे कत्तारो हे कत्तार। जसि-हे कत्तारा। शेष पक्षे पिअरेत्यादि । अत्र सप्तम्येकवचने नास्त्यूजिनवत् । त्वम् । धी० ऋतइति । ऋदन्त से पर संबुद्धि सु से स्थान में र धी० दरमिति । दन्त से संबृद्धि सू के स्थान में डित अर होता है । हिस्यात् टिलोप होता है। हे कत्त-सुप्र० सु० (ड) टिलोप है कत्त । पक्षे हे कत्तार-म = ३, आदेश विकल्प से होता है। हे पितृ-सुप्र सू० अरं १, ४१ ओड़, ११ सुलुप-है कत्तारो हे कत्तार। ३,१, टिलोप' ,२,१, त लुए = हे पिलरं। पक्ष ३, १, ४ जस्-द्लूप् न्हे कत्तारा । ४३, हे पित्र। पक्षे त = अर--त-लुप् ३, १.४१ सु= बोद्द है पिअरो। पक्षे ११ सुलुप है पिअर । संज्ञा धाऽश्वमाम्यत्संज्ञायां यथादर्शनम् । ३, १, ४६ ।। में या दर्शन को उ विकल्प से होता है । अतः पिउ-- कौ. सु-सम-आम् वजितेषु सुप्सु परत ऋतः स्थाने जस् शास-हुसि डस् = ३. १, २१, २२ गो 'अणोत्तो' उत्वं वा स्यात् । कत्तउ कत्तो कत्तवो कत्तुणो कत्तू निषेध से दीर्घ-पिउणो। पिसटा=३, १. २४ न्यादि माधवत । एवं हत भत दात धात प्रभृतयो पा- पिटणा । पिज-भिस=३,१५, १६ पिकाह, यौगिकाः शब्दाः । येत् रुढाः पित मात भ्रात जामा- हिहि निससू । सप्तमी- एकवचन कि में उत्व श्रादयस्तत्र विशेषः। पिआ। पक्षे- नहीं होता है। थी वेति । सू. मम्-आम् बर्ज सुप् से पूर्व ऋ के स्थान [अथा जन्त स्त्रीलिंग प्रकरणम] में उकार विकल्प से होता है । कत् -- जस् प्र. सू. त= कौ० दया सू इति स्थिती सोलुप् (३, १, ११)तु ३, १, २१ जस् = डउ, डओ, स्वो, २२ गो, ४ दया। दया-सिति स्थितीदलुप् = फत्तुर कत्तओ कत्तयो कत्तुणो कत्तु इत्यादि साधु- वास्त्रियामुदोदौ । ३, १, २६ । बत् । इस तरह हत' भन आदि यौगिक का रूप कर्तृवत् । को० स्त्रियांवर्तमाना नाम्नः परयोदशसोः स्थाने संज्ञावाची पितु मातु आदि का रूप में विशेष--- प्रत्येकमुदोदो वा स्तः। दित्वात्पूर्व दीर्घः । दया उ सो-पितृ-सु-३, १,५० तु २, २, १ आ ३, दयाओ। पक्षे जशशकेद्लुप् (१, १, ४) । दित्वं तु १, ११ सु लुप्= पिआ। पक्ष में । मत्यादौ सफलम् । अरच्संज्ञायाम् । ३, १, ४८ । दी० स्त्रीलिंग नाम से पर जश् तथा शस् के स्थान में कौ० संज्ञायां ऋतः स्थाने सुपि परेऽस्यात् । प्रत्येक उद् तथा ओद् ये दो आदेश विकल्प से होते हैं । आरजापवादः। पिअरो। पिजरा पिअरं पिअरे दमा-जस् - प्र. सू० जस् -3 (द) मो (द)=दया , पिअरा इत्यादि जिनवत् । संबुद्धौ तु- ओ। पक्ष में ३, १. ४ दुलूप् = दया । दी अरेति । संज्ञा में ऋ के स्थान में सुप पर नित्य अर एडापः क्वचिदोऽपि । ३, १, ४३ । आदेश होता है । पित - सुप्र. सू. तु =तर २, २, १, कौ० आवन्तासंबुद्धेः सीरेड् वा स्यात् । डिवाहि -. - - -- . - - - -- Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोपः । हे दये हे दया । जसि पूर्ववत् । क्वचिदोउप-अम्मो भणामि । भणिए । अम्ब । भणामि भणितान् । आप् इति किम् । हे माउच्छो । बी० एडापि इति । यावन्त से पर संबुद्धि के स्थान में शु विकल्प से एड होता है । कहीं पर ओड भी । यथा अम्ब सुप्र० सू० गुओ टिलोप २, ३, ६८,७४ म्म = अम्मो || हे दया- सुप्र०सू० एड् दिलोप हे दये 1 दया। आप क्यों ? हे मातृष्वसृ सु १, २, ३५ वृके तु ति २, २१, लुप् २, २. २० व च्छा ३, १, ११ सु – लुप् = हे माउन्छ । अस्थि: । ३ १ ३८ कौ० स्त्रियां दीर्घान्तस्य नाम्नो ह्रस्वः स्यादामि परे दयं । शसि जस्वत् । परे ह्रस्व बो० अमीति । दोर्घान्त स्त्रीलिङ्क नामको अम् होता है । दया- ०० - १.६ अ म् = १, १, ४२ चन्द्र-दयं । सांचित् । ३, १, ३२ । कौ० स्त्रियां नाम्नः परेषामेषां स्थानेऽदादि देदो नित्यं स्युः । दित्वाद्दीर्घः । बी० टाइीति । स्त्रीलिंग नाम से पर दादि के स्थान में नित्य छ-आ-इ-ए ये चार आदेश होते हैं । स्यात् । आश्नातः । ३,१, ३३ । कौ० भदन्तात्परेषांङसिङसामात्वं न दयाअ दाइ, दयाए । दयाहि. हि. हिं । वी० आदिति । आदन्त नाम से पर ङसि टाहिरा को आ नहीं होता है। दया-टा ० सू - अ - इ - ए - दया अ, इ, ए । ङसेरदादिदेवः । ३, १,३१ । कौ० स्त्रियांनाम्नः परस्य उसे रेते वा स्युः । दयाअ, इ, ए । पक्ष यथाप्ताप्तम् । दयाहिन्तो उ, ओ, दयात्तो | ध्यसि - दयासुन्तो ५ । ङिङसोष्टावत् । आमि- दयाण - सुपि दयासु । एवं माला शालादयोऽपि । । इत्याकारान्ताः ॥ प्राकृत चिन्तामणि | ३५ बी० इन्सोरिति । स्त्रीलिंग नाम से पर इसि के स्थान में अ, आ, इ तथा एद् मे चार आवेश विकल्प से होते है । दया-इसि प्र० सू० ङसि = अ आ, इ. ए. प २.१.६ हिन्तो उ, ओ, तो दया. दया, दमाए । दयाहिन्तो दाउ दयाओं १, २, ३९ हम्ब दग्नो । दया भ्यस् ३ १ ७ सुन्तो हिन्दी-उ-रेनोदयान्तो ५ । दिउस में दावत दया – आम् ३. १. १० ण दाण गं दयासु इसी तरह माला माला आदि रूप करना । [ अथ इदुदन्ताः स्त्रीलिङ्ग शब्दाः ] अलोवात्सोलुप् । ३, १, २५ । कौ० इदुदन्तादवलोवा सोलुप् स्यात् । गुत्ती जश्शसो: - गुत्तीउ, मुत्तीमी, गुत्तो। हे गुत्तों, हे गुत्ति । हे गुत्ती, उ-ओ। अभि-गृति टा-हि- इस्सु - गुप्तीभ, गुत्तीआ, गुत्तीइ, गुत्तीए । भिसि गुत्तोहि, हि, हिँ । सौ - टावत् । पक्ष गृत्तीहिन्तो, व, ओ गुत्तितो । भ्यसि - गुत्ती सुन्ता इत्यादि । ङिङसोष्टावत् | आमिगुत्तीण णं गुत्तीसु सु । एवं मतिततिनति वृद्धयादयः । धेन्वादि गुप्तिवत् । । इतीददन्ताः । पू. ३. १, ३. १. १. ११ अक्लीति । इदुदन्त अक्लीव नाम से पर स को लुप् होता है । गुप्ति २, ३, ६६७४ तिति गुत्ति सुप्र० सू० लुप् १. १. १८ दीर्घ गुत्ती । गुत्तिजस्शस् ३ १ २८ उद्बोद्, दीघं गुत्तीउ, ओ । १४ दीपं गुत्ति । हे गुत्ति ४१ बाप १, १, १८ दीर्घ पक्षे लुप् हे गुत्ती है गुति । जरिपूर्ववत् गुत्ति- अम् = ३, १. ३. ११, ४२ = गुति । गुति -टा-डि-इन् = ३, २, ३, १, १, १ १४ = गुत्ती ४ गुति - भिस् = ३, १५, १६ - तीहि हि हिं। गुति सि = २, २, ३० वा. आद इद, ए ११, १८ दीघं = गुत्ती, आ, इ ए प ३.१.६. गुतिन्तिो. उ ओ. गुत्तित्तो । गुतिम्यस् ३ २,७८ गुतीसुन्तो ५ । गुति - आम् ३ १ १० पद, दीर्घ गुभोण, गुत्ती ११६ दीर्घ = गुत्तीसु सु एवं भति आदि का रूप जानना । धेनु आदि का गुप्तिवत् । = -- Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ | प्राकृत चिन्तामणि अथ-ईदन्ताः । माया । ३,१,२८, ४ मायाउ, मायाओ माया-इत्यादि ईत सोश्चात् । ३, १, ३६ । दयावत् । ३. १.४८ - तु = =२, २, १, १, २६ कौ० स्त्रियामीदन्तानाम्नः परेषां जशशसांमार्दुवा उ-माउ-जम् = माऊठ माऊओ इत्यादि धेनुवत् । मातु म्यात् । लक्ष्मी-- लच्छीआ । -देव-सु १,३, ३५ तु=ति =६ ३, ५,१३ सु= ओड़-माइदेवो । यही पर में सपन होने से आ नहीं सम्बुद्धेः । ३, १.४०। होता है। को० संबुद्धयन्तस्येदुतो ह्रस्व: स्यात् । हे लच्छि। जश्शसो.... तमलोआ, लच्छीउ, लच्छीओ, लच्छी।। देवतायामाच् । ३, १, ४७ ।। अमि लच्छि। शेषं बुद्धिवत् । एवं नदी, गौरी कौ० देवतार्थ के मातरि ऋत: अराच् सुपि । त्यादयोऽपि। ।इति-ईवन्ताः। मायरा-- मायराउ, मायराओ मायरा इत्यादि धी० संबु रिति । संबुद्धयन्त के इत् तथा उत् का ह्रस्व दयावत् । नमोमारायणं (नमोमातृभ्यः) इदुतौ होता है । हे मच्छी सु–प्र० सूचछी-च्छि ३.१, ११ मातरी (१, ३, ३५) तीत्वे तु माईणं । म- हे लच्छि। लच्छी–जस्–शस् = ३, १, २६ आ दी० देवतेति । देवता वाची मातृ में सुप् से पूर्व ऋ को २८ 3, ओ ४ द्लुप् = लक्ट्रीक्षा, उ, ओ। लन्छी- अग आदेश होता है। प्रक्रिया दयावत् । अम -३, १, ३८ च्छी - च्छि ३ अम्-मच । इति स्त्रीलिङ्ग प्रकरणम् । १, १, ४२ चन्द्र = लच्छि। बांकी बुद्धिवत् । लच्छीवत् स्वस्त्रादेडच । ३,१,३७ । नदी गौरी आदि का रूप होता है । कौ० स्त्रियांस्वस्रादेः चि प्रत्यय: स्यात् । डिवा[अथ-ऊदन्ताः ।] दिलोपः । स्वसृ- ससा दयावत् । एवं दुहितृ ननान्द्रा कौ० बधू-२, १,७ ध=ह ४२ ब= व = वहूं = दयः। स-वह है वह। जयशसो :-बहूउ वही वहू। मिति । स्त्री लिक में वर्तमान स्वस्वादि से पर शेषं लच्छीवत् । ___ इत्यूदन्ता। डाच् प्रत्यय होता है। स्वस -डा-टिलोप=२, ३, बी० वधू-२, १,७६ हूँ ४२ ब-व-बहू- = ६८ स्व =स ससा हरसिद्धि दयावत् । एवं दुहितसूप् = बहू 1 हे बहू - सु ३, १, ४० है-हु सु=लुप् ६ दहिया ननान्द -ननान्दा इत्यादि । बन्छु । बहु-जस् सम् =३,१,२९, ४८ वढू उ, ओ, बहू । शंष लन्डीबत् । ।इति ऊवन्ताः । [अथ-- नपुसक प्रकरणम्] [अथ-ऋदन्ताः । क्लीवावचोऽसम्बुद्ध मंग्लुपौ। ३, १, २६ । मातरि जनन्यामाच । ३, १,४६ । कौ० अजन्ताकलीवात्परस्य सोः स्थाने मो जानुकौ० चि० । जननी वाचके मातशब्दे ऋतः स्थाने बन्धो लुप् चेत्येतो स्त: सबुद्धस्तु न । बाहलकान्ना. सुप्याच् स्यात् । मातृ-सु-जसित्यादि-प्रसु० तृ= दन्ताल्लुप् । ज्ञानं = णाणं। हे गाण । अक्लीवे सा २.२, १.३ ता-या=माया, मायाउ मायाओ इत्युक्त रोड्न । माया इत्यादि दयावत् । वास्वमि (३, १, ४८) वी. क्लीवेति अजन्त नपुसक से पर असंबुद्धि सु को म त्युत्वेतु धेनुवत्-- माउउ इत्यादि । सुपीत्येव । मातृ तथा ज हरसंज्ञक लुप होता है। ज्ञान-सु= २, १, ३२ देवः =माइदेवो। नसण ३, ३६ ज्ञ=ण प्र० सू० सु म् -१,१, ४२ वी० मातरीति । जननीवाची मात पान्द में ऋ को आ चन्द्र -णाणं। हे जाण-सु ३,१,१३ में अक्लीवे होता है सुपु परे । मात--स जस् आदि आने पर प्र. निषेध से ओड नहीं किन्तु ११ से लुम् =हे गाण । सू० तृ=ता=२, २,१,३ या ३, १, ११ सुन्-लुप -- बाहुलकात् अदन्त से लुप नहीं होता है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरशसोदिविणिदः । ३, १,२७ ॥ कौ० क्लीवादजन्तो ज्जस्थसे रेते दितः स्युः दित्वापूर्व दीर्घः । णाणादं णाणाई णाणाणि । पुनस्तद्वन् । शेषं जिनवत् । एवं धन-वन फलादयः । " इत्यदन्ताः । बी० अजन्त नपुंसक से पर जस् शस के स्थान में दिल, ईई तथाणि ये तीन आदेश होते हैं। णाण – जस्— शास् प्र० सू० ई ई णि १, १, १४ दीर्घ - णाणाई, णि । णाण-अम् — ३, १, ३ मू = चन्द्र पाणं । णाण - शस् = जस्वत् । शेष जिनवत् । इसी तरह धन चन फलादि का रूप होता है । इत्यवताः । [ अथ - इदुदन्ताः ] कौ० दहि, महु (दधि, मधु २, १.७ ) - सुदहि दहि । हे दह । महु म । हे महु । जश्णसी:sts दही दहीण महूई महूई महूणि । अमिदहि महु घोषं मुनिवत् साधुवच्च । दहि महु इति सिद्ध संस्कृतात् । इतिदुदन्ताः । - I बी० दहि-महु - सु३, १, २६, म्–७ लुप् १, १, ४२ चन्द्र, दहि महु १३ दहिं महुँ । दहि महु रूप तो सिद्ध संस्कृत दधि मधु से होता है। हे दहि-महु· सु३, १. ११ सुलु हे दहि, महु । दहि-महु जस्= शस् = २३, १,२७, १, १, १४ वहीं ई ई । महूई हैं णि । दहि-महु — अम् ३ १ ३ -४२ चन्द्र दहि महु' । शेष मुनि तथा साध्रुवत् । [ अथ-- ऋदन्ता नपुंसकलिंगाः ] कौ० कर्तृ - कतार कत्ताराई कताराइँ कत्ताराणि । कई कत्तु कतूणि । हे कत्तार । हे कताराई, इणि। शेष पुरवत् । बी० कत्तु – सु--- ३, १,४५ तु =सार २६ == चन्द्र = कत्तारं । २७ जस्स् दिदि दि १, १, १४ दीर्घ = कत्तारा, ई, णि । ३, १,४६ = उ कत्तूई है, णि हे कत्तार – सु३. १. ११ लुप् हे कत्तार | शेष पुल्लिंगंवत् । । इति ऋदन्ताः । प्राकृत चिन्तामणि । ३७ [ अथ सुबन्ते विशेष शब्दाः ] कौ० हलन्तानां 'हलोऽन्त्यस्याश्रदुदी ( १, १, २८ ) त्यन्त्यहलोलुप्यन्तत्वेन - रूपाण्युक्तप्रायाप्येव । तत्र विशेषा उच्यन्ते । राजोऽन: । ३,१, ५२ । कौ० सौ परे आत्वं वा स्यात् । राया । पक्षेबी० राज इति । सु से पूर्व राजन् सम्बन्धी अन् को आ विकल्प से होता है। राजन् सुप्र० सू० अन् आ २. २. १, ३ जा या ३ १. ११ सुलुप्=राया | आणोऽन: पुसि राजवत्पक्षे । ३, १,५६ | कौ० अन्नन्ते पुस्यन: स्थाने आण आदेशो वा स्यात् पक्ष यथादर्शनं राजयत्कार्यं च । आणादेशे चादन्तत्वाद् जिनवत् । चिद्विसर्गस्य - चावलीव (२, १, १३ ) इत्यादि कार्यं स्यात् । पक्षे 'राशोऽन:' 'जश्नङसिङसांगोद' 'दाया णा' (३, १, ५१. ५२, ५३१ इति सूत्र त्रयीप्रवर्तते । 'जानो णोणां' 'अम मेण' 'भिस्थ्यसा' 'टाङसिङ' (३ १, ५४ - ५७) इति चतुष्टयी आत्मन्नित्या दो जनोऽभावान्नप्रवर्तते । रायाणी | पक्षेऽन्त्यपि - रायो । 1 डी० [मण इति । अनन्त पुल्लिंग में अन् के स्थान में आण आदेश विकरूप से होता है पक्ष में यथादर्शन राजवत्कार्य होता है । आणावेश पत्र में अदन्त होने से = जिन शब्दवत् कार्य होता है। पक्ष में ३, १, ५१-५२५३ तीनों सूत्र लगते हैं ५४, ५५, ५६, ५७ चारों सूत्र जन के अभाव से नहीं लगते हैं। राजन् प्र० सू० अन्= आप र, २, १ जा = या = रायाण- सु = ३, १, १३ सु ओड् रायाणो इत्यादि सर्वं रूप जिनवत् कर लेना । पक्ष में रायन ( = राजन् ) सु १ १ २८ लुप् सु = ओहरायो। हे राय -सु ३ १ ४१ वा मोड़, पक्षे ११ सुलुप् है रायो, हे राय । जश्शसुसिङसा गोद् । ३, १, ५३ । कौ० राज्ञः परेषामेषां गोद्वा स्यात् । बी० जसिति । राजन् से पर जस्ङसिङस् के स्थान में दिए पो आदेश होता है । दित्वात् १ १ १४ पूर्व दीर्घ होता है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ [ प्राकृत चिन्तामणि भिसभ्यसाम्सुप्स्वीत् । ३, १, ५६ । अनोणोणाहित्यित् । ३, १, ५४ । कौ० राज्ञो जनो भिसादि यी द्वा स्यात् । राईहिं कौ० राज्ञो जन.स्थाने इत्वं वा स्यादेषु परेषु । राइणो। राईहि । पक्षे रायाणेहि ३, एएहि ३= रूपाणि । तपरत्वान्न दीर्घः । रायाणो । रायाणा। राया । ४। सोडणि-रणो। इत्वे-राणो। उभयाभावेवी० जन इति । रा-जा --ङि से पूर्व राजन् के जन रायाणो। णोत्वाभावे-रायाणा, रायेत्यादि जिनको विकल्प से इहोता है। राजन् जस्-प्र. मू० गोद वत्-१२=१५ । भ्यसि-राईसुन्तो ५। पक्षे जन-इतपरस्त्राद् 'नएरस्तत्कालस्य' (पा० १, १, ७०) रायाणेहि-हराएहि-=२३ । हु उसोः-रण्णो, अदीर्घ = राइणो। इत्वाभावे १, १, १४ दीर्घ रामा राइणो रायाणो रायाणस्स रायस्स । ५। भ्यसामोः (=जा) को। णोत्वाभावे आणेऽन्त्यलुपि-रायाणा -राहणं । राईण, ण। रायाणाण, णं। रायाण, राया इत्यादि जिनवत् । णं--७ । डो-राइम्मि । रायाणे, रायाणाम्मि । अमामेणं । ३. १, ५५। [राए रायम्मि आवे-गाइसि, रायांसि रायाणसि] । सुपि-राईसु, सु। रायाणेसु, सु। एएसुसु। को० अमाम्भ्यां सह राज्ञो जनः स्थाने इण वा । वी० भिसिति । भिस् –भ्यस्-आम्--सुप् से पूर्व राजन् स्यात् । राइण | रायाणं । रार्य।३। शसि के जन् के स्थान में विकल्प से ईकार होता है। राजनराइणो, रायागो, रायाणे, रायाणा, राए, 'राया सिन् , ... सन्नबाण, ।६। पक्षं १, १, २८ -लुप् ३, १, ५ भिस् -हि =हिंबी० अमेति । अम्-आम्—सहित राजन के जन् के हिं- राई हि. हि, हि-३ । राया (=जा ३,२, १, ३) स्थान में विकल्प से इणं आदेश होता है । राजन् -अम् - =im३, १, १९) हि, हिं, हिं.-३। राएहि, हि. प्र.सुजन -इणं-राक्षणं । पक्षे–रायाणं रायं जिनवत्। हिं-३-राजन-सि-३, १, ५३ सिणोद् राजन्–शस जसवत् राइणो. रायाणो। पक्षे ३, १, ५६ जन् =डण, ५४ इ-रण्णो राइणो। पक्षे न.-- ४, १६ रायाणा, णे । रामा, ए/६ रूप। लुप् छोर्घ, जा=या=रायाणो। णोत्वाभावे ३, १, दाया णा।३,१,५४ । ६, ८, १५, १६ रायाणाहिती ६ आणाभावे न लुपि रायाहिन्तो ६ जिनवत् । =१५ रूप होते हैं। राजन्कौ० राज्ञः परस्याष्टायाः स्थाने णा वा स्यात् । भ्यास प्र० सू. जन -३, १.७ सुन्तो आदि = वी. टाया इति । राजन से पर टा स्थान में पा वि० से राईसुन्तो, राईहिन्तो, राईज, राईओ १, २, ३९ होता है। हस्व - राइतो ५ । ईस्वाभावे आण नथा अन्त्यलुप् टाङसिङसां—णाणकोईण । ३, १, ५ । पक्ष में जिनशन्दवत् नौनी हा कुल २६ रूप होते हैं । कौटाङसिङसा देश योणिो इत्यनयोः परयो राज्ञो राजन् ---- - इसिवत्र पणो रावणो रायाणो । जिनवत् =रायाणस्य रायस्स । राजन-आम्=प्र० सू० जनो वाडण्स्यात्। डिवाहिलोपः । रपणा । राणा। जन्-ई ३, १, ११ आम् =णद् १, १, ४७ प= रायणा । रायाणेण, णे राएण, णं । सप्त । णं = राईण राईणं । ५२ जिनयत् रामाणाण रायाण । वी० टेति। टादेश–णा-डसिद्धसादेश–णो से पूर्व राजन्—डि=३, १, ५५ जन = मिट-१, १, राजन् के जन के स्थान में डित् अणू आदेश विकल्प से १५ म्मि-गइम्मि । पक्षे जिनवत् रायाणो, णम्मि, राए होता है । राजन-टा=प्र० सू० णा-डण-दिलोप् - सम्मि । आर्ष-३,१.१० राइसि रायाणंसि रामसि । रण्गा । पक्षे ३,१,५४ जन-इ राइणा । इत्वाभावे १, राजन्—सुप प्र० सू० ई १,१,४७ वा. चन्द्र राईसु १, २८, न् = लुम् = राय (-ज) णा । पत्वाभावे जिनवत् राईसु । पक्षे, जिनमद रायाणेसु, सु' । राएम, सं। -रायाणेण राएण। इति राजन शब्दः। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ - अन्नन्स पुल्लिंग आत्मन् (अप्पाण- अप्प (त) शब्दः ] कौ० आत्मन् - 'स्को ह्रस्व' १, २, ३६ । 'पो भस्मामनि' 'द्विश्वमदीर्घा' (३, १, ४३, ७४) - अप्पन् शब्देन आणादेशे अप्पाणो अप्पाणा इत्यादि जिनवत् । पक्षे राजवदुभावे जनोऽभावात् 'जनोणो त्याहि राज्ञोम' इत्यादि त्रिसूत्री प्रवृत्या सर्व कार्यं राजवद भवति । केवलमि या विशेषष्टायाम् — आत्मनष्टाया णि इआ । ३, १६० । ht० एतावादेशौ वास्तः । अपणिआ अप्पणइआ । पक्षे अपण अप्पेण अप्पेणं । आणादेगे - अप्पाण अप्पाणेणं । शेषं सर्वत्र रायाण – रायवत् कार्यं महनीयम् एवं ब्रह्मन् (बम्ह ब्रम्हाण) मूर्द्धन् ( मुद्ध मुद्धाण) अध्वन्- ( अद्ध बद्धाण) तक्षन् (तक्खन्, तक्खाण) अक्षन् (अच्छ— उच्छाण) पूषन्- (पूस - पूसाण) गावन् (गाव गावाण ) युवन् – (जुव जुवाण) सुकर्मन् (सुकम्म - सुक्रम्माण ) इत्यादयोऽप्यात्म - (अ- अप्पाण) वत् । विशेषः प्राकृत कौमुद्यां द्रष्टव्यः । । इत्यात्मन् शब्दः । वी० आत्मेति । आत्मन् ३ १, ५६ अन्वा – आण पक्षे = १, १, २८ लुप् १, २, ३६ अ २, १, ४३. ७४ ल=प्प=अप्पाण – का रायाणवत् रूप होता है । आणादेश भाव पक्ष में राजवद भाव होने से ३. १, ५५-५८ इन चारों को छोड़कर ५२, ५३, ५४ इन तीनों सूत्र की प्रवृत्ति से राजवत्सर्वं कार्य होता है । केवल टा में इतना विशेष होता है फि— आत्मन् से पर टा को णि तथा इभा ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। आत्मन ( अप्प ) - टा = प्र० सू० णिअणइआ = अप्पणिमा, अप्पणखा । पक्ष में तथा सभी विभक्तियों में अप्प का राय (= राजन् ) वत् अध्याण का रायाण (राजन) वत् रूप होता है। इसी तरह ब्रह्मन् मूर्द्धन् इत्याधि का रूप णिमा पइआ को छोड़कर आत्मन् शब्दवत् होता है । विशेष प्राकृत कौमुदी में देखें । प्राकृत चिन्तामणि | ३६ [ अथ- हलन्त स्त्रीलिंग विशेष शब्दा | कौ० स्त्रियामाजविद्युतः । १, १, ३३ । दृषद्दिसम | दयावत् । विद्युत् = विउ । वचनादित्वेन सरि संमद् प्रतिपद् इत्यादि ) । वा पुंस्त्वात्साधुवत् स्वतः स्त्रीत्वा धेनुच्च । ( एवं । इति स्त्रीलिंग विशेष शब्दाः । वी० स्त्रियामिति । दुश्द् -सु- १, १, २८ से प्राप्त लुप् को ३३ से बांधकर दुआ २२ अपदे असंधि ३, २६ दू = दि ४, ३६ ष = स २. १,१२ सुलुप् = दिसआ । एवं सरित् - सरि या संपद् - संप - पद - पाडिया या इत्यादि । १, २, ६ प्र० २, ३, ६८ र लु २ १ १ ४१ विडिव बाहुलकात् २, २, ३ आया पाठिवया पडिवया ॥ १, २, १६ वा पुंस्त्व, तथा स्वत स्त्रीत्व से साधुवत् एवं धेनुत्रत् रूप विद्युत् का होता है - बिज्जू १, २, ३३ द्र० । । इति स्त्री वि० श० । [ अथ – हलन्त नपुंसक लिंग विशेष शब्दा ] कौ० दामन् -- दामं दामाई, ई, णि इत्यादि ज्ञानवत् पुसीत्युक्तेरम न- आणादेश राजवभावो । एवं नमस् शिरसित्यादयः । चक्षुषो लोचनार्थत्वाद्वा पुस्त्वे साधुवत् । पक्ष मधुवच्च । इति हलमा नपुंसक विशेष शब्वाः । बी० दामन् सु १, १, १७ अदामादिनिषेध से नान्त होने पर भी पुंस्त्व नहीं है। १, १, २८ -- लुप् ३, १, २६ सु=म् = १, १, ४२ चन्द्रदामं । ३, १, २७ जस् = पास इं, ई, णि १ १ १४ पूर्वदीर्घदामाई, ई, णि - ३ | शेष ज्ञानवत् । ३१ ५६ में पुंसि कहने से आणादेश एवं राजवद्भाव नहीं होता है। एवं नभस् आदि का रूप अन्त्य लुप् करके ज्ञानवत् । १.१.१५ वा घुंस्त्वचक्षुषु = १, १, लुप् ३, १, ६, ७५ क्खु २५ स्वा० च इत्यादि साधुवत् । २६ सुम् ७ लुप्=चव चक्खु । इत्यामध्रुवत् । [ अथ - सर्वनाम प्रकरणम् ] प्रति प्रा कौ० सर्व-सभ्यो । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० [प्राकृत चिन्तामणि सर्वावरतो जसो उच् । ३, १,६१॥ शेषं जिनवत् । एवं विश्वा (बोसा) २, ३, ६८, १, को० अदम्तात्सर्वादेर्जसो उच् स्यात् । डिवा- २,७ । दयः । इसि सर्व शब्दः । ट्टिलोपः। चित्वान्नित्यम् । सब्वे। अत इत्येव। दी. हिमिति । एतद् इदम् ---वर्ज-अदन्त सर्वादि से सम्वामओ रिद्धोयो। पर डि को विकल्प से हि आदेश होता है । सम्ब-डिदी० सर्वेति । सर्व =२, ३, ६८,७४ -वसबब- दि पक्ष में प्र० मू० मि. सि. त्य= महिम्मि, स्ति, सु-३,१,१४ ओड़-टिलोप-सध्यो । अदन्त सर्वादि स्थ, पित्तद से स्त्रीलिंग में उदा० तब द्र० । से पर जस के स्थान में नित्य डे होता है। हित्वात टिलोप ।इति सर्व शब्दः । होता है। सव्व- -जस्=प्र० सू० -टि-लोए= [ अप-यच्छब्दः ।] सब्ये । अतः कयन से आदन्त सम्वा--जस में प्र० सू० की अप्रवृत्ति ३. १, २८ बा० उ–ो पक्षे लु ४ दलुप् यत्तदेत विवंकिम्भ्योडिणा टायाः । ३, १,७२। - सम्वाउ, ओ. सब्बर । १, ३, ४८ ऋ=रिद्धि-अस् = कौ० एम्योऽदन्तेभ्य स्टाया डिणा दा स्यात् । डित्वा रिद्धि उ, ओ, जी। ट्रिलोपः । येन-जिणा, जेण जेणं । जेसिमामः । ३, १, ६४ । बी० यदिति । अदन्त यद्-तद्-एतद्----इदम्-किम् से कौ० अदन्तात्सर्वा देशमः स्थाने डेसिमादेशो वा पर टा के स्थान में बिकल्प से टिणा आदेश होता है। स्यात् । बाहलकात स्त्रियामपि सठवेसि सव्वाण, ण यद-१.१.२८ लकात् स्त्रियामाप सव्वास सव्वाण, ण यद् =१,१,२८ -सुप्४, २८ यज-टा-प्र० सर्वेषां सर्वासां वेत्यर्थः । सु० डिणा, पक्षे ३, १,१७ डेण—टिलोप ४७ वादी० डेसिमिति । अदत्त सर्वादिसे पर आम के स्थान में ---- जिणा । जेण, जेणं । विकल्प से द्वेसि आदेश होता है। बाहुलकात् स्त्रीलिंग में म्हा उसेः । ३,१,६६। । भी। सम्ब- सब्बा-आम्- सू० डेसि—टिलोप - कौ० यत्किभ्योऽदन्तेभ्योडसे म्हो बा स्यात् । सध्धेसि । पक्ष में ३,१, ११ पद १.१,१४ पूर्व दीर्घ, यस्मात् = जम्हा । पा जाहीत्यादि। ४५ बा चन्द्र-सबाण सब्बाण । वी. म्हेति । अदन्त वत्ततितम् मे पर सि के स्थान में मिस्सित्याः । ३,१, ६२ विकल्प से म्हा आदेश होता है। यद्=ज ... सिप्र० को अदन्त सदेिः परस्य डे: स्थाने नित्यमेतेश्रयः १. म्हा=जम्हा । पक्षं ३, १, ६, ८.१५, १६ जा, स्थः । सर्वस्मिन् सम्वम्मि, सवस्सिं सध्वत्थ। जाहि विधा ज.ओ. जतो। आर्षे --सबसि । अत इत्येव । अमुम्मि । चौ० अदन्त सर्वादि से पर डि के स्थान में ये म्मि–रिस । यत्तस्किमोङसः । ३,१, ६६ । त्य तीन आदेश नित्य होते हैं। सब-किसनम्मि कौ० एभ्योऽदन्तेभ्योडस् सद्वा स्यात् । दित्वात्पूर्व मिस, स्थ । ३, १. १० डि सि = सबसि । अदन्तत्वा- दीर्घः । सठोऽपवादः। पक्ष सोऽपि । यस्य-जास भाव से अदस्--डि =३, १, २७ अमु, ६.१.१, १५ जसा । बाहुलकादादन्तेभ्योऽपि । यस्याः -जास । विम्मि = अमुम्मि । बी० यदिति । अदन्त यद् -तद्- किम् से पर इस के हिमनेतादिदमो वा कियप्तदश्चस्त्रियामपि स्थान में विकल्प से सद होता है। यद्-ज-डस् -प्र० सू० सष १, १, १४ दीर्घः-पक्ष ३, १६.१,१.१५ कौ० एतदिदवर्ज सर्वादेरतो हु हिं वा स्यात् स्स- जास, जस्स । बाहुलकात्-जा-ढस् = जास । कियत्तदश्चस्त्रियामपि। मन्वहिं । पक्ष उक्तमेव । पक्षे सन्मावत् । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि : ४१ काले रिआ हेल्लादः । ३, १, ६ ॥ जोस्तवः । ३,१,७० । को० कालेऽर्थे यत्तत्किभ्योङस्थाने इआ दिती है, कौ० तदोङसेडों वा स्यात् । तरमात्-तो तम्हा । ला इत्येतौ चैते त्रयो वा स्युः । हि म्मि स्सिं त्या । दि। यसत्किमोडसः। ३,१,६६ । नाम प वादः । पक्षे तेऽपि । यस्मिन् =जइआ जाहे तास तस्स । जाला । पक्ष देशादौच जहि, जाम्मिं जस्सि जत्थ। बी० इति । तद् से पर सि को डो विकल्प से होता है। आर्ष-जंसि। शेष सर्ववत। मुसि यच्छन्दः। तद् हसि---प्र० सू० डो-टिसोप-३, १,६९ म्हा बी० काल इति । काल अर्थ में यत्सत्किम से पर डि के हा पक्षे ३, १, ६, ८, १५, १६ तो, तम्हा, ताताही, हिन्ती, स्थान में इआ दित हे ला ये तीन आदेश विकल्प से होते , ओ, सत्तो। त--स्-६६ सद् ११,१४ दीर्घ = हैं । यद-ज-डि-प्र० स० इआ, देव--लाद ११ तास, ३, १,६.१,१, १५ तम्स ।। १४ दीर्घ जइबा जाहे जाला । पक्ष तया देशादि अर्थ में तदेतदिवांवाङ साम्यां से सिमौ। ३,१,३। अहि म्मि, रिस, त्य। ३,१,१० सिसि । शेष सर्व को० एषां स्थाने डसा सह से आमा सह सि वा स्यात् विभक्तियों में सर्ववत । । इति यच्छन्दः। से बम्भचेरं । तस्य तस्यावा ब्रह्मचर्यम । सिं चत्तारि तपछडदे-सौ तवश्चाक्लीवेतः सच् । ३, १,८७।। माणाणि । तेषां तासां वा चत्वारि ध्यानानि । ___ कश्चिदामपितदिदमो से- आदेशं मन्यते ।। कौ० सौ परे तदेतदोस्त: सः स्यान्नित्यं नतु बौ० तदिति । तद्-एन-इदम्-को इस क. साथ से नपुसक्के । माम के साथ सि विकल से होता है। तद- दुस-सी बी० साविति । सु से पूर्व तद्-एतत् .. के त को स नित्य से तद्-आम् = सि । होता है । नपुसक नहीं। तत्तिमः सद् । ३, १. ६५ । ओडतस्तदेत दोर्वा । ३, १, १३ । को आभ्यामामः सदा स्यात् । दित्वादीर्घः । कौ० अदन्ताभ्यामाभ्यां सो रोट् वा स्यात् । सो तेषां तास तेसि सि ताण ताणं । को-काले-तदा जिणो। पक्ष स जिणो। -तहआ, ताहे ताला । ताला जान्ति गुणा दो० ओडिति । अदन्त तद्-एतद् से पर सु को ओड् जाला सहि एहि घेप्पन्ति तदा जायन्तं गुणा यदा विकल्प से होता है। सद्-स-सुप्र० सू० त=स, सु सहृदयगृ । पक्षे देशादीच.-1 =वा--ओड पक्षे ३, १, १२ लुप् = सो स (जिणां)। स्सि त्थ । आर्षे तसि । शेषं सर्ववत् । सुपि क्वचित्तदो णः । ३, १, ७३ ।। ।इति तच्छब्दः । कौ० क्वचिल्लक्ष्यानुसारेण तदोणः स्याद्वा सुपि । यी तद् =किम से पर आम के स्थान में सद् विकल्प से णं सोमइ अ रहुबई । तं शोचते च रघुपतिः । होता है। दीत्वाद्दीर्घ होना है। तद्-त आम प्र सू. स्त्रियामपि । इत्युन्नामि-अमुही णं ति अ डा। आम् = वा-सट्१, १, १४ दोघं पक्ष ३.१, सि, णेण भणिय। तेन भणितम्। भणिअ च णाए। ६४ देसि, ११ पद -...दीर्घ, पन्द्र-तास, सिनेसि. ताण, तयेत्यर्थः । हिं णाहिं कयं । तेन ताभिर्वेत्यर्थः ।। ___ ताणं । काल में सद्-डि = ३, ५, ६८ नइा साई, बी० मुपिति । लक्ष्यानुसार सूप से पूर्व तद के स्थान में ताला । पक्षे तथा देशाधि में ६३ तहि तम्मि, सि. बिकल्प से होता है। तद्-अम्-टा-भिस् --प्र० सू० . त्य । १० तसि । ।इति तच्छब्दः । तद् ॥ ३, १, ३, ५, १७. १६ णं, ण, नहि। एतव: सुनेणभिणवेसाङसिनात्वत्तोएत्ताहे । ३,१,८४। स्त्रीलिङ्ग में भी प्रक्रिया तत्र द्र० । तद-टा-३, १,७२ को० एतदः सुना सहेतवः स्थाने इमे वा स्युः । -तिणा। सिना तु सहैतो वास्तः । इणं इणमो एस वा जिणो . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ | प्राकृत चिन्तामणि पक्षे एस, एसो । टायां तिणा, तेण तेणं । एतस्मात् = एतो एताहे । पक्षे - एम एआहि हिम्तो | सो से एअस्स । भ्यसामो: सिं, ए एसि, एआण, णं । एसादेशः स्त्री नपुंसकार्थः । बी० एतेति । सुसहित एसद् के स्थान में इणं - इणमो एस ये तीन असि के साथ एतो, एताह ये दो देश होत हैं विकल्प से । स्त्रीलिंग नपुंसक के लिये है पुल्लिंग में वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध है । एतद्- सुप्र० सू० इणं, णमो एस, पक्षे २ १, २८ दु – लुप् ३ १,८६ त स १३ सुब-ओह — टिलोप पक्षे ११ सुलुप् एसो एस । एतद् – टा = ३, १,७२, १७ डिणा- डेणा टिलोप २, २, १ त लुप् १, १ २६ असंधि = एणा । एएन ४७ एएणं । एतद् इसि प्र० सू० एतो, एताहे । पक्षे जिनवत् । एतद् — ङस् आम् = क्रम से ३, १,८३ से, सिं । पक्षे ङस् रस ( सट् १, १, १५) ६४ आम् = डॅसि, € पद् = दीघं = त् – लुप् असंधि = ए मस्स 1 एएस एक्ण, एआणण १, १, ४७) । अम्मयम्मी म्मिनेतदश्च । ३,१,९७ । कौ० ङयादेशेन म्भना सहतददसो: स्थाने प्रत्येक मिमौ वा स्तः । अयम्मि । इयम्मि पक्षे एआम्मि एस्सि एत्थ । आर्षे - एअसि । I ० अथम्मीति यादेशग्मि सहित एतद् अदस् प्रत्येक के स्थान में अम्भि तथा इयभिम ये दो आदेश होते है । एसडि ३, १६२ मि प्र० सू० अर्याम्म, इयस्मि । पक्षे एअ = एतद् — २, २, १,१.१, २, ६, २८) ङि ३ १, ६२ मि, सिंस, त्थ एआम्भि एबरिस | एकत्थ - एत्य =स्थेन = एत्थ । ३, १, १० एमसि । शेष रूप सर्वचत् । एत्थयन । ३ १ ८५ कॉ० ङ. या देशेनत्थेन सहैतद: स्थाने नित्यमेत्थ आदेशः स्यात् । एत्थ । शेषं सर्वं सर्ववत् । । इति पु० एतच्छब्वः । दो० ङयादेशस्थ सहित एतद् के स्थान में एत्थ आदेश नित्य होता है । एत्थ एस्थ । शेष सर्ववत् । पु' स्त्रियामयमिमिया सुना था । ३. १, ७६ । कौ० सुना सहेदम: स्थाने पुरस्ययं स्त्रियामियं चादेशी वा स्तः । अयं तित्थयरो । पक्षे वी० पुमिति । सुसहित इदम् के स्थान में पुल्लिंग अयम् तथा स्त्रीलिंग में इस आदेश विकल्प से होते हैं । इदम्धुवं । इस इदमः ३, १, ७५ । कौ० सुपि परे इदमः स्थाने इमः स्वान्नित्यम् । इमो गणहरो । बी० इमइति । सुप् से पूर्व इदम् के स्थान में इस आदेश होता है । इदम्-- सुप्र०सु० इदम्- हम ३, १. १४ सु = जोड् = इमो । दिया मिणमिह । ३, १, ७८ । कौ० इदमः स्थानेऽमास हे संणङिना च सहेह चादेशो वा स्तः । इण इमं चउव्विहं कसायं चयसु । बी० अमिति । इदम् को अम् के साथ इणं तथा द्धि के साथ इह आदेश विकल्प से होता है। इदम् अम् ० सु - इणं । पक्षं इदम् इम ३, १, ३ अम्म चन्द्र= इमं । अम्शस्टाभिस्सु णः । ३, १,८० । 1 कौ० इदमो वा णः स्यादेषु णं इण इमं मुणि पेच्छ । शसि णे णा इमे इमा । णिणा इमिणा णेण इमेण । भिसि हि इमेहि । शे० अम्शासिति । अम् - शस्-टा- मिस् से पूर्व इदम् के स्थान में ग होता है। विकल्प से इदम् — अम् = प्र० सू० इदम् = ण, पक्ष २, १, ७५ इम ३. अम् -- म् = ( चन्द्र १, १, ४२ ) पं. इमं । ४, शस् लुप् १८ वा = ए इमे १, १, १४ बीर्घणा इमा । ३, १, ७२ टा डिण, १७ डेण टिलोपणेण, इमेण । ५, भिस् हि. हि. हि १९ एहि हि हिं. इमेहि, हि, हिं । हिस्सस्स सुस्वत् । ३, १, ७७ ॥ कौ० एपु परेस्विदमोडद्वा स्यात् । हिश्चात्रभिस्ङ सिभ्यसादेशः । भिस्सुपिचित् । ३, १, १६ इत्यत्वे - एहि । उसी अत्वे दोघे च- आहि, - 1 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इमाहि । यसि - एहि, आहि इमेहि, इमाहि । इस से अस्स इमस्स | आमिसि इमेसि इमाण, णं । 1 बी० हिस्सेति । भिस्ङसिभ्य सा देश - हि. उत्सादेश -स्स, यासादेशदिशा खुप्ता से जल होता है । इदम् हि (भिस्ङसिभ्यसू ३, १, ५. १६) प्र० सू० इदम् अपक्ष ७५ इम १६ अए एहि, मेहि । ८ दीर्घ अहि, इमाहि । १५ वा एत् पक्षं दीर्घं एहि आहि इमेहि माहि । इदम् इस्८३ से । उस्स्स (सन् १, १, १५) ५० सू० इदम् अपक्ष -- ७५ इम अस्स, इमस्स । इदम्आम् = ८३ सिं, पक्ष – ७५ इम ६४ डेसि पक्ष ११ पद ( १. १. १४) दीर्घ, ४७ चन्द्र ) = इमसि, इमाण, णं । नत्थः । ३, १, ७६ कौ० ङम्मिस्सित्या (३, १, ६२) इति प्राप्तस्त्योइदमोङ नंस्यात् । इह, अस्सि इमम्मि इमास्सि इदमेषु सु । शेषं । ( आर्ष इमं स ) सुपि - एसु सु सर्ववत् 1 इति प्र इवंशब्दः । ॥ वो नेति । इदम् से पर ङिको ३, १६२ से प्राप्त तथ नहीं होता है । इदम् — ङि ३, १७८ इह पक्ष ७७ अ ७५ इम ६२ मिस्सि ७९ स्थाभाव = अस्ति, इमम्मि सि । १० इमंसि । सु अ - हम सु (पू) १६ एएस, इमे १, १, ४७ एसु इमेसु । । इतीदंशब्दः । सोश्य किमः कच् । ३, १, ७४ । कौ० चासुपि । कुत्र ३, ४, १८ कह, १६ कुतः कत्तो = कदो कयो। सुपि के के काटा-किंणा, केण, केण । कम्हा | पक्षे । हि, त्थ । को, के । कस्मात् = वी० त्रतेति । त्रल् तस् सुप् से पूर्व किम् को क आदेश होता है । किम् — कसु ३ १ १४ सु– ओड् ---को, अस् - ६१ डे के ३, ४, १८ के के का। ७२ टाडा १७ द्वेण किन, पणं कङसि ६६ कम्हा । पक्ष - प्राकृत चिन्तामणि | ४३ किमो डिनो डिसौ । ३, १, ७१ । = कौ० किमोडसेरेती वास्तः । किणो कीस प्रश्नेऽपि किणो प्रश्न २, ४, ३४ इत्यध्ययपाठात् । पक्षे का काहीत्यादि । कस्य कास, कस्स । केषां कास केसि काण काणं । कदा=कड़मा काहे काला । पक्षे शादी च कहिकम्मि कस्सि कत्थ (आर्जे कंसि ) । इति कि शब्दः । शेषं सर्ववत् । बो० किमइति । किम से पर हसि को डिनो तथा डीस डित्याट्टिलोप होता है। किम्-इसिडियो, डीस = किणो कीस पक्षे सर्ववत् । किम् ङस् ३, ३, ६६ सद ( १. १. १४ दोर्घ) पक्षे ६ स्म (स-११, १५) कास कास आम् ६५ आस (सद् १, १, १४) ११, द्दीर्घ चन्द्रकास का काणं । कङि फासे ३. १,६८ कडमा, काला काहे देशादौ च - ६३ डि हि कहि १० कंसि । शेष सर्ववत् । सुप्यमुरवसः । ३, १, ८७ ॥ - ( १. १. १४) पक्षे ६२ कम्मि सिर 1 । इति कि शब्दः । कौ० अदसो मुरादेशः स्यात्सुप्सुपरेषु । अम् जिणो । सी विशेष: दो० सुप से पर अदस् को अमु आदेश होता है । अदस् सुप्र० सू० अमु. ३,१, २६, सुलुप् दीर्घं - अम् । अह सुना स्त्रिया । ३, १,८८ । कौ० लिंग ये सुना सार्द्धमदस: स्थानेड हेत्या देशो वा स्यात् । अह पास जिणो । ङी-जयम्मि, इयम्भि । अग्मि । - असि । शेषं साधुवत् । । इत्यदस् शब्दः ॥ बी० अहेति । पुंस्त्री नपुंसकों में सु-सहित अद् को अह आदेश विकल्प से होता है । अदस्सु अह पा= ३. ३, ६८, १, ४, ३६ पास जिणो । अदस्- ङि = ३, १, ८६ अम्म यमि । पक्षे ६, द्विम्मि (मिठ - १, १, १५ ) = अधुम्मि १० अमुसि रूप साधुत्रत् । । इत्यवस्शब्दः । [ अथ - युष्मदस्मत्प्रकरणम् ] सुना युष्मदस्तं तु तुह, तुमं तुवं । ३, २, ११ कौ० सुनासहितस्य - युष्मद: स्थाने तं, तु, तुह, तुमं, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ | प्राकृत चिन्तामणि तूवं इमे पञ्चादेशाः स्युः । त्वमित्यर्थः । एवमग्रेऽपि तईयो। अणोतो निषेध से दीर्घाभाव-तइत्तो। तुहविभक्त्या सह युष्मदादेवाः स्युः । इत्युह्यम् । इसि-१५ दलुप् १६ हिदीर्घ - शेष सइयततुहा जसा भे तुम्होरह तुम तुम्भे । ३, २, २। तुहाहि तहाहितो तुहाउ तहाओ तहत्तो। शेष लु दवत् ४० रूप होते हैं। कौ० युष्मद -जस्मे --तुम्ह-उरह-तुब्भ-- तुम्भे । यूयम् । ङसिना तुम्ह तहिन्तो तुम । ३, २, ८ । वाम्भोज्झम्ही । ३, २, १४ । कौ० इसिना सह युष्मदस्त्रय आदेशा: स्युः । तरह तहितो तुभ । बाभो ज्झम्ही। तुज्झ तुम्ह - कौ० सर्वत्र युष्मदादेशेषु स्थितस्य यस्य स्थाने ५-४०४५ । ज्य म्हो वा स्तः । तुब्भ = तुम तुम्ह। तुभे - तुझे तुम्हे -६ भ्यस्युम्होरह तु यह तुबमाः । ३, २,६। कौ० भ्यसिपरे युष्मद: स्थाने इमे स्यूः । भ्यसश्च अमा तं तु तुए तुमे तुम सुह तुर्व । ३, २, ३।। यथा प्राप्तम् । उम्हेहि उम्हाहि उम्हेसुन्तो उम्हासुन्तो कौ० त्वां-(युष्मद्-- आम्) =तं धन्दामि । उम्हे हिन्तो उम्हाहिन्तो उम्हाउ उम्हाओ उम्हत्तो। शसा भेवा तुझोरहे तुम्हे तुम्भे । ३, २, ४। एवं उय्हेहि ह । तुम्हेहि । तुब्भेहि ।। तुज्झेहि को० युष्मान् (= युष्मद्-शस! -भेवो तुज्झे उम्ह । तुम्हेहि ६ -- ५४ । तुम्हे तुभे -तुज्झे तुम्हें धम्म साहेमि । कथयामि। बी० म्यसीति । यस् से पूर्व युष्मद् के स्थान में उन्ह टा सइ तम् तइ तुए तमह तमाइ तमए तमतमे से उन्ह-तुह-तुभ १४ रभ = झ-म्ह-तज्म दि दे में। ३,२,५॥ सम्ह-३, १,१५ भ्यसहि . ७ सुन्तो हिन्तो उ, ओ तो को० युष्मद्-टा-तइतए १३ पञ्च वि समिओ १६ सह-सुन्ती-हिन्तो ने पूर्व अबा=ए पक्षे तथा ' उ, ओ से पूर्व अ-मा-उम्हेहि उम्हाहि इत्यादि ५४ हम पालणिज्जा । पञ्चापि समित्यः पालनीयाः। होते हैं। भिसा भे उव्हेहिं उनमेहि उम्मेहिं तुम्हेंहि तुम्हेहिं डसा दि दे इ ए तु ते तइ तुम तुमे तुध तुह तुहं ।३, २,६। तुम्ह तुमो तुमाइ । ३, २, १० । कौ० युष्मद्-भिस् -भे उव्हेहिं तिण्णिवि गुत्तीओ कौ० युष्मद्-डस्-दि--दे."तुमाइ १५ चारित रक्खणिज्जा। युष्माभिस्तिस्रोऽपि गुप्तयो परमं विमलं अस्थि । तव चारित्रं परमं विमलरक्षणीयाः। मस्तीत्यर्थः। उसो तइ सुह तुम तुव तुमाः । ३, २, ७। आमा भेवो तु तुमाण तुवाण तुहाणोम्हाणतुम्मको० उन्मौ परे युष्मदः स्थाने एते आदेशाः स्युः। त भ त भाणाः । ३, २, ११ । ङसेस्तु यथा प्राप्तम्। त्वत्त ईहिन्तो तईउ तईओ दी० आमेति । युरुपद्---आम् = भे–चो--१० | भ = तइतौ। तुहा तुहाहि नुहाहिन्तो तुहाउ तुहाओ उभ-ह-१, १, ४३ णवा- = भे-वो-तुतुहत्तो। एवं तुम तुव तुभ = तुज्झ तुम्हानाम्। तुमाण तुमाणं इत्यादि । २३ । मिलित्व ४० रूपाणि । डिनातइ तए तुमे तुमाइ तुमाए । ३, २, १२। जी० लसाविति । इसि मे पूर्व युष्मद के स्थान में तइ आदि दी० डीति । युष्मद्-डितइ तर तुमे तुमाइ तुमए । सात-आदेश होते हैं । युष्मद् = असि-प्र. सू० युष्मद् = डिसुपोस्तु तुम तुव तुह तुम्माः । ३, २, १३ ॥ तह-तुह तुम तुव-तुभ १४ ब्भ = ज्य-मृतुज्झ= तुम्ह कौ० डिसुपोः परयोः युस्मदः स्थाने इमे स्युः । --३, १६ हिन्तो, ३ ओ तो- दीर्घ = त ईहिन्तो तईउ उस्तु यथा प्राप्तम् । त्वयि = तुम्मि तुवम्मि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि । ४५ तुमम्मि तुहाग्मि तुज्झम्मि तुम्हम्मि तुम्भम्मि। भिसा णे अम्ह अम्हाहि अम्हेहि अम्हे । ३,२,२० । ठिनओ गाण दीवोधिप्पइ । स्वयि स्थितो ज्ञानदीपो को णे अम्ह... अम्हे किज्जद भिवपरिमा। दीप्यते । आर्षे तुसि तुमंसि इत्यादि ७ । सुपि अस्माभिः क्रियते भिक्ष प्रतिमा। तुसु तुसु तुमेसु, सु इत्यादि । सुप्येत्वं बेति मन्यमानस्य मते तुमसु इत्यादि । तुरभे मात्वमिच्छति सौ मह मज्झमम महाः । ३. २, २१ । कश्चित्तन्मते सुमासु तुज्झास तुम्हास्। को० डसो परेऽस्मदश्चत्वार इमे आदेशा स्युः । । इति युष्मच्छब्दः। इसेस्तू यषाप्राप्तम । मई हिन्तो मई उमओ बी० डि सुपोरिति । द्धि तथा सुप से पर युष्मद् के स्थान मइत्तो । मझा मज्झाहि इत्यादि । में तु तुम आदि आदेशा होते हैं। युष्मद्-डि३, १.६ दो० डसाविति । ऊसि से पूर्व अम्मद के स्थान में महमउम्र -१, १, १५-सुम्मि इत्यादि। तुसि तुमंसि आदि ३, __ मम मह ये चार आदेश होते हैं। अस्मद्-सि-३.१, १, १० । युष्मद्-सु (प्)प्र० सू० तु-"तुम शादि-३, ६.६, १५. १६ ये सुप्मद् वत् रूप जानना । १, १८ वा=ए तुसु तुमेसु १, १, ४७ वा चन्द्र= तुसुतुमेसु । एवं लुव तह तुम १४ सम्म तरह का रूप । भ्यस्यम्ह ममौ । ३, २,२२। सुप से पूर्व एल विकल्प से मानने वालो के मत मैं तुमसु, कौ० भ्यसिपरेऽस्मदोऽम्ह ममी स्तः। अम्हेसुन्तो स इत्यादि को इ तब-तुजम-तरह में आ विकल्प मानते अम्हासन्तो इत्यादि है। ममे सुन्तो इत्यादि 1हैं । ता तुम्भासु तुज्यासु तुम्हासु ॥ इति युष्मन्छन्दः ।। १८ । सनाउस्मदो हमहमयमभ्याम्हमयः । ३, २. १५। बी० श्यसीति । भ्यस् से पूर्व अरमद को अम्ह-मम ये दो कौमता गामस्मतः स्थाने हमित्यादि बहादाणा: देश होते हैं । अस्मद--भ्यस् -प्र. सू० अस्मद्-अम्ह स्यः । इत्थमग्रेऽपि विभक्त्या सार्द्धमम्मदादेशाः -मम ३, १, ७ सुन्ती, हिन्ती, उ, ओ, तो १५ हि, १८ स्थरितिबोध्यम । भणामि अहं अहयं अम्मि आम्ह वा-ए-मम्हे सन्तो, अम्हेहिन्तो अम्हेहि पो तथा 3. म्मि सियावाय रहस्सं । भणाम्यहं स्याद्वादरहस्यम्। ओ में - दीर्घ अम्हासुन्ती, हिन्तो, हि, उ, ओ । अणो तो जसा मे ऽम्हा ऽम्हे हो मो वयं । ३, २, १६ । निषेध सम्हत्तो । एवं ममे सुन्तो इत्यादि-१५ कौ० विहिमो मे अम्ह अम्हे अम्ही मो वयं कम्म इसाऽम्हाऽम्हं मह में मना मझ महं महाः । बनधाहिन्तो । विभीभोवयं कर्मबन्धेभ्यः । ।३,२, २३ । अमाऽहमम्हामिम मम्हणं में मि--मं ममं मिमं ।३, २०१७। __ कौ० अम्ह.... मह घम्मो चिउ सरणं । मम धर्म का । को भणभन्ते अहं अम्त अम्मिमन्द्र ण णे मि मं ममं मिमं धम्म रहस्सं । भण भगवन् । मां धर्मरहस्यम् । आमा णोऽम्हेऽम्होऽम्हाम्ह मम मन्माणाशसा णेऽम्हेऽम्होऽम्हाः । ३, २, १८ । म्हाण ममाण महापरः । ३, २, २४ । कौ० हे मुणिवर ! णे अम्हे ऽम्हो अम्ह साहेसु धम्म कौ० णे-णो–अम्हे..... महाण, महाणं पणट्टो मम्म । अस्मान् कथय धर्ममम । मोहो 1 अस्माकं प्रणष्टो मोहः । एकादशादेशाः । टाणे मि मे भइ मए ममाइ मम ममए .. डिना मि मे मा ममाइ मए । ३, २, २५ । ३.२, १६ । कौ० णे मि मे........ममए वन्दियो मुणी। मया कौ० मि."मए हवउ जिण यम्मो । मयि भवतु वन्दितो मुनिः। जिनधर्मः। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ | प्राकृत चिन्तामणि सप्तम्यां मज्शाम्हमममहाः । ३, २, २६ । दो० अधिगति । विशत्याविभिन्न संख्यावाचक से पर आम् कौ० ङिसुपोरस्मदः स्थानेमज्यादय आदेशा स्युः । को पह, हं ये दो आदेश होते हैं । वि ओस् आम् = द्विउस्तुययाप्राप्तम् । मम्मि , अम्हम्मि ममम्मि --दो आम्० मू० व्ह, पहं = वेगह दोण्ह १, २, ३६ महन्मि, ठिो तवो। मयिस्थितं तपः। सुपि मझेसु विण्ह विर्ह दुण्ह दुष्हं । विंशति-आम त्रिशस्-आम्-१, मझे। इमामला दिला गो मम्मसु १, ५२, १४ विशति = वी त्रिंशत्-त्रीमत् ३३ त् = मी इत्यादि । अम्हस्यात्व विकल्पमते-अम्हास । सन्धि ४, ३६ श=स २, ३, ६८ श्री-ती ३,१,११ इत्यस्मत् । ।इति ष्मदस्मरप्रकरणम। गद्दीचं - वीसाण, तीसाण। पी० सप्तेति । डि-सुप् से पूर्व अस्मद् को मज्म अम्ह-मम जश्शसातिण्णि । ३, २, ३१ । मह ये चार आदेश होते हैं । अस्मद्-डि-प्र० सू० मज्न कौ० जश्शभ्या सहोस्तिति-आदेश. स्याल्लिग४ ३, ५, ६ म्मि (=मिट १, १, १५)- मज्झम्मि ४। त्रये । तिपिण, मुणिणो, गुत्तोओ गाणाणि वा अस्थि अस्मद् .-सु (पू)-३,१,१६ ए-मासु १, १, ४७ पेछ वा। मज्झेसु । वी० जसिति । जस्-शस-सहित त्रिको तिणि आदेश होता [ अय संख्यावाचकशब्दाः] है। त्रि-जस्-शस् = प्र० सू० तिण्णि । झें दो बुवे वेष्णि दोण्णि । ३, २, २६ । स्तिः । ३, २, ३०। कौ० जशशस्भ्यां सह द्वरेते पञ्चादेशाः स्युः । वे दो को भिसादौ परे स्तिः स्यात् । तीहित्यादिमुनिदुवे वेणि दोण्णि, ह्रस्वे विणि दुपिण मुणी अस्थि वत् । आमि-तिण्ह तिण्हं । सुपि-तीसु-तोसु। नवसु वा । ।इति त्रिशब्दः । बोरिति । जस शस् सहित द्वि के स्थान में ये आदि . बी० घरिति । भिस-यस्-आम्-सुप-से पूर्व त्रि पाँच आदेश होते हैं । १, २, ३६ लम्ब विणि दुष्णि । को ति आदेश होता है। त्रि-भिस्–भ्यस्-सुप्भिसाचो वे दो। ३, २, २९ । प्र० सू० त्रि=ति = शेष मुनिवत् । ति-आम् =३,२, कौ० भिस्भ्यसाम्सप्सु रेती स्तः। वेहि, देहि, कयं। ३२ ह ह =तिष्हं । द्वाभ्यांकृतम् । भ्यसि-वे सुन्तो दो सुन्ता, वित्तो जयशस्भ्यां चतरश्चउरो चत्तारि चत्तारो दत्तो । । ३, २, २७। बी० भिसेति । भिस्-यस्-आम्-सुप् से पूर्व द्वि को वे को चउरो चत्तारि चत्तारो चिन्ति पेच्छ वा। दो ये दो आदेश होते हैं। द्वि, भिस्-यस् = द्वि-वे वी० जसिति । जस् ---शस सहित चतर के स्थान में चउरो दो ३, १, ५. भिस् -हि, हि, हि = देहि, दोहि हि हि । चत्तारि सारो ये तीन आदेश होते है। ७ सुन्तो, हिन्तो उ, ओ, तो-वे सुन्तो दो सुन्तो ४ । १, २, ३६ हस्व वित्ती दुत्तो। या चतुरो भ्यसि च । ३,१, २१।। अविंशत्यादे. संख्याया आमोण्ह पहं । ३, २, ३२। कौ० चतुरो रलुप्युकारस्य वा दीर्घः स्याःभिस्भ्यस्सुको संख्यावाचकात्परस्यामो ह ह इत्येतो स्तो प्सु । चतुभि: चहि चहि । चतुभ्य:- चळन तु विंशत्यादेः। णदपवादः । वेण्ह चेहं। सुन्तो चउसुन्तो । चतूर्यु - चऊसु चउसु। आमि पञ्चह, पह, विशत्यादेस्तु-वीसाणं तीसाण। चउण्ह चउण्ह । ।इति संख्यावाचकाः। सुपि वेसु वेसुदोसु, दोसु। बी० वेति । लुप् होने पर मिस्-भ्यस्-सुप् से पूर्व चतुर । इति सर्वनामप्रकरणम् । के च को विकल्प से दीर्घ होता है। चतुर-भिस्-भ्यस् Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सुप् = १, १, २८ र लुग्- प्र० सू० उ-क विकल्प २, २, १, लुप् ११ २६ असन्धि ३ ४ १ भिस् = [हि. हि. हिचक हि, हि, हिं । चर्चाह । ७ । भ्यस् सुन्तो आदि - चऊसुन्तो सुन्तो चक्सु १, १, ४७ सुसु चसु चउसु, सुह (नतुर ) ३, २, ३२ आम् = पढ़ एवं = चउण्हण्णं । । संख्यावाची समाप्त । [ अथ सर्वनामस्त्रीलिंग प्रकरणम् ] कौ० सर्वा = सुब्बा - सव्वाउ, सब्बाओ सव्वोत्यादि दयावत् । आमि विशेष : - - बाहुलकात्स्त्रियामपि — 'डेसिमाम:' (३.१.६३) सव्र्व्वसि । आ सब्बासि । एवं विश्वादयः । । इत्यावन्ताः । बी० सति । २, ३, ६८, ७४ र्वा वा सव्वा-सु ओ पक्ष ३, ७, १२ लुप् = सव्वा । २६. जस्-शस् उ ४ लुप् = सब्वाउ मन्त्राओ सच्चा इत्यादि दयावत् । केवल वाहुलकात् स्त्रीलिंग में भी सख्या - आम् — ६४ डेसि = सव्र्व्वसि । एवं विश्वा आदि का रूप सर्वावत् । । आधान्त समाप्त । यस दिवमेतत्किमोsस्थमामि । ३ १ ३७ १ क० एभ्योऽस्वमामि सुपि स्त्रियां ङीप् वा स्यात् । यद् = तद् – एतद् = १, १, २८ द लुप् ४, २८ ज = त= एत = २, २, १, त् = लुप् (सुपरे) त ३, १, १, ८६ स ) १, १, २६ असन्धि एअ, ३, १,७५ किम् = क ७६ इदम् इम स्त्रीत्वे (पाणि ४, १, ४, ६, १, १०१ - टापू दीर्घ) जा, ता. एआ का, इमा, सु–अभ्-आम् वर्ज सुपो विषये प्र० सू० वा - ई ( ङीप् ) १ १ २७ पूर्वस्वरलुप् - जी, सी, एई, की, इमी । सर्वत्र - जी लच्छीवत् । जादयावत् । स्वमाम्सु – तु = जा, जं, जाण जाणं इत्यादि । ङसिङसामूङिषतु विशेषाः ऽसित । तथाहि से:- जम्हा— तम्हा कम्हा । वी० यत्तदीति । सु-अम् - आम् बर्ज सुप् के विषय में यद् तद्— इदम् एतद् किम् से पर स्त्रीलिंग में विकल्प से ङीप् प्रत्यय होता है। पक्ष में सर्वदा । प्रक्रिया बिन्ता० द्र० | जी का लक्ष्मीवत् जा का दयावत् प्राकृत चिन्तामणि । ४७ रूप होता है। केवल एस् - आम्-हि में विशेष हैतथाहि – ३, १, ६६ साठावीद्भयः । ३,९१, ६७ ॥ कौ० ईदन्तेभ्यो यत्तत्तिभ्यः परस्य सः स्थाने से साठौ वा स्तः । अदादिदेदामपवादः पक्षे तेऽपि । म् । जीसे जीस्सा। बाहुलकात्स्त्रियामपि 'यत्तत्किमोडस (३) १, ६६ ) इति वा सद् । जीस जास | आमि जैसि जाण । ङौ 'हिमने : ' | ( ३, १,६३) इति हि जीहि जाहि । शेष लक्ष्मीवत् । इतियच्छब्दः । दयावच्च । = तदतदिदमां वा 1 तच्छब्दे - ती, ता-सौ-सा -साभ्यां सेसिमी (२, १, ८३) सेस सुपिक्व चित्तदोण: (३, १, ७३) वांणं । तया जाए। ताभिः = णाहि इत्यादि शेषं ती, ता जी, जावत् । । इति तच्छशब्दः एतच्छब्दे - सौ | एस इणं इणमोबुद्धी एसा (३ १, ८४) । ङ साभ्यां क्रमात्सेसि एतासां सि एएसि । शेषं एई- लक्ष्मीवत् । एक दयावत् । । इत्येत च्छन्दः । = I इदम: -- सौ – इमिआ । अमि- इणं, णं । टाणाम, गाइ, जाए । भिसि णाई ३ आहि इसासे । आमि-सि इमेसि । ङी - इह । एतावान् विशेषः । अन्यत् इमा- दयावत् । इमी - लक्ष्मीवत् । इसीद शब्दः । किमः का दयावत् की- लक्ष्मीवत् इयान विशेष:- सरिक मोडस कस काय | सेसा ठावीद्भ्यः । कोस्सा किस्से । आमि- 'डेसिमाम' केसि । 'तत्किमःसद्' कास । हो - कोहि । । इति किम् शब्दः । अदसः - 'अहसुना वा ३, १, ८८१ अह-गृती | पक्ष - सुप्यरसः (३, १८७) अमू पञ्च वहा किरिया । शेषं धनुवत् । 1 इत्यवः शब्दः । बी० सेसेति । ईदन्त यद्द् किम् से पर उस के स्थान में मे तथा सार ये दो आदेश विकल्प में होते हैं । ३, १, ३२ से प्राप्त अद- आ-- एका अपवाद है Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ | प्राकृत चिन्तामणि पक्ष में ऐ भी होते हैं। जी उस् - प्र० सू० सेस्सा ( साठ १ १ १५ ) जी से १, २, ३० ह्रस्व जिस्से । एवं तिस्मा सीसे, किस्सा कीसे । ३. १, ६६ जा- इस = जास एवं तास. कास जीजा - आम = ६४ ऐसि = जेसि एवं सि सि एएस इमेसि जीजा - ङी = ६३ हि जीहि जाहि एवं सिती ताह कीहि काहि । बाकी रूप जी का लक्ष्मीवत् जा का दयावत् । | इति यद् । तद्ता-सु ३, १, ६६, १२ सा एवं -- एतासु एसा तीता - स्-५३, सेतीतर---आम् सि एवं एई एआ इसी इमा इसा = से आमा-सि । ता –३, १, ७३ णा - तादयावत् ती --लक्ष्मीवत् । एई – एआ— लक्ष्मी — दयावत् । इदम— सु स्त्री०३, १, ७६ इमिआ । पक्षे ७५, १२= इमा । इदम् अङि = ७४ क्रम से धणं, वह इदम् - अम् - शस्—टा भिस् ५० इदम्-टादीर्घ वा इमावत् । अन्य — इमा दयावत् लक्ष्मीवत् । एवं की -- लक्ष्मीवत् का - दयावत् ॥ अदस् अह, पजे ८७ बसु – सु - १२ = अम् । अमु — धेनुषत् । । इति स्त्रीलिंगे सर्वाविशब्दाः ॥ [ अथ नपुंसके सर्वादि शब्द: ] कौ० क्लोवाचोऽसंबुद्धेश्चन्द्रलुपी (३,१, २७) इतिम् -- सवं । जयशसोदि - त्रिणिदः (३) १, २८) सवाई सव्वा सव्वाणि । संबुद्धावप्येवमेव । शेषं पुरवत् । एवं विश्वादयोऽपि । यद्दजं जाई जाइँ जाणि । तद-त--सु-अक्लीवे इत्युक्तः 'सौतदश्चाक्लीवेतः सच्' ३ १ ८६ । इति न सः । तं । ताई ताई ताणि । एतद् - एस इणं इणमोसिर पक्षे ए । एआइ एआई एआणि शेषं पुं वत् । प्रदस् [= 'अह सुना वा' । ३ १ ८६ अह चारित' । पक्षमिच असु । अमूइ अमूई अमूणि । शेषं पुंवत् । बी० सव्व (सर्व २, ३, ६८, ७५) सु–३, १, २८ सुम् (११, ४२ ) सध्वं सम्य–जस्— शस् २८ दिदिंसबाई सव्वाई सञ्चाणि । एवं विश्वादि का भी शेष पुल्लिंगवत् । यद् -- १, १, २८, ४,२८जं जाई ३ सर्ववत्, बाकी पुवत् । ३,१,८६ में अक्लीवे - सु = - निषेध से तस नहीं होता 1 तं ताई ३ सर्ववत् शेष पुत् एतद् सु३१, ८४६ स इणं इमो पक्षे उक्त निषेधादस - २, २, ११,२६ – लुप् – असंधि = एवं एआई ३ सर्ववत् । शेषं पुंवत् । अदस् – सु = ३, १, अपक्ष - अदसु अमुअमु अमुई ३ सर्ववत् । घोषं पु ंवत् । नित्यं क्लोवे स्वमेद मिणमिणमो । ३ १ ८१ वी० इदम् - सु-अम् जस् - ३, १, ७५ इदम् प्र०सू० इदं णं णमो । इदम्६२० जस्-पास – दि --. दिन - १४ वी खानु नासिक इमाई इमाई इमाणि । शेषं पुंवत् । दिन दि. १, १, १३ किकिमः | ३१८२ । कौ० नित्यं क्लोवे स्वमासह किम: किंस्यात् । किं । काई काई काणि । शेषं पु ंवत् । । इति क्लोवे सर्वावयः । श्री० किमिति । क्लीव में सुअ सहित किम् को नित्य कि आदेश होता है । किम- सुम्प्र० सू० किं । किम् – जस्-शस् ३ १, ७४ किम् = २८, १, १, १३, १४ काई कार्ड काणि । शेष पं वत् । । इति क्लीचे सर्वादि: । [ अथविभक्त्यन्तादेश प्रकरण ] सर्वत्र चतुर्थ्यन्ते । ३. २, ३७ ॥ कौ० सर्वत्र प्राकृते चतुर्थ्यन्त षष्ठयन्त् प्रयुज्यते । नमो जिणस्य । नमोऽरिहन्ताणं । या तावन्ते । ३, २, ३६ । को० तादर्थ्ये विहितो यो ङ तदन्ते हसन्त वा स्यात् । जिणस्स जिणाय वा एसो णमुक्कारी । जिनार्थमित्यर्थः । बहुवचनान्तं द्विवचनान् । ३. २ । कौ० स्पष्टम् । नमो जिताभ्यां नमो जिणाणं । जिन गणधरी स्तः । नमामि वाजिण गणहरा अतिथ नमिमो वा । । इति विभक्त्यान्तादेशः । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | Ye [अय स्त्री प्रत्ययविधि: ] वा वर्तमान दिध्यादिशतृषु । ३, ३, २१ ॥ अजातेः पुसोवाडीम् । ३, १, ३४ । कौ० अत एवं स्वादेषु । हवेइ। 'अतएव सपो' कौ० पुल्लिगाम्नाम्नः स्त्रियां वाडीप स्यात् । नीलो ३, ३, ७ इति नियमादेप्येत्वं नास्ति । नीला। सुप्पणही सुप्पणहा । जातेस्तु न । अजा= दो० वेनि । वर्तमान विध्यादि तथा शतृ से पूर्व को ए अया। अप्राप्त विभाषेयम् । तेन कुमारी गोरीत्यादौ विकल्प से होता है। हवेद्द । प्रकार से ही एप तथा से न विकल्पः। होता है । अतः एप् से पूर्व अ को ए नहीं किया है । पी० अजातेरिति । पुल्लिम नाम से स्त्रीलिंग में विकल्प से बहुत्वेन्तिन्ते इरे। ३. ३,२॥ ही होता है। जासिवाषक से नहीं । नौल–वा --ई कौ० तिचादेः प्रथमपुरुष बहुवचनस्य स्थाने इमे (=डो , २७ - - --- --:- पीने १५ । हवन्ति हन्ति । हवन्ते हवेन्ते विरे हवेहरे । टाप् = नीलः । शूर्पण--१, ४, ३६ शु-मु २, ३, ६८, बौ० विबादि व प्रयग्र पुरुप बहुवचन के स्थान न्ति न्ते डरे ७64 =प्प २, १७ वह डीम् टाप् नीलवत् = ये तीन आदेश होते हैं । हप-- अ- तिप्र. सू०न्ति न्ते सुपणही सुप्पप्पहा । अप्रास्तविभाषा होने से कुमारी गोरी-इरे, २६ अ.. एट हबति हन्ति । ५.१, २७ अ-लुप त्यादि विकल्प नहीं होता है । जाति में नहीं होता है, विरं। २.१.३ अजा-अधा। मध्यमस्थेकत्वे । ३, ३, ३ । प्रत्ययान्तात् । ३. १, ३५। कौ तिबादेमध्यमपुरुषकवचनस्य सिसे इत्यादेशीकौ० स्त्रियां वर्तमानात–टिदादि प्रत्ययान्त नाम्नो म्तः । हमि हवेमि हवसे । विहितः 'टिड्ढाणको' पा. ४, १, १५ इत्यादि डीप दी० मध्येति ! मध्यम पुरुष के एकवचन के स्थान में मिप्राकृते वा स्यात् । साहणी साहणा। से ये दो आदेश होते हैं। हर-अ-सिप =प्र० सि--से बी० प्रत्ययेति । स्त्रीनिंग में वर्तमान टिदादि प्रत्ययान्त नाम से निहित टिहाणेत्यादि की प्राकृत से विकल्प से - पूर्ववत् हवसि हसि । से से पूर्व अ-ए नहीं होता है। हवसे । होता है । साधन--वा--कोप् पक्ष टाप् = पूर्ववत् संधि । इत्थाहतो बहुत्वे । ३, ३, ४। २,१,७ध-३२ न=ण-साहणी साहणा। छाया हरिव्राभ्याम् । ३, १, ३६ कौ० तिवादेमध्यम बहुवचनस्ये थाहपी स्त:। कौ० वा लोप् । छाही छाया । २, १, ४२ टी. ४३ क्वचिदन्यत्रापि चाहुल कादिस्था। यद्यते मेचतेद्र. । हलदी हलद्दा । १, २, ४५ द्र.। ज ज ते रोइत्या । 'हस्येहहयो (५, १, ५) रित्यय । इति स्त्री प्रत्यय विधिः। पकारः । हवित्था हत्या ह्वइत्था हवे इत्था । वह [ अथोत्तराः तिङन्त प्रकरणम् ] हवेह । तिबादेरेकत्वे प्रथमस्पे येपौ । ३.३.१। बी० इत्येति । विवादि के मध्यम पुरुष बद्दवचन के स्थान कौ० तिबादीनां प्रथम पुरुषकवचनस्य स्थाने इपेपो में इत्या-हा ये दो आदेश होते हैं। ह–अथ प्र० सू० इत्या । ३, ३, २० स्तः । पकारी 'इपेपो' (५, २, ३०) इति, विशेषणायौं अ-बा-ए-हवेइत्या , 'होहवहवा भुवेः'४, १, २१ हब द हवए। पक्षे हब-इत्था १,१, २७ अ—लूप- हवित्या २२ धो० तियेति । तिबादि के प्रथम पुरुष के एक बच्चन के क्वचिदेक पदेऽपि संधि-हबेत्या । एवं हा-अ-हस्थान इप् तथा एप ये दो आदेण होते है। भू-४, १.२ हवेह वह । क्वचित-अन्यत्र ० रुच-तेप्र० स० इत्या हव ३, ३, ३० अ (क) प्र० स० ति-x--ए-हवा ३, ४, २% गुण २,२,१,च-लुप १,१, २२ अपदे असंघिरोइत्था। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. [ प्राप्त चिन्तामणि मिरुत्तमस्यकत्वे । ३. ३, ५। ज्ज जा जे जहिज्जसु प चित् । ३, ३, २२ । कौ० तिवादेरुत्तमपुरुष कवचनस्य स्थाने मिः कौ० एषु पञ्चषु परष्यत एवं नित्यं स्यात् । स्यात् । बाहुलकात्यवचिन्मेरिकारलुवपि । न मर। हवेज्जा, हवेज्ज । पक्षे हवाइ हन्ति इत्यादि। न म्रियेत्यर्थः । वी० जज्जेति । ज्ज-जा-ज्जे जाहि-ज्जसु इन पांचों से बी० मिरित । तिबादि के उत्तम परुष के एकवचन के पूर्व अ को एनिस्य होता है। हत्-अ-तिवादि=३७ स्थान में मि आदेश होता है। कही हलक से मिले इ जा -ज्ज--प्र० सू० अ-ए-हवेज्जा हवेज्ज। पक्षे हबह का लुप भी स.सं.टि.. । हवन्ति इत्यादि पूर्ववत् । वा मो। ३, ३, १७। या विध्यादेज्जादित् । ३, ३, २३ । कौ० मी परे घातोः परस्य अत वा स्यात् । हवामि । कौ० विध्यार्थादेशाद् ज्जात्पर इकारों वा हमि हमि । अतः किम् । होमि । प्रयुज्यते । हवेज्ज इ-हज्ज । भवतु भवे वरेत्यर्थः । एवं सर्वपुरुष वचनेषु । श्री० वेति । मि से पूर्व धातु से पर अ को विकल्प से आ होता पी० देति । बिध्याद्यर्थक प्रत्यादेश जज से पर बिकल्प से है। हन-अ-मिन् =प्र. भू० मि०प्र० सु० अ-आ -रमे ३,३, २० ए-हवामि, हबेमि, हवमि । इकार प्रयुक्त होता है । हत्-ब-तिवादि = ३७ ज २२ अ-ए-प्र० सू. ज्ज-से पर इक हवेज्ना हवेज्ज। बहुत्वे मुमोमाः । ३, ३, ६ । विध्यादाधेकत्वे प्रथमादीनां बहुत्ये न्तु हमो कौ० दिवादेरुत्तम बहुवचस्यैते त्रयः स्युः । एत्वे । हवेम, हवेमो, हवेम पक्षे को.. विध्या द्यर्थेकानां प्रथम मध्यमोत्तमानामेकदो वहिति । तियाधि के उत्तम पुरुष के बहुवचन को मु वचनां स्थाने दू-सू-मु बहुवचनानां च तु-ह-मो-म ये सीन आदेश होत है। हब्-अ-मस्- मो इतीमे क्रमात्स्यः। दोदकारोऽन्य भाषार्थः । प्र० सू० मु. मो---म ३, ३, २१ अ-वा-ए-हवेमु, हवउ हवेउ । हवन्तु हवेन्तु। भो, म । पक्ष में वी० विध्यार्थ में विहित प्रथमादि के एकवचनों को दुमुमोमेष्विच्च । ३,३, १८ । सु-मुबहुवचनों को न्तु-ह- मो आदेश क्रम से होसे है। कौ० एष्वत इत्वमात्वं च वास्तः। हविमु, हविमो, ह-अ-तु= उ--अन्तु-न्तु = ३, ३, २१ असा हविम । हवामु हवामो हवाम। हवमु हवमो हविम। ए हवे उ हवउ हवेन्तु हवन्तु । अतः किम् हो। सोर्वा हिः । ३, ३,३५ ।। वी० मुमो इति । मु-मो-म से पूर्व अकार को विकल्प १० पूर्वसूत्र विहितस्य सोः स्थाने हि वा स्यात् । से इ तथा आ होता है । हद्-अ-मु-मो-मन्प्र० हवाहि हवेहि । पक्षेसू० भइ-आ-हपि, हवामुले हबमु । एवं हविमोबी०सोरिति । पूर्व सुथ से चिहित सू के स्थान में हि इत्यादि । अतः क्यों? होम ठाभु यहां नहीं हो। विकल्प से होता है। हव-भ-सुप्र० सू० वा० हि वर्तमान भविष्यतौरच जाजौ । ३, ३, ३७।। ३, २, २१ अवा -ए-हवेहि पक्षे हदहि । हित्त्वाकौ० सर्वपुरुषवचनेषु वर्तमानभविष्यद्विध्यादिष भाव विहितस्य प्रत्ययस्य स्थाने ज्जाज्जी वा स्तः । २ असो उजे अजहि ज्जसु लुपः । ३, ३, ३६ ।। वी० वर्तति । सर्वपुरुष वचनों में वर्तमान भविष्य को० अतः परस्य विध्याद्यर्थस्य सोरेते चत्वार विष्यादि में विहित प्रत्यय के स्थान में ज्जा तथा ज्ज ये आदेशा धा स्युः । ज्ज उजा ज्जे ज्यहि जज्सु चित् दो विकल्प से होते हैं। (३, ३, २२) हवेज्जे हवेज्जहि हवेज्जसु हव । पक्षे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकत चिन्तामणि] ५१ हवेसु हवसु । अतः किम् । होहि होसु । होह हवह। बी० भवीति । भविष्यदर्थक प्रत्यय तथा तव्य-पत्याहवेमु हवसु । हवेमो हवमो। तुम से पूर्व के स्थान में नित्य ए तथा इये दो आदेश बी० अतइति । अत् से पर विध्याद्यर्थक सु के स्थान में होते हैं । हव्-अ-प्र० स० हिड प्र० सू० अ० १० ए ज्जे---जाहि-ज्जसु तथा लुपये चार आदेश विकल्प से हविहिइ हबेहिइ इत्यादि। होते हैं । हब्-अ--पूर्वसूत्र से सुप्र. सू० जे जहि- मेहिना स्सं । ३, ३, ३० । अजतुप् ३, ३, २२ अ-ए-हवन हवयाह हवः कौ० भविष्यसि मेहिना सह संवा स्यात् । हविस्म ज्जसु, हव । पक्षे २१ या ए-हवेषु हवसु । अत् क्यों ? पक्षेहोहि होसु में नहीं होता है । हद्-अ-मि= मु-हवेमु वी० मेरिति । भविष्यकाल में हि सहित मि को स्स हवम् । एवं बहु० हधेमो हवमो । सर्बपुरुष वचनों में हवेज्जा हवेज्जा हवेज्ज पूर्ववत् । पक्षे हवस इत्यादि । विकल्प से होता है। हर .. अहए हिमि-प्र० स० रसंहविर एवं प..... भूसार्थेच्यञ्जनायो अच् । ३, ३, २४ ॥ को० व्यञ्जनान्ताद्धातो परस्य भूतार्थ प्रत्ययस्य हेरत्तमस्य हा स्सा वा । ३, ३, २८।। स्थाने नित्यमोमः स्यात । हवीभ। आदेशोऽयं को० भविष्यत्युत्तम पुरुषस्य है: स्थाने हा, स्साच सर्वपुरुषवचनेषु । इत्था-इंसु इत्यादेशावपि मन्यन्ते वा स्तः। हविहामि हवेहामि । हविस्सामि केचित्तन्मते हविस्था हविसु । द्रष्टव्या संक्षिप्त हवेस्सामि । पक्ष-हविहिमि हवेहिमि । अष्टौ प्रा. रू० मालाषु (चन्दोदय) रूपाणि मी। दी. मूतेति । व्यञ्जनान्त धातु से पर भूतार्थक प्रत्यय के बी० हेरिति । भविष्यकास उत्तम पुरुष के हि के स्थान में mमपनों में आदेश नियोता विकल्प से हा तथा सा ये दो आदेश होते है। हव—हि हव–तिवादिप्र० स० ई हवीयकितने के मत ---मि-प्र० सू.हिदा -हा, रसा-३, ३, २० अमें इत्या-इंसु ये दो आदेश होने पर हवित्या हविसु । . इ-एहविहामि हवेहामि हबिस्सामि हवेस्सामि । पक्षे भविष्यति हिरादिरिबादे रार्येषु तु स्सः -हविहिमि हवेहिमि । ।।३, ३, २७। मुमोमाना त्या स्सा को भविष्यत्येषामेती वा स्तः । हविहित्था हवेको भविष्यदर्थस्येवादेरादिरवयवो हिः स्यात् । 'हित्था हविहिस्सा हवेहिस्सा। पक्ष हबिहामु आर्षे तु स्सः । विस्सइ हवेस्सइ इत्यादि। हविस्सामु इत्यादि । हे हे हा-स्साऽना-देशेबी० हेरिति । भविष्यकाल में इवादि के आदि अवयव हविहिमु इत्यादि । द्वाविंशती रूपाणि मुमोमेषु । होता है। आप में स्वादि के आदि में स्स होता है। सर्वपुरुष-वचनेषु-हविज्जा हवेज्जा हवेज्ज हविज्ज । हब--...-स्सइ, २० अ-इ-ए-हविस्सह हवेस्सइ । वी० भविष्यकाल में मु-मो-म के स्थान में स्था स्सा हबिस्सन्ति इत्यादि। मे दो आदेश विकल्प से होते हैं। पक्ष में हि को हा-सा भविष्यत्तव्यक्त्वातुभ्येच्च । ३, ३, २० । -~-धिकल्प पक्षे हि श्रवण । हविहित्या हविहिस्सा, एत्वे कौ० भविष्यदर्थकप्रत्यये तव्यायौ च परेऽतः स्थाने हवेहित्या, स्मा। पक्ष-हविहामु हवेहाणु हविस्सामु हदिनित्यमेदितीस्तः। हविहिइ हवेहि हवेहिए हविहिए। हिमु इत्यादि । हा---स्सा-४ । स्था. --स्सा-१२। हि हविहिन्ति हवेहिन्ति । एवं न्ते-इरे। हविहिसि,से, .-६। = २२ रूप होते हैं मुमोम में । सर्व पुरुष बचनों हवेहिसि, से । हविहित्या, ह, हवेहित्था, ह । में पूर्ववत् इवेज्जा हवेज । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्राकृत चिन्तामणि क्रियातिपत्तौ। ३. ३. ३६ । बी० हरिति । पितुर्ज प्रस्मय से पूर्व भू को है विकल्प से कौ० क्रियातिपत्तौ सर्वपुरुष वचनेष्विवादे र्जा होता। भू-ह-न्ति, न्ते-हुन्ति, ते पक्षे होन्ति ज्जो वा स्तः । पक्ष-माणन्तो। ३, ३, ४० हज्जा इत्यादि । हवेज्ज । हबमाणो हवसाणा हवन्तो हवन्ता गिवादेश्चाजन्ताद । ३, ३, ३८ । इत्यादि । आर्षे हवमा उनले इत्यादि । पनि को० अजन्तादिबादस्तत्पूर्वं च ज्जा जो बा स्तो सुवृष्टिरभविष्यत्तदा सुभिक्षमभविष्यत् -- जइ सुविट्ठी हवेज्जा तथा सुभिक्खं हवेज्ज । यदि शुक्ल वर्तमान भविष्यविध्यादिगु । वर्तमाने । होज्जाइ होज्जइ होज्जा होज्ज । पक्ष होइ। एवं सर्वत्र । ध्यानमभविष्यत्तदाकल्याणभविष्यत् = जइ सुक्क विध्यादौ । होज्जाउ होज्जे उ होज्जउ होज्जा होज्ज उमाणं हवेमाणं तया कल्लाणं गवन्तं । एवं सर्वत्र होउ इत्यादि । भविष्यति हाज्जाहिइ होज्जेहिइ हुवहसादय:। होज्जा होज्ज पक्ष होउ इत्यादि । दो० क्रियेति । क्रिमातिपति अर्थात् कार्यकारणभावादि दी० प्राप्ति । वर्तमान भविष्यत् तथा विध्यादि अर्थो में अर्थ भाले मादि के स्थान में त्रिवल्प से ज्जा-ज्ज ये दो दाज़न्त घातु ग पर इवाशादेशों के स्थान में तथा इवादि आदेश होते हैं। पक्ष में माण त ये दो आदेश भी होते से पूर्व ज्जा तथा ज्ज ये दो विकला से होते हैं। होहैं । इन् अ-इचादि =F० मू० जा--ज्ज ३.३, २० ए......पक्षे माण–प्त = सृ--जस् आदित३, १,१४,४ . .- सू० होज्जाइ होगजेइ होज्जइ एवं होज्जा होज्ज स्वादि कार्य हुने जा वेज्ज । हवभाणो हवमाणा हवन्तो पक्ष होइ एवं सर्ववचनों में समझना। विध्यादि में हो इत्यादि इसी तरह हलन्त हुब. - हस् देष आदि के वर्तमान - होज्जाव हारजे होज्ज होज्जउ होज्जा होज्ज दि क्रियापत्ति पर्यन्त में रूप हव यत् होते हैं। भू= = पक्ष होस एवं राबं वरना म । भविष्यत् काल में-होहो । हिह होज्जाहिद हाज्मिहि होउहि होज्जा हात अत एव सयेपौ। ३,३,७।। पक्ष होहि इत्यादि सर्ववचनों में समझना चाहिये। कौ० अदन्तादेव परी से एपो भवता नान्यस्मादिति अनतोऽचो बा । ३, ४, ३१ । नात्र एव । अदन्तात्से एपावे व नतु सि--इपौ इति कौ० अदन्तवर्जाद जन्तात्परोऽकाराममो वा स्यात् । विपरीत नियम निषेधार्थ मेत्रकारः । तेन हससि इत्याकारपो होअइ होएइ हाअए इत्यादि सर्वत्र हसइ इत्याद्यपि। हववत् । बी० अतइति । अदन्त है। से पर तथा एप ये पो होते हैं। दो० अनेति । अदन्त वर्ज अजन्तं धातु से पर अकार आगम अदन्त भिन्न में नहीं अतः यहाँ एप नहीं हुआ। से एप ही विकल्प से होता है। हो-अ-इ ३, ३, २१ झ---एअदन्त में होता है। सिइप नहीं। इस प्रकार का नियम हए होअद्द इत्यादि सर्वत्र ववत् ॐ करें पक्ष में होइ न हो अतः एयकार है । अत: इसइ हससि भी होता है। इत्यादि । हुरपिलि । ४, १, ३ । अन: सी हो हो आः । ३, ३, २५ । कौ० पिदर्जे प्रत्यये परे भू धातोह वा स्यात् । हुन्ति कौ० अजन्ताद्धातोः परेषामिवाद्यादेशानां स्थाने हुन्ते इत्यादि । पक्ष होन्ति होन्ते होइरे। होमि। इमे त्रयः स्युः भूते । होसी होही होहीम। अभवत्, उक्त नियमान से। होइत्था हुइत्या होह हुह । होमु अभूत् बभूवेत्यादिरर्थः । आर्षे हो होत्था हो । होमो होम, हुम हुमो हम । त्रिध्यादिषु होउ। होन्तु, क्रियातिपत्ती-होज्जा होज्ज होमाणो होन्तो हुन्तु । होहि होसु । अनदन्तत्वात्-अतो ज्जे–३, इत्यादि । ३.२६ इति न स्यात् । होह हह । होमुहोमोदी अचति । अजन्त धास से पर श्वाधादेश के स्थान Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | ५३ में सी---ही-हीम ये तीन आदेश होते हैं। उदाहरण देन्ति आदि, देउ देन्तु आदि भूते दासी दाही वाहीभ सर्व स्पष्ट है। होयत् । कुण-कर--हबवत् । करेः कुणः । ४,१,६। इवादी गमि दशि छिदि भिदि विवि कविमुजिभुजि फो० कृत्रः कणो वा स्यात् । पर 'उररः' । ३, ४, वाचि श्रूणां गच्छ वच्छ छेच्छ भेच्छ वेच्छ रोच्छ २५ । ऋवर्णस्य स्थानेर स्यात् । कणइ करेइ मोच्छ मोच्छ बोच्छ सोच्छ हेश्चवा सुप।३, ३, ३२। इत्यादि। कौ० विध्यति गमादीनां स्थाने गच्छादयः दो करेरिति । कृ धातु के स्थान में कुण आदेश विकल्प क्रमात्म्यः सति गच्छदौ हेश्च वा लुप् । गच्छह में होता है । पक्ष में ऋ को अर आदेश होता है। = गतिहिद गछिन्ति भनिहिन्ति, न्ते, इरे। कुण्-अ-इ-ए ३. ३,२१ अ-वा---ए- कुणेइ कुणह गच्छिसि गच्छिहिसि गच्छिस्था गणिहित्था गच्छिह कूणए । पक्षे कृ=३, ४, २५ कर---अ-इ- एबार गनियहिह । गहिस्सं गच्छिहामि गठिस्सामि करए करई इत्यादि हबवत्। गच्छिहिमि-गच्छिमु.-मो-म, मच्छिहामु गच्छिआचकृतोऽतीतानागतयोश्च । ३, ४, ५। स्मामु गच्छिहित्या गाँछहिम्सा गनिहिमु मो को, भूतभविडोसम्बनमा उम्प च त .धानी- . -म । एवं दशादीनामुदाहायम् । वर्तमानादौ रन्त्यस्य स्थाने आस्यात् । भूते । कासी काही धात्वादेशो वक्ष्यते । काहीअ । भविष्यति । काहिइ काहिए। तुमादो। दी. इवेति । इप एप इत्यादि से पूर्व गमादि दश धान ओं काउँकाऊण । (३, ४,४ टी०५द्र०) कायन्वय र स्थान में क्रम में पच्छादि दश आदेश होते है । गच्छ दि कृ-का--हिमि-इति स्थिती होने पर हि को विकल्प से लुप होता है । गम् ति = बी० आजिति । भूत-... भविष्यत्काल में तण तुम-था- ३, ३, १-२७ लिप-आदि =-हिद दिए-आदिमा सू० तन्य प्रत्यय से पूर्व के ऋको आहोता है। कुइनादि गम् - गच्छ, हि--वा--तुप ३, ३. २३ नछ- -इ =३, ३.२५ सी-ही-हीअ, प्र० सूचका कासी -ए छा गया, मच्छिाहा गहिद १,१,२७ ३ । -३,३,१,१७ हिइ प्र. सू.कृ.--का-काहिए। अज्नुप गच्छित्था गच्छि, च्छे हित्या । ३, ३, २८-३० गच्छिासं इत्यादि । इसी तरह देशांद का रूप होता है। कृ= का..-हिमि इस अवस्था में वर्तमानादि में धात्वादेश प्रकरण में कहेंगे। कृदाभ्यां हं । ३, ३, ३१ ॥ बाम्पन्ता गच्छमादयः । ३, ३,३३॥ कौ० कृ-दाभ्यां परस्य भविष्यदर्थस्य मेहिना सह को भविष्यति भ्यन्तानां गमादीनां स्थाने क्रमाद् हैं वा स्यात् । काहं पक्ष काहामि कास्सामि काहि- मच्छमित्यादयोगा स्युः । गच्छदच्छ इत्यादि। मि । दा---अचामचः। ३, ४, २६ दाह दन्ति । देउडी वाम्येति भविष्यकाल में म्यन्त = गम्-हिमि आदि देन्तु । दाहिइ । दा-हिमिदाह पक्ष दाहामि के स्थान में कम से गच्छ इत्यादि आदेश होता है। मम् दास्सामि दाहिमीत्यादि । शेष होवत् । कुण करयो -हिमि -- गच्छं । दृश-हिमि -दच्छ। छिद्-हिम - है यत् । छेच्छ इत्यादि। बी० 0 इति । ---दा-धातू से पर भविष्यकाल में तिङाऽस्तेरस्थि । ३, ३, ८। हिसाहित मि को विकल्प में हं आदेश होता है। का-हिमि =प्र० सू० है =काह दा-हिमिन-दाहं पक्ष ३, ३, २८ की० सष्टम् । अस्थि जिणो । अस्थि जिणा । अस्ति हि-हा--स्सा काहामि कास्सामि पक्षे काहिमि एवं वाहा, सन्तोत्यर्थः। स्सा, हि, मि । वर्तमान में दा---, न्ति आदि विध्यादि चौ० तिति । तिङ सहित अस् के स्थान में अस्थि आदेश में ३,३, ३४ ज न्तु आदि ३, ४, २९ दा-दे-इ होता है। अस्---ति-नि-आदि-अस्थि । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ | प्राकृत चिन्तामणि सिना सिः । ३,३,६ । कौ० सिना सहास्तेः सिः स्यात् । सि तुमं । असि त्वम् बी० सिनेति । सि सहित अस् को सि होता सि | बासि वा मिमो में म्हि हो महाः । ३, ३,१० । कौ० तिङादेशैरेतैः सहास्तेः स्थाने क्रमादेते वा स्युः । अहं हि । अहमस्मि । अम्हे म्हो, अम्हे म्ह । वयं स्मः । बी० वामिति । तिङादेश मिमोम सहित अस् के स्थान में क्रम से म्हि म्हाम्ह आदेश विकल्प से होते । मस्मिहि । २, ३, ५३ से स्म को हो म्हय विद्वास्से करके हो म्हा बन सकता है तो भी विभक्ति विधि से मे साध्यावस्था मानी जाती अन्यथा - जिना - जिनेन जिनेसु आदि सिद्ध से २, १. ३२ जिया आदि हो सकता है। उसके लिये सूत्र व्यर्थ हो जायगा । तदन्तस्यास्ते राज्य हेसी । ३, ३, २६ । कौ० भूतार्थप्रत्ययान्तस्यास्तेरिमौ स्तः । असि सो ते तुमं तुम्हे अयं अम्हे वा । एवं-- अहेसि । वी० [तदेति । भूतार्थं प्रत्ययान्त अस् के स्थान में आसि तथा अहेसि ये दो आदेश सर्वपुरुष वचनों में होते हैं । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ ण्यन्त प्रक्रिया ॥ णेरचावचौ। ३, ३, ११ । एचावेचौ च भूते । ३, ३. १२ । कोणेरेताबादेशोस्तः। चित्वान्नित्यम् । कौ० भूतार्थे प्रत्यये विवक्षिते णेरती चादघवची दो गरिति । णि के स्थान में अ (च) आब ये दो चेत्येते चत्वार आदेशाः स्युः। हाससी हासेसी नित्य आदेश होते हैं। हसावसी हसावेसा । एवं हासही हासही इत्यादि । आर्षे- इत्था इंसु = हासिस्था हासिसु एवं-हासे अजेन्तुप्युपान्त्य स्यात् आः । ३, ३, १६ । हसाब-हसावे-हासे इत्येत्यादि । कौ० पयादेशेषु परेषुपास्यस्थातः स्थाने आ स्यात् । दो० एचति । भूताधक को विवक्षा में णि के स्थान में ए-- हासई हसावइ हासए हसावए । 'वावर्तमाने' आवे चाद-अ. -आमए चार आदेश नित्य होते हैं । (३, ३, २१) त्यादिना-एस्वे- हासेइ हसावेइ हस-णि -प्र० सू० अ—अाव-ए-आवे ३, ३, १६ आदि । विध्यादो-हास हसावज । भविष्यति- हसनहसे -हासहासे २५ इषादि-सी, हो, हीम= हासहिइ हसावहिइ । एत्वे-- हासेहिइ हसावे हिइ। हाससी Bासहीम हासही। एवं हासेसीत्यादि । आर्षे इत्याइत्वे-हासिहिद हसाचिहिद । क्रियातिपत्ती इंसु = हासिस्था हासिसु इत्यादि । द्वासेज्जा-हासेज्ज हस्वे-हासिज्जा-ज्ज हसा या प्रमेराडः । ३, ३, १३ । वेज्जा हसावेज्ज हसाविज्जा हसाविज्ज । माणन्तो को० भ्रमेः पास्य णराडो वा स्यात् । भमाडइ भमाडेइ -हासमाणो हासेमाणो हसावमाणो हसाधेमाणो हासेन्तो इत्यादि । मूते तु वक्ष्यते भामइ भामेह भमावइ ममावेइ इत्यादि । भूते । भमाउसी पक्षे–भमसी भामेसी भमावसी भमावेबी० अज्सुपोरिति । प्यादेश-अच् तथा लुप से पूर्व उपा सीत्यादि। ।इतिष्यन्त प्रक्रिया । न्त्य अ को आ होता है । हस्-णि =पू० सू० अ-आष वी० येति । भ्रमधातु से पर णि को आउ विकल्प से -हमप्र० सू० हास-हसाब-ति ३, ३, १३-ए होता है। भ्रम- णिप्रसू. वा-आउ-२, ३, ६५ =हासइ हसावह हासए हसाए । ३, ३, २१ अगवा न-म भमाउ पन में अ-आष-शेष प्रक्रिया हसवत् - ए=हासेइ हसाषेइ 'अतएव-सयेपो इस नियम से ए भमाडेइ इत्यादि। से पूर्व एत्व नहीं होता है । एवं हासेन्ति हसावेन्ति आदि। विध्यादि में हास-हसाव ३, ३, ३४ उ-तु भादि २१ [अथ भावक प्रक्रिया ] बा--ए-हासेज आदि । भविष्यकाल में ३, २, ५, ६, वाधक् कर्मभावयो लृष्यकाच । २, ४, ३३ । २७ हिह २० इ--ए-हासिहिद हासेहिइ हसाविहिल कौ० मावकर्मयोर्वर्तमानेभ्यश्चि जिहस्तु हसावेहिइ इत्यादि । क्रियातिपत्ति में ३, ३, ३६, ४०, धूपूलूभ्यः परोद्विरुक्तो वकारागमो वा स्यास्सत्यागमे २२, ज्जा-ज्ज माण त २२ एत्व २१, २६ ह्रस्व= यथासंभवं लुव्यकश्च । चीयते-चिवह । जिव्याह। हासेज्बा हासिज्जा इत्यादि। हुब्वइ । थुम्वाइ सुब्बाइ घुबइ पुरबह लुब्वइ । पले-- Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ | प्रकृत चिन्तामणि णकांचाँजह स्तू श्रुधूपू लुभ्यो हस्वश्च । ३, ४, ३२। विढप्पइ विठविज्जइ अज्जिज्जइ। आठप्पइ 'यकइज्जईऔ' ३, ४, ४८। इत्युभयं स्यात् । आढपी अइ आरम्भीअइ। चिणिज्जइ चिणीअई इत्यादि । विठयादी चिब्धउ वी० अज्येति । कर्मभाष में मर्ज को विप्प आरभ को चिणिज्जउ चिणीअउ । भने-चिश्वसी । लडियक: आइप्प विकल्प में होता है तथा यक-लुप् होता है। सत्यात्-चिणिज्जइ चिगीअइ । भविष्यति- अर्ज -य-- इ-विटापइ पक्षे ४, १, ४५, ३, ४, ४८ मर्ज-.- fATIVE ) चिन्दिाहइ। यकोऽसत्वात्-चिणिहिद इत्यादि। विढविज्जइ---बीमह । पक्षे २, ३, ६८, ७८ जं -ज्ज = दौ० वेति भावकर्म अर्थ में स्थित चिआदि धातुओं से पर अज्जिज्जा अज्जीअइ । आरभ-य-इ-आप्पा । द्विरुक्त व आगम होता है और आगम होने पर यक्का पक्षे-४, २, २७ आढविज्जइआरम्भिज्जई। अय॑तेलुप होता है। चि-यक्-इप्रसू. चिब्बइ। पक्ष में आरभ्यते इत्यर्थः । ३, ४, ३२ ण (क) ४८ यक-इज्ज-ई आ-१, १, स्पृशेशिछप्पः । ३, ४, ३७ । २७ ण-अ-लुप चिणिज्जइ चिणीथइ। एवं जिव्वा कौ० उक्तार्थे स्पृशेरिछप्पो वास्याद् लुव्यकश्च । जिणिज्बद आदि। २,३, ४२ स्तु धु ६८ श्रृ=शु= हिप्पद । पक्षे। लिविज्जइ फासह इत्यादि। १.४, ३६ सु१, २, ३६ धू=लू पू- ध्रु-पु-- लु: दो० स्पृशेरिति । कर्मभाष में स्पृश को छिप्प विकल्प से शेष कार्य चिवत् - धुब्बा सुम्वाइ धुवइ इत्यादि। होता है। तथा यक्-लुप् होता है। स्पृश-ए-= चेम्मक् । ३, ४, ३४। छिप्पइ । पक्षे ४, ३, १५ छिबिज्जा छिविज्जइ फसिज्जा को कर्मभावयोश्चेः परोम्मागमो बा स्यात फासिज्जह। सत्यागमे यथासंभवं लुव्यकश्च । चिम्मइ । पक्षे जो गज्ज णप्प णन्या । ३, ४, ३८ । चिन्वइ आदि । को उक्तार्थे ज्ञा धातोरेते वा स्यु लृव्यकश्च । णज्जइ दो० योरिति । भावकर्म में चि धातु से पर ग्म आगम णप्पइ णव्वड । पक्षे जाणिज्जइ मुणी अइ। होता है वक का लुप होता है । दि-यक्-इप्र.सू. बी० ज्ञ इति । कर्म भाव में ज्ञा को गोद विकल्प से चिम्मइ। होता है तथा या लुफ् । शा..--- गज्जइ पक्षे ४, ३, ग्रहव्याहुओर्धेप्यवाहियो । ३, ४,३५। ३८ जाणिज्जइ । कौ० उक्तार्थे क्रमादनयोरेता वा देशौ वा स्तो सिचि स्निहोः सिप्पथ् । ३, ४, ३६ । लुण्यकश्च । घेप्पा गेण्हज्जगण्हीअई। बाहिप्पइ कौ० उक्तार्थेऽनयोः सिप्पनस्यात लुव्यकश्च । सिप्पड़ वारिज्ज। सिप्पेह । सिच्यते । स्निह्यते वा । वी० कर्मभाव अर्थ में ग्रह को घेप्प व्याह को धाहिप्प बी. सिनीति । सिच-स्निह को सिप्प तथा यक-नुप आदेश विकल्प से होता है और यक का लुप होता है । उदाहरण-ग्रह-यक्-इ-घेला. पक्षे , ३, २४ का हाता है। सिब्स होता है। सिंच -स्निाह------सिप्पद ३, ३, २१ नहग्रह = गेष्ह ३, ४, ४= यक- इज्ज-ई= गेण्हिज्जइ एसिप्पेइ । गेण्हाइ । ब्याह - यक्- इ = वाहिप्पइ । पक्षे ४, १, १४ वचिदृशोर्युच्च दीसौ । ३, ३, ४० । च्याहु = कोक्क–पोक्क, यक-इज्ज ई-कोक्किाजद कौ० उक्तार्थेऽनयोः क्रमादेतौ स्तो लुव्यकश्च । कोक्कीअई। पक्षे-२, ३, ६७ ध्या-वा-वाद, ४, वृच्चइ (उच्यते) दोसइ (दृश्यते) २५ ह = हर - माहरिज्जइ बाइरीअइ। वो० वचीति । कर्मभाव में वच् को बुच्च दृश् को दीस, अारमोचितप्पाढप्पौ। ३, ४, ३६। तथा यक्–लुम् होता है । वच्–य==वुच्चइ । कौ० उक्ताउनयोः क्रमादेतो वास्तः । लुब्यकश्च । हर-य-इ-दीसह । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा द्वित्वं गमावेरन्यस्य । ३, ४, ४१ । कौ० उक्तार्थे गमादेरन्त्यस्य द्वित्वं वा लुव्यकश्च 1 गम्यते = गम्मइ गच्छिज्जइ गच्छीज्जइ । हस्सह हसिज्ज | बी० वेति । कर्मभाव में गमादि के अन्त्य को विकल्प से द्वित्व होता है तथा यक् — लुप् । गम्य - इगम्मद | पले ३, ४, ६, ४८ गछिज्जइ गच्छीअर एवं हस्सइ हसिज्ज भण्णइ भणिज्जर इत्यादि । कृ हु जु श्रामीरः । ३, ४, ४२ । कौ० एषामन्त्यस्यैरादेशो वा स्युदुक्तार्थं लुव्यकश्च । क्रियते । कोइ करिज्जइ । ह्रियते । हीरइ हरीमइ । जीते-जीरइ जरी अइ तीयंते-तीर, तरीबइ । बी० कृ हीति । कर्मभाव में कृ हृज़ वो अन्त्य कोई विकल्प से होता है । कृ-य-ड-कोर । पक्षे ३, ४, २५,४८- करिज्जद्द करीअइ । एवं हृीरह हरिज्जह इत्यादि । वहेः । ३, ४, ४३ । कौ० उक्तार्थे दद्देरस्य ज्ज्ञो वा स्याद्लुव्यकश्च । दह्यते डाइ डहिज्जइ डहीबइ । to दहेरिति । कर्मभाव में दह के अन्य को विकल्प से जन होता है। तथा यक्– लुप् । दह–५ - इ = प्र. सू. ह् ज्झ १.४, १९ दह हज्झइ । पक्षे ३, ४, ४५ बज्जि जहीम | अनुपसमोध: । ३, ४, ४४ । कौ० एभ्यः परस्य रुधौऽन्त्यस्य ज्झो वा स्या दुक्त लुध्यकश्च अनुरुध्यते - अणुरुज्झइ उवरुसंरुज्झई । पक्ष अणुरुन्धिज्जइ अणुरुभिज्ज इत्यादि । बी० अन्विति । अनु — उप-सम् से पर रूध के अन्दय को जस विकल्प से होता है। तथा यक्– लुप् । अनु = २, ६, ३२ अणु ४२ उप उ १, १, ४२ सम्–संरुध् प्र.सू. रुज्झ-- ६ = अनुरुज्म उवज्झइ संरुज्म । पक्षे ३, ४, ६, १०, ४८ अणुरुज्झइ रुन्धिज्ज सम्मिज्जइ एवं उब-सं---- रुज्झिन्धि–म्भि—ज्ज इत्यादि । प्राकृत चिन्तामणि | ५७ बन्घन्धः । २, ४, ४५ । कौ० उक्तबन्धोन्धो ज्झो वास्यादलुव्यकश्च । वज्झs | बन्धिज्जह बन्धी अइ ( बध्यते ) बी० बन्ध इति । कर्मभाव में बन्ध के अन्त्यन्ध को विकल्प से ज्स होता है । बन्ध-य – इ.सू. न्घज्झ ३, १, ४२ ब बैं= बझ पक्षे ३, ४, ४८ बन्धिज्ज बीइ । F दुहरु लिह वहम्मत उच्च । ३, ४, ४६ । कौ० एषामन्त्यस्य भो वा स्यादुक्तोऽर्थ लुव्यकश्चवोऽतउत्व च । दुह्यते = दुब्भद्द दुहिज्जइ । रुह्यते रु०भ सहिज्जइ । रुध्यते रुम्मड रुन्धिज्जइ । लिह्यते = लिभर लिहीभइ । उह्यते = वुम्भ वहिज्जड । - बी० दुहेति । दुहद के अन्त्य को भ विकल्प से होता है तथा यक्— लुप् कर्मभाव में दुइ – प ३ दुम्भइ इत्यादि । खननमः | ३, ४, ४७ कौ० उक्तऽर्थेऽनयोरन्त्यस्यस्य म्मो वा स्यादलुव्यकश्च । खन्यते = खम्मइ खणीमइ । हम्म ह हणिज्जइ । बी० खनेति । कर्मभाव में खन्- हन् के अन्त्य को म्म विकल्प से होता है । खम् = हन् - यइसम्म हम्म पक्ष २, १३२ न ३, ४, ४५ वणिज्जह हणिज्ज खणी हणीबह 1 शेषादिज्जची अचो ३, ४, ४८ कौ० कर्मभाव विधौ च्यादिरुक्तस्तदन्यः शेषस्तस्माच्च्यादिवर्जाद्धातोः परस्य य को नित्यमेतावादेशौ स्तः । कर्मणि ( पठ्यते) । पढिज्जइ पढोअह । पठ्यताम् - पढीअउ पढिज्जउ । अपठयत - पहिज्जसी पठीअसी । भविष्यति क्रियातिपत्तौ च यकोऽसत्वात्वरूपाणि स्युः । एवं भावे हस्यते हसिज्जइ हसीब इत्यादि । 1 बी० शेषादिति । कर्मभाव में व्यादि उक्त हो गया है अतः च्यादि से भिन्न धातुओ से पर यक को नित्य इज्ज तथा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५= | प्राकृत चिन्तामणि य ई अ ये दो आदेश होते हैं। पत्र (४२, १, १७) यइ - प्र. सु. य इज्ज ई नपढिज्जर पढी | पढिज्जन्ति पढी अन्तीत्यादि । लङ लकार में यह है अतः भूतकाल में पढ् य प्र. सू. इज्ज – ई अ३,३, २५ सी- हीम = पढीअसी पढिज्जसीत्यादि । भविष्यत् तथा क्रियातिपत्ति में एक नहीं होने से कर्तुं वत् रूप होता है । भावकर्मकरेषु च्लुपाविचो । ३, ३, १५ । कौ० एषु णेः स्थाने चितौ लुप्-आदि-इत्यादेशी स्तः । भावे । हास्यते = हासिज्जइ हसाविज्जद आसीआइ हसratre | कर्मणि । पाढिज्जई पदाविज्जइ पाढीअइ पढावीअइ । । इतिभावकर्म प्र. क्रि. दी० भावेति । भावकर्म तथा प्रत्यय पर में होने पर णे के स्थान में विलुप् तथा आणि ये दो आदेश होते हैं। हस् —— यक् - इ - - प्र. सू. णिलुप् १६ हस्== हास्यक् = इज्ज— ईअ हासिज्जड हासीअक । एव णि आवि . इज्ज - ईअ ( यक् ) १, १, २७ वि इलुप् हसाविज्जइ हसावीअइ । '= [ अथ धात्वावयवा देशागमा: ] गमयमा सिषां च्छः । ३, ४, ६ । to अन्त्यस्येत्यनुवर्त्य । एषमन्त्य स्वच्छः स्यात् । गच्छइ । जच्छइ । अच्छइ । भविष्यति । गच्छिइ । बी० गमेति । गमादि के अन्त्य को च्छ आदेश होता है । गम्यम्-आस्- इष्– प्र. सु. म्स्च्छ ३, ४, ३० नं -३ गच्छइ १, २, ३६ आझ अच्छ ४, २ बजेच्छाह इच्छछ । बी० पृथेति । एषादि के अन्त्य को ज्झ होता है । गि ( = ए १, ३, २६) कु ( = २. ३,६८) जु (= १.४, २८ यु) बु (= ब्रु २, १. ४२ ) प्र. सू. धज्ज् ४, ३० अ ( ) – ६ मि कुल इत्यादि । दी० नृतेति । नृतादि के अन्त्य को आदेश होता है । न ( १, ३, २७) व मद, व (२, ३, ६८ ) ज्—प्र. सू. च्च् – अ इनच्चइ मच्चाई वच्च । गृध क्रुध रुध बुध युध सिध मुहां झः । ३, ४, ६ कौ० एषामन्त्यस्यज्झः स्यात् । गिज्झइ कुज्जइ रुज्झइ बुझइ जुज्जइ सिज्झइ मुज्झइ | रुधोधम्मौवा । ३, ४, १० कौ० रुधोऽन्त्यस्येतौ वा स्तः । रुन्धइ रुम्भड । पक्ष रुज्झइ । रुणद्धीत्यर्थः । यौ० रुधइति । रुष के अन्त्य को न्ध तथा म्भ ये दो आदेश होते हैं । रुध् न्घ्-म्भ म ६ = इन्धन् रुम्भइ । पतसदोर्ड या । ३, ४, ११ । कौ० अनयोरन्त्यस्य डः स्यात् । पडछ । सीदति = सइइ । डी० पतेति । पत् –सद् के अन्त्य को उ होता है । पत्-अ- इ सद्-अइ प्र. सू. त्-द् ड् ढ सडर । भिदि च्छिदो व च् । ३, ४, १६ । कौ० अनयोरन्त्यस्यन्दच्स्यात् । भिन्दइ । भविष्यति । भेच्छा छच्छिद्र पक्ष भेच्छिह छच्छिहि । बी० भिदीति । मिद - विद के अन्त्य कोन्द होता है । भेच्छिद भिन्दछिन्द - अइ भिन्दर छिन्दइ । ३, ३, ३२ ३. । नमिरुबोयः । ३, ४, १७ । कौ० अनयोरन्त्यस्य वः स्यात् । रोदिति - रुवइ नृतमवजांच्चः १३, ४, ७ । की० एषामन्त्यस्यच्चः स्यात् । नच्चइ मच्चइ रोवइ । यच्चइ । दो० नमीति । नमरुद के अन्स्य को व होता है । नम अ इम् = व् अ - ६ नवइ । स्व {=द) २८ गुण = रोबइ, रुबइ । विजेरुदः । ३, ४, १८ । कौ० उदः परस्य विजेरन्त्यस्य वः स्यात् । उद्भिजति - उब्विवइ मुणीकम्म बन्धाओ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | ५९ बी० बिजेरिति । उद से पर विज के अन्य को व होता को अरीति । कृषादिकेको अरि आदेश होता है। है । उद-विज- =अ- २,३,६८, ७४ दि-टिव कृष्-अ- प्र० सू० -करि १.४, ३६ प स = = उविवाद । करिसह । एवं मन-मरिसइ बृष - बरिसह-हष् = सुजे रः । ३, ४, १६ । हरिसह इत्यादि 1 जिन घातुओं के को अरिष होता है कौ. सजेरन्त्यस्य रः स्यात। वोसिरामि कसाये। यहा कृपाद है। व्युत्सृजामि कषायान् । निसृजति–निसिरह। दीर्घ स्तुपादेरचः । ३, ४, २७ । चौ० सृजेरिति । सृञ् के अन्त्य को र होता है। वो कौ० तुषादीनामचो दीर्घत्वं स्यात् । तुष्यति = तुसइ। (= नगृत २२.४१! मज-अ -मि-नि-सृज्- दुषइ । एवं रुष शुषादीनाम् । येषां दीपों दृश्यते अ प्र०सू० - १, ३, २७ स-सि-निसि रह। तेऽत्र-तुषादयो बोध्याः । ३, ३,१७ -बायोसरामि । वी० दीर्घ इति । तपादि के अच् को दीर्घ होता है । तुषु वित्वंशकोदः । ३, ४, २१ । -दुष-सष्-शष-अ-३=प्र. सू० उ ऊ १, ४, को. शकादेरन्त्यस्य द्वित्वं स्यात् । शक्नोति सक्कइ। ३६ श = ष स = तुसइ आदि। जिम्मइ शक्-पारइ तरइ तीरइ चयइ ४, १। विडत्यापिटबोगुणः । ३, ३, २८ । बी० द्वित्वमिति । शकादि के अन्त्य को द्वित्व होता है। को धातोरिदतोगुणः स्यात् वित्यक्डिति च प्रत्यये शक्-अ---इ-१, ४, ३६ =स प्र० सू० वक परे। जयति जेइ । न्ति । नी–नेह नेन्ति । सक्कइ, ४, १, २८ द्र० । श्रुत्वा सोऊणा । ओर बछ । ३, ४, २४ । दी० विडतीति । धातु के इकार-उकार को गुण होता है कौ० धातोरम्त्ययोर्वणस्य स्थानेऽवच् स्यात् । मिडल या अविडत पर होने पर। जि-ह-सि, नोजुहोति - हवइ । च्यवतो । पवई। इ–न्ति-प्र० स० जि-जे, नी-ने-जेड, नेहाबी० ओरिति । धातु के अन्त्य उ--को भव बादेश स्वा=प्र० सू० श्र.= श्री २, ३, ६८, १, ४, ३६ थो होता है। हु-अ-इ-चु (= च्यु २,३,६७) अ- सो ३, ३, ४३ वा तूण-२,२,१ नू=ऊ १,१, इ= हवइ चा । २६ असंधि-सोऊण ४७ चन्द्र=सोऊणं । उररव । ३, ४, २५। अचामचः । ३, ३, २६ । कौ० धातोरन्त्यस्य कारस्य स्थानेऽरस्यात् । कृ- कौ० धातुष्वचामचो बहुलं स्युः। हवइ हिवइ । करइ । ह हरइ । चिणइ चुणइ इत्यादि। पी० उरिति । धातु के अन्त्य ऋ को अर होता है । के- दो० अचेति । धातु ओं में अच् को बहल प्रकार से अस् म= ६ प्र. सू० करइ। एवं ध. हृ--ज-तृ होता है । भू -अ-इप्र० सू० ह–हि = हिवइ इत्यादयः । पक्षे हवद । चि-३, ४, ३२ -३ = प्र० सू० चि= अरिच्कृषादे: । ३, ४, २६ । चूपमा वणइ चिणइ । एवं धाव घुवइ । रुद् = रोवइ क्वाइ कौ० अन्त्यस्येति निवृत्तम् । कृषादीनां ऋवर्णस्य आदि । स्थाने रितस्यात् । कर्षति-करिसइ । एवं मष हरु हलोऽगनी । ३, ४, ३० । वृष इत्यादीनाम् । येषां धातुनामरिज्दृश्यते तेऽत्र कौ० हलन्ताद्धातो: परोऽमागमः स्यादी अपरेतु न । कृषादयो बोध्याः। हसइ हसए । ई ओ तु-हसील । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्राकत चिन्तामणि शैल इन इनि । हलत धातु से पर अकार आगम होता सम्भवम् । चिणइ जिणइ हुणइ थुणइ सुणइ धुणइ है। हम-अ-ति =इ-ए-हसइ । हसए । हस्- पुणइ लुणइ। ।इति धास्वाक्यवा देशागमः । ३, ३, २४ ई-अहसी दी० णगिति । च्यादि से पर ण आगम होता है तथा धु णक चिजि हुस्तू श्रुणु पूलभ्यो ह्रस्वश्व पुल को हस्व होता है। चि. जि. ज-1-चिण कौ० एभ्यः परो णगागमः स्याद्धस्वश्चषां यथा- शेष चियत् । ॥ अथ धात्वादेशा: ॥ इदितां धातूनां वाऽदेशाः । ४, १, १।। गन्धे महमहः । ४, १, १८ । कौ० सत्रे ये धातव इदितो निर्देक्ष्यन्ते तेषामादेशा प्रसरेर्गन्धविषये महमहो वा स्यात् । कमल वा स्युः । तत्रैवादा-हरिष्यन्ते । गन्धो प्रसरति । महमहइ कमल गन्धो। बो० इदीति । सूत्र में जो घात इतित् कहेंगे उन घातओं के स्मरेः सुमर-भर-सूरपयर-भर-पम्हहआदेश विकरूप से होंगे। उन सूत्रों में ही उदाहरण भल लढ--विम्हाः । ४, १, २०। दिखायेंगे। स्मरेतेन वा देशा वा स्युः । सुमरह। स्मृहोहबहुवा भुवेः। ४, १, २॥ सुमर-अ-इ-पक्षे स्मृ=२, ३, ६७ स-सरभूधातोरेते त्रयो वा स्युः । होइ । हवइ । हुवइ । सुमरइ सरह। पक्षे-भव। विस्मु बिम्हर... वीसर-पहुसाः । ४, १, २१ । कृष्णः । ४,१,७। वि-स्मरेते त्रयो नित्यं स्युः । विस्मरविकरोतेः कुणो वा स्यात् । करोति, कुरुते वा विम्हरइ, बीसरइ, पम्हसइ (-वि-स्मृ-विम्हर कुणइ कुपए। पक्षे उररच् । ३, ४, २५ । करइ । __-वीस-पम्हुस अ-इ) करए। के पार शरतीर-चयाः। ४, १, २८ । कोक्क पोषको व्याहरेः । ४, १, १६ । अक्नोतेरेते चत्वार आदेशा वा स्युः। पारइ व्याहरे रिमो वा स्तः । व्याइरसि-कोक्कई तरइ तीरइ चयइ । सक्कइ ३, ४, २१ द्रः । पोषकइ । पक्षे वाहरइ (व्या=२, ३, ६७ वा- मुग्वेर्मेल्लावहे डोस्सिक्क छड्ड मिलुञ्छ धंसाररेह-हर-अ--इ)। अवाः। ४, १.२६ । प्रसरे हम्बेल पयल्लो । ४, १, १७ । मुञ्चतेरेते सप्तादेशा वा स्युः । मेल्लइ अवप्र–सरतेरेतो वा स्तः । उन्लेलइ पयल्लइ । हेडइ उस्सिक्कइ छड्डइ णिलुञ्छ। धंसाइइ पक्षे पसरइ ( प्र २, ३, ६८ प-स सर-अ- रेअवइ । मुच्-अ-इ २,२,१ च्-लुप् १, १, २२ अस मुअ1 १. सूत्र ४,१, २ से सूत्र ४,४, ३४ धात्वादेश समाप्ति तक दीपिका नहीं है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि । ६१ राजेश्छ ज्जाघरीर रेह सहाः । ४, १, ४२। घुसल विरोलो मन्थेः । ४, २, ४ । राजतेरेते पञ्चादेशा वा स्युः । छज्जइ अग्यइ ___मनातेरेतो वास्तः । घुसलइ विरोलइ मन्थइ । रीरह रेहः । पक्षे रायइ ( =राज्– अज ३,२ मथ्नातीत्यर्थः । १. ३ य-इ) छि दे तूर--णिल्लूर-णिवर--णिच्छल णिज्झोर–बुहावाः । ४, १, ५। विढयोः । ४,१, ४५ ॥ __छिदेरेते षडादेशा वा स्युः । लुरह णिल्लुरद्द अर्जते विढवादेशो वा स्यात् । विढव इ विवेइ णिवरइ णिच्छलेइ णिज्झोरइ दुहावइ छिन्दइ (३, ३, २१ वा- एत्व) पक्षे अज्ज् (र्ज, २, ३, ६८, (३. ४, १६) छिनत्ति 1 ७४) अ--इ)= अज्जइ अोइ । धि रुध्यो रोत्यको । ४, २, ६ । घूर्णी-घुम्म घुल-घोल-पहल्लाः । ४,१, ४६ । अनयोरेतौ कमा वास्तः । ऋष्यति-जूरइ । घुर्णधातोरेते चत्वार आदेशा नित्यं स्यः। कुज्झइ । रुणद्धि = उत्थुवइ, रुन्धइ (३, ४, ६, धुम्मइ घुलइ घोलइ पहल्लइ । खिवेजूर विसूरौ। ४, २, ११ । भुजो भुभाह कम्म चड्ड जिम जेम चमढ सामणाः विदेरेती वास्तः। रइ बिसूरह। पक्षे खिज्जइ ।४,१,५०। (३, ४,२१) 1 खेदं करोतीत्यर्थः । भजतेरेतेऽष्टादेशा नित्यं स्युः । भुज्जइ व्यापि समाप्योरो अग्गसमाणो। ४,२, १३ । अण्हइ कम्मइ चड्ढइ जिम्मइ (३, ४, २१ द्र०) अमइ चमडह समाणइ भूक्त इत्यर्थः । ___ अनयोः क्रमादेतो वास्तः । व्याप्नोति ओ अग्गह वावेई । समाप्नोति =समाणइ समावइ । उपेन कम्मवो वा । ४, १, ५१ । निःश्वसि संतप्योःमः । ४, २, १४ । उपपूर्वकस्थ भुजः स्थाने कम्मयो वा स्यात् । अनयोझंडा देशो वा स्यात् । झबह। कम्मइ । पक्षे उपभुजई। उप भुनक्तीत्यर्थः। निःश्वसिति संतपते बेत्यर्थः । युजो बुज्ज जुञ्ज जुप्पाः । ४, १, ५२ ॥ विलपे वडवरच । ४, २, १५ । युज धातोरेते त्रय आदेशा नित्य स्युः। शुज्वर वि-लपेरेती बडबड मसो वास्तः । सुबइ जुप्पद । युक्तो भवतीत्यर्थः। विलपति =बडबडइ मलइ विलवइ । उपालम्भे सङ्ख वेलव पच्चाराः । ४,३, १६ । तने स्तङ्-ता-तड्डव-विरल्लाः । ४, २, १।। उपालम्भेरेते त्रय आदेशा वा स्युः । मला तमोतरते चत्वार आदेशा वा स्युः। तनोति वेलवइ पच्चारह उवालम्मा । उपालभते । तनुते वा तडद तड्डइ, तडवइ, विरल्लइ। ढवरम्भौ रभेराङः । ४, २, २८ । तणह। आङः परस्म रभेरेती वास्तः आढवइ आरम्मइ विवति क्वथ्यो हँसाडौं । ४, २, ३ । आरभइ (आरम्भते) ____ अनयोः कमादेतो वास्तः । विवर्तते-हँसइ लुभेः सम्भायः । ४, २, २६ । विवट्टइ। अट्टह कठइ ३, ४, १२ स्वाथं करोती- लुभेः सम्भावो वा स्यात् । सम्भावई लुब्भइ त्यर्थः। (३, ४, २१) लुम्यतीत्यर्थः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्राकृत चिन्तामणि प्रदीपेरठभुतते अव सन्धु क्कसन्दुमाः । ४, २, ३०। नशेः सेहायसेहावहपडिसाणिवह गिर णासा: प्रदीप्यतेरेरे चत्वार आदेशा वा स्युः । प्रदीप्यते -अभुत्तइ ते अवइ संधुकइ सन्दुभइ । पलीवइ नश्यतेरेते षडादेशा वा स्थः। नश्यति-सेहइ (१, ४, २२ द्र.) अवसेहइ अवहरइ पडिसाइ णिवहइ पिरणासइ । वेपरयज्मायम्बौ । ४, २, ३२ । पक्षे नस्सइ (३, ४, २१) धेपतेरेती वास्तः । वेपते आयज्झइ आयम्बइ। भ्रशेश्चुक्क भुल्लफिट्टफुट्ट फिडफुडाः । ४, ३, ६ । वेबह । शेरेते षडादेशा वा स्युः । भ्रश्यति। चुक्कइ स्वलिस लेट कम्बसाः । ४, २, ३३ । भुल्लइ फिट्टइ फुट्टइ फिडइ फडह । पक्षे भंसइ । स्वपेरेते प्रय आदेशा वा स्युः । स्वपिति - काङक्षेराह–मह-सिंह---बच्च–बम्फ-विलुम्पा लिसइ लेइ कम्बसइ । पले सुखद (१. २. २८, २, हिलङ्खाहलङ्घाः । ४, ३, १३ । ३, ६८. २, ४२, ३, ४, ३०) कांक्षरेतेऽष्टादेशा वा स्युः । कांक्षति -- आहाइ गमेरई...यो—णोण-रम्भ-वोल-पद-णियह महइ सिहइ वच्चा वम्फइ विलुम्पइ अहिललइ —णीलुक्क-णिम्मइच्छावज्जसा क्कु सोक्कु साणु अहिलङ्गइ कसइ =(-का-अ-इ= १, २, ३६ बज्ज पचड़ा पच्छन्द-परिअल-परिअल्लाह का=क २, ३, ६ क्षख) रावसेहणिरिसाः। ४, २, ३५ । कृषरच कड्ढाणच्छाइञ्छायब्छ सायड्ढाः । गमेरेतेडईणीत्यादयः एकविंशतिरादेशा वा स्यः। गच्छति अई। णी, जीणह, रम्भ, करते षडादेशा वा स्यः। कर्षेति- अञ्चइ वोलइ, पदभइ, णिवह्इ, णीलुक्कड, हिम्मड्इ, कडई अणच्छइ अइञ्छइ आयञ्छड़ सायडइ । अइच्छा, अवज्जसइ, अश्कुसइ, उक्कस इ, अणु पक्षे करिसइ (३, ४, २६ द्र.) वज्जह, पच्चहइ, पच्छन्दइ, परिअलइ, परिअल्लइ, अवहरइ, अवसेहइ, णिरिणासइ । पक्षे---गच्छइ स्पृशपिछव-छिह-- फंस-फास-फरिसा लिहा (३, ४, ६ द्र.)। लुङखा । ४, ३, १६ । प्रविशिहसि संदिशीनां रिअ गुजा पाहा स्पृशतेरेते सप्तादेशा वा स्य: । स्पृशति = ।४, ३. १। छिचइ छिहइ फंसइ फासइ फरिसइ आलिहइ क्रमादेषामेते आदेशा वा स्यः। प्रविशति- आलुइ। रिअ । हसति--गुञ्जद ! संदिशति = अप्पाहई। दृशो निअ-देवस्थ-पेच्छ-पास-बज्ज-पुलम पक्षे पविसइ हसइ संदिसइ । पुलोअ सम्वव--निअच्छा वयच्छा वयमा मषियलि दलि म्रक्षीणां भुक्ककम्फविसट्ट–चोपडा: वरुक्खाबअक्खौ अबक्खा । ४, ३, १७ । ।४, ३, २। दृश धातोरेते पञ्चादेशा वा स्युः। पश्यति = एतेषां क्रमादेते वा स्युः । भुक्कइ वम्फइ निअइ देवक्खइ पेच्छइ पासइ पुलअइ । वज्जइ विसइ चप्पडइ । पक्षे भसइ बलइ दलइ । म्र- वयासाः पुलोअह सव्वइ निअच्छड अवयच्छइ भ-३२, ३, ६. ७५- - वस्त्र ६८ न- अवयजझाई अवक्खड़ अवयक्खइ ओअक्खइ, मक्ख। अवयास। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि । ६३ ग्रहो गेह-हर-पङ्गः--बल-निरुवाराहि चवइ जम्पइ संघड़ वोल्लइ साहइ सीसइ उप्पासइ पच्चुआः । ४, ३, २४ । पिसुणइ पज्जरइ वज्जरह । पक्षे कहा। ग्रहो गेण्हादयः षडादेशा वा स्यः । गृह्णाति । जुगुप्सेण दुगुच्छ दुगुज्छाः । ४, ४, ८ । गेण्हइ हरइ पङ्गइ बलइ निरुवारइ अहि पच्चुअइ। जुगुप्सतरते त्रय आदेशा वा स्युः । जुगुप्सते= उसे स्वस्ज-बोज्जाः । ४, ३, २५ । झुणइ दुगुच्छ दुगुञ्छ । अस्थते रेते वय आदेशा वा स्युः । अस्यति क्षये णिज्मरः । ४, ४, १२। क्षिक्षये इत्यस्य णिज्झर आदेशो वा स्यात् । डरइ बज्जइ बोज्जइ । पक्षे तसइ । क्षीयते =णिज्झरिज्जइ । णिज्झरीअई । पक्षे देहेरालुङ्खा हिऊलौ । ४, ३, २६ । झिज्जइ । २, ३, ६, क्षिमि -३, ४, ४८ इज्ज -.. दहेरेतो वास्तः । दहति =आलुवइ अहिऊलइ। ई-झिज्जइ । पक्षे उहइ (१, ४, १६ दड)। [अथ ण्यन्त घात्वादेशाः] मुहे गुम गुम्मडौ । ४, ३, २७ । ग्छवे ढक्क -- प्युम -जूम- सन्नुम–पन्वालो म्बालाः । ४, ४, १३ । मुह्यते रेती वास्तः । मुह्यति = गुमइ गुम्मडइ। ____ण्यन्तस्य छदेरेते षडादेशा वा स्युः। छादयति मुज्झइ । ३, ४, ६, द्र। ढक्कइ णुमइ नूमइ सन्नुभइ पव्वालइ ओम्वालइ । स्थष्ठा-थक्क मरप्पा: । ४,३,३६३ पक्षे-द--णि =३.३.११अ-आद=२१ वातिष्ठलेरेते चत्वार आदेशा स्युः । डाइ । ठाअइ ए १६६-छा २,२, १.३ द य ३, ३, १ ति== (३, ४, ३१) अ । यक्का चिट्ठइ-निरप्पद । विशेषः छायइ छायेइ । छायावइ ज्यावेइ ध्यादेशापवादः । प्रा. को..। एवमग्रेऽपि प्रक्रिया। जाणमुणौज । ४, ३, ३७ । अपार्चच्चुपालिपणामाः । ४, ४, १४ । जानातेरेतो स्तः । जानाति =जाणइ मुणइ । अर्पयतेरेते त्रय आदेशा वा स्युः। अर्पयति = ऋ=णि = अपि-चच्चुप-अ-इ-बच्चुपइ । एवं गंध्ययोर्गाशो। ४, ३, ३६ । आलिवइ पणामइ । २. ३, ६८.७४ ५ = प्प--३,३, अनयोः अमादेतो स्तः । गायति गाई । ११. २१. अप्पइ अप्पेइ अप्पावइ अप्पावेई । अनतोडचोवा । ३, ४, ३१ । इति वा अन् । गाइ। दृशर्वसवाव दक्लवाः । ४, ४, १७ । एवं ध्यायति-झाइ झाअई। ण्यन्तस्थ दृशेरेते त्रय आदेशा वा स्युः । दर्शयत्ति श्रद्धः सद्दहः । ४, ३, ४०। =दसइ दावई दक्खवह। पक्षे–३, ४, २६ हश्रद्धधातेः सदह आदेशः स्यात् । श्रद्दधाति = दरिदरिसइ दरिसेइ दरिसावइदरिसावेइ। सद्दहइ । श्रद्धानम् =सद्दहाणं । प्रस्थाप: पेगाव पट्टबौ। ४, ४, २३ : पिवेः पट्ट-अल-पिज्ज- घोट्टाः । ४, ४, १।। प्रस्थापयतेरेती वास्तः । प्रस्थापयति = पण्डवह पिवतेरेते चत्वार आदेशाः वा स्युः । पिबति = अहवइ । पक्षे पट्ठावइ पट्ठावेइ पट्ठवावेइ । पट्टइ डल्लइ पिज्जइ घोट्टा पक्षे पिअइ। विज्ञपेक्काबुक्को । ४, ४, ३२ । कतेश्चय-जम्प-संघ-वोल्ल-साह-सीसोप्पाल विज्ञपयतेरेता वा देशो वास्तः। विज्ञयति--पिसुण-पज्जर-बज्जराः । ४, ४, २३ बोक्का अधुक्कड़ । पक्षे ३,३,३६. ७४ जपण कथ धातोरेते दशा देशा वा स्युः । कथयति = विण्णवइ विण्णावइ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ | प्राकृत चिन्तामणि अन्यार्थेष्वपि धातुः । ४, ४, ३४ । इच्छायां खादनेऽपि । वम्फइ । इच्छति खादति वा । उक्तादर्थादग्येष्वप्यर्थेष धातवोवर्तन्ते । संख्याने कश्चिदुपसगों: सह योगे केचिद्धातवो नित्यमन्यार्थे । पठितः कलिः संज्ञानेऽप्यस्ति । कलइ, जानाति अणुहर-सदृशी भवति । विहरइ क्रीडति । संख्यान करोति वा। वलिः प्राणने खादनेऽपि। आहरइ । खादति । परिहरइ त्यजति इत्यादि । क्लइ । प्राणिति खादति वा । काङ क्षेत्रम्फ आदेश: ॥ इति धात्यादेशाः ॥ ॥ अथ कृवन्त प्रक्रिया ॥ क्त कोऽतुणतु आणाः । ३, ३, ४३ ।। ३. ३, २० ... -=गेण्हिअ । बाकी = घेत्तु घेत्तूण १. १. कौ० क्त वा प्रत्ययस्यैते चत्वार आदेशा स्यः। ४७ घेत्तूर्ण घेत्तुआण–णं । ग्रह-त्-तस्य (= व्य भविस्यत्तव्यक्त्वा तुम्येच्च । ३, ३, २० । २, ३, ६७, ७४) ३, १, २६ स्वा० घेनन्छ । चादित्वम् । हसितव्यं - हसिअव्वं हसेमब्द । हसि- भुजमुचरुदवचामचाऽन्त्यस्यात् । ३, ४, २। त्वा हसिम हसेअ । हसिउं हसेउं । हसिऊण-णं कौ० तुमादी भुजादोनां चतुर्णामचा सहाम्त्यस्यहसेऊण–णं। हसिउआण–णं हसेउ आणणं । ओत्स्यात् । भोक्त-भोत्त'। मोक्त'-मोत्त । हसितु = हसिउं हसेउ । वन्दित्तु इति चन्द्रलुप् । रोदित =रोत्तु । वक्त वोत्तु । भुक्त्वा- भोत्तु दन्धित्ता इति सिद्धावस्थामपेक्ष्य । भोत्तण भोत्तुआण । मुक्त्वा-मोत्तु तूण, तुआण । दोरवोऽत्त मिति । यत्वा के स्थान में अ-तु-तूण- रुदित्वा= रोत्तु रोत्तूण रोत्तुआग। वच्- उक्त्वा तुआण ये चार आदेश होते हैं। हस्--त्वा-प्र० ० स्वोत्तु वोत्तुण वोत्तूआण । भोक्तव्यं = भोत्तव्च । अ-तु-तूण-तुआण-३, ४, ३० अ (क)-३, ३, भोक्तव्यं =मोत्तव्यं । रोदितव्यं - रोत्तन्वं । वक्तव्यं २०४--ए २, २,१ -प १,१, २२, २६ असंधि -वोत्तव्वं ।। ४७ वा- =णं-हसिन आदि.."णं । हस्-अ- बी. भुजेति । तुमादि से पूर्व भुजादि के अच सहित अन्य तब्य-सु-२, ३, ६८. ७४ व्य= ३,१,२६- को ओत होता है। भुज--मुन्-रद-व-तु क्त्वा शेष पूर्ववत् -हसिषय हसेअन्वं । हस्-ब-तु-हसि- -तव्य =प्र. सू. अज्–उच्-उद्-अच् = ओत् = सेई । मोत्-मोद--रोत-वो-शेष पूर्ववत् भोत्तु' भोत्तुण तुम्क्त्वातव्ये ग्रहो घेत् । ३, ४, १ । भोसव इत्यादि । कौतुमादौ परे ग्रहो घेत्स्यात् । ग्रहीतु'-- घेतु। ध्रुवो वा । ३, ४, ३ । गृहीत्वा घेत्तु घेत्तूण–ण घेत्तुआण-णं । क्व- कौ० तुमादौ श्रुवोऽचाऽन्त्यस्य-आद्वास्यात् । चिन्न । गहिन । ग्रहीतव्यं = घेत्तन्छ । श्रोतु =सोत्तु सोउं। श्रुत्वा-सोत्तूण सोऊण । दोन तुमिति । तुम्-क्त्वा-तव्य से पूर्व यह को घेत सोत्तुआण सोजाण । श्रोतव्यं = सोत्तव्वं सोअव्वं । आदेश होता है। ग्रह-- तुभु = १, १, ४२ चन्द्र, ग्रह = दी श्रुब इति । तुमादौ परे श्र के अन्न् सहित अन्त्य को के । ग्रह-त्वा = अ में बाहुलकाद घेत नहीं । किन्तु ओत् आदेश विकल्प से होता है। श्रृ-तु-प्र. सू. थु४, ३, २४ ग्रह-गोण्ड-३, ४, ३० अ-अ ( वा) रु-बा--ओ १,४, ३६ शोत् =सोत-तु-सोत्त Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | ६५ सोतूण-सोत्तुआण सोत्तम् । पक्षे ओदभावे ३, ४, २८ स्युः । हसन्ती हसई हसेमाणी णा-सहसमाणीगुण २, ३, ६८ र—लुप्-गोसो २, २, १, त- णा हसेन्तो-न्ता हसन्ती-न्ता वेपमाना--देवई लुप् १, १, २६ असंधि- सोई सोकण सोउआण वेवमाणां वेवमाणा वेवन्ती देवन्ता । सोअव्वं । बी० स्त्रियामिति । स्त्रीलिंग में शतृ शानच् को ई-माण तत्तेन दृशोऽट्ठम् । ३, ४, ३ । -नये तीन आदेश होते हैं। हम अ-शत् =प्र. सू.ई माण-स-हसई। १, १, २२ अपदे असधि ॥ को तत्तेन- तुमादेस्तकारेण दृशोऽत्रासहान्त्यस्य = ३, १, ३४ वा-डीप् पक्षे टाप् =१.१, २७ अ-लुप् ऋशोऽठ्ठच् स्यात् । चित्वान्नित्यम् 1 द्रष्टुंदट्छ । ३, १, १२ सु---लुप् -हसेमाणा हसमाणा आदि। हष्ट्वा -दळं दळूण द?आण। द्रष्टव्यं दट्ठव्यं । 'आच्कूत्रोऽतीतानागतयोश्च-५ । केचित् । ३, ३, १६ । चात्तुमादी 1 कतु - काउं। कृत्वा-काउं काउण- कौ० क्त प्रत्यये परेऽत इन्स्यात् । हसित हसि। काऊण कर्तव्यं = कायन्वं । णिचि । "मावकमक्त षु च्लुपाविचौ" अचेज्लु प्युपान्त्य स्यात आः। ३, ३, १५. १६ । हासित= दो० तत्तेनेति । तुम्--वत्वादेश-तप तकार सहित दशा हासि हसाविअं। पाठितं-पाढिबपढावि। के अच् सहित अन्त्य-ऋश् को अट्ठच आदेश नित्य नामितं-नाविनाविअं। होता है । दृश् -तु =तु-सूण-तुआण-तथ्वं (= व्य) प्र. सू. ऋश्त् = अट्ठदल आदि । कृ के अन्त्य गी० क्त चिदिति । क्त से पूर्व अ को इ नित्य होता है। ऋ को बा होता है। -सुप् ३ त-अनय हस्-अ (३, ४, ३०) तु पढ (= २, १, १७) - कायध्य । शेष में १,१, २६ असंधिका काऊण का नव (-म ३, ४,१७) त-प्र.सू. = २,२, १. उआण ४७णणं-काऊणं काउआणं । १, १,२६ लुप्-- असंघि ३,१,२६ स्वा -हसिज पढिरं नविसं । णिच् मे-हस्--पठ (8)-नव शतशानचोः । ३, ४, ४१ । (म्)--णिच् ==३, ३,१५ णिच् = लुप् १६४ कौ० प्रत्येकमनयोर्माण-न्तावादेशौ स्तः । शतृ- =हा, प-पा-न-हा १६ - - -अ= = हसन्- 'वावर्तमान-विध्यादिशतषु' (३, ३, २१) शेष पूर्ववत् = नासिकं पाढिा हादिकं । १५ णि = इति वा-एत्वे हसेमाणो हसेन्तो। एत्वाभाव- अवि-हस-अ-आदि-अं (-) साविम एवं इसातोसमाणो । शत..इति किस शामित पढ-आधि---पढाविस । यहाँ कालुप्-तथा त में पूर्व अ के अभाब से आ–इ नहीं होते हैं। -वेपमानः वेवमाणो बेवन्तो। बो० शत्रिति । धातु से पर शतृ तथा शानच् प्रत्येक के दीर्वादरविः । ३, ३. १४ । स्थान में माण तथा स्त आदेश होते हैं। हस-अ-शत कौ० दीर्घा देय॑न्तस्य णेः स्थानेऽवि वा स्यात् । तुप् प्र. सू. माण-स्त-सु-३, ३,२१ अम्वाए ३, १, १४ स्वा० इसेमाणो, न्तो आदि । शत कहने से मानच् -~-तोसेवि तोसि । शुष--सोसविरं सोसि। में ए नहीं वेप-अ--शानच २,१, ४२ प= = दी. दीर्घति । जिसका आदि औषं है उस ज्यन्त के णि वेवमाणी-तो। की बिकल्प से अवि आदेश होता है । तुष् = शुश् = ३, ४, २६ तोष्-- शोए --णि-वा---अवि- ( सं)१,४, स्त्रियामीच । ३,४, ४२॥ ३६ =स्-तोरवि सोवि। पक्ष-३,३, कौ० स्त्रियां शतृ शानचोः स्थाने-ई-मण-ता: ११णि = अ---१६ इ=तोसि सोसिमं । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ | प्राकृत चिन्तामणि आकान्तावोनामाफुणावयः । ४, ४, ३५। विद्वत्तं । प्रलपितम् = ओमिसं। उद्विग्नः- उच्चुलो। को० क्तान्तान्ता क्रमादि धातनां स्थानेऽत्फणादयो मुण्डितः- उभत्तो इत्यादि । प्रा. की. द्र.। वा निपात्यन्ते । आक्रान्तः = अप्फुणो। बोल्लिणो। पानी दी० आर्केति । तान्त—आ–क्रमादि धातुओं के स्थान में अपफुण आदि शब्द का निपातन होता है। ३,१,१४. उत्कृष्टम् = उक्किट्ठ। मास्वादितम् -चक्खिों । २६ आदि सूत्रों से स्वादिकार्य आदि स्वयं समझ लें। स्थापितं =निमि। रुग्णः= तुक्को । अजितं- विशेष रूप में प्राकृत कौमुदी में देखें। ॥ इति प्राकृत भाषा समाप्ता ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ शौरसेनी भाषा प्रारभ्यते ॥ शौरसेन्यामनादावसंयुक्त स्यतोदः १५, १, १ कौ० शौरसेन्यामनादी स्थितस्यासंयुक्तस्य तकारस्यदः स्यात् । एतस्मात् एवाहि । ततो विहिता समितिर्यतिना = तदो विहिदा समिदी जदिणा । अनादौ किम् । तदो । असंयुक्तस्येति किम् । शकुन्तः - सन्तो । बी० शोरेति । शौरसेनी भाषा में अनादि - अयुक्त त को द होता है । एता (= १, १, २) हि = ( ङसि --- ३, १,१६,८) प्र० सू० तादा एहाहि । ३, १, १४८ औ तदो । २६ सु – लुप् १, १, १४ दीर्घ= समिदी । १, ४, २८ य ज ३१२५ टाणा = जदिणा । अनादरे क्यों? तदो में आदि को नहीं हुआ । शकुन्तःसु १, ४, ३६ श स २.२, १, १,२६ कु३, ३, १, १४ सु = ओड् = सन्तो यहाँ सयुक्त त को द नहीं होता है । क्वाप्यधः । ५, १,२ । कौ० शौरसेभ्यां क्वापि संयुक्त ऽधः स्थितस्य तस्य द निश्चिन्तो = महान्तो महन्दी । स्यात् । निन्दि P दी० क्वेति । शौरसेनी में संयुक्त में अधः स्थित त को द होता है । महान्तः निश्चिन्त्र – सुप्र० सू० तः न्द १, २, ३६ – सु = ओ – टिलोप २, ३, ६७.७४ शिव = कि महन्दो निखिन्दी इत्यादि । वातावत्याः । ५, १,३ । कौ० शौरसेभ्यां तावत्मा देस्तो दो वा स्यात् । तावत् - दाव न सुहं जाव अप्पाणम्मि न रमइ तावन्न सुखं यावदात्मनि न रमते । पक्षे ---ताब । दो० वेति । शौरसेनी में तावत में आदि त को द विकल्प से होता है। तावत् – १, १, २८ अन्त्य - लुप् - प्र० सू० तवा –६ दाव, नाव । घस्थस्य ५, १, ४ । to शौरसेन्यां यस्य धो वा स्यात् । नाथः = = णाघो नाहो । का कहूं । अनादेरेव - स्थूणा - धृणा । दी० धस्येति । शौरसेनी में अनावि च को घ विकल्प से होता है । कथम् — नाम सुरू प्र० सू० धध-पक्ष २, १, ७ १, १, ४२मुन्द्र ३,१.१४ सुओ - टिलोप १,४२३ नवा कहं कथं । णाघो हो। हस्येहहपोः । ५, १,५ । कौ० शौरसेन्यामिह - हपो हृस्य घो वा स्यात् । इछ ह। हो होह । । दो० हस्येति । शौरसेनी में इह के तथा विहिप के ह को विकल्प से होता है = ३१, ७८ इह ५० सू० इन भू–६३, ३, ४ थह = प्र० सू० वा भू = हो = होध होह 1 २, ३, ४ से इदम् — ङि पक्षं इह | ४१ भुवो भः । ५,१,६ । कौ० शौरसेन्यां भ्रूघातो हंस्य भो वा स्यात् । भवति होदि - भोदि । - डी० भुवो इति । शौरसेनी में भू को आदेश के हको म विकल्प से होता है। भू =४, १, २, हो = प्र० सू० भो = २१ तिदि भोदि पक्ष होदि । र्यस्य य्यः । ५ १,७ । Wx कौ० शौरसेन्यां यस्य य्यो वा स्यात् । कार्य: अय्यो । सूर्य = सुय्यो । पक्षे अज्जो सुनो। - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ [प्राकृत चिन्तामणि बी० येति । शौरमेनी में ये को य्य विकल्प से होता है। प्र० स० नआ पक्ष में १,१,२८ नलुप् २, १, ३२ आर्य-सूर्य-सु-१, २, ३६ लस्व-आ- स-सु न=ण ४२ प न २, ३, ६८, ७४ स्वि-स्सि १, १, -प्र० सूर्य-वा-व्य पक्षे ३, ३, २१. ७४ जज ३, २२ अपदे असंधि-३, १,१२ सुलुप् भो तवास्सिा । १, १४ सु-ओड्-टिलोप अय्यो अज्जो सुय्यो पक्षे भो मणरिस । सुज्जो। पूर्वेरावग्घ्रस्वश्च । ५, १, ११ । सोमववावेतोर्म ५, १,८ को शौरसेन्या पूर्वे रेफात्परोऽगाम मो बा स्यात् कौ० शौरसेन्या भवदादे नो नित्यं म: स्यात्सो । एदु ह्रस्वश्च । अपूर्व भवनाटकम् = अपुरव भवनाडयं । एदु भवं (एत्वे तु भवान्) समणे भगवं वीरे कल्लाणं पक्षे अपुव्यं । संदिसेउ मे (श्रमणो भगवान वीरः कल्याणं संदिशतु बी० पूर्व इति । शौरसेनी में रेफ से पर अ--आगम होता मे)। एवं कृतवान् = कयवं। मघवान् =महवं । है तथा ऊ को ह्रस्व होता है । अपूर्व-सु-प्र० सू० आकृतिगणवाद संपाइ अव इत्यादि। पूर्व–पुरव पक्षे १, २, ३६ पू- ह्रस्व २, ३, ६, ७४ वं-व्च ३,१, २७ स्वा० =अपुरवं अपुव्वं । बी० साविति । शौरसेनी में भवत् भगवन् आदि शब्दों से सिख भवान भगवान आदि के मोन को म होता है। गन्न्यान्मादिवताः । ५.१, १२ । भवान् भगवान् मघवान् कृतवान् में प्र० सू० आन-म- को. शौरसेन्यामिदेतोः प्रागन्त्याच्मात्परो णग्बा १. १, ४२ 'चन्द्र २, १,७ ५-६ १, ३, २७ कुक स्यात् । युक्तमिदं जुत्तणिणं जुतमिणं ! एवमेतद् २, २,१,३त-य-भव भगवं महवं कय इत्यादि। -एवंणेदं एवमेद। आकृतिगण होने से संपादितबान् -आननम् चन्द्र २,२,१ वी गिति। शौरसेनी में इतथा ए से पूर्व अन्त्य म से वित-१ अ १,१, २६ असंधि-संपाह अवं इत्यादि पर आगम होता है। युक्तम्--हदम्-अम्-प्र० मू० शब्द की सिद्धि होती है। — -इ० ३,१,७८ इवम्-अम् -इणं १, ४, २८ सम्बुद्धी वा । ५. १, ६ । यु-जु २, ३, ६७, ७४ क्त -युत्तम्-१, १, ४२ कौ० एकवचनं संबुद्धिः। शौरसेन्यां संबद्धौ सौ नो म चन्द्र = जुसणिण । पझे-जुत्तमिणं । एवं एवं मो वा स्यात् । भो राजन - भो राय । भो राय। (एतद्-सु ५, १, १, तन्६ १, १, २८ द-सुप् री० एफबचन को संबुद्धि संज्ञा होती है। संवधि स से पूर्व ३, १, २७ स्वा०) प्र. सू० ए० म्-"-एक-एवं न को म विकल्प से होता है। राजम् -प्र. स.न-य ( म्) अंद। पक्ष एवमदं । मन्द्र पणे १,१.२८ लुप् २, २,१,३ ज-म-रामं तस्मातस्ताच । ५, १,१३। राय । कौ० शौरसेन्यो तस्मादित्यस्य ताच्स्यात् । चित्वाआदिनः । ५, १, १०। न्नित्यम् । जदौतुभं भवोसिता तुयं सियावाय को शौरसेन्यामिन्तो न आदा स्यात् संबुद्धी सौ। रहस्सं सुण। यतस्त्व मध्योऽसितस्मात्वं स्याद्वा करेसु सददं–धम्म भोमणस्सि तवस्सि आ। दरहस्यं शृणु। पारंभव समुदस्स गच्छित्या जेण निच्चिअंकाय- बी० तस्मेति । शौरसेनी में तस्मात को ता आदेश नित्य सततं धर्म मोमनस्विन् तपस्विन् । पारभवसमुद्रस्य होता है । तस्मात् =ता। गच्छथ येन निश्चितम् । अतोङसेदुद्दोदो। ५,१, १४ । ० आदीति । शौरसेनी में संबुद्धि से पर इन को न कौ० शौरसेन्यामतः परस्यडन्सेदुद्-दोदो स्तः। आविकल्प से होता है । मनस्विन्-सु-तपस्विन - सु- दिव्वात्पूर्व दीर्घ । जिन्नात् =जिणदु जिणादो। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | ६९ दो० अत इति । शौरसेनी में अत् से पर इसि को दु-दो तुमं य्येव मनं जिणधम्म देसु (त्वमेव माब जिनहोते हैं । जिन-सि-प्र० सू० खुद-बोद् १, १, १४ धर्म देहि) पारदीर्घ २,१,३२ ना=णा-जिणादु जिणादो। दो एवेति । पौरसेनी में एव–अर्थ में य्येव तथा एस्त्र ये दो निपात प्रयुक्त होते हैं। अथाब्यय प्रकरणम् ] णं नवर्थ वाक्याललारे । ५, १, १६ । दाणिमिदानीमः। ५, १,१५। को शौरसेन्यां नन्वर्थे वाक्यालङ्कारे च णं को० शारिसेन्यामिदानीमावाण स्यात् । दाण प्रयुज्यते । नाव। णं भगवं को मुसिमग्गो (ननु पडिक्कमणकालो (इदानी प्रतिक्रमणकाल:) । भगवन् ! को मुक्तिमार्गः)। वाक्यालंकारे । नमोऽत्थु वी. दाणिति । शौरसेनी में इदानीम् को दाणि होता है। णं। उदाहरण स्पष्ट है। बी० मिति । शौरसेनी में नन्वर्थ तथा वाक्यानकार में गं हम्महे । ५, १,१६। प्रयुक्त होता है। को० शौरसेन्यां हर्षे – अम्महे प्रयुज्यते। अम्महे खेट्याह्वाने हज्जे । ५, १, २० । भगवं मुणी समागयो (भगवान् मुनिः समागतो को शौरसेन्यां चेट्या आह्वाने हज्जे प्रयुज्यते । हुष्टोऽस्मि । हज्जे चदुरिमे (अपि चतुरिके)। बी० हर्षइति । शौरसेनी में हर्ष अर्थ में अम्महे निपात वी० चेट्येति । शौरसेनी में बेटी के आह्वान में हज्ये प्रयुक्त होता है। प्रयोग होता है। ही ही बदूषके । ५, १, १७ । निर्वेद विस्मये होमाणहे । ५, १, २१ । को शौरसेन्यां विदूषकस्य हर्षे ही ही इति निपातः को० शौरसेन्यामनयोरर्थयोहीमाणहे प्रयुज्यते । प्रयुज्यते। ही ही भोः सम्पाना मणोरघा पिय हीमाणहे दाणि विन डिज्नइ विसयासती। (हा वयस्सस्स । (हन्त | भोः सम्पन्ना मनोरथाः प्रिय हा) इन्से दानीमपि-न मुच्यते विषयासक्तिः) । वयस्यस्य । विस्मये। हीमाण हे जीवन्तवच्छा मे जणणी। t० हीति । शौरसेनी में विदूषक के हर्ष में ही हो निपात (अहो जीवद्वत्सा मे जननी)। प्रयुक्त होता है। बी० निर्वदेति । शौरसमी में निवेदित तथा विस्मय अर्ष एवार्थे ग्यवेवो। ५, १, १८ । में हीमाण प्रयोग होता है। कौ० शौरसेश्यामेवार्थे प्येव एवेत्येतो प्रयुज्यते । । इति अव्यय प्रकरणम् । ॥ अथाख्यात प्रकरणम् ॥ इपेपोदिः । ५, १, २२ । श्री. इपेपोरिति । शौरसनी में ३,३,१ सूत्र से विहित तिङादेश इग-एप को दि आदेश होता है। कौ० शौरसेन्यां तिलादेश यो रिपेयोः स्थाने दि: असो दे च । ५, १, २३ । स्यात् । भवति= भोदि होदि। भवर्वाद हवदि। कौ० शौरसेन्यामतः परयोरिपेपो चाद दि चेत्येतो १,१, ६, प्रक्रिया द्र.। स्तः । रमते-रमदिरमदे। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० | प्राकृत चिन्तामणि वी. अत इति । शौरसेनी में अ से पर इम्-एप को दे कृगमो डुअ उदुऔ । ५, १, २६ । एवं वाद-दि ये दोनों होते हैं । रम्-अ (३, ४, ३०) को शौरसेन्यामाभ्यां क्वः स्थाने प्रत्येकमेती वा प्तिक-३, ३, १, इप्–एप् प्र० स० दि-देरमदे स्तः । कृत्वाकडुअ कदुअ । करिय करिद्रण । रमदि। गत्वा=गच्छिम गच्छिद्ण । एष्यति हेः हिसः । ५, १, २४ । को० शौरसेम्या भविष्यदर्थस्य हेः स्सिः स्यात् । वो. कृगेति । शौरसेनी में कृ—ाम से पर क्त्वा के स्थान भविष्यति होहिइ होस्सिदि । में बम सदुम प्रत्येक आदेश होता है। -स्वा।अय तिङन्त प्रक्रिया। प्र० सू० त्वाअडम- प्रदुअ-टिलोप = कडुअ कटुअ । गम् -३, ४, ६, ३० गच्छ-स्वा-अडुअ अदुअ अदुब दी० एष्यति । शौरसेनी में भविष्यदर्थ में ३, ३, २७ से =गडुम गदुध । पक्षे पू० सूत्वा - इय-दूण-३, ४, विहित हि को स्सि होता है। भू-हो-ह, प्र० सू० २५ कर-करिय करि (३, ४, ३, अ-३,३, २० इ) स्सि-इ-दि-होस्सिदि । एवं वाहिद ठास्सिदि दूण एवं गच्छिप गपिछद्रण । इत्यादि । [अयकृदन्त प्रक्रिया | सिद्धमनुक्त'प्राकृतवत् । ५, १, २७ । इयदूणोक्त्वो था । ५, १, २५ । कौ० शौरसेन्यामनुक्त कार्य प्राकृतवत् स्यात् । सिद्ध को शौरसेन्यां क्वा प्रत्ययस्य स्थामे एतौ वास्तः। भूत्वा भविय हविय । भोदूण | पक्षे भोत्ता शब्दो-मङ्गलार्थः । तित्ययरो किवा आदि । होता। बी० सिति । शौरसेनी में अनुक्त कार्य प्राकृतवत् होता वी० इयेति । शौरसेनी में क्त्वा को श्य- दूण ये दो आदेश है। पथा-कृपा-१,२,२६कृ-कि २,१,४२ पाहोते हैं। भू-हो-हवभव ६ वा–भो-त्वा-दूण वा-किवा । तीर्थकर-सु-१,२,३६ ती=ति २, ३, =भोद्रण, होगुण भविय हविय । पजे-रखा २, ३,६८, ६८.७५ र्थ-स्थ२,२,१,३क-य३,१,१४ सु७४ ता । भोसा होता। ओड-तिस्थयरो आदि । । इति शौरसेनी भाषा समाप्ता। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || अथ मागधी भाषा प्रारभ्यते ॥ व्रजो ओजः । ५, २, ४ । कौ० मागध्यां व्रजते जस्यञ्ञः स्यात् । यादेशापवादः । व्रजति - वञ्ञदि वस्त्र । = [ आदेश विधिः ] मामध्यामनादेः क्षः कः । ५,२,१ । कौ० मागध्यामनादेः क्षस्य कः स्यात् । शुक्लपक्षः = सुक्कप के । भिक्षति = भिकदिभि - कदे । आदेस्तु क्षयः खयो । I बी० मागध्येति । मागधी में अनादि क्ष को क= जिह्वामूलीय होता है । सुमल (शुक्ल १, ४,३६,२, ३, ६८, ७४) पक्ष - सुप्र० सू० क्षक ११ के ३, १, १२ सुलुप् सुक्लप के भिक्षु क्-अ- इ ५. १,२२ दिदे मि दिभि कदे । आदि क्ष को २, ३, ९ अय = वय - ३, १, १४ ओखयो । प्राङ, म्यामोक्षचक्षोः कः । ५, २,२ । कौ० मागयां प्राङभ्यां क्रमादीक्षचक्षोर्धात्वोः क्षस्य स्कः स्यात् । कापवादः । प्रेक्षते - पेस्कदि । आचष्टे = आचस्कदे 1 = = बी० प्राङिति । मागधी में प्र-ई-आ-चक्ष में क्ष को कापवाद एक होता है। प्रे २, ३, ६० पेक्ष्स्कु३, ४, ३० अ-ते = १ ई ए ५, १, २२.२३ षि — दे पेस्कदि पेस्कदे । श्राचक्ष-अ-दि-दे-क्ष स्क अवस्कदि, दे छः श्च: । ५, २, ३ । कौ० मागध्या मस्के: छस्यश्चः स्यात् । गच्छ गच्छ नन्तु मुनीन् = गश्च गश्चनविय सुणिणो । आदेस्तु छागे = छाले । श्री० [छति । मागधी में अनादि छ को श्च होता है । छाग – सु = २, ९, १० ग ल ५, २, ११ ले ३, १, १२ सुलुप् छाले में आदि को नहीं । = ज्ञञ्ञण्यन्याम् । ५, २, ५ । कौ० मागध्यामेषां नः स्यात् । अवज्ञा = अवत्रा ! अञ्जलिः अञ्जली । पुण्यं पुत्रं । कन्या= कजा । बी० ज्ञेति । मागधी ज ज ण्य न्य को छत्र होता है। उदाहरण स्पष्ट है । जघो ग्यौ । ५, २, ६ । कौ० मागध्यां जकार द्यकारयोः क्रमाद--- थ्यौ स्तः । जतोयणे। यदि जइ यइ । विद्या = दिव्या । बी० जेति । मागधी में ज को य तथा थ को य्य होता य ११ नने २, १,३२ [ । जन - सु = प्र० सू० णे ३, १, १२ सुलुप्यणो । यदि १, ४, २८ य= ज - प्र० सू० य २, २, १ दिइ १, १,२६ असंधि - यह । विद्या प्र० सू० द्यय्य = विथ्या 1 सोशल । ५, २, ७ कौ० मागध्यां क्रमात् सरो शली स्तः । सुरेशः - सुलेशे । बी० सराविति । मागधी में स को सर को ल होता है। सुरेश – सु = १, ४, ३६ श स सुप्र० सू० श - सु रे ले ५, २, ११ सुलुप् सुले शुले । स्फोषसोरग्नीष्मे सः । ५२, २८ । कौ० मागच्या संयुक्त स्थितयोः सषोः सः स्यात्ततु ग्रीष्मे । ऊर्ध्वं - लुबाधपवादः । उष्मा उस्मा | Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ! प्राकृत चिन्तामणि हस्तो - हस्ते । ग्रीष्मे तु गिम्हे । असंयुक्त तु षष्ठः छुटे । बी० स्काविति । मागधी में संयुक्त में स- - कोस होता है ग्रीष्म शब्द में नहीं । कवं लुप् आदि का अपवाद है। २, ३, ६७ से प्राप्त ष्मा ब - लुप् तथा ४२ तथ करे बाधकर प्र० सू० सस्वा उस्मा हस्ते । षष्ठ सु—मे प्र० सू० असंयुक्त ष को स नहीं किन्तु १, ४, ३५ छ५, २, ६ ष्ठस्ट ११ स्टे ३. १, १२ सु-लुप् – छटे | ष्ठयोः स्वः । ५, २, ६ कौ० मागध्यामनयोः स्टः स्यात् । सुष्ठ शुद्ध । षष्ठः - छस्टे । भट्टारकः भस्टालये । बी० ष्ठेति भागधी में ष्ठट्ट को स्ट होता है । सुष्ठु - प्र० सू० स्टु ७ सुशु शुस्टु । छस्टे द्र० । भट्टारक - सुप्र० सू० हा स्व==१२, २, १.३ क ५, २, ११ सुप् भट्टालये । → स्तः स्थर्ययोः । ५, २, १० । कौ॰ मागध्यां स्वर्थेयोः स्तः स्यात् । कवलुवाचवादः । उपस्थितिः । पदार्थ सार्थ पवस्तशस्ते । बी० स्त इति । भागधी में स्थथं को स्त होता है । उपस्थिति, पदार्थसार्थं सुप्र० सू० १, २, ३६ ह्रस्व २, १, ४२ उप उब ३, १ २६ सुलुप् दीर्घ ५ १, ती श्री उवस्ति दी। पदस्त शस्त सु ७ सस्तशस्त १, १, शस्ते ३१, १२ सुलुप् पदस्त शस्ते । --- पुस्तएसी । ५, २, ११ । कौ० मागध्यामत एत्वं स्यात्सो पुंसि । श्रमणो भगवान् महावीर :- समणे भगवं महावीरे । अतः किम् । मुणी । दी० पुसीति । मागधी में अ को ए होता है पुल्लिंग में । श्रमण - सुप्र० सू० रे ५ १ ८ आन्= मच्= १, १, ४ चन्द्र २१, १२ सुलुप् २, ३, ६६ श्रश = १, ४, ३६ स समणे भगवं महावीरे मुणी ३, १, २६ द्र० । asaर्णान्डसो 'बाह । ५, २, १२ । काँ० मागध्याम वर्णात्परस्य इसे: स्थाने वा डाहः स्यात् । डित्याट्टिलोपः । एलिशाह कम्माह कलणे नय्येव समस्ते हगे । ईदृत्य कर्म्मण करणे नैव समयोऽहम् । पक्षे एलिशस्स कमलस्स । हिडिम्बाह । हिडिम्बायाः । पक्षे हिडिम्बाए । बी० वेति । मागधी में अवर्ण से पर इस को हि आह विकल्प से होता है। ईदृशस्फर्म – इस् = प्र० सू० डाह - टिलोप १, ३, ८. ४३ ई = एरि १, ४, २६ सा५, २. ७ रिसा लिसा = एलिशाह ४, ३, ६५, ७४ मम्मा कम्माह पक्षे २, १,२ उस्सद् १, १, १५ एस एलिशस्स कम्मस्स । हिडिम्बा -- उस् प्र० सू० डाह – टिलोप हिडिम्वाह । पक्षे २, १, ३२ ए - हिडिम्बाए । ५१, १८ न-एव = नय्ये २,७३१, १५ डि-एड् टिलोप गे कलणे ५. २, १०, ११ थं स्त - सुलुप् (३,१, १२) समस्ते ५ २ २४ महंहगे । = - स आमोडाहं । ५, २, १३ । कौ० मागध्यामवर्णादोमो डा वा स्यात् । जिनानां जिणाहं । पक्षे जिगाणं । बी० आम इति । मागधी में अवर्ण से पर आम को डा विकल्प से होता है । ङित्वाद्विलोप होता है । जिम्-- आम् → प्र० सू० डाई - टिलोप २ १ ३२ नाणा जिणा । जिणाणं ३, १, १४ द्र० । अहंमोहंच् । ५, २, १४ ३ मागध्यामनयोर्ह स्यात् । चित्वान्नित्यम् । हगे मुणि वन्दामि वन्दिमो वा । अहं वयं वा बन्दे बदामहे वा । बी० अहमिति । मागधी में अहं वयं को नित्य हंगे आदेश होता है | स्पष्टम् । तिष्ठस्य विष्ठः । ५, २, १५ कौ० मागध्यां तिष्ठस्य स्थाने चिष्ठः आदेश: स्यात् । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तार्माण | ७३ अनुक्त शौरसेनीवत् । ५, २, १६ । है । यथा उक्त वाक्य में ५, २, ५ सन्न्न १० ८-स्त कौ० मागध्यामनुक्त कार्य शौरसेनीवत्स्यात् । तदो =११ स्ते १२ हित-उस् = हिदाह इत्यादि कार्य मागधो पूरिद पदिज्जेण मारुदिणामन्तिदो पदस्त शस्ते तया ५, १, १ से स को शौरसेनीवर होता है। एवं ५. शामि हिदाह । ततः परित प्रतिज्ञेन मारुतिना- १, २ से २७ तक कार्य स्वयं छह करें। विशेष प्राकृत मन्त्रितः पदार्थसार्थः स्वामिहिताय । कौमुदी में देखें। बी० अन्विति । मागधी में अनुक्त कार्य शौरसेनीवत् होता । इति मागधी भाषा समाप्ता । । अथ पैशाचीभाषा। पैशाम्घाटोस्तु । ५, २, १७ । लो लस्य । ५.२.२१ । कौ० पैशाच्या टोः स्थाने तुः स्यात् । कुटुम्बकं कौ० पैशाच्या लस्य ल: स्यात् । जलं - जल । कुटुम्बकं । सः शषोः । ५, २, २२।। बी० पैशेति । पैशाची भाषा में टु को तु होता है। कौ० पैशाच्यां शषोः सः स्यात् । शोभनं सोभनं । गोनच् । ५, २, १८। विषाणं =विसानं । न कोलेस्यादे (५, २, ३७) को पेशाच्यां णस्य नित्यं नः स्यात् । गुण गण:- बधिकभिदम् । गुनगनो। पी० स इति । पशाची में श-ष को स होता है । बी० णी इति । पैशाची में ण को नित्य न होता है । गुण शोभन--विषाण में प्राप्त १,४, ३६ ग--4=स २, १, गण-सुप्र० सू० गन ३, १, १४ सुअर - ७भ-ह ३२ नग का बाधक ५, २, ३७ को बाधकर टिलोप गुनगनो। प्र० सू० श---स ३,१, २७ स्वा० का सोभनं विसा तस्तदोः। ५,२, १६ । ५, २, १८ में। कौ० पैशाच्या तकार दकारयोः दः स्यात् । गुनबती जक्य-न्याञ राजे बिन च । ५, २, २३ । भगवती । सदनं सतनं। तस्य त--विधानमन्या- कौ० पशाच्यामेषां नः स्यात् । राज्ञ तु चित् चाद देशबाधकम् । तेन पतक्रेत्यादी न डत्वादि । -त्रः । सव्वञ्चो । पुओ। घो। राजापी० तइति । पैशाची में त---द को त होता है। त को सचित्रा रज्जा। त विधान से पताकेत्यादि में त को अस्व नहीं होता है। वो शति । पैशाची में ग-य-न्य को न होता है पो यस्य हृवये । ५, २, २० । तथा राजशब्द में ज्ञको चित्र तथा न दोनों होते हैं। सर्वश-पुण्य--धन्य-सु-प्र० स० ज्ञ-य-य-य कौ० पैशाच्यां हृदये प: स्यात् । हृदयमन्दिरेवसति ३, १, १४, २७ स्वा० २, ३, ६८. ७४ -ध विवेकः-हितपमन्तिरेयसदि विवेको।। सब्बनो पुज धज्ञो । राजा ज्ञ-चित्र - - चौ० पद्दति । पैशाची में हृदय में य को प होता है। राचिना १, २, ३६ रा-र-रना। हृदयः-प्र० सू० य-प द न्द =त ५, १, २२ ति = =दि-३, १, १४ = हि (हु१, ३, २६) तप क्वचित्स्नष्टया सि-सद-रियाः। ५, २, २४ । मन्दिरे वसदि-विवेको । कौ० पैशाच्यामेषां क्रमादेते स्युः । स्नानं =सिनानं । या । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ | प्राकृत चिन्तामणि कष्टं कस । कार्यं = कारियं । क्वचित्युक्त हस्नुषा = सुण्हा | दृष्टः = तिट्ठो । सूर्यः सुज्जो । वी० नवविदिति । पैशाची में स्नष्ट-यं को — क्रम से सिन-सह-रिय मादेम होते हैं। उदाहरण स्पष्ट है । स्नुषा २, ३, ६८ स्नु सु २१, सुहा । हृष्ट – सु सूर्य - सु४ २ ३६ २, ३, २८.७५ ष्ट ज्जे ३, १, १४ स्वा० सिट्ठी सुनो। ५.३ षाण्हा२९ ट्टति १, २, ट २, १, ७५ र्य 13 अतोङसेस्तुत्तो । ५ २, २५ । कौ० पैशाच्यामदन्तान्ङसे रेतौ स्तः । दित्वात्याग्दीधः | जिनात् जातु जित | ० अत इति । पंशाची में अत् से पर ङसि को तुद तो ये दो आदेश होते हैं। जिन १, १, १४ न=ना २ १ जिणातो 1 असि प्र० सू० हु तो ३२ नाणा - जिणासु टान्तेवंतनेंन । ५,२, २६ । कौ० पैशाच्यां टान्तयोरिदंतदो स्थाने नेन आदेश स्यात् । नेन मुणीवन्दियो । अनेन तेन वा मुनिन्दितः । बी० टेति । पैशाची में अनेन को नेन आदेश होता है। इदम्---टा-सद्-टा प्र०सु० नेन । स्त्रियांनाए । ५२, २७ । कौ० पैशाच्यां स्त्रियां दान्तेदन्तदोर्नाए स्यात् । नाए वन्दी अइ मुणी । तयाऽनया वा वन्द्यते मुनिः । वी० स्त्रीति । पेशाची में स्त्रीलिंग में टान्त- इदं -को नाए होता है । तथा अनया =नाए । तद् याशा स्तिः । ५, २,२८ । कौ० पैशाच्यां यादृशादी ह-- इत्यस्य तिः स्यात् । जातिसो नातिसो । येषु दुस्तिर्दृश्यते ते यादृशादयस्तेन दृष्टः - ति = ट्ठो इत्यादि । of | पैशाची में यादृश तादृश आदि में दृको ति होता है। या १, ४, २८ जादु प्र० सू० सि श ५, २, २२ स ३, १, १४ स्वा० जातिसो नातिसो । जिन शब्दों में दृको ति दीखता है ये यादृशादि हैं। अतः दृष्ट = तिट्ठों इत्यादि होता है । ५, २. १६ द्र० । इपेपोः । ५, २, २६ कौ० पैशाच्यामिपेपोस्तिः स्यात् । ( तिष्ठति ) होति (भवति) | बो० इपेपोरिति । पैशानी में इप्– ए स्था ४, ३, ३७ ठा ४ १ २ भू – म ३, ४, ३०, ३, ३, १ ति–इ, इप्= एप् प्र० सू० ति = ठांति होति भोति भवति भूषति । अतस्सेच १५, २, ३० ॥ कौ० पैशाच्यामतः परयोरिपेपोस्ते चात् ति - इतीमौस्त । रमति रमते । अत इत्येव ठाति । बी० अत इति । पेशाची में अत् से पर प्– एप् को ते - ति ये दो आदेश होते हैं। रम् ३, ४, ३० अ-ति = १, ३, १,३५६प्– एप्प्र० सू० ति - ते रमति रमते । अनवस्तु ठाति होति प्र० सू० ६० । एष्यति केवलमेय्य । ५, २, ३१ । को त होता है। हो हव् अ - हुव् इव - हुष — ति-वति हुवति ५, १, ५ कौ० पैशाच्यां भविष्यति इपेपोः स्थाने एय्य एव नतु स्सिदि । कथं जानं लभेय्या । कथं ज्ञानलप्स्यते । I बी० एष्यति । भविष्यत्काल में एभ्य होता है। आदिस्सि नहीं । ==प्र० सू० एष = १, १, २७ म भ - ह ५, २, ३७ निषेध - लभेय्य । इप्– एप्प को केवल लभ - अप्– एप् लुप् २, १, ७ प्राप्त तूनः क्त्वः । ५, २, ३२ । कौ० पैशाच्यां क्त्वः स्थाने तुनः स्यात् । हसितुन ( हसित्वा) गन्तून (गत्वा) । १. शिव्या ३, २, ६१ प्र० । २. हे० ८, ४, ३१३ ६० । बी० तून इति पैशाची में क्त्या को तुन आदेश होता है। इस्म त्वा प्र० सू० तून २, ३, २० अ-हसितून बाहुलका इत्वाभाव गन्तुन । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | ७५ ठूनस्थूननाः । ५, २, ३३ । हुवेय्य। अथेहशस्य जनस्य भगवान्धर्म एव शरणं कौ० पैशाच्यां ष्ट्रा-इत्येस्यते स्युः। पृष्ट्वा- भविष्यति इत्यादि। अत्र शौरसेनीवत् यस्य धः । पठन पत्यून पद्धन । तूनापवादाः ।। एवस्य य्येवः । भगवान् = भगवं । बी० ठूनेति । पैशांची में ट्वा को ये तीन आदेश होते वी० अन्विति । पैशाची में अनुक्तकार्य शौरसेनीघर होता है। प्रच्छ स्व-पृष्ट्वा प्र० सू० ष्वा -ठून- है। अथ =५, १,४५=छ । भगवान् = भगवं । १८ त्थून- १,२, २७ पु-पळून ३। एक-य्येव २७ प्राकृतवत् म...२,३,६८. ७५ म्म ३.१, इय्यः यक । ५, २, ३४ ॥ १४ आदि स्वादिकार्य। ईद-उस् = १, ३, ईए कौ० पैशाच्यां यकः स्थाने इय्य स्यात् । रमिथ्यति ४, ३६ श=स ३, १.६ १. १. १५ डस् = स्स ४, १, रमिय्यते मुनिनामानम्मि । रम्यते मुनिना शाने। २४ = हुन् ३, १, १, ति = इप् = ५, २, ३१ एय्येव . बी० यक इति । पैशाची मैं भावकर्म में यक् को इय्य होता एदुस २८ -नि मागधीवत् कार्य ऊह करें। है। रम-यम्-प्र० सू० इय्य २६, ३० इप्-एप्- न कोलकत्यादि विभाषाऽतिमुक्त ऽन्तसूत्रोक्तम् तिते-रमिथ्यति-से। ।५, २, ३७। कृमोडीरः । ५, २, ३५। को पैशाच्यां कीलकपरे खेः ११, ४, १३) कौ० पंशाच्यां कृत्रः परस्य य को डीर आदेशः त्याचारभ्य 'विभाषातिमुक्त' (२, २, ५) इत्यन्तः स्यादित्वाहिलोप: । इय्यापवादः । क्रियते - प्राकृत सूत्रविहितानि कार्याणि न भवन्ति । तथाहि कीरते। -कोलंकील । केन्दुको । मकरकेतू मदन = मतनं बी० कृब इति । पैशाची में कूधातु से यफ् को डीर होता इत्यादौ क-ख-लबाविकार्य न भवति । है चित्वादिलोप होता है । इय्य का बाधक है। कु-य-वीति । पशाची में १,४,१३ से २,२, ५ पर्यत ते-कीरते। सूत्र विहित कार्य नहीं होता है। कोलंक-ख १४, अनुक्त शौरसेनीवत् । ५, २, ३६ । १५ कन्दुक =म २,२, १ क-तुप् २, १, ७ नकौ० पैशाच्यामनुक्त कार्य शौरसेनीवत् स्यात् । आदि का प्र० सू० निषेध होता है। अध एतिसस्स जनस्स भगवं धम्मो य्येव सरणं । इति पैशाची भाषा समाप्ता । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अथ चूलिका पैशाची प्रारभ्यते । चूलिका पैशाच्या तृतीय चतुर्थयो किखी := १५, २, ३८ । कौ० चूलिका पंशाच्यां तृतीय चतुर्थयोः प्रथम द्वितीयोस्त: । नगरं - नकरं । मेघः = मेखो। राजा = राचा । तडागः = तटाको बी० धूलीति । चूलिका पैशाची में वर्ग के तृतीय चतुर्थ को क्रम से प्रथम - द्वितीय होता है । उदाहरण स्पष्ट है । ar पवादि युज्योः । ५, २, ३६ । कौ० धूलिका पेशाच्या पदादी युजि धातौ च तृतीय चतुर्थयोः प्रथम- द्वितीय वास्तः । कती गती । धर्मः खम्भो धम्मो । जीमूतो चीमूतो । छच्छरो झच्छरो । टमरुको डमरुको। तामोतरो दामोतरो । धुली घूलो । पत्थवो बन्धवो पासको बालको । फकवती भगवती । नियोचितं नियोजितं । बी० वेति । चूलिका पेशाची में पदादि तथा युजवात् में तृतीय चतुर्थ को क्रम से प्रथम द्वितीय विकल्प से होता है । गति - धूली -- भगवती- सुप्र० सू० वाक-'धूश्व-भक पू० सू० ३ १ २६ सु दलुप् दीवं कती गती । १२ सुलुप् यूली— धूली । फकवती ॥ जीमूत- (५, २, ३ २, ३, ६८. ७६) र डमरुक—दामोदर बा १, २, ३६ बन्धव---बालक- सुप्र० सू० वाजीची, झ = छ– $=ट-दाता-बापा १२, १, १४ सु-ओ- टिलोप =तामोत (द. १, २, ३८ ) 1 रो चीमूतो आदि पक्षे जीमूतो आदि। नियाजित - सुप्र० सू० जिवा-चि-३, १, २७ स्वा० नियोषितं नियोजितं । रोलः । ५,२, ४० ॥ कौ० धूलिका पेशाच्यां रेफस्य लो वा स्यात् । सुललाचो वि विनवलं वन्दति सुरराजोऽपि जिनवरं वन्दते । वी० रोलः । चूलिका पंशाची में रेफ को ल विकल्प से होता है। सुरराज - सु, जिनवर - सुप्र० सू० र = ल ---पु, २, ३८, ३६ जिवाच - सुललाचो आदि पक्षे सुररानो आदि । अनुक्त पंशाचीवत् । ५, २, ४१ । to चूलिका पेशाच्यां कार्यं पैशाची वत्स्यात् । नकरं अत्र होणः २ १ ३२ इति णत्वं न । मागंण: = मक्कनो अत्र तु णस्य नत्वं भवति । एवमन्यदपि कार्यं स्वयमूहनीयम् । । इति चूलिका पेशाची समाप्ता । वी० अन्विति । चूलिका पैशाची में अनुक्त कार्य पैशाचीवत् होता है । यथा-नगर-मगंण-सु- ५, २, ३८ ग= क१, २, ३१ मा २, ३, ६८.७५ केक स्वा० नगरं मक्कणो यहाँ ५ २, १८ पैशाचीवत् णन = redो । ३७ निषेध से नगरं २ १ ३२ न=ण नहीं होता है। । इति चूलिका पैशाची भाषा समाप्ता । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथापनश प्रकरणम् ।। अचामचःप्रायोऽपभ्रशे । ५, ३,१। वी० समिति । अपनशे संबोधन में नाम से पर जस के कौ० अपभ्रशेऽचां स्थानेऽचः स्युः प्रायः। कच्चित् स्थान में हो होता है। *कच्चु कच्चा । तण-तण तिण इत्यादि हि भिस्सुपः । ५, ३, ५ । आसमाप्ते रयमधिकारः। अतोऽस्य सूत्रस्य सर्वत्र कौ० अपभ्र' भिस्सुपोहिं स्यात् । 'सुपिदीर्घ ह्रस्वा' वित्यस्य च सुबन्ते प्रयोगानुसार वी० हिमिति । अपभ्रश में नाम से पर भिस्-सुप् के प्रवर्तनादपध्र'शे प्राय: सर्वे प्रयोगा अव्यवस्थिता स्थान में हिं होता है। एव भवन्ति। अतः स्वमोफत् । ५, ३, ६ । वी० अनामिति । अचों के स्थान में प्रायः अच् होता है। कौ० अपभ्रशे स्वमोरुत् उत्वं स्यात् । जिणु । जिनो कच्चित्-१, १, २८ तलुप-प्र० स० क-का- जिनं वेत्यर्थः । धि-च्च =काच्च, बुकच्चु । तृण-सु-तृत दी० अत इति । अपन'स में सु तथा अम् से पूर्व अ को उ ति ५, ३, ६ =णु ३, सु लुप् = सणु तिणु । होता है। जिन-सुबम् =प्र. सू० ननु ३ सु= समाप्ति तक इस सूत्र का अधिकार है । अतः सर्वत्र इस अम् लुप् २, १, ३२ नु=णु=जिण। सूत्र तथा सुबन्त में उत्तर सूत्र की प्रयोगानुसार प्रवृत्ति वा पुस्योत्सौ । ५, ३, ७ । होने से अपभ्रश में सभी प्रयोग प्रापः अव्यवस्थित ही मयत औद्रा स्यात । जिणो । अपसि होता है। तु जलु फलु । जश्शसो:-जिणो। जिना जिनान्दा। सुपिवीर्घ हल्यौ । ५, ३,२। हे जिणो हे जिणु हे जिणहो । को अपनी सुपि परे नाम्नोऽचः प्रायोदीर्घ दी वेति । अपभ्रश में पूर्व अ को 3 विकल्प से होता है। जिण-सुप्र० म०णगो ३ सुलुप्ह्रस्वोस्तः। जिणो। सि कपन से नपुंसक में नहीं होता है-जल वी० सुपीति । अपनन में नाम के अच् को प्राय: दीर्घ फल-सुजलु फलु । जिण-जस्-शस् २ सू० ग पल तथा ह्रस्व होता है। णा ३ जस्-शस्-लुप्-जिणा। हे जिणा-मु= स्वम्नश्शङसामा लुप् । ५, ३, ३। पूर्ववत् =जिणो जिणु। हे जिण-~-जस=होहे जिणहो । को० अपभ्रंशेविभक्तोनामासां लुप्स्यात्।। टायामेन्टश्चणचन्द्रौ। ५, ३, । दी. स्वमिति | अपभ्रंश में सु-अम्-जस् --शस् को अपभ्रंशे टायामत एत्स्याट्ट यास्तु णानुस्वारी। जिनेन-जिणण जिणे। स्--आम् को सुप होता है। वी० अपभ्रश में टा से पूर्व अको ए तथा टा को ण और सम्बोधने जसो होः । ५, ३, ४।। चन्द्र ये दो आदेश होते है। जिण-टा=प्र० सू० प= को अपभ्रंशे सेबोधने नाम्मःपरस्य जसो हो स्यात। णे-टाण-जिणेण । चन्द्र =जिणे । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ | प्राकृत चिन्तामणि भिसि वा । ५, ३.६ । गणधर-मुनिवर--सुर-नर-देव-आदि के रूप कौ० अपभ्रशे भिसि परेऽत एद्वा स्यातत् । जिणेहि। जिनवत होते हैं। पक्षे जिहि । इकुयाटाया एंणचन्द्राः । ५, ३, १५॥ बी० भिसिति । अपभ्रंश में भिस् से पूर्व अ को ए विकल्प कौल अपनशे इदुदन्ताभ्यां परस्याष्टाया इमे स्युः । से होता है। जिण-भिस्=प्र. सू० ण वा-णं भिस् । -गुरुए -हि=जिणेहिं एवाभावे---जिणहि। गुरुण गुरु । भिसि–मुणिहिं गुरुहिं–५, २, ५। सेपिपरा है।५३, १.६ बी० इदिति । अपनस में इदन्त तथा उदन्त से परटा को कौ० अपघ्न शेऽतः परस्य सेः स्थाने चिती हे-हू ए---चन्द्र ये तीन आदेश होते हैं। मुणि-टास्तः । चित्वान्नित्यम् । जिनात् --जिणेहे विणडु। मुणिएं ३ । गुरु-टा- गुरुएँ ३ । दी० सेरिति । अपभ्रश के सि को नित्य हे तथा हु आदेश होते हैं। जिण-इसि=हे-ह-जिणहे जिणही जासड़योहही । ५,२,१६। हुभ्यसः । ५, ३, ११ । कौ० अपन' इदुभ्यां परयोरनयोः क्रमादितो कौ० अपभ्रशेऽतः परस्य पञ्चमोभ्यसो है स्यात् । स्तः । मुनेः मुणिहे । गुरोः- मुरुहे । जिनेभ्यः =जिणहु । 4. इसीति । अपभ्रश में इद्-उत् से पर इसि को हे जी० हू' इति । अपभ्रंश में अत् से पर पंचमी-म्यस् को डि को होता है। मुणि-इसि-मुणिहे। गुरु सिगुरुहे । है होता है । जिण-भ्यस् प्र. सू. है-जिगहुँ । सु-स्सु-हवो उसः । ५, ३, १२।। भ्यसो हु। ५, २, १७। को० अपभ्रशेऽतः परस्य सः स्थाने 'सु-स्सु-हो' को० अपभ्रशे इदुभ्यां परस्य भ्यसो हु स्यात् । इतो मे स्युः । जिनस्य=जिणसु जिणस्सु जिणहो। मुणिभ्यः- मुणिहु) गुरुभ्यः-गुरुहुँ। मुनेःबी० स्विति । अपभ्रश में अव से परस के स्थान में स मुणस्स । गुराःगुरुस्स। -~-स्सु-हो ये तीन आदेश होते हैं। जिण-इस- बी० [येति । अपभ्रश में इत्-उत् से पर भ्यस् को जिगसु---स्सु-हो। होता है। मुणि-म्पस् = मुणि8 1 गुरुभ्यस् =गुरुह । हमामः। ५,३,१३ मुणि-गुरु-दुस् = ३, १, ३-१, १, १५ मुणिस्स गुवस्स । की० अपभ्रंशेऽतः परस्य-आमो हं स्यात् । जिनानाम्-जिगह। हं चामः । ५, २, १८ । वी० ह इति । अपनश में अत् से पर आम को है होता को अपभ्रशे इदुझ्यामामो हं हु चेत्येतो स्तः । हैं। जिण---आम-प्र. सू.ह =जिणहं । मुनीनां = मुणिहं मुणिहु । गुरुणा=गुरुहं गुरुहु। इदेतो छिना। ५, ३, १४ । दी हद्दति । अपभ्रश में इव-उत्से पर माम् को को० अपभ्रंशेऽतो डिना सहेदेतो स्तः। जिने- है है ये दो आदेश होते हैं। मुणि - आम-हं-हुजिणि जिणे । सुपि-जिहिं । एवं गणधर मुनिवर मुणिह-मुणिहं । गुरु = माम् = गुरुहं गुरुहु । सुरनरादयः । _ [अप स्त्रीलिंग शब्दाः] बी० इदेताविति । अपभ्रश में डि सहित अ को इ-ए ये को० स्वमोलुप यया। सुपि दीर्घ ह्रस्वोदय। एवं दो आदेश होते हैं । जिग-लि = प्र. सू. जिणिजिणे । बुद्धि-बुद्धी । लक्ष्मी-२, ३, १८.७६ लच्छी, लच्छि। जिण-सु (प)=५, ३, ५ भिस् -हि =जिहि । एवं जश्शसो:--- Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तार्माण | ७९ जश्शसो बोस्त्रियाम् । ५, ३, १६ । वी० कसिति । अपग्रंश में नपुंसक से पर अस्–शस् कोई कौ० वचनभेदान्न यथासंख्यम् । अपभ्रशे स्त्रियां होता है । शान = २, ३, ३६. २, १, ३२ णाण जस् = जश्शसोः प्रत्येक मुदोती स्तः । दयस दग्रमो दयार शम्दयाओ। एवं बुद्धिउ बुद्धिओ। दीघे-बुद्धीउ अतः स्वमोद स्वाथिके । ५, ३, २५ । बुद्धीओ । एवं लश्चछीज, ओ लछिल, लच्छिो को अपनशे स्वाधिक प्रत्ययान्ते क्लीवेतः परयोः बी० जशिति । अपभ्रंश में स्त्रीलिंग नाम से पर जश्- स्वमोः स्थाने उं स्यात। लपपवादः । जलकशम को उ तथा ए दोनों बादेश होते हैं । दया-ज- जल। फल। शस् -५, ३, ३ लुप् को बाधक प्र. सू. उ.--ओ- दयाउ, बी० अत इति । अपभ्रंश में स्वार्थिक प्रत्ययान्त नपुसक ओ।५, ३, २ लस्व- दयज-ओ। एवं बुद्धि-लच्छी । माम में स्थित अत् से पर सु-अम् को उं होता है। लूप टाया ए। ५,३, २०। का अपवाद है। जलक—सु बम् =प्र. सू. २,२, १ को० अपघ्रशे स्त्रियां टाया ए स्यात । दयए दिए क्लु प् १, १, १६ असंधि - जलजं । मेष सभी रूप लच्छीए कयं । भिसि-५ ३, ५ दहिं बुद्धिहि पुस्लिगबत् । एवं धन वन फल आदि अदन्त-हदन्सलच्छीहिं। उदन्त आदि जानना पाहिये । इति नपुसकाः । बी०टेति । अपभ्रश में स्त्रीलिंग से पर रा को एहोता [अथ सर्वनाम पुल्लिगा: ] है। दया-टा-प्र. सू. ए हस्व-यए। एवं बुद्धि लच्छी कि सर्वयो| कवणसाहो । ५, ३, ३६ । हेङ सिङसोः । ५, ३, २१ । कौ० अपभ्रशेऽनयोः क्रमादेतो वा स्तः सुपि । साहु को अपनशे स्त्रियामनयो हे' स्यात् । दयाहे बुद्धिहे साहो- साहा । हे साहु साहो साहहो। पोलच्छोहे । दीर्घ ह्रस्वी-यहे दुविहे लच्छिहे। सव्वु सव्यो इत्यादि। बी. हुरिति । अपनश में स्त्रीलिंग नाम से पर भ्यस् तथा बी० किमिति । अपभ्रंश में कि को कवण सर्व को साह आम को हु होता है। दया-भ्यस्-माम् = दयाहु । विकल्प से होता है। सर्व-सुप्र० सू. सर्वसाह हिः । ५, ३, २३ । पक्षे २, ३, ६८.७५ वंध्य सय ५, ३, ७ सौ को अपनशे स्त्रिया हिः स्यात। दयादि था-अ-ओ-पले अमि च ६- ३ सू-अभ-लप बुद्धिहि लच्छीहि 1 एवं प्रतिमा महिसा गुप्ति साहो साह सम्वो सच्छ । जसो २, दीर्घ-प्रायोग्रहण से अदीर्घ ३ से लूप- साहा साह सव्वा । हे साहो साह समित्यादयः। वी.हिरिति । अपनशा में स्त्रीलिग नाम से पर हिको सब्यो सम्वु पूर्ववत् । हे सर्व साह-सव्ध जस्-५, ३,४ हो-हे साहो सबहो । हि होता है। दया-बुद्धि सच्छी-ङि=हि-दयाहि । इति स्त्रीलिगा। सर्वा दे सिख्या होहिमौ । ५, ३, २६ । को अपनशेऽदन्तात्सर्वाद क्रमानसि न्योहाँ हिमो [ अथ नपुसकाः] स्तः । सर्वस्मात् = साहहा । सम्वहां । सर्वस्मिन् = जाशसोरि क्लीवे । ५, ३, २४ ।। साहहिं सवहिं। शेष जिनवत् । एवं विश्वाकौ० अपनशे नपुसके जपशसोरिं स्यात् । ज्ञानानि दयोऽदन्ताः । =णाणई। वारीणि वारिइं मधु-२,१,७महुई। बी० सर्वेति । अपभ्रंश में अदन्त सादि पर सि को हां डि को हिं होता है । शेष जिनवट । एवं 'बश्बादि का रूप शेषं पुंवत् । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० | प्राकृत चिन्तामणि होता है । किम् =कवणु करणो कयणा । त्यहादेः एतवः पुंस्त्रीक्लीवेष्येहो जेह जेहुचः। ५, ३, ३१ । सम्बोधन नास्तीत्युत्सर्गः। पक्षे कू को-का। कौ० चत्रयमसन्देहार्थम् । अपभ्रशे स्वमोः पु स्त्रीनपुसकेषु क्रमादेतद् एतेस्युः । एषः-एतम् - किमो उसेर्वाडिहे । ५, ३.२७ । एहो। को० अपन शेऽदन्तारिकमोडसेडिहे वा स्यात् ।। दी० एतद इति । सु-अम् से पूर्व एतद को पुस्लिा में डित्याट्रिलोपः । कस्मात् = कवणिहे कवणहां किहे रहो स्त्रीलिंग में एह नपुंसक में एह आदेश होता है। कहां। जश्शसो रेइः । ५, ३, ३३ । बी० किम इति । अपभ्रंश में अदन्त किम् से पर इसि को। डिहे विकल्प से होता है । किम् = सु-जस् जादि ५, ३, फौ० अपभ्रशे जरशसोरेतदः स्थाने एइ: स्यात् । एते ३६ बा---कवण पक्षे ३, १, ७४ कन्डसिप्र. सू० एतान् इह । मेषं सर्ववत् । मिहे-दिलोप पक्षे हां-कवणिहे---हां, किहे-हां । बी० जसिति । अपभ्रंश में जस्–शस् से पूर्व एतद् को एइ कियत्सदभ्योडसो सुः । ५, ३, २८ । आदेश होता है। शेषं सर्ववत् । को अपभ्रंशेऽदन्तेभ्यः एभ्यः उसो डासु र्वा स्यात्। ओइरसः । ५, ३, ३४ । कवणासु कवणसु कवणस्सु कवणहो । कासु–कसु कौ० अपभ्रशे जश्शसोरदस आइ: स्यात् । अमू स्सु हो शेषं सर्ववत् । अमून् वा बोइ। शेष प्राकृतवत् ।। किमिति । अपभ्रंश में अदन्त-किम्-पद- तद से दो० ओईति । अपभ्रंश में जस्-शस् से पूर्व अदस को पर इस को डासु बिकल्प से होता है। कवण---उस् बोइ आदेश होता है। शेष सुप में प्राकृतवत् रूप होता प्र० मू० या हासु-टिलोप पझे ५, ३, १२ सु-स्सु । -हो-फवणासु-कवणसु-सु-हो । क---छस् = इनमः सप्यायः। ५, ३, ३५ ॥ कासु-कसु -कस्सु कहो । योष रूप सर्ववत् । स्वमियत्तदो"प्रमो। ५,३,३०। कौ० अपभ्रशे सुप्सु परेस्विदम् आय: स्यात् । को० अपनशे स्वमोः परयो यत्तदोः क्रमादेतो वा स्वमार का स्वमोरु:-आयु । सावोत-आयो। जश्शसो:स्तः। य:-यंध्र । सः-तंत्र पक्षे जम आय । इत्यादि सर्ववत् । 'वा पुस्योत्सी' ५, ३, ६ सौ-जो, सो। स्वमीत्येक बी० इदेति । अपभ्रंश से सुप् से पूर्व इदम् का बाय होता वचनान्न ययासंख्यम् । यस्य जासु जसु । तस्य है। आय. -सु आदि-सर्ववत् रूप होता है । तासु तसु। इति पुल्लिगाः। बी० स्वमीति । अपभ्रंश में सु-अम् से पर यद् को ध्रु [अथ स्त्रीलिंगाः सदियः ] तद् को आवेश विकल्प से होता है। यद् तद् =१, १. २८ द-लुप् १, ४, २८ प=ज त --सुअम् = प्र० सू० य= भुत । पक्ष ५, ३, ६ अ- कौ० अपभ्रशे स्त्रियां कियत्तद्भ्योङसः स्थाने डहे ३, ७ सौ–ओ ३ सु-अम्-लुप् = जु-जो। ३,१, वा स्यात् । सर्वा=साहा-सव्वा 'अचामचः' ८५ स - स-सु-सी । अमि-जु-तु । स्वमि एकवचन 'सुपिदीर्घ' (५, ३, १. २) इति सूत्राभ्यां साह-सव्व निर्देश से स्थान-आदेश के साथ पपथासंख्य नहीं इत्यादि च लक्ष्यानुसारेपा दयावत् । कियत्तदभ्यः होता है। 4-डस =जासु जसु जस्सु बहो । तइस् - =कवणा-का(का--का वा) यदः=5-या (या तासु तसु तस्सु तहो किंवत् । शेष सर्ववत । –यां वा) तद:- -सा ता (सा. तां वा)। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि |८१ उसि–कस्याः = कवणहे कहे । यस्याः =जहे । [अथ युष्मदस्मत्प्रकरणम् ] तस्याः -तहे। पक्षे काहे जाहे ताहे । शेष सर्वावत् । सुनायुष्मदस्तुह। ५, ३, ३७ । एतदः-एषाएह किंवा। एता:- एइ। शेष ___ अपभ्रशे सुना सहितस्य युष्मदः स्थाने तुहं सवायत । अदस:---जश्शसी:...-आइ । शष अम् सान। इत्यादि धेनुवत् । इदमः-आया इत्यादि सर्वावत् । जश्शसा तुम्हे तुम्हई । ५, ३, ३८ । । इनि स्त्रियों सदियः।। अपभ्रशे जस् शस्भ्यां सहयुष्मदः प्रत्येक तुम्हे बी० रहे इति । अपभ्रंश में स्त्रीलिंग किम्-यत्-...तर से तुम्हई स्तः यूयं युष्मान् वा तुम्हे तुम्हई । पर इस को डहे आदेश विकल्प से होता है। सर्वा =५. अम्टाडिना तई पई । ५, ३, ३६ । ३, ३६ साहा पक्षे २, ३, ६८. ७५ वः =सब्वा ___ अपभ्रशे अम् -- टा--डिभिः सह युष्मद इमो इत्यादि दयावत् । किम्-५, ३, ३६ कवणा । ३,१. ७४ का यद् =सु-श्रम् = तद्-सु= अम्' =५. ३, ३० स्तः । त्वाम्- खया-स्वयि वा तहं पहें । --व। पक्ष जा-सा-ता। कवणा-का--जा..- भिसा तुम्हेहि । ५, ३, ४० । ता--इस् प्र० स० डहे -टिलोप-कवणहे कहे जहे तहै। अपभ्रशे भिसा सह युष्मदोऽयमादेश: स्यात् ।। पक्ष ५, ३, २१ कवणाहे काहे माह ताहे शेष सवाजत्। युष्माभिःतुम्हहि । ५. ३, ३२ एता-सु म = एह। एता-जम इसिङसा तउतुजमतुध्राः । ५, ३, ४१ । शस्-५, ३, ३३ ओइ । पोष सर्वावत् । ५, ३, ३४ अपभ्र शेरसिङस्भ्या सह युष्मदः स्थान 13अदस् -जस- शम् = ओई। शेष सुपि-३, १, ८७ तुज्झ-तुध्रा आदेशा स्युः । त्वत्-तब वातउअमु-धेनुबत्' । ५, ३, ३५ इयम्-सुजसादि = आया (टाप्) इत्यादि सर्वावत् । । इति स्त्रीलिंगाः। तुज्झ-तुध्र । भ्याऽमा तुम्हई । ५, ३, ४२ । [अथ नपुसके सर्वादयः अपन शे भ्यसाम्भ्यां सह युष्मदस्तुम्हइं स्यात् । इवम् इमुक्लीवे । ५, ३, ३१ । को० अपभ्रशे स्वभौः परयोरिदमः स्थाने इमु युष्मभ्यं युष्माकं वा-तुम्हई । स्यात्क्ली । सर्व-साह-सव्व-स-अम्.-जस सुपा तुम्हासु। ५, ३, ४३ । ---शस्–५, ३, २४, २३ साहउं सम्वउं साहइ अपभ्रशे सुपा सह युष्मदः स्थाने तुम्हासु आदेशः सब्बई शेषं पुल्लिगवत् । किम् = कवणु कवणउं स्यात् । युष्मासु = तुम्हासु । कबणई क क जं कई इत्यादि पुवत् । यद्-सु- सुनाऽस्मदो हउँ । ५, ३, ४४ । अम् = तद्-सु - अम्--५, ३. ३०३-। पक्षे अपभ्रशेऽस्मदः सुनासह हउ आदेशः स्यात् ।। जु जउ तु-तउं जई तई शेष पुवत् । एतद् .. सु . =अम् = ५, ३, ३२ एहु । एतद्-जस् = शस्५, ३, ३३ एइ । शेष पुवत् । अदसु-अमु-जस् जस्शसाऽम्हेऽम्हानं । ५, ३, ४५ ॥ -- शस् =ओइ शेषं पुवत् । इदम्-सु = अम्- अपभ्रशे जस्शस्भ्यां सहारमद: स्थाने प्रत्येकःप्र० सू० इमृ—शेष पुवत् ।। मम्हेऽहई चेतो स्तः। वयं = अस्मान् वा- अम्हे । इति नपुसके सर्वाक्यः । अम्हई। १. सूत्र ५, ३, ३७ से सूत्र ५, ३, ५० तक सिर्फ कौमुदी है, दीपिका नहीं है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ | प्राकृत चिन्तामणि अम्टाडिना मई। ५, ३, ४६ । उंहुभावुत्तमस्य । ५, ३, ५३ । अपभ्रशेऽम्टाकिभिः सहास्मदः स्थाने मई को अपभ्रो तिबादेरुत्तमपुरुषकवचन बहुवचनयो स्यात् । माम् - मया मयि वा-मई। क्रमादेतो वा स्तः । भवामि होउँ होमि । मिसाऽम्हेहि । ५, ३, ४७ । १६म =होहु । होम होमो होम। अपभ्रो भिसा सहास्मद: स्थाने ऽम्हेहि स्यात्। वी. उमिति । अपभ्रंश में तिवादि के उत्तमपुरुष के अस्माभिः= अम्हेहि । एकवचन को उँ बहुवचन को हु आदेश विकल्प से होता ङसिङसामहुमज्झु । ५, ३, ४८ । है। हो-मिप्=प्र० सू० उपक्षे ३,३,५ भि=होत्रं अपभ्रशे सिडस्भ्यां सहास्मदः प्रत्येक मिमी. होमि । हो-मस् प्र० सू० पक्षे ३.३.६ म-मो स्तः । मत् मम वा महु मज्झु । -म- होह होम होमो होम । भ्यसाऽमाऽम्हह । ५, ३, ४६ । हिस्यमोरिचुवेतः । ५, ३, ५४ । अपभ्रशे भ्यसाम्भ्यां सहासात स्थानेहं को सगे सोडावा हि स्वयोः स्थाने इ--उ स्यात् । अस्माकम् -अम्हहं। - ए एते अयो वा स्यः । कुरु कुरुष्व वा-करि करु सुपाऽस्मासु । ५, ३, ५०। करे । पझे-करहि करसु । अपन'शे सुपा सहास्मदः स्थाने ऽम्हास स्यात । वी० होति । अपनश में लोडादेश हि स्व को इ-उ-ए अस्मासु-अम्हासु । इति युष्मवस्मत्प्रकरणम् । यतीम भादेश विकल्प से होते हैं। कृ=३, ४, २५ कर '-हि-म्ब प्र० सू० इ-उ-ए-करि, बारा, करे। [अथ तिङन्त प्रकरणम् ] पक्षे ३. ३, ३४, ३५ सु-हि-करसु । करहि । वा तिबादेः प्रयमस्य बहोहि । ५, ३, ५१।। भविष्यति सः स्यस्य । ५, ३, ५५ । कौ० अपनशे प्रथम पुरुषस्य तिबादे बहुवचनस्य स्थाने हि वा स्यात् । भवस्ति-होहिं। पक्षे होन्ति कौ० अपभ्रशे भविष्यति स्यस्य सो वा स्यात् । भविष्यति होसइ । होसन्ति । होन्ते । ग० वेति । अपभ्रंश में तिबादि के प्रथम पुरुष-बहुवचन बी० भवी अपभ्रंश में भविष्यत्काल में स्म को स आदेश को हिं आदेश विकल्प से होता है। भू-४, १.२ हो विकल्प से होता है । हो-स्य-इ-प्र० स० त्य स ३, ६, १, प्ति --होछ। प्रा . झि=वा- हि पक्षे हासह । न्ति-न्ते- इरे = होहि. होन्ति होन्ते होइरे । कुवेकरोम्योः कीसु । ५, ३, ५६ । मध्यमस्यैक बहवोहिहू । ५, ३, ५२ । को अपनशे कृ धातोः कर्तृ प्रत्ययान्तयोरनयोः कौ० अपम्र मध्यम पुरुषस्य कवचन बहुवचनयाः स्थाने कीस इत्यादेशो वा स्यात् । सन्ता भोग जु स्थाने क्रमादेतो वा स्तः । भवसि - होहि होसि । परिहरई तसु कम्त हो बलिकीसु । तसु दइवेणवि भवथ =होहु होइत्था हो । मुण्डियउं जसु खल्लिह सीसु। गो० मध्येति । अपभ्रंश में मध्यम पुरुष के एकवचन को हि छाया-सतो भोगान् यः परिहरति तस्य बहबचन को ह आदेश विकल्प से होता है। हो-सिप कान्तस्य (प्रा० को०७६)। वलि करोमि प्र० स० हि० पक्षे ३, ३, ३ सिहोहि होसि । हो (कुर्वेवा) [ क्रिये-हेनि० व्या०] तस्य प्र० सू०हु पक्ष ३,३, ४ इत्या-हप-होह होइत्या देवेनव मुण्डितं यस्य खत्वाद शीर्षम् । ७६ । होह। अर्थात् यस्य नास्ति सामग्री तेन त्यक्तंब सा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | यास्यति तेन चेत्यक्ता तदा तस्य महत्व- जो वा वधः । ५.३, ५६ । मिति । पक्षे साध्यमानावस्थामपेक्ष्य को अपभ्रशे ब्रघातो व वो वा स्यात् । ववीति किज्ज करउ बा। यथा-वभि किज्जलं व्रते वाघ्र वह । पक्षे इत्तउँ प्रोप्पिणु (इयदुक्त्वा) सुअणस्सु (प्रा० को० ५, ४, १०)। [मियः ।। ६७ । प्रा० कौ० द्र०। कीसु । हे०८, ४, ३८६ ।। त्रि. व्या० ३, ४, बी० वञ इति । अपभ्रंश में ब्र धातु के स्थान में द्रव ६२ ] विशेषः प्राकृत कौमुद्यां द्रष्टव्यः ।। आदेश विकल्प से होता है। । इति तिङन्ताः। प्र० मू० बुद्ध = ति । ३, १ इव वह । पक्षे त्वा ५. ४. ४२ एपिणु बी० कुनै इति । अपभ्रंश में कुर्वे-फरोमि के स्थान में ५, ३, १ ए==ओ २. १, २७ यु - क लुप् -प्राप्पिणु | की आदेश होता है। पक्ष में साध्यमान संस्कृतापेक्षया । इति धात्वादेशा. । कृ-इ, कृमि-१,३,२७ -क ३.३, ३८ ज्ज २३ क=कि ५, ३, ५३ इ-मि= =किज्जडं । ३, ४, [अथ गुरुवर्णस्य लघूच्चारण प्रकरणम् ] २५. ३ = कर ५, ३, ५३ इ-मि-करउँ ।। पद्याथ हरचः स्को लघुरुच्चारः । ५, ४, १। --भोग सामग्री रहने पर त्यागी पतिदेव की मैं पूजा कौ० अपभ्रशे संयुक्त स्थितयो हकाररेफयोः करती हूँ, भोग सामग्री न रहने पर त्याग करने वाला परयोरचां प्रायो लघुरुच्चारो भवति । बहिणि तो स्वयं सिर पर बाल जन्म से ही नहीं हैं उस खल्वाट के अम्हारा कन्तु । जइसो घडइ प्रयावदी (भगिनि समान है। विशेष प्राकृत कौमुदी में देखें। अस्माकं कान्तः । यदि स घटयति-प्रजापतिः)। ॥इति तिङन्त प्रकरणम् ।। 2. होरिति । अपभ्रंश में संयुक्त में स्थित हकार रेफ. [ अथ कृदन्त प्रकरणम् ] से पूर्व बच को प्राय: लघु उच्चार होता है। यथा-- अम्हारा में अ को घडदि में प्र. से पूर्व दि में इको तुनोपयच् । ५, ३, ५७ । लघुरुच्चार होता है। को अपनशे तृन्प्रत्ययस्य स्थाने णयन्स्यात् । काविष्वेदेतोः । ५, ४, २। चित्वाम्नविकल्प: । मारयिता=मारणउ । कौ० अपभ्रंशे कादिव्यञ्जनेषु स्थितयोरेदेतोः बी० सनइति । अपभ्रंश में तृन के स्थान में ण प आदेश प्रायोः लघुरुच्चारः स्यात् । एत:- सुधे चिन्तिज्जई होता है । मृ-णि-तृन प्र० स० गय ३, ३, ११ गि मिलेन चिन्त्यते)। ओत: तसिहउँ कलि जुगि अ३, ४, २५ मर-३३, १६ मार =मारणय- . दुल्लहहो (तस्याहं कुलियुगे दुर्लभस्य)। सु=५, ३, ६ मयु३, सुलुप २, २, १.१, १. १६ दी० कादीति । अपभ्रश में कादि व्यञ्जन में स्थित एमारण। ।इति कृदन्त । ओ को प्रायः लघुञ्चारण होता है । सुन" में ऐं दुल्लहहो में - [अथ धात्वादेशाः | ओ को। दृशग्रहव्रजप्रभुषां प्रस्स गुण्हवन पहुच्चाः पदान्ते चन्द्रस्य । ५, ४, ३ । । ५, ३, ५८। कौ० अपभ्रशे पदान्तेऽनुस्वारस्य लघुरुच्चारः कौ० अपभ्रशे क्रमादेषामिते आदेशा स्युः। द्रक्ष्यति स्यात् । तण (तृणानाम्) । इति लघुच्चारणम् । =प्रस्सइ । ग्रझाति -- गृण्हइ । प्रजति -बुना। [अथादेश प्रकरणम् ] प्रभवति = पहच्चइ। अचोऽकावस्कीनां कखतथपफां गयदधबभा: वी० दृशति । अपभ्रंश में दृश को प्रस्स ग्रह को गुण्ह ब्रज को वुज प्र० सू० को पहुच्च आदेश होता है। को० अपभ्रशेऽनादीस्थितानामसंयुक्तानामचः परेषां Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ | प्राकृत चिन्तामणि कादीनां क्रमाद्गादयः प्रायः स्युः । विक्षोभकरः - विच्छोहगरु । सुखेन सुधें । कथितं कधिदु । शपथं - सबधु । सफलं = सभलु 1 आदौ तु न । कृत्वा = करेष्पिणु । संयुक्तस्य न । एकस्मिन् एक्वहि । बी० अपभ्रंश में अच् से पर अनादि - असंयुक्त ख ग-ध--त-थ-पफ को कम से ग—घ-द-घ -ब-म होते हैं। विक्षोभकर सुप्र० सू० कम २, १, ७४ = २, ६, १८. ७६ क्षो छो५, ३, ३, ६ स्वा०विकोहगरा । सुख–टा प्र० सू० ख = घ ४,३, प्र० सू० तदथ ष स ३६ स्वा० सुधें । कथित - शपथ – सफल · सु फ भ १, ४, कधिदु सबधु सभलु । कृ= ३, ४, २५ कर ५, ४, ४२ एपिणु करेपिणु में आदि क को संयुक्त पकाव नहीं होता है । -- - वा मो वञ् । ५, ४, ५ कौ० अपाशेऽनादाकेर्मस्य वञ् वा स्यात् । जित्वात्सानुनासिकः । कमलं कलु कमलु । अनादावित्येव । मदनः = मयणु। अस्केरित्येव । जन्म = जम्मु | — दी० वेति । अपभ्रंश में अनादि असंयुक्त म को विकल्प से विद् व होता है । कमल सुप्र० सू० नव १,१, १३६५, ३, २, ६ स्वा० फलु कमलु । मदन - सु = २, २, १ द य २, १३२ न ण स्था० मयण मादि मक नहीं हुआ। जन्मन् – सु = १, १, २८ लुप् २, ३, ३६. ७५ मम्म स्वा० अम्भु मे संयुक्त म को बं नहीं होता है । म्हो मः । ५.४, ६ । की० अपभ्रंशे म्हस्य म्भः वा स्यात् । ग्रीष्मः = गिम्भु गिन्हु । दी० म्ह् इति । अपभ्रंश में म्ह को म्भ विकल्प से होता है । ग्रीष्मसु २, ३, ५३० ५, ३, ३, ६ उत्व - सुलुप् म्प्र० सू० वागिम्भु गिन्छु । इच् संपद्विपदापवादः । ५, ४, १० । कौ० अपाशे एषां द: इः स्यान्नित्यम् । संइ । विवद | आवइ | बी० जिति । अपभ्रंश में संपद – विपद् - आपद् में कोइ होता है। संपद् पविव २,१, ४२) - इ । आव यथा तथा कथमामयामोरिघेहेमै माः । ५, ४. ११ । hto अपनशे यथादीनामथाथ मोरेते स्युः । यथा - जिव जिह जिम जेम । तथा-तिघ तिह तिम तेम । कथं कि कि किम केम । बी० यथेति । अपभ्रंश में यथा तथा में अथा को कथं में अर्थ को ध-- इह इमएम ये चार आदेश होते हैं। कोहगोग्यरक्तादृशामीदृशादृशो रेहः ॥ ५, ४, १२ । to अपनशे कीदृशादीनामोहशाहशोरेह आदेश: स्यात् । कीदृक् केहु । ईदृक् एहु । यादृक् = जेहु | तादृक् = तेहु | वी० कीदृगीति | अपभ्रंश में कीदृशु - ईदृश को यादृश - तादृश में आदृश को एह आदेश होता है । १, ४, २० या आजादृश = आदृश = ईदृश्एह कह एह जेह - तेह - सु = ५, ३, ३६ स्वा० के एह जेन तेहु । असोता । ५, ४, १३ । कौ० अपनशेऽदन्तानामेषामनयोरइसः स्यात् । कीदृशः कइसो | ईदृशः = अइसो । यादृशः = जहसो । तादृशः तइसो । श्री अर्हति । अपभ्रंश में अदन्त कीदृश ईदृश में ईदृश को यादृशदुश में आदृण को अइस आदेश होता है । एतावत एत्तुल ५, ४, १४ । स्थानेऽयं स्यात् । एतावन् - कौ० अपत्र शेऽस्य एतुलु - एतुलो । वी० एतेनि । अपभ्रंश में एतावत् एतुल आदेश शेता है। एतुल - सु५, ३, ३ ६. ७ एतुलु एक्लो । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि । ५ फियवियद्यावतावतामियवावतोरेवरच युध्मवावेश्छस्यडारः । ५, ४, २० । ।५, ४, १५। कौ० अपभ्रशे यष्मदादे: परस्य छस्य डार आदेश . कौ० अपभ्रशे कियदादीनामियदावतोः स्थाने स्यात् । डिवाट्टिलोपः । युष्मदीयः- तुम्हारु एवाचा देत्तुलश्च भवतः । कियान् = केवड़ केत्तुलु। तुम्हारो। इयान् =एवडु एत्तुलु। यावान-जेबडु जेत्तुलु। दी. युप्मेति । अपभ्रंश में युष्मदादि से पर प्रत्यय को तावान् = तेवडु तेत्तुलु ।। डार देश होता है। उत्याट्रिलाप होता है। युप्मद - दो० कियदिति । अपभ्रम में कियत्-इयत् में इयत् को छ प्र० सू० छार-टिलोप २, ३, ५२ हम ==म्ह १, ४, मावत् तावत् में आवत् को एबह-एत्तुल ये दो आदेश २१ यु- तु ५, ३, ३. ६. ७ स्वा० = तुम्हारू तुम्हारो। होते हैं। अन्यादृशोऽबराइसान्नाइसौ। ५, ४, २१ । अलन्तानामेत्तहे त्रलोचा। ५, ४, १६३ को० अपभ्रंशेऽस्यतो स्तः । अन्यादृशः =अवरा इसु की. अपभ्रशे अलन्तानां सर्वादीनां प्रागचा सह अवराइसो । अन्नाइसु अन्नाइसो । अलः स्थाने एत्तहे स्यात् । सर्वत्र=सन्दहे। पत्र = बी० अन्येति । अपभ्रंश में अन्यादृश को दो आदेश जेसहे। हाते हैं । ५, ३, ३. ६. ७ अबराइस--- सो। को० अलेति । अपभ्रंश में पलन्त सर्वादि के पूर्व अच् वर्मोक्त विषण्णानां विश्च दुत्त बुन्नाः सहित बस को एनहे. त्यादेश होता है। ।५, ४, २२ । एत्थु वाऽत्र—कुत्रे । ५, ४, १७ । कौ० अपभ्रशे क्रमादेषामेते स्युः । बम विच्चु । कौ० अपभ्र शेऽत्र-कुत्रयो त्रयो रेत्थु वा स्यात् । वृत्त । विषण्णः - बुन्नु बुन्न।। अत्र = एत्थु एत्तहे । कृत्रकेत्थु केत्तहे। बी० वर्मेति । अपभ्रश में वत्मन को विच्च उक्त को बुत्त बी० एपिवति । अपभ्रंश में अत्र कुश्त्र में कम से अत्र विषण्ण को चुन्न आदेश होता है । उच को एत्थ विकल्प से होता है । पक्ष में एत्तहे। आत्मीयादीनामप्पणादयः । ५, ४, २३ । यत्रतत्रेऽत्तु च । ५, ४, १८ । कौ० अपभ्रशे यथा दर्शनमात्मीयादोनामप्पाणादयः स्युः । आत्मीयम् = अप्पणु । को० अपघ्र शेऽनयोरत्रस्य स्थानेऽत्तु-एत्थु इतीमो बी० आत्मीति । अपभ्रंश में आत्मीयादि के स्थान म वा स्तः । यत्र-जत्तु जेत्यु । तत्र तत्तु तेत्थु । पक्षे अप्पणादि आदेश होता है। जेत्तहे तेत्तहे। बी० यत्रेति । अपभ्रंश में यत्र तत्र में अत्र को अत्तु-एत्थु [ अथाव्यय प्रकरणम् ये दो आदेश बिकल्प से होते हैं। पक्ष में एसहे। अध्ययस्य यावसावतोबत उं महिमाः । ५, ४, २४ । त्वतलोः पपणच । ५, ४, १६ । कौ० अपभ्र शेऽव्ययस्यानयोवत: स्थाने उ-महिम कौ० अपभ्र शेऽनयोनित्यं प्पणच् स्यात् । महत्व = इत्येते त्रय आदेशा: स्यु । यावत् =जाउं जामहि वहुप्पण। जाम । तावत्-ताउं तामहि ताम। बी० स्वेति । अपभ्रश में त्व-तल को प्पण आदेश नित्य वी० अभ्येति । अपभ्रंश में अव्यय-यावत-तावत के वत होता है। को उ--महिम ये सीन आदेश होते है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ । प्राकृत चिन्तामणि अथवबमेवेतसिदानीमामहबइ एम्बई एत्तहे एहि दी० कतेति । अपभ्रंश में कुतः को कहु-कहन्तिहु ये दो ।५, ४, २५। आदेश होते है। कौ० अपशे क्रमादेषामेते स्युः । अथवा = अहवा। तदाततसोस्तो। ५, ३, ३१ । एवमेव = एम्बइ। इतः- एत्तहे। इदानों एम्बहिं । कौ० अपभ्र शेऽनयोः स्थाने तो स्यात् । तदा तो। दी० अथेति । अपभ्रंश में क्रम में अथवा-एवमेव- तसः-तो। इतस-इदानी को अहवइ एम्बइ एत्तहे एम्वहिं दो आदेश दो० तदेसि । अपभ्रश में तदा-तसस इन दोनों के होते हैं। स्थान में तो आदेश होते हैं। अवश्यमोऽवसेमवसौ । ५, ४, २६ । प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्ब-पगिम्बाः को अपभ्रशेऽस्यतो स्तः। । ५, ४, ३२ । कौ० अपभ्र से प्रायस एते आदेशाः स्युः । प्रायः = दी. अबश्यमिति । अवश्यम् की अवसे तथा अत्रस ये दो। प्राउ, प्राइव, प्राइम्ब, पगिम्ब । आदेश होते हैं। बी० प्रायेति । अपभ्रश में प्रायस् के स्थान में प्राउ..किमेव ध्रुवं समं परमां काइमेम्ब ध्रव समाणुपराः प्राइव-प्राइम्ब-पगिम्ब ये चार आदेश होते हैं। ।५, ४, २७ । मा-मनाग-दिवा-नहि-सहानां मं-मणाउ को अपभ्रशे किमादीनां क्रमादेते स्युः । किम्- -दिवे-नाहिं सहमः । ५,४,३३। काई । एवं एम्ब । ध्र वंध्र बु । सम-समाणु। कौ. अपभ्रशे क्रमादेषां पंचानामते पंचादेशा: पर-पर। बी० किमिति । अपभ्रंश में किम्-एवं ध्र व--समं स्युः। मामं मनाकमणाउ । दिवा-दिवे । नहि नाहिं । सह सहु'। पर को क्रम से काई-एम्व-दु-समाण–पर आवेश दी० मेति । अपभ्रश में मा को मं, मनाक को मणाउ, होते हैं। दिवा को दिवे, नहि को नाहि, सह को सहू आदेश प्रत्युपश्चावेव किलानां पञ्चलिउपच्छद जिकिराः ।। होते हैं। ।५,४, २६ । अनुरन्ययो वा । ५, ४, २ कौ० अवनशे क्रमादेषामेतेस्युः । प्रत्युत-पच्चलिउ। कौ० अपभ्र शेऽन्यथा स्थाने अनुरादेशो वा स्यात् । पश्चात् - पच्छइ । एव-जि । किल =किर। अन्यथा-अनु अन्नह अन्नाह। बी० प्रेति । अपनश में प्रत्युत- पश्चात् -- एब-किल दी० अन्विति । अपभ्रश में अन्यथा की अन् आदेश को कम से पच्चलिउ-पच्छाइ-जि-किर आदेश होते हैं। कर अपदय हात हा विकल्प से होता है । पक्ष में अन्यथा-१, २, ३३ थाएकशोविनापुनरामेक्कसि विणुपुणवः । ५, ४, २६ । आ =वा-अ २, १, ७ ह २, ३, ६८, ७५ न्य =लकौ० अपनशे क्रमादेष त्रयाणामेते त्रयः। एकशः अन्न अन्नाह । एक्कसि । बिनाविणु । पुनः-पुणु । इवार्थे नं-नाइ-गावइ- नउ-जणु-जणियः वी. एकेति । अपभ्र श में एक शस्-बिना-पुनर को क्रम ।५, ४, ३५१ से एककसि--विण-पुण आदेश होते हैं। कौ० अपभ्रशे इवार्थे औपम्येनं--नाइ–नाबइकुतसः कउ कहन्तिहू । ५, ४, ३० । नउ-जणु–जणि इत्येते पंच प्रयुज्यन्ते । को० अपभ्रशे कुतसः कहु-कहन्तिइ स्तः । कुतः - वी0 इवेसि । अपभ्रश में उपमा में नं-नाइ नर जण कउ । कहन्तिहु । तथा जणि ये पांच प्रयुक्त होते हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | ८७ तावश्ये तणेण हि तेहि रेसि रेसयः । ५, ४, ३६ । एवं = करेवं । अणं = करण । अणहि =करहिं । अण= कौ० अपभ्रशे तादयें घोत्ये एते पंच प्रयुज्यन्ते। करण । बहुत्तणहो तर्णण (महत्वार्थम्) एवं केहि तेहि रेसि उमयोरेपोपिये विणुवः । ५, ४, ४२ । रेसि। कौ० अपभ्र'शे क्त्वा तुमुनोः स्थाने एते चत्वार दी० तदेति । अपनश में तावथ्यं ग्रोतन के लिए तणण- सायाः स्युः । कृत्या कत" वा = करेपिप करे प्पिण केहि-तेहि रेसिं— रेसि ये पांच प्रयुक्त होते हैं । करेवि करेविणु। चेष्टा-शब्दानुकरणयो घुग्घ हर्वादयः । बी० उभेति । अपभ्रश में क्त्वा-तुमुनु के स्थान में एप्पि । ५, ४, ३७! .प्पिणु- एनि पविण सार भादेश होने है। कौ० अपभ्रशे चेष्टानुकरणे घुग्घादयः शब्दानुकरण गमे पिपिणु । ५, ४, ४३ । च हुहुरु इत्यादयश्च प्रयुज्यन्ते । को अपनशे क्त्वा तुमुनोरतो वा स्तः। गत्वा घरमादयोऽर्थशून्याः । ५, ४, ३८ । गन्तुबा-गम्पि, गम्पिण । पक्षे-गमेप्पि गप्पण कौ० अपभ्रशेऽर्थशून्या घई इत्यादयः प्रयुज्यन्ते। गमेवि गमेविण । पक्षे गत्वा गमि गमिउ गमिवि घई विवरीरीबृद्धडी (घइं विपरीता बुद्धिः)। गमवि । गन्त गमेवं गमणं गमणहं गमण। दो० षमिति । अपना में अर्थरहित घई आदि का __ + इत्यव्यय प्रकरणम् । प्रयोग होता है। बी० गमरिति । अपनश में गम् से पर क्त्वा--तुमून के तन्यस्य एवा-एव्वलं-इएबाउं । ५, ४, ३९। स्थान में पि-पितु ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। कौ० अपभ्रशे तव्यस्यते त्रय आदेशाः स्युः । कर्तव्यं [अथ स्वार्थिकाः प्रत्ययाः ] - करिएवा करिएव्वउं करिइएवढं । . अ—डद्ध-डुल्ना योगजाश्च स्वार्थे । ५, ४, ४४ 1 दी तव्येति । अपभ्रश में तब्य को ये तीन आदेश होते। है । कृ-तव्य-प्र० सू० एषा ३, ४, २५. ३० कृ-कर कौ० अपनशे नाम्नः परेस्वार्थे इमे त्रयो यथासमय ३, ३, र रि–रे= करिएवा करेएवा १, १, २७ लुप् परस्पर मिलिताश्च प्रत्यया भवन्ति। = करेवा । एवं करिएब्वउं आदि। बी० अरडेति । अपभ्रश में नाम मे पर अ- डड-इल्स इ-इज इवि---अवयः त्वः । ५, ४,४० । तथा यथासम्भक इन तीनों के परस्पर योग से प्रत्यय स्त्रार्थ में होते हैं। कौ० अपनशे क्त्वा प्रत्यस्यते चत्वार आदेशाः स्युः । कृत्वा करि, करिउ करिवि करवि । स्त्रियामेतदन्ताजोप् । ५, ४, ४५ । दो० इइति । अपभ्रश में क्त्वा को ये धार आदेश होते को अपनशे स्त्रियां पूर्वोक्त स्वाथिक प्रत्यहैं । कृत्वा =प्र० स० इ ३, ४, २५. कृ= कर्= करि । यान्तात्परो डीप् स्यात् । डिवाडिलोपः । एक एवमण हमण हिमणास्तुमुनः ५, ४, ४१। कुडल्ली पंचहिरुद्धी (एकाकुटी पचमी रुखा)। कौ० अपभ्र शे तुमुनः स्थाने एते चत्वार अदेशा बी० स्त्रियामिति । अपभ्रश में पूर्वोक्त स्वार्थिक प्रत्ययान्त स्यु: । कतु-फरेवं करणं करणहिं करण । स्त्रीलिंग पर डीप् प्रत्यय होता है । हित्वाहिलोप होता है । बी० एवमिति । अपभ्रशे तुमुन के स्थान में एवं—अणं- कुटी =पू० सू० डल्ल-दिलोप प्र० सू० डीप-ट्टिलोप अहि-अण ये चार आदेश होते हैं। -कर-तुम् = २,१, १७ट--फुडुल्ली । . APNEWS Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्राकृत चिन्तामणि आन्तासाड्डाप् । ५, ४, ४६ । मन्त्र -५, ४, ४४ डा. टिलोप २, ३, ६९ त्रस्त कौ० अ-प्रत्ययान्तान्तास्त्रीलिंगात्यरोडाप स्यात्। प्र० सू० स्त्रीत्व ५. ४, ४५ डीप् --टिलोप - अन्त डी। डीपोऽपवादः । डडअ-डल्लअ-इल्लडड --डड अनुक्त शौरसेनीवत । ५, ४,४६ । डुल्लम इत्यादयो योगजा आन्तान्ता: प्रत्ययाः । को अपनशेऽन कार्य शौरसेनी वत्स्यात् । कुतःधुलिः =धुलिडिआ । आन्तान्तात्किम् । वार्ता = किदु । विहितः विहिदु इत्यादि ।। बत्तडी । स्त्रियामिन्येव । कर्ण--कन्नडाइ। दी० अन्विति । अपन शा में अनुक्त कार्य शौरसेनी भावावत् वी० आन्तेति । अ-प्रत्ययान्न है अन्स में जिसके ऐसे होता है। कृत-विहित--सु-१, ३, २६ कृ-कि योगज अ-प्रत्ययान्त नाम से पर स्त्रीलिंग में डाप् प्रत्यय २, २, १ प्राप्त तु-लुप को पौरसेनीवत् ५, १, १ से होता है। धलि--५. ४, ४४ डडस टिलोप-पूर्व सूत्र बाघकर १०५.३.६.३ रखा. किट विडिट । से प्राप्त डीप बांधकर प्र. सू० द्वाप-टिलोप= इत्यादि। धूला -उ० सू० ईस्व = धूलडिआ । बार्ता १, २, ३९ व्यत्ययोऽप्येषाम् । ५, ४, ५ ।। या=२, ३, ६६. ७५ म..-ता ५, ४, ४४ 23 टिमोप कौ० एषां पूर्वोक्तानां प्राकृतादि भाषा विहितानां ४५ डीप-टिलोपवत्तडी आन्तन्तत्वाभाव से डाप कार्याणां परस्परं व्यत्योऽपि स्यात् । यथाऽपभ्रशे नहीं होता है। स्त्रिणम् वाथन से कर्ण-२, ३, ६६. ७५ विहितं 'लुवधोर: ५. ४,७ इति मागध्यामपि ण - गण वाहुलकात् नस्व-५, ४,४४ इहर-टिलोर = भवति । 'शदमाणु शमंशमालके कुम्भसहन वाहे कन्नडय--में डाप् का अभाव-रि सहित पूर्व अ को शचिदे' इत्यादि। मागच्यामुक्त 'तिष्ठस्य विष्ठः' ५, ३, १४ इ-कन्नडइ। ५, २.१५ प्राकृत पैशाची शौरसेनीष्वपि स्यात् । जाप्यत इत् । ५, ४, ४७ । तिष्ठति-चिष्ठति । वर्तमान काले प्रसिद्धाःप्रत्यया को अपभ्रशे स्त्रियां डापि परेऽत इत्वं स्यात् । भूतेऽपि भवन्ति । अथपेच्छइ रहुतनयो (अथ धूलडिआ। ।इति स्वार्थिक प्रत्यय व्यवस्था । प्रेक्षाञ्चके इत्यर्थः)। आभासइ रयणीअरे आभाषे रजनीचरानित्यर्थः । भूते प्रसिद्धा वर्तमानेऽपि । दी डापीति । अपभ्रश में स्त्री प्रत्यय डाप से पूर्व अको सोहीउ एष चण्ठो । शृणोतीत्यर्थः । इकार होता है। बी० व्यत्येति । पूर्वोक्त प्राकृतादि सूत्र विहित कार्य का । [अथ लिंग व्यवस्था ] परस्पर में व्यत्यय भी होता है। जैसे अपना में अधो लिंगमव्यवस्थितम् । ५, ४, ४८ । वर्तमान रेफ का विकल्प से लूप होता है। वैसे मागधी में भी होता है। मागधी में तिष्ठ को चिष्ठ आदेश प्राकृतिकौ० अपभ्रशे प्रायो लिङ्ग व्यवस्थितं न भवति । पंशाची तथा शौरसेनी में भी होता है। वर्तमानकाल में गय -कुम्भई दारन्तु (गजकुम्भान् दारयन्तम) प्रसिद्ध प्रत्ययादेश भूतकाल में भी होता है। भूतकाल में ५. ३, २ । अत्र कुम्भई पुसो नपुसकत्वम् । प। प्रसिद्ध वर्तमान में भी होता है । इस्यादि स्वयं ऊह करें। अनाणि = अब्भा। अत्र नपुसकस्य पुस्त्वम् । अन्त्रक - अन्तडी । अत्र नपुसकस्थ स्त्रीत्वम् । सिद्धमनुक्त संस्कृतवत् । ५, ४, ५१ । वो लिनेति । अपभ्रश में प्रायः लिङ्ग व्यवस्थित नहीं कौ० प्राकृतादिपुषड्भाषा स्वनुक्त कार्य संस्कृतवदेव होता है । कुम्भ - शस् = प्र० सूत नपुसकत्व ५, ४, २४ भवति । हेट्टट्ठिय-सूर निवारणाय छत्तं इव ई-कुम्भई । अन -जस् च २, ३, ६६. ७६ भ्रम अहो वहन्ती। जयइ ससेसा वराहसास दुरुक्खया प्र० सू० पुस्त्व ५. ३, २ दीर्घ ३ जस् == लुप् == अभा। पुहवी । ८६ । हे० ४४८ । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि | Ek छापा संस्कृत अवन्ति । शास्त्रान्ते प्रयुक्तः सिद्धशब्दः अधः स्थित सूर्य निवारणायच्छत्रमिवाधो वहन्ती। मंगलाय कल्पते इति सिमित्युक्तम् । ततो जयति सशेषा वराहश्वास-दरोक्षिप्ता पृथिवी॥ बाचकानामिदंशास्त्रमध्युदयकारि स्यादिति। ___ अब पद्ये प्राकृत पंचाध्याय्यामनुक्तश्चतुर्थ्या ।समाप्तोऽयं प्रन्यः । देशः संस्कृत देव भवति। क्वचिदुक्तमपि संस्कृतं बी० सिद्धमिति । प्राकृतादि ६ भाषाओं में अनुक्त कार्य: भवति । यद्यपि-प्राकृत उरश्शि रस्सरशब्दाना- संस्कृतवत् ही होता है। यथा उक्त पर में अनुक्त चतुर्णामुक्ता अपि सप्तम्या एकवचने उरे उरम्मि सिरे देश संस्कृतवत् हमा है। क्वचित उक्त कार्य संस्कृतवत् सिम्मि सरे सरम्मि इत्यादि प्रयोगास्तथाऽपि ही होता है। यथा उरसि आदि । शास्त्र के अन्त में सिद्ध क्वचिद-उरसि शिरसि सरमि-इत्यादयोऽपि शब्द का प्रयोग मंगल के लिए किया गया है। । प्राकृत चिन्तामणि ग्रन्थ समाप्त । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of an ai ai anan अथ प्राकृत चिन्तामणिस्थ सूत्र सूची [पूर्वार्द्धम् । १. अथ प्राकृतम् । १, १, १ २६. वा दुनिरोः । १,१, २६ २. सिद्धिः स्याद्वादाद् लोकाच्च । १, १,२ ३०. नाऽच्यन्तरश्च । १. १, ३० ३. अनुक्तमन्यव्याकरणवत्। १, १, ३ ३१. उपरी लुस् । १, १, ३१ ४. बहुलम १, १, ४ ३२ पुनर्न पुनरोर्वा दिच। १, १, ३२ ५. आषम् । १, १, ५ ३३. आच स्त्रिया मविधतः । ६. आदिद्वितीयो किखी। १, १,६ ३४, रान्सेरा। १,१,३४ ७. संयुक्त स्किः । ८. चन्द्रोऽनुस्वारः । ___३५. क्षुत् ककुभो ईः। १,१, ३५ है. इदुपलब्धः शास्त्रे। ३६, बा धनुषि । १०. लुप् तस्य १, १,१० ३७. आयुरप्सरसो सः। ११. उपलब्धादर्शन लुप् । १,१,११ ३८. दिक् प्रावृषोः सच । १, १,३८ १२. वा निवर्तकंचित् । १, १, १२ ३६. वा सदाशिषः । १, १, ३६ १३. सानुनासिक जित्। १, १, १३ ४०. शरदादेरच । १, १. ४० १४. दी? दिति। १, १, १४ ४१. मश्चन्द्रच । १, १, ४२ १५. ठितो द्वित्वं १,१, १५ [अचिवा। १, १, ४३] १६. वृत्ती परस्परं दीर्घ ह्रस्वी। १, १, १६ ४२. हल्यमोवर्गान्त्यस्य चित् । १७. पुसिस्नान्त शरत्तरणि प्रावृद्धद्दामादि। [ दर्शनारिष्वचः । ४६ । क्त्वा सुपो र्वाणसूस्याम् । ४७ । लुप्तस्य १८. ना वचनादिलोचनार्याः । कांम्यादौ । ४८ । तदन्त्यो वर्गे। ५०। १६. क्लीवे गृणादि। विशत्यादौत्या द्लुप् च । ५२ । ] २०. स्त्रियामजल्यादीमान्तौ। १, १,२० ४३. आदे: । १,२.१ २१. वाहोराच् । १,१,२१ ४४, अन्ययन्यदास्तदचो वालुप । २२. वा सन्धिरपदे । १, १,२२ [आरण्यालाश्वो : ११, २, ३] २३. दोनयण । १, १, २३ ४५. पदादपः। २४. एडोऽचि। १,१,२४ ४६. इतश्चित । २५. तिङोऽचः। १, १, २५ ।अचस्तः । १, २, ६ ] २६. शेषे । १, १, २६ ४७. दी|लुप्तयवरशरिरि २७. लुप् । १, १, २७ [दक्षिणे दे। १, २, ८] २८. हलोऽन्त्यस्याश्रदुदी। १, १, २८ ४८. वा समृद्ध यादी। mak.. १, २,७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. मृदङ्गादावस्येच् । [ वा पक्वललाटाङ्गार वेतसो । १, २, ११ खेः सप्तपर्णे । १, २, १२ । १२.१३ ५०. प्रथमे पथोरुत । [ ध्वनिसस्नास्तावयोषिचत् । १, २, १८ विष्वगवयेवः । १, २, १६ ५१. सर्वज्ञादी णे । ५२. कन्दुकादावेच् । [ चे ब्रह्मचर्ये । १, २, २४ । खेरन्तकम पुराकर्माश्चयं पारावते । १.२, २५ ] ५३. पमे म्योत् । [ खः परस्पर नमस्कारे । १, २, ३१ अर्को वा । १, २, ३२ / ५४. आतोऽव्ययचामरादिषत्रन्तेत् । ५५. चन्द्र कांस्यादी । ५६. वा सदावित् । ५७. चेऽजिचा वा चायें । ५८. स्त्यान खल्वाट योरीच् । ५६. स्कीह्रस्वः । ६०. एवितो वा । १, २, १० १.२.१६ [ तेरितो वाक्यादौ । १,२,४३ । ६२. वा हरिद्रङ्ग, दशिथिले । ६३. लुपिसिह निरोश्चन्द्ररेफयोरीच् । [ हे जिह्वायाम् । १,२,४३ | ६४. उद्वा युधिष्ठिरे । [ द्विन्योः । १, २,४६ ] ६५. इक्षु प्रवासिनोश्चित् । ६६. ओच्च द्विघान् द्विवचने । ६७. हरीतकी कश्मीर योरीतोऽजाची १,२, २० १.२.२३ [ श्यामाक महाराष्ट्र म्हो: । १, २, ३५ ] १, १, २६ १, २, ३३ १, २, ३४ १, २, ३६ १, २, ३७ १. २, ३८ १, २, ३६ १, २,४० ६१. मत्पृथि पृथिवी प्रतिभूषिकवि भौतके । १, २, ४२ १,२,४५ १, १, ४६ १. १,४८ १, १, ५० १, २, ५१ १, ३, ४ प्राकृत चिन्तामणि सूत्र सूची ६१ वा [ गभीरादावित् । १, ३,२ । पानीयादौ । १, ३, ३ । जीणेंउत् । १, ३, ४ । सीधें । १, ३, ५ । वाहीन - विहीनयोः । १, ३, ६ ] ६८. नीऽपीठयोरेत् । [ कीदृशे दृशापीडविभोत केष्वेच् । १.३,८ ] ६६. अतोऽमुरादौ । [ वा गुरुकोपरी । १, ३, १० । आविते । १, ३ ११ ] ७०. रः पुरुष कुटाविच् । [ ईच् क्षुते । १, ३, १३ ] ७१. त्सच्छो रुद्रनुत्सन्नोत्सहे । [ वा मुसल सुभगयोः । १, २, १५ । दुरिपि । १, ३, १६ ] ७८. ऋज्यादावुच् । १, ३, ७ १, ३, ६ १, ३, १२ १. ३, १४ ७२. ओ स्की । [ वा कुतुहले ह्रस्वश्चोतः । १, ३, १८ ] ७३. आदूतः सूक्ष्म दुकूले लश्चद्विः । [ ईदुदयू । १, ३, २० ] ७४. वातुलकण्डूयन्मस्थूच् । [ वा मधूके । १, ३, २२ । इदेतो नूपुरे । १, ३, २३ ] १, ३, १७ १, ३, १६ १, ३, २१ ७५. ओत्स्थूणातू । [ चिकू तूणीण - कुष्माण्डीगुडूची मूल्य स्थूल ताम्बूले । १.३.२५ ] ७६. ऋतोत् । [ आद्वा कृशा मृदुत्वमृदुके । १, ३, २७ ] ७७. ऋष्यादा विच् । [ वा धूष्ट मृत्यु ङः मसृणा मृगाङ्की १, ३, २६ | अनिवृत्त वृन्दारके वृषभेतु बु: । १.३, ३० ] १. ३, २४ १. ३, २६ १.३.२८ [ गौणे १, ३, ३३ । इदतौमातरि । १. ३, ३४ क्वचिदगीणेऽपि १, ३, ३५ ] १, ३, ३२ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] प्राकृत चिन्तामणि ७६. [ पृथग्वृष्टिष्टनप्तृ मृदङ्ग । [ वृहस्पतौ वा १, ३, ३७ इजेचीवृते १,३३८ | मृष्यु जू जोचः । १, ३, ३६ । ऋपर प्ते १, ३, ४० ] दृशि क्विन्कन्कसेरिः । ६०. [ केवलस्य १, ३, ४३ ॥ ऋषिऋणऋऋजु ऋतुऋषभे वा १, ३, ४४ ] ८१. इलिच् क्लृन्न क्लृप्ते लृतः ८२. इदेतो वा चपेटा वेदना देवर केसरे [ उत् स्तेने १, ३, ४७ ] ८३. एर्जतः । १, ३, ३६ १, ३, ४२ १, ३, ४५ । १, ३, ४५ १, ३, ४८ [ सेन्धव शनैश्चरयोरित् १, ३, ४६ । दैत्या - दोचाइ १, ३, ५१ । वा देवरादी १, ३, ५२ । धैर्येईच् १, २, ५४ ] ८४. वाऽस्योन्याऽतोद्यप्रकोष्ठ मनोहरसरोरूहशिरो वेदनास्वदोतस्तकोश्च । १, ३, ५६ [ गव्यउजा बनाइच: १, ३, ५७३ ऊसोच्छ्वासे च सः १, ३, ५८ ] ८५. ओत् । १, ३, ६३ [ बोसो ना व्या वा । १, ३, ५८ आदौर वे । १, ३, ५६ अमीनादीच । १, ३, ६० उच वा को क्षयके । १, ३, ६१ अच् सौन्दर्यादी १, ३, ६२ ] ८६. उमी निषण्णे वा साज्झलाऽचः । १, ४, १ [ कदल विचकिलयोरेत् । १,४,२ । खे: कणिकारे १, ४, ३ । स्थविरायस्कारत्रयोदशादचित् १, ४, ४ । ऐदयो वा । १, ४, ५ ] ८७. लवणमयूर - मयूखोलूखलोदूखल कुतूहल चतुर्थचतुर्दश चतुर्गुण चतुर्वार सुकुमवत् । १, ४, ६ [ अपावतेषु । १, ४, ७ ऊदप्यूपे । १,४८ ] ८. हलोsस्के रायावतः । ८. कील कपरे खः कुब्जे स्वपुष्पे । [ कसित कासितयोरा । १, ४, १४ कन्दुके गः । १, ४, १५ । जाती किराते चः । १.४, १६ झवा जटिले । १, ४, १७ । च छोतुच्छे । १, ४, १८ । तूवर तगर - त्रसरेटच् । १, ४, १६ दशदोर्ड: । १ ४ २० ॥ धो दोप्ती १, ४, २३ ] ६०. नोण: [ लाण्हो नापितयोः । १, ४, २५ ] ६१. फच्पाटि पनस परिखा परिष परिषद् । [ वः प्रभूत मन्मथे । १, ४, २७ । भो विसिन्याम् । १, ४, २८ ६२. योजः । [ तोऽर्थवाचि युष्मदि । १,४,३० लोयष्टी । १, ४, ३१ णो ललाटे । १, ४, ३२ १, ४, २४ । या लाङ्गल लाङ्गल लाहुल लोले । १, ४, ३३ ॥ भो विह्वले भे । १.४, ३४ छ: शिरायाम् । १. ४, ३५ षट्सुधाशावशमी सप्तपर्णे १, ४, ३६ ] ६३. सर्वत्र शषोः स. । ६४. अचोऽकेरायाबत: २५. कोगो मरकत मदकले । १, ४, १३ [ वा स्थानकवास्यादौ । २, १, ३ । भौशीकरे । २, १, ४ । मच्चन्द्रिकायाम् । २, १, ५ । हृश्चिकुर निकष स्फटिके २,१.६ ] १.४, २६ १, ४. २६ १, ४, ३७ २, १, १ २, १,२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि सूत्र सूची | १६. खंघयध भाम् । २, १,७ १०४. फोभही। २,१,३७ [धोवा पृथकि । २, १,८। [विषम भ्रमरयोदसो। २, १,३८ । भागिनी पुन्नागे गोमच् । २. १, ६ । मोऽभिमन्यौवः । २, १, ३६ । लश्छागे । २, १, १०। कैटभेचित् । २, १, ४० ] वः सुभग दुभंगयोरुत्वे । २. १. ११] २,१,४१ ६७. चा सल्लौ खचित पिशाचयोश्चः। २, १, १२ १०५. प्रायः पचनयों। १८. कैटभ शकट सटासु टो ढंच् । २,१, १३ १०६. वा कृधतीयानीये यणोज्ज: खेरूत रीये। [स्फटिकाको ठयोलल्ली 1 २, १, १४ ।। २, १, ४२ लो वा पाटि चपेटा वेणु वडिशादी। छायायामद्यतौहः । २,१, ४३। कतिपयेद--बची। २,१, ४४1 २, १, १५ । पिठरे होरएचङः । वेरमेर किरौडः । २.१,४४ । के: वीरेण: । २, १, ४५ ] ६९. टठडा इठलाश्चिनः। १७०, प्रत्यादी इस्तोर प्रतिज्ञादावित्वे तु १०७, लोवरुणादो। २, १, ४६ वेतसे । २,१,१८ [ वा वठर जठर निष्ठेर । २, १,४७ [गभितेणः । २, १, १६ । भमरचरणयोःसत्वपादयोश्चित् । वाऽति मुक्तके । २, १, २० । २, १.४८ । स्थूलेरः । २. १, ४६ । रुदित सदेणच् । २, १, २१] बानीवी स्वप्ने । २, १, ५० ] १०१. रः सप्तत्थादावतारोकदल्याम्। २,१, २२ १०८, दशदिवस पाषाण प्रत्यूषे शरोहः । २, १, ५१ प्रदीपि दोहदातसीशात वाहने ल: [स्नुषार्याण्डः । २, १, ५२ । २.१, २३ वापलित नितम्ब कदम्थे । चन्द्राच्चहोघ । २,१, ५३ । १०६. प्रायोलुप् कचतषगजदपवाम् २,२, १ ले पीते वः । २, १, २५ । [नावर्णात्पः । २, २,२। मरत बसतो हः । २,१,२६ । ककुद कातर वितस्तिमातुलिङ्ग यश्रवणोऽवण: ; २, २, ३] चित् । २, १,२७॥ ११०. मोनिकामुकचामुण्डा यमुनासु। २, २, ४ ढो निषध प्रयममेथि शिथिर {अतिमुक्तके वा २, २, ५] शिथिले । २, १. २८ । वौषध पृथिवी निशीथे। २, १, २६ । १११. साचोगकोरागत प्राकार व्याकरण । २, २, ६ कदन वैयेंडः । २. १, ३० । [ जो दनुज भाजन राजकुले । २. २, ७ दोवस्कथिते । २. १, ३१] यो हृदय किसलय कालायसे। २, २, ८ १०२. नस्यणः। दो दुर्गा देवी पादपीठ पादपतनो १०३. पोः पापद्धों रः । २,१, ३३ दुम्बरे । २, २, ६ । [यमौ कबन्धे । २, १, ३४ । यावदा वर्तमानावट जीविततावशवरेमः १२, १,३५ । देव कुल प्रावारके व: केस्त्वेवमेवे वा नीपापोडे । २, १, ३६ ] २. ३. १० Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ | प्राकृत चिन्तामणि ११२. धृति दुहित भगनी वनितानां दिहि- १२३. गत वितदिच्छदि विच्छदि सम्मई धुआ वहिणी विलयाः। २,२, १४ मदित कपर्दे खेर्डच् यातु गदभे। २, ३, ३० [धरो गृहस्था पती । २, २, १५ [ मूर्बाध श्री ढो वा। २, ३, ३१ । धुहस्पती भयः । २, २, ११] वृद्ध वृद्धि दग्ध विदग्धे चित् । ११३. मातुपितुः स्वसुएछासि। २, २, २० २, ३, ३२] [दाढा दंष्ट्रायाः। २, २, २१] .. १२४. दत्तपञ्चदश पञ्चाशतिणः । २. ३, ३५ ११४. वा २, २, २२ | वृक्षपूर्वयो रुक्षपुरिमो। [सम्नयोः । २,३, ३६ । ण्टो वृन्ते । [क्षिप्तवदुर्ययोपछुतलि। २,३, ३७ ण्ड कन्दरिकाभिन्दिपाले । २, २, २३ ] २, ३, ३८ ] ११५. स्के:। २, ३,१ ११६. वा रुग्ण मृदूत्व मुक्त शक्तकः। २.३.२ १२५. पणश्नष्णस्न हणहना हः। २,३,३९ [स्वस्तीक्ष्ण-शुष्के स्कन्दे तुकेः । [ सूक्ष्मे म क्षोण्ह-हो। २, ३, ३ । टिकादो। २, ३, ७ । २, ३, ४०] संज्ञायां एक स्कोः। २, ३, ८ । १२६. स्तश्चित् । क्षस्य पवापि छझावापि । २,३, [श्रीवा स्पासाहे घरी हश्च । वा रक्त शुल्कयोगङ्गौ । २, ३, १०॥ २, ३, ४२ । मन्युचिह्नयोन्तिन्धी। शृङ्खलेङ्कच् । २. २, ११] ११७. चश्चत्वर कृत्ती। २,२,१२ १२७. पो भस्मात्मनि। [ त्योऽचैत्ये । २,२, १३ ] [क्म्ड मोश्चित् । २, ३, ४५ । ११८. प्रायस्त्वश्वदध्यां च छ ज झाः। २, २, १४ भीष्म प स्पा फः।२,३,४६ । [ ऋक्षोत्सवोत्सुक सामर्थ्य छः। खेश्लेिष्मणि। २, ३, ४७ । २.२, १७ ] हवोर्ध्वमः। २, ३, ४८ । ११६. लक्ष्म्यादी चित। २,२,१७ ग्मोमः। २, ३, ४६ । [क्षमाक्षणयोरिलामयोः । २, २. ग्मोमच् । २, ३, ५० । १८। ह्रस्वाद निश्चलेत्सप्पक्ष्य खेम्भिः श्लेष्मकश्मीर ब्राह्मण ब्रह्मचर्ये । चाम् २,२, १६] १२०, जोय्यद्यर्याम् । २, २२० आम्र ताम्र म्वच । २३, ५२ ] [चाजश्चाभिमन्यौ। २,२,२१ । १२८. म्हच पक्ष्म क्ष्म श्म म स्म ह्यामर झो बजे। २,२,२२। श्मिमरे। २, ३, ५३ ध्यह्मोश्चित् । २, २, २३ , १२१. टोऽवार्तादोर्तः । २, २, २५ [रोदशाहे । २, ३, ५४ । [ वृत्त प्रवृत्त प्रसन मृतिका " यस्तुर्य शौण्डीयं सौन्दयं ब्रह्मचर्य कथितो ष्ट्रोसंदष्टे । २,२, २६ ] धैर्ये तु वा एतः पर्यन्ते । २, २, ५५ ] १२२. रुटस्यठः। २,३, २७ १२६. आश्चर्येतोऽररिपरीअरिज्जाश्च । २, ३, ५७ [ अस्थिविसं स्थूलार्थेऽधने । २, ३, [ पर्यस्त सौकुमार्ये लः स्तस्तु २८ । वा चतुर्थस्त्याने । २, ३, २६ ] टो वा । २, ३, ५८ ] arawan t an Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि सूत्र सूची ! ६५ १३०. हलोल्हन् । २, ३, ५६ १४४. ह्य-लह-लउ-रला ह्य-लधुक [ वनस्पति वृहस्पती सोवा । -- ललाट हरतालेषु वा। २, ४, ३ २, ३, ६० । [निवहदर्वीकारोबहकरोः । २, ३, ४] तीथं दीर्घ दुःख दक्षिण बाष्पेहः । १४५. इदमर्थे केरन् । २, ३, ५ २, ३, ६१ । [ आत्मनो णयं । २, ४, ७ कुष्माण्डी कार्षापणे के: १ २, ३, ६२ ] युष्मदस्मदोरणोर्डच्चयः । २, ४,८] १३१. निस्प्रभनिस्पृह-परस्परस्तम्व समस्ते । १४६, मतुपो मामणाल्बा लेल्लोरुले षसोलुप् । रेत्तेन्तमन्त-चन्ता। २, ४, १३ १३२, कटतपगउदक पशरामवं १४७. अलोह-हि-त्याः। २, ४, १७ मदे। [वा तसो दो सो। २, ४, १८ ] १४८. डिमात्तणोत्वस्य । १३३. नमयाममधुश्मशानेऽधः । २.६, ६ १४६. वा स्वार्थकश्च । १३४. रलवामुभपेषामवन्दे। [ विद्युदन्ध पीतपत्राल्लः । २, ४. २३ । १३५, मध्याह्व-सर्वज्ञोपमयो विज्ञाने डिशनसः । २, ४, २६ । हत्रो। २,३,७१ डय च वा मनाकः । २, ४, २७ । १३६. द्वित्वमदीदचोऽकावस्क्योः शेष डालियोमिश्रात् । २, ४,२८ । देशयोरहोः । दीर्घाद्रः । २, ४, २६ । १३७. युग्माभ्यां प्राक्पूर्वो। २, ३,७६ १५०. अव्ययम् । १३८. मुकादौ २, ३, ७६ १५१. प्रश्न विमर्शयोः किणोमणे। २, ४, ३३ १३६. प्रभूतादी चित् । १५२. निश्चय निर्धारणयो 4 ले। १४०, माश्लाघारनेऽन्त्यहलः। १५३. केवले णवर जवरं । [ वाडग्नौ । २, ३, ४] १५४. स्वयमोऽर्थेऽप्पणे। १५५. एवार्थे णइच्च चिअचेमा २, ४, ५४ १४१. सर्वतप्तव क्रियास्थित् । २, ३.८५ १५७. सिद्धा इवार्थे पिव-मिव बन्च [ श्री ही दिष्ट्या कुत्स्नहर्षाभर्ष विम विव। २, ४.७० परामर्श चित् । २, ३, ८६ ] १५८. आहणात्सुपो नाम्नः। १४२. यात्स्याल्चत्य भव्यवीयं तुल्ये। २, ३, ७ १५६. चिद् विसर्गस्य चाक्लीवे । ३, १, १४ [ लादक्लमतुल्ये । २, ३, ८८ । १६०. जशसो दलप्। नात्स्वप्ने । २, ३, ८६ । १६१. वा दलुबोडी। ३, १, ४२ उत्सूक्ष्म स्त्र नेम्रात् । २, ३, ६३ । १६२. अमोमच् । पृथ्व्या वा। २, ३, ६६ १६३. वाऽदुदोत्तो भ्यस्शसोरेत् । ३. १. १८ छद्म पद्य द्वार मूर्खे। २, ३, ६७ १६४. टायारेणजातस्तु णः। अजिची चाहति । २, ३, ६८ ] १६५. हि हि हि भिसः। १४३. व्यत्ययो दह-हर-लन–चला १६६. भिस्सुपि चित् । ३, १, १६ ह्रदमहाराष्ट्रालानाचलपुरेषु। २, ४,१ १६७. सर्वत्र चतुर्थ्यन्ते । [ वाराणसी करेण्यां रणोः। २, ४,२] [वा उसन्त तादर्य डन्ते। ३,१,३६] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ | प्राकृत चिन्तामणि १६८. ङि ङस्योरेड़ दी। १६६. पञ्चम्याहिः । १७०. अणोत्तो पञ्चभ्यामचो दीर्घः । १७१. हिन्तो दुदो तो उसेः । १७२. सुन्तो च भ्यसः । १७३. fssसोमिठसठो १७४. मायेंङ सिः सपूर्व चन्द्रः । १७६. टाया णाच् । १८०. इदुतो दीर्घः । १८१. क्लोवाच्चङसिङसोः । १८२. ईदूतो: विपः । ३.१.१० १७५. गदामः । ३, १, ११ १७६. अक्लीवत्सो द प् । ३. १, २६ १७७. पुंसो जसो डउडओडवोऽयुतस्तु । ३ १,२७ १७८. शसश्च णो । ३, १, २३ ३, १, २५ १८३. सावात् । १८४, ऋतोङ । १८५. वाऽस्वमाम्पुत् संज्ञायान्तु यथादर्शनम् । १८६. बाबू संज्ञायाम् । १८७. डरं संज्ञायाम् । १८८ वा स्त्रियामुददौ । १८६. एडापः क्वचिदोऽपि । ३, १, १५ ३. १, १६ १६०. अमि ह्रस्वः । १९१ टाडिङसां चित् । १६२. आन्नानः । १२३. इसेरदादि देदः । १६४. ईतः सोश्चात् । १६५. संबुद्धेः । १९६. मातरि जनन्यामाच् । १६७. देवताया मराच् । १६८. स्वत्रादेर्डाच् । १६६. क्लीवा दचोऽसद्बुद्धे लुष । २००. जश्शसोदिदिणिदः । २०१ राजोऽनः । २०२. आणोऽनः सिराजवत्पक्षे । ३. १.८ ३, १,६ ३. १,७ 3. 1. & ३. १, २० ३, १, २४ ३१. ४० ३. १, ५१ ३, १,४४ ३, १,५० ३, १,४६ ३, १, ४५ ३, १,२६ ३, १, ४३ ३. १,३६ ३, १, ३२ ३, १,३३ ३. १,३१ ३. १, ३० ३, १, ४१ ३, १,४७ ३, १,४८ ३. १,३८ ३, १२७ ३, १,३० ३, १,५२ ३. १,५६ २०३. जश्शस्ङसिङसांगोद २०४. जनो णो णाडि ष्वित् । २०५. अमाणं । २०६. दापाणा । २०७. टाङसिङसां णाणवोर्डण । २०८. भिस्म्प सम्प्रस्वीत् । २०६. आत्मनष्टायाणिआणला । २१०. सर्वादेरतो जसोडेच् । २११. डेसिमामः । २१२. मिस्सित्था: । २१३. हिमनेतदिदमोवा कियत्तदश्च स्त्रियामपि । २१४. यदेतदिकिभ्योडाटायाः । २१५. म्हा इसेः । २१६. यत्तत्किमोड-स: २१७. काले ङ रिमाल्लादः 1 २१८. सौतदश्चा क्लीयेतः सच् । २१६. ओउतस्तदेतदो व २२०. सुपिक्वचित्त दोणः । २२१. डोस्तदः । २२३. तत्किमः सद् । २२४. एतदः सुनेणमिणमवेसा । २२५. ङसिनात्वेत्तं एत्ताहे २२६. अयमियम्मीम्मिनेतदश्च । २२७. एत्यन्येन । २२८. पु' स्त्रियामयामिमिया सुनावा। २२६. इम दमः । २३०. अङिया मिणमिहौ । २३१ हिस्सस्सि सुस्वत् । २३२. न त्थः । २३३. तसोच किम: कच् । २२४. कमोडिोडीसो | ३. १,५३ ३, १,५५ ३. १,५६ २२२ तदेतदिदमा वा ङसाम्भ्यां सेसिमौ 1 २३५. सुप्यमुरदसः । २३६. महसुना त्रिलिग्यां वा । ३.१.५४ ३. १,५८ ३. १, ५७ ३. १,६० ३.१.६१ ३. १,६४ ३. १, ६२ ३. १, ६३ ३. १७२ २. १, ६६ २. १, ६६ ३. १, ६८ ३. १,८७ ३, ९, १३ ३, १, ७२ ३, १, ७० ३, १,८३ ३,१,६५ ३, १,८४ ३, १,८५ ३. १,६० ३, १, ८६ ३, १, ७६ ३, १,७५ ३१,७५ ३, १, ७७ ३, १,७६ ३,१, ७४ २. १, ७१ ३, १,८५ ३, १, ८६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i । २३७. सुना युष्मदस्तं तु तुह तुमं तु २३८. जसा भे तु यही यह तुम्भा तुम्मे । २३६. या भाज्झ म्हौ । २४०. अमा तं तु तुए तुमे तुमं तुह तुवं । २४१. शसा भेवो तुम्हें तुम्हे तु । २४२. ट त तए तुइ तुए तुम तुमाइ तुम तुमं तुमे तेदिदे भे । २४३. भिसा मे उन्हे हि उज्झेहि उन्हे हि तुम्हे हि तुम्हहि । २४४. इसीत तुहु तुम तुव तुम्भ । २४५ ङसिना तुम्ह तहिन्तो तुम २४६ भ्यस्युम्होय्ह तुम्ह तुम्भा । २४७. सादिदे इए तु ते तह तुम तुमे तुव तुह तुहं तुम्ह तुमो तुमाइ । २४८. ङिना सह तए तुमे तुमाइ तुमए । [ आमा भे वो तु तुमाण तुवाण तुम्हाणो - म्हाण - तुम तुम्भाणा: ३ २. ११ ] तुम्भ २४६. ङिसुपोस्तु तुमतु तुह तुब्भाः । २५० सुनाऽस्मदोहमहम हिम्मयः । हय मम्म्य २५१. जसा भेऽम्हा हे ऽम्हो मो वयं । २५२. माहाहि मम्हणं णेमि मं ममं मिमं । २५३. शसा म्हेम्होऽम्हाः । २५४. टाणे मि मे मह मधु ममाइ मयारु ममं समए । ३.२.१ ३, २, २ ३२. १४ २५६. सौ भइ मज्झ मम महा । २५७, भ्यम्ह ममौ । २५८. उसाऽम्हम्हं मइ मे मज्झ मज्झ महं मम महा ३,२,३ २४ ३, २.५ २५५. भिमाणे अम्ह अम्हाहि अम्हेहि अम्हे । ३, २, ६ ३, ९.७ ३.२.८ ३.२.८ ३, २,१० ३२११ ३. २. १३ ३२. १५ ३.२.१६ ३. २, १७ २. २, १८ ३. २.१६ ३, २, २० ३.२, २१ ३.२, २२ ३. २, २३ प्राकृत चिन्तामणि सूत्र सूची | १७ २५६. आमा णे णो म्हेम्हो म्हाम्हं मज्झाणाम्हाणममाण मज्झ महाणा: । २६०. ङिना मि मे मइ ममाइ भए । २६१. सप्तम्या मज्झाम्ह ममहाः । २६२. व दो दुवे वोष्णि दोणि । २६३. भिसादी वे दो 1 २६४. अविगत्यादेः संख्याया आमो ह ह | २६५. जयशसा तिष्णि । २६६. वस्ति: । २६७. जश्शस्भ्यां चतुरश्चउरो चत्तारि चत्तारो । २७३. सर्वत्र चतुथ्यन्ते । २७४. वा तादङ । २७५. बहुवचनान्तं द्विवचनान्ते । २७६. अजातेः पु'सोवाङीप् । २७७. प्रत्ययान्तात् । २०६. छाया हरिद्राभ्याम् । ३. २, २४ ३. २, २५ ३.२.२६ ३, २, २५ ३. २.२६ ३, २, ३३ २६८. वा चतुरोभ्यसिच । ३. २, २१ ३. १,३७ २६६. यत्तदिदमंतत्किमोऽस्वमामि । २७०. सेसाठावी दृद्भ्यः । ३, १६७ २७१. नित्यं क्लीवे स्वमेदमिणमिणमो । ३१, १ २७२. किं किमः । ३. १, २ ॥ उत्तरार्द्धम् ॥ २७६. तिचादेरेकत्वे प्रथम स्ये पेपो । २०० वा वर्तमान विध्यादिशतृषु । २८१. बहुत्वे न्ति ते इरे । २२. मध्यमस्येकत्वे । २३. इत्याही बहुत्वे । २०४. मिरुत्तमस्यैकत्वे । २०५ वा मौ । २८६. बहुत्वे मुममाः । २८७. मोमेण्यच्च । २६. वर्तमान भविष्यतोश्चज्जाज्जौ । ३. २, ३२ ६, २, ३१ ܘܕܨܐ ܀ ६. २. ३७ २२, ३६ ३, २, ३५ २. १.३८ ६. १,३५. ३.१.३६ ३.३.१ ३, ३.२१ २. ३.० ३.३.३ २. ३, ४ ६. ३.५ ३. ३, १७ ३,३, ३, ३. १८ ३. ३, ३७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ | प्राकृत चिन्तामणि ३, ३, २३ २८६. ज्जज्जा ज्जे ज्जहि ज्ज सुषुचित् । ३, ३,२२ २१०. वा विध्या देदितु । २६१. विध्यादावेकत्वे प्रथमादीनांदुसुमु बहुत्वे न्तु ह मो । २१२. मोर्वा हिः । २९३. अतो ज्जे ज्जहि ज्ज सुलुपः । २६४. भूतार्थे व्यञ्जना दोअच । २५. भविष्यति हिरादिरिवादे रार्षेतु स्सः । २६. भविष्यत्तव्य क्त्या तुभ्यंच्च । २७. मेहना स्सं । २. हेरुत्तमस्य हा स्सा बा । २६ मुमोमानां त्यास्सा | ३०० क्रियातिपतौ । ३०१. अतएव सपी। ३०२. हरपिति । ३०३. प्रागिबादेश्चाजन्तात् । ३०४. अन्ततोऽचो बा । ३०५. बचः सो हो होआः । ३०६. करे: कुणः । १०७. आच् कृञोऽतीतानागतयोश्च । ३०. कृदाभ्यां हैं । ३०८. इबादी गमि हशिच्छिदिभिदि विदि खेच्छ मे बेच्छ रोच्छु भोच्छ मोच्छ वोच्छ सोच्छा हेश्च वा लुप् । ३१०. वाम्यन्तानां गच्छमादयः । ३११. तिङास्तेरत्थिः । ३१२. सिना सिः । ३१३. वा मिमोमें म्हि म्होम्हाः । ३१४ तदन्तस्यास्तेरस्य हेसो । ३१५. रचावचौ । ३१६. अजेज्लुप्युपान्त्य स्थात आ । ३१७. एचावेची च भूते । ३१८. वा भ्रमेराडः । ३१६. वा व्वक्कमंमावयोर्लु व्यकश्च । ३२०. चेक् । ३, ३. ३४ ३. ३.३५ ३, ३, ३६ ३,३, २४ ३, ३, २५ ३, ३, २० ३, २, ३० ३, ३, २५ २, ३, २० ३, ३, ३० ३,३,७ ४. १, ३ २, ३, ३८ २, ३, ३१ ३, ३, २५ ४, १, ६ ३, ४, ५ ३. ३, ३१ ३, २, ३२ ३, २, ३३ २,३,५ ३, ३, ६ ३, ३,१० ३. ३,२६ २, ३, ११ ३,३, १६ २, ३, १२ ३, ३, १३ ३, ३, ३३ ३, ४, ३४ ३२१. ग्रहया हुत्री वाहिप्पो । ३२२. अर्ध्या रमो विष्पाप ३२३. स्पृशे छप्प: । ३२४. जो णज्ज गप्प णश्वरः । ३२५. सिचिस्निहो: सिपच् । ३२६. बचि शोच्च दासी । ३२७. वा द्वित्वं गमादेरन्त्यस्य । ३२८. कृ हृ नृ. श्रामीरः । ३२९. दहेज्झः । ३३०. अनूप समे रुधः । ३३१. बन्धोन्धः । ३३२. दुहरुहरु विहांन्मोल उच्च | ३३३. खननोः । ३३४. शेषादिज्ज श्रीअचौ । ३३५. भावकर्मक्षु लु पाविचो । ३३६. गमयम । शिषां छः । ३३७. नृतमव्रजांच्त्रः । ३३. गृध क्रुध रुध बुध युध सिंध मुहां ज्झः । धम्मौ वा । ३३६. ३४०. पतसदोर्डच् । ३४१. भिच्छिदोन्दच् । ३४२ नमिरदो यः । ३४३. विजेरुदः । ३४४. सुजेर । ३४५. द्वित्वं शकादेः । ३४६. और बच् । ३४७, उररर्च् । ३४८. अरिच् कृषादेः । ३४६. दीर्घास्तुषा देरचः । ३५०. किङ त्यपि टवोर्गुणः । ३, ४, ३५ ३. ४, ३६ ३. ४, ३७ ३५१. अचामचः । ३५२. हलोऽगनी | ३५३. णक् चिज हुस्तु श्रुधू पुल भ्यो ह्रस्वश्च । ३, ४, ३८ ३, ४, ३६ ३. ८, ४० ३. ८. ४१ ३. ४, ४२ ३, ४, ४३ ३, ४, ४४ ३, ४, ४५ ३. ४.८६ ३. ४. ४७ ३, ४, ४ ५३. १५ ३.४६ ३. ४, ७ ३, ४, ६ ३, ४, १० ३, ४, ११ ३, ४, १६ ३, ४, १७ ३, ४, १८ ३, ४, १६ ३, ४, २१ ३. ४, २४ ३, ४, २५ ३. ८, २६ ३, ४, २७ ३, ४, २८ ३. ४.२६ ३, ४, ३० ३, ४, ३२ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि सूत्र सूची | ६० ३५४. इदितां घातूनां वान्देशाः । ४, १,१ ३८३. वेपेरयज्झायम्मो। ४,२ १२ ३५५. हो हबहु वा भुवेः । ४, १, २ ३८४. स्वपेलिसलेट्ट कम्बसाः। ४, २.३६ ३५६. कृः कुणः। ४, १,७ ३८५. गमेरई. -णो–णाण..-रम्भ-बोल ३५७. को क्व पो को व्याहरेः । पदअ-णिवह--णीलुक्क-णिम्महा३५८. प्रसरे हवेल पयल्लो। ४. १, १७ इच्छा वजसा - कुसोक्कुसाणु ३५६. गन्धे महमहः। बज्ज पच्चड पच्छन्द-परिअल परिअल्लावहररावसेह-गिरिणासाः । ३६०. स्मरे: सुमर झर झूर पयर भर पम्हहः मम विम्हाI , ५५ ३८६. प्रविणि हसि संदिशीनों रिअ ३६१. विस्मु बिम्हर-वीसर–पम्हुसाः। . मृजाप्पाहाः 1 ३८७. भषि वलिदलिभ्रक्षाणां भुक्क वम्फ ३६२. शके: पार--तर–तीर-नयाः। ४,१.२८ चोप्पडाः । ३६३. मुञ्चे मरुलाब हेडो सिसक्क छडुणि ३८. नशेः सेहावसेहावह पडिसा . लुब्छ धसाउ-रेअवाः। ४, ५. २६ गिबह णिरि णासाः। ४, ३, ४ ३६४. राजेशष्ठज्जाग्घरीररे हसहाः। ४. १, ४६ ३६. भ्रषचुक्क भुल फिट्ट फुट्ट–फिड ३६५. विढवोऽजें। ४,१, ४५ फुडाः । ३६६. घूाँ घुम्म घुल घोल पहलाः । ४, ५, ६ ६१०. काह क्षे शह मह सिह वच्च वाफ ३६७. भुजो भुजाण्ह कम्म च हु जिम विलुम्पा हिलाहि लढाः। ४.३, १३ जेम चमढ समाणाः । ४, १.५० २६१. कृषे रच कड्ढाण हा छाय ३६८. उपेन कम्मवो वा। ८, १, ५१ ३६६. युजो जुज्ज जुञ्ज जुप्पाः । ४, १, ५२ ३६२. स्पृशपिछप छिह फंस फास परि ३७०, सनेस्तड तड्ड तडव विरल्लाः । साहिलुङ्खाः। ३.७१. विवृत्तिक्वथ्योधू साहो। ३७२ घुसल विरोली मन्थेः । ३६३. दृशो निअ देक्ख पेच्छ पास वज्ज ३७३. छिदेलू र णिल्लूर णिव्वर--णिच्छल पुलअ-पुलोअ सबब नियच्छा णिज्झोर दुहावाः। वयच्छा बयज्झा वरुक्खाव अवक्षो अवस्खावयासा: । ३७४, कुधि रुध्यो जुरो स्थलो। ३७५. खिदर विसरो। ३६४. ग्रहो गण्ह हर पङ्ग बल निरुवा ३७६, व्यापिसमाप्योरोअग समाणौ।। शाह पच्चुआ। ३७७. निःश्वास सतप्योर्स खः । २,१४ ३६५. त्रसेडर वज्जबोज्जाः । ३७६. बिलपेबडवडश्च । ४, २, १५ ३६६, दहेरालवाहि ऊली । ३७६. उपालम्भेशसबेलब पच्चायः। ४, २, १६ ३६७. मुहेगुंम्म गुम्मडी। ३८०. ढवरभ्मोरभे राष्टः। ४,२,९८ २६८. स्थष्ठा थक्क चिट्ट निरप्पा. I ३८१. लुभेः सम्भावः। ४, २, २९ ३९६. जाणमुणो ज्ञः । ३८२. प्रदोपेरभुत्त अवसंधुक्क संदुमाः। ४, २, ३, ४००, गध्ययो गाझो । .. - ... C Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० | प्राकृत चिन्तामणि ४०१. श्रद्धः सद्दष्ट्री। ४, ३, ४० ४११. अन्यार्थे स्वपि धातुः । ४, ४, ३४ ४०२. पिबेः पट्ट–डल्ल-पिजज-घोट्टाः । ४१२. क्त्योऽत तु तूण तुआणाः। ३, ३, ४३ ४०३. कश्चव जम्प संघ योल्ल सोहसो ३.१ ४१३. तुम क्त्वा तव्ये ग्रहो चेत् । ३, ४, १ पाल पिसुण–पज्जर वज्जराः। ४, ४.२ ४१४. भुजमुच रुद वचा मचाऽन्त्य स्यौत । ३, ४, २ ४०४, जगुप्से झुण दुगुच्छ दुगुच्छाः । ४, ४, : ४१५. श्रुयो या। ४०५. क्षये णिज्झरः। ४, ४, १२ ४१६. तत्तेन दृशोऽट्टच् । ४०६. णेश्छ दे र्छवक णुमनूम सन्नुमपब्वा ४७. स्तमान ३, ४, ४१ लोम्बालाः। ४१८. स्त्रियामीच । ४०७. अश्चच्चु पालिय पणामाः। ४, ४, १४ ४०८. हर्शदंस दावदक्ख वाः । ४१६. क्त चित् । ४, ४, १७ ३, ३, १६ ४७६. प्रस्थापेः पण्डव पट्टवा । ४, ५, २३ ४२०, वीर्ष देरविः। ४१०. विज्ञपेर्वोक्का बुक्को। ४, ४, ३२ ४२१. आक्रान्तादीनामप्फुणादयः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ शौरसेनी भाषा सूत्राणि ॥ ५. १, १४ ४२२. शौरसेन्यामनादायसंयुक्तस्य तो दः। ४३५. अतोडसे दुद्दौदो। .. .! ४३६. गणिमिदानीमः । ४२३. क्वाप्यघः। १.२ ४३७. हर्षे ऽम्हेहे। ४२४, वाणावरयादेः। ५, २, ३ ४३८, हो ही वदुषके। ४२५.घस्थस्य। ४२६. हस्येहहपोः । ___४३६. एवार्य य्येवेन्वी। ४२७. भुवो भः। ४४०. णं नन्वर्थ वाक्यालङ्कारे । ४२८. यस्य य्यः। ५. १,७ ४४१. चटयाह्वाने हजे । ४२६. सोमवदादे नोर्मन् । ५, १ ४४२. निर्वेद विस्मये हीमाणहे । ४३०. सम्धुद्धी वा। ५, १,६ ४४३. इपेपोदिः । ४३१. आदिनः। ५, १, १० ४४४. अतो देच । ४३२. पूर्वेरादग्धस्वश्च । ५, १, ११ ४४५. एष्यति हेः स्सिः । ४३३. णगम्त्यान्मादिदेतोः । ५. १, १२ १४६. इयदुणी क्त्वो वा। ४३४. तस्मात स्ताच । ५, १, १३ ४५७, सिद्धमनुक्त प्राकृतवत् । ५.१.२० ५.१, २१ ५, १.२४ १, २, ॥ अथ मागधी भाषा सूत्राणि ॥ ४४८. मागध्यामनादेःक्षः कः । ५, २, १ ४५६, ष्ठट्टथोस्टः । ४४६. प्रारभ्यामीक्षचक्षोः स्कः। ५, २,२ ४५७, स्तः स्थर्थयोः। ४५०. छः प्रचः । ५, २, ३ ४५८, पुस्यत एत्सी। ४५१. वजोजोन्त्रः । २, ४ ४५६. वाडवर्णान्ङ सोडाहः । '४५२. शजण्यन्याम् । २, ५ ४६०. आमोडाहं। ४५३, जघोयेय्यौ। ५, २, ६ ४६१. अहंवयमोहंगेच् । ४५४. सरोः शली। २,७ ४६२. तिष्ठस्य चिष्ठः । ४५५. स्कोषसोरग्नीष्मे सः । ५, २, ८ ४६३. अनुक्त मौरसेनीवत् । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७. पैशाच्यां दोस्तु । ४६८ को न ४६६. तस्तदोः । ४७०. पो यस्य हृदये । ४७ १. लो लस्य । ४७२. सः शषोः । ४७३. ज्ञण्यम्योराज्ञे चिञ्ध । ४७४, क्वचित्स्नष्टयसिनसटरियाः । ४७५. तो इसेस्तुत्तोदो । ४७६. टान्तेदंतदो नैन 1 ४७७. स्त्रियां नाए । ॥ अथ पैशाची भाषा सूत्राणि ॥ ४७८. यादृशादी दुस्तिः । ४७६. इपेपोः । ४८०, असस्ते च ५.२, १७ ४८१. एष्यति केवलमेय्य । । ५२, १८४८२. तुतः ५२१६ ५, २, २० ५. २, २१ ܘܘ ܕ ५, २, २३ ५, २, २८ ५. २.२५ ५, २, २६ ५, २. २७ ५. २,२८ ५, २,२६ ५, २, ३० ५, २३६ ५. २,३९ ४०३. टून त्थून छूनाः ष्षः । ४४. इष्योयकः । ४=५. कृनोडोरः । ४८६. अनुक्त' शौरसेनीवत् । ४८७. न कोल कर्तेत्यादि विभाषाऽतिमुक्तकेऽन्त सूत्रोक्तम् । ॥ अथ चूलिका पशाची सूत्राणि ॥ ४८. धूलिका शाच्यां तृतीय चतुर्थयोः किखी । ४९. वा पदादियुज्योः ४६०. रोलः । ४६१. अनुक्त' पैशाचीवत् । ५. २,३३ ५, २, ३४ ५, २, ३५ ५, २, ३६ ५, २. ३७ ५. २, ३० ५, २, ३६ ५, २,४० ५२, ४१ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथापनश भाषा सूत्राणि ॥ * * * * * * * * ४६३. अचामचः प्रायोऽपभ्रशे। ४६३. सुपि दीर्घ ह्रस्वो। ८६४. स्वम्जशस्ङ सामां लुप् । ४६५, सम्बोधन जसो होः । ४६६. हि भिस्सुप. । ४६७. अतः स्वमोफत् । ४६८, वा पुम्योत्सौ। ४६६. टाया मेच्टश्चणचन्द्रौ । ५००.भिसिवा। ५०१. उसे श्चितीहेहू। ५०२. हुभ्यसः। ५०३. सुस्सुवो ङसः । ५०४. हमामः। ५०५. इदेली डिना। ५०६. इदुद्भ्यां टाया ए णचन्द्रा। ५०१. ङसिङ योर्हे ही। ५०८. यसोड्। ५.०६. हंचामः। ५१०, जश्शसोरुदोस्त्रियाम् । ५११. टाया ए। ५१२. हे ङ सि सोः। ५१३. हुभ्यं सामोः । ५१४. हि । ५१५. जश्यासोरि क्लीवे । ५१६. अतः स्वमोर स्वाथिकस्य । ५१७. किं सर्वयो व कवण साहौ। ५१८. सर्वादेडसि ङ्यो ही हिमो। ५१६. किमोडसेडिहे। ५२०. कि यत्तदभ्यो इसोडासुः । ५, ३.१ ५२१. स्वमियत्तदोध्र मौ। ५, ३, २ ५२३. एतदः पुस्त्रीक्लीवेष्वेहो जेह ५, ३, ३ जेहुचः । ५, ३, ४ ५२३. जशशसोरेः । ५, ३, ५ ५२४. ओहर दसः । ५, ३.६ ५.५. इदमः सुप्यायः । ५, ३. ३५ ५, ३, ७ ५२६. इहे स्त्रियाम् । ५. ३, ८ ५२७. इदम इमुच् क्लीवे । ५. ३.३१ ५, ३, ६ ५२८. मुना युष्मदस्तुहु । ५.३३ ५, ३, १० ५२६. जश्शसा तुम्हे तुम्हइ । ५, ३,११ ५३०. अम्टाडिना तई पई। ५, ३, १२ ५३१. भिसा सुम्हेहि । ५, ३.१३ ५३३. हसिडसा तउतुज्झतृध्राः । ५, ३, १४ ५३३. भ्यसामा तुम्हई । ५, ३, १५ ५३४. सुपा तुम्हासु। ३, १६ ५३५. सुनाऽस्मदो हउँ । ३, १७ ५३६. जयशसाऽम्हे म्हई । ३, १८ ५३७. अन्टाङिना मई । ३, १६ ५३८, भिसाऽम्हेहिं । ३. २० ५३९. सिङसामहुमज्झू । ५, ३, २१ ५४०. भ्यसामाऽऽम्हह । ५, ६, २२ ५४१, सुपाऽस्मासु ५, ३. ५० ५, ३, २३ ५४२. चा तिवादेः प्रथमस्य बहो हि। ५, ३, २४ ५४३. मध्यमस्यैक वह्वोहि है। ५, ३, २५ ५४४. उंहमाबुत्तमस्य । ५, ३, ५३ ५, ३, २६ ५४५. हिस्वयो रिदुक्षेतः । ५. ३,२६ ५४६. भविष्यति सः स्यस्प । ५. ३, २७ ५४७, कुर्वे करोभ्योः कीसु । ५, ३. २८ ५४८, तनो णयच् । ५, ३, ५७ * * * * * * * ४ * Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ | प्राकृत चिन्तामणि ५४६. दृश ग्रह व्रज प्रभु वां प्रस्स गृण्ह वुन पहुच्चाः । ५५०. ब्र ूञो ब्र ुवः । ५५१. होरत्रः स्कौलघुरुवचारः । ५५२. कादिष्तेतोः 1 ५४३. पदान्ते चन्द्रस्स 1 ५५४. अचोऽकावस्कीनां कखतथपफांगधत्र भाः । ५५५. वा मोत्रञ् । ५५६. म्हो म्भः । ५५७. इत्र संपाद पदापदां दः । ५५८. यथा तथाकथमामथा थमो रि हेममाः । ५५६ कीहगी हग्या हस्ता हशामोहशा शोरेहः । ५६०. आइसोऽताम् । ५६१. एतावत एतुलः । ५६२. कियदि द्यावत्तावता मियदावतो रेवश्च । ५६३. त्रलन्तानामेत्ते हे त्रलोचा । ५६४. एत्थु वा कुत्रे । ५६५ यत्रतत्रे ऽत्तुच । ५६६. स्वतलो: प्यणच् । ५६७ युष्मदादेश्छस्प डारः । ५६८, अन्यादृशोऽवराइ सान्नाइसौ | ५६६. वत्र्मोक्त विषण्णानां विच्च वृत्त बुन्नाः । ५०० आत्मीयादीनामप्पणादयः । ५७२. अव्ययस्य यावत्ता उमहिमाः । ५७२. जयवैवमेवंतासिदानीमाम हबइ एम्बइ एत्सहे एम्बहि । ५०३. अवश्यभोऽवसे नवसौ । यतोवंत ५. ३.५८ ५३, ५६ ५. ४. १ ५, ४, २ ५. ४, ३ ५, ४, ४ ५, ४, ५ ५, ४, ६ ५, ४, १० ५. ४, ११ ५, ४, १२ ५. ४, १३ ५, ४, १४ ५, ३, १५ ५. ४, १६ ५, ४, १७ ५. ४, १० ५, ४, १६ ५, ४, २० ५. ४, २१ ५. ४, २२ ५. ८. २३ ५. ८. २४ ५. ८, २५ ५, ४, २६ ५७४ किमेवं ध्रुवं समं परमां काइमेस्व ध्रुवु समाणु पराः । ५७५. प्रत्युत पश्चादेव किलानां पञ्चलिउपचइकिराः । ५७६. एकशो बिना पुनरामे नकसि विणु पुणवः । ५७७. कुलसः कउ कहन्ति । ५७८. तदारुतसोस्तो | ५७६. प्रायसः प्राउ - प्राइस - प्राइम्व - परिस्वा: । ५८०. मामनादिवा नहि सहानां मंमणाउ -- दिवे नाहि सहुम । ५०१. अनुरन्यथो वा । ५.२ इवार्थे नं ---- नाइ नावइ - नउ-जणु - जणिच । । ५, ४, २० ५३. तादर्थ्य तणेण — केहि तेहि रेसि - रसयः । ५८४. चेष्टा शब्दानुकरणयांग्ध हुदुर्वा दयः । ५, ४, २० ५, ४, २६ ५, ४, ३० ५. ४, ३१ ५, ४, ३२ ५, ४, ३३ ५, ४, ३४ ५. ४, ३५ ५, ४, ६६ ५, ४, ३७ ५, ४३८ ५८५. मादयोऽर्थशून्याः । ५, ४, ३६ ५, ४, ४० ५८६. तथ्यस्य एवा एव्बउ इव्बउ । ५७. इ - इउ - इवि - अत्रय क्त्व | ५. एवमणह्मणमिणास्तुमुनः । ५८६ उभयो रेप्येष्पिण्येव्येविणवः । ५६०. गमेर्वापणू । ५, ४, ४१ ५. ४, ४२ ५,४,४३ ५,४,४५ ५, ४,४६ ५६१. अ -- उ — डुल्लायोगजाश्च स्वार्थ । ५ ४, ४८ ६२. स्त्रियामे तदन्ताड्डोप ५६३. आन्तान्ताड्डाप् । ५२४. डाप्यत इत् । ५६५. लिङ्गमव्यवस्थितम् । ५६६. अनुक्त' शौरसनीवत् । ५६७. व्यत्ययोऽन्येषाम् । ५४, ४७ ५, ४, ४६ ५, ४, ४६ ५, ४, ५० ५६८. सिद्धमनुक्त संस्कृतषट् । ५, ४, ५१ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! प्राकृत चिन्तामणि प्रन्थकर्ता : प्रशस्तिः | १०५ || प्राकृत चिन्तामणि -ग्रन्थकर्तुः प्रशस्तिः ॥ श्री वर्द्धमानं हृदये निधाय श्री गौतमं जैनसरस्वतीं च । वदाम्यहं प्राकृतसूत्रपञ्चाध्यायी विनिर्माणप्रवृत्तिहेतुम् ॥ १ ॥ सन्तो विजानन्तु विवेकबुद्ध्या विचारयन्तो हृदयेन सम्यक् । हितं कियद्वाज्यहितं कियद्वा लोकेऽथवाऽस्त्यत्र परत्रलोके ॥ २ ॥ जगत्यनन्ते विलसन्त्यनन्ताः पदार्थसार्था न परन्तु सर्वे । भवन्त्युपादेयतमा जनानां परं पुमर्थस्त्वभिवाञ्छनीयः ॥ ३ ॥ धर्मार्थकामा विषयप्रधाना ददत्यवश्यं विषयेषु सौख्यम् । परन्तु लोकोत्तरसौख्यदाता त्राता च मोक्ष्यो दृढकर्मबन्धात् ॥ ४ ॥ मोक्षस्य मार्गस्तु समस्ति सम्यग् ज्ञानं तथा दर्शनक तपश्च । चारित्रमेतन्मिलितं समस्तं ज्ञानं प्रधानं परमं तु तत्र ।। ५६ विविधं हितं च । ज्ञानस्य तस्यापि प्रधानहेतुः समस्ति शास्त्रं स्यात्संस्कृतं प्राकृतमेव तस्माद् द्वयं जनानां समपेक्षणीयम् ॥ ६॥ तत्रापि धीमज्जनतोपकृत्ये प्रकल्पते परत्वयं प्राकृतशास्त्रदीपः प्रकल्पते तत्वं विजानन्तु सुखादवश्यं स्त्रीबाल - लोका यस्मादहो प्राकृतशास्त्रदीपात् तस्मादहं संस्कृतशास्त्रदीपः । प्राकृतमानवेऽपि ॥ ७ ॥ महत्तमं व्याकरणं च प्राकृतं वाल्मीकिरेवास्ति यदीय कर्त्ता अपि मन्दमूढाः । प्राकृतमातनोमि ॥ ८ ॥ · rathor खिलेषु बोध- प्रदीपमाला वितता समन्तात् । प्रकाशयन्ती सकलान्पदार्थान् भवेत्तथा स्यान्महतां प्रवृत्तिः ॥ ॥ इत्येव हेतोस्त्रिपद जिनेन्द्रा उपादिशन् प्राकृतभाषयैव । दयासुधा गणनायकश्च व्यधापि तत्प्राकृतशास्त्रजातम् ।। १० ।। तथा नवीनैरपि तत्वविज्ञ : hatद्रवश्च मुनीन्द्रवर्य: । आविष्कृताः प्राकृतशास्त्रदीपा विनाशयन्त्यन्धतमोजगत्याम् ॥ ११ ॥ प्रसिद्धमेवादिकवि महर्षिः । प्रसिद्धरामायणजन्मदाता ॥ १२ ॥ अत्र प्रमाणं तु गवेष्यते चेद् गवेष्यतां प्राकृतरत्नदीपैः । प्रस्तावनायां प्रतिपादितस्त न कोऽपि शंकावसरः कदाचित् ॥ १३ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ | प्राकृत चिन्तामणि ग्रन्थकर्तृ प्रशस्तिः कौवं विनिन्देति' पद्यखण्डादारभ्य वै प्राकृत एव स स्यात् । इत्येतदन्तं तु महत्वपूर्ण प्रमाणयत्येव हि प्राकृतं वै ।। १४ ।। पुरातनं वाररुचं च नूनं श्री हेम चन्द्र रवि प्राकृते स्मिन् । अन्यैश्च विदभिरपि प्रणीतं विराजते व्याकरणं प्रसिद्धम् ॥ १५ ॥ नवीन - प्राचीन - मनी पिशास्त्राण्यभित्यघासीमुनिना नितान्तम् । विनिर्मिता प्राकृतसूत्रपञ्चाध्यायी नवीना जनतोपकृत्यै ।। १६ ।। सालमानवानामवश्यमत्यन्तसुखावबोधा । बुद्ध्यानवैवात्रममप्रवृत्तिर्न कारणं किञ्चिदतो न्यदस्ति ।। १७ ।। अस्यां च प्राक्प्राकृतमस्ति पश्चांनिवेशमास्ते किल शौरसेनी। ततोनिविष्टा मगधस्य भाषा पिशाचभाषा च ततोऽपि पश्चात् ॥१८॥ अनन्तरं चलिकया विशिष्टा पिणाचभाषैव तु सम्रिविष्टा। पश्चादपभ्रशमयी च भाषा निविश्यमाना नितरां विभाति ।। १६ ।। टीका तदीया द्विविधा सुबोधा कृता मया बालहिताय सम्यक् । या कौमुदी सा बहती तदन्या लषस्तु चिन्तामणि नामिका च ॥ २० ।। तयोर्दयोस्तत्वप्रदीपिकायपि प्रदीपिकावत्परतो व्यधायि । सदाभृशं या विनिहन्त्यवश्यं मोहनमः प्राकृत मानवानाम ।। २१ ॥ निमजतां प्राबलशास्त्रसिन्धी या प्राणिनां नौरुपकारिणीवत् । आरुह्य यास्यन्ति जनाः सुखाता पारम्परं शास्त्रमहार्णवाय।। २२॥ मात्सर्य मुत्सार्य विवेकहष्ट्या लोका मदीयां कृतिमाकलय्य । शुभाशिषैर्माभिनन्दयन्तो भवन्त्यवश्यं मुदिता नितान्तम् ॥ २३ ॥ श्री वर्द्धमानस्य तदीयवाच: श्री गौतमस्याऽपि मनीषिणां च । कृपा दृष्ट्या नितरां मदोया कृतिर्जगत्यां जयतात् समन्तात् ॥ २४ ।। वीरप्रसादादियमद्यलब्धा प्रकाश्यते लोकहिताय सम्यक । प्रकाशितया मुखमातनोतु जिज्ञासु लोकोऽवतिप्राकृतेषु ॥ २५ ॥ न केवलं प्राकृतमानबानामपीह धीमद्विदुषां जनानाम् । अवश्यमेवोपकरिष्यतीयं वीरप्रसादादनिशं नितान्तम् ।। २६ ।। इमां कृति श्री मुनि घासीलाल: समयं वीरे सुखमादधानः । भवन्तु लोका: सुखिनो जगत्यामित्येव बांच्छामनिशं करोति ॥ २७ ।। ॥ इति ग्रन्थ कतु : प्रशस्तिः ।। १ -कोवै विनिन्देदिमाभाषां भारती मुग्धभाषिताम् । यस्याः प्रचेतसः पुत्रोच्याकर्ता भगवानृषिः ॥शः गाय - गालब - शाकल्प - पाणिन्याद्या यथर्षयः । शब्दराश-संस्कृतस्य व्याकर्तारो महत्तमाः ॥२॥ प्राकृतादीनां षड्भाषाणां महामुनिः 1 आदिकाव्यकृदाचार्यो व्याकर्ता लोकविश्रुतः ।।३।। यथव रामचरितं संस्कृतं तेन निनितम् । तथैव प्राकृतेनापि निर्मितं हि सतांमुदे ॥४॥ पाणिन्या द्यैः शिक्षित स्वात् सांस्कृतीस्याद्यथोत्तमाम् । प्राचेतसः व्याकृतत्वात्प्राकृत्यपि तयोलमा ॥५॥ पाकृतं चाषमेवेदं यद्धि वाल्मोकिपिक्षितम् । तदनार्ष बदेचावे प्राकृतः स्यात्स एव हि ।।६।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत चिन्तामणि प्रन्थकार कृत प्रशस्ति | १०७ प्राकृत चिन्तामणि ग्रन्थकार कृत प्रशस्ति भगवान श्री व मान स्वामी एवं गणधर गौतम स्वामी को तथा जिनवाणी (सरस्वती) को नमस्कार करके प्राकृत सूत्र पंचाध्यायी के निर्माण का हेतु बताना चाहता हूँ । (१) सन्त जन सम्यक् विवेक बुद्धि से यह जानते हैं, कि जगत में हित क्या है, अहित क्या है ? इस लोक-परलोक में कल्याणकारी क्या है ? (२) इस जग में अनन्त अनन्त पदार्थ है, किन्तु सभी उपादेय नहीं है। जिससे पुरुषार्थ - आत्मार्थसिद्ध होता है वही वांछनीय है । (३) (४) संसार में धर्म, अर्थ, काम रूप पुरुषार्थ भौतिक सुख अवश्य प्रदान करता है, किन्तु लोकोत्तर सुखों का दाता और कर्म बन्धन से मुक्ति प्रदाता तो 'मोक्ष' नामक चतुर्थ पुरुषार्थ ही है । इनमें मोक्ष का मार्ग है - सम्यग् ज्ञान-दर्शन तप एवं चारित्र । ये चारों सम्मिलित रूप में ही मोक्ष मार्ग है | सम्यग् ज्ञान इनमें प्रधान - प्रमुख है । (2) ज्ञान प्राप्ति का प्रधान कारण है-शास्त्र ! शास्त्र प्रायः संस्कृत एवं प्राकृत भाषा निवद्ध है । अतः जिज्ञासु जनों को दोनों भाषाओं का अध्ययन अपेक्षणीय है । (६) बृद्धिमान जनों के लिए प्रायः संस्कृत भाषा में शास्त्र लिखे जाते हैं । परन्तु सामान्य मानवों को बोध देने के लिए प्राकृत भाषा में शास्त्र प्रकाशन भी जरूरी है । (७) प्राकृत भाषा रूप शास्त्र - दीपक के प्रकाश में स्त्री-बालक-मन्दज्ञानी आदि सामान्य जन भी सुखपूर्वक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । अतः मैं प्राकृत भाषा में व्याकरण का विस्तार करता है। (=) जिस प्रकार दीपक माला समूचे लोक में चारों तरफ प्रकाश फैलाती है, उसी प्रकार जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट त्रिपदी – जोकि प्राकृत भाषा में है, समस्त जगत में ज्ञान का प्रकाश फैलाती है। (९-१०) प्राकृत भाषा का ज्ञान कराने के लिए अनेक कृपालु आचार्यों ने प्राकृत व्याकरण आदि का निर्माण किया है । अनेक नवीन विद्वान तत्त्र विज्ञोनें भी प्राकृत दीप का प्रकाशकर जगत का अज्ञानान्धकार दूर करने का प्रयास किया है । (११) सुप्रसिद्ध आदि कवि महर्षि बाल्मीकि जो रामायण के जन्मदाता ( सर्जक ) थे उन्होंने प्राकृत भाषा का महान व्याकरण बनाया । उसका यदि कोई प्रमाण देखना चाहें तो प्राकृतरत्नदीपिका की प्रस्तावना में देख सकते हैं। (टिप्पणगत श्लोक १०६ परदेखें ।) (१२-१३) प्राकृत भाषा के अनेक खण्ड काव्य, व्याकरण आदि भी प्रसिद्ध है । वररुचिकृतप्राचीन प्राकृत व्याकरण तथा आचार्य श्री हेमचन्द्र रचित नवीन प्राकृत व्याकरण भी प्रसिद्ध है । (१४१५ ) प्राचीन एवं नवीन मनीषियों द्वारा रचित शास्त्रों का अध्ययन कर घासी मुनि (मैंने ) प्राकृत सूत्र पंचाध्यायी (नवीन कृति) का जनता के उपकार हेतु निर्माण किया है। (१६) यह प्राकृत -- सामान्य मानवों के लिए सरलता से समझो जा सकेगी – ऐसी मेरी कामना है, इसी कारण मैंने यह प्रयत्न किया है । (१०) इसमें सर्वप्रथम - प्राक्रुद्ध भाषा व फिर शौरसेनो, उसके पश्चात मागधीभोपा. देशाची भाषा उसके पश्चात् चूलिका पशाचो पश्चात् अपभ्रंश भाषा का वर्णन किया गया है । (१८-१९ ) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 | प्राकृत चिन्तामणि ग्रन्थकार कृत प्रशस्ति इसमें दो प्रकार की सुबोध टीका मैंने बनाई है-१. प्राकृतकौमुदी-यह बृहद टीका है। 2. प्राकृत चिन्तामणि-यह लघु टीका है / (20) इन दोनों में प्रदीपिका (दीपक) को तरह प्रकाश करने वाली दीपिका बनाई है-जो पाठकों के अज्ञान मोह रूप अन्धकार को दूर करती रहेगी। यह प्राकृत चिन्तामणि तत्वदीपिका प्राकृत-भाषा रूप महासमुद्र में उतरने वालों के लिए नौका के समान उपकार कारिणी है / इस पर आरूढ़ होकर सुखपूर्वक प्राकृत भाषा सागर को पार कर सकेंगे। (22) विद्गण मत्सरता त्यागकर गुणज्ञ दृष्टि से मेरी इस कृति का आकलन करेंगे तो अवश्य ही वे शुभाशीषों द्वारा अभिनन्दन कर प्रमोद भाव का अनुभव कर सकेंगे। भगवान श्री वर्द्धमान स्वामी गणधर गौतम जैसे मनीषी के कृपा प्रसाद से मेरी यह लघु कृति जगत में विजयी बने। (24) _ भगवान वीर की कृपा का प्रसाद प्राप्त कर मैंने लोकहित के लिए इसका विस्तार-प्रकाश किया है। यह सभी जिज्ञासु लोगों एवं प्राकृत भाषा के पाठकों को सुख प्रदान करें। (25) यह कृति न केवल प्राकृत मानव (सामान्य मानव); किन्तु बुद्धिमान जनों के लिए भी अवश्यमेव उपकारिणी सिम होगी। (26) इस कृति-पुष्प को प्रभु के चरणों में समर्पित कर आनन्द अनुभव करता हूँ। और जगत के ' समस्त लोक सुखी होवे, यही हादिक भावना करता हूँ। (27) // प्रशस्ति समाप्त।