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प्रस्तावना
आगमवेत्ता परम पूज्य पं० मुनि घासीलालजी महाराज स्थानकवासी जैन समाज के एक ऐसे मनीषी संत हुए हैं, जिन्हें कई शताब्दियों तक विस्मृत करना संभव नहीं होगा। उनका जन्म मेवाड़ के वनोल ग्राम में (१८८४ ई०) हुआ, दीक्षा १६०१ ई० में जैनाचार्य श्री जवाहरलालजी (१८७५-१६४३ ई०) ने दी तथा ३ जनवरी १६७३ को उनका निधन हुआ। वे ८८ वर्ष जिये। उनका यह विश्ववन्द्य जीवनकाल न केवल जैन समाज के लिए बरनु संपूर्ण भारतीय वाङमय के लिए ऐतिहासिक सिद्ध हुआ। १६०१ ई० में जब उन्होंने मनि-दीक्षा ग्रहण की तव जैन साधुओं के लिए संस्कृत का अध्ययन निषिद्ध था । परम्परानुसार उन्हें संस्कृत पढ़ने की अनुमति नहीं थी. किन्तु जैनाचार्य श्रीजवाहरलालजी ने उन्हें न सिर्फ संस्कृत पढ़ने की अनुमति प्रदान की. अपितु उन्हें हर कृत भाषा और साहित्य का एक गारंगत विद्वान बनाने में भी गहन रुचि ली, फलस्वरूप उन्होंने न केवल संस्कृत का गहन अध्ययन किया बल्कि उस पर इतना अधिकार प्राप्त कर लिया कि आगे चलकर उनमें विपुल साहित्य का निर्माण भी किया। वे न सिर्फ एक सूत्रकार व्याख्याकार ही थे अपितु शब्द-शिल्पी भी श्वे अर्थात् कारयित्री (सृजनधर्मी) प्रतिभा के धनी भो थे । उन्होंने जैन समाज में नबक्रान्ति के सुत्रधार लौकाथाह पर एक सफल महाकाव्य लिखा है। स्तोत्रों और स्तुतियों का तो कोई हिसाब ही नहीं है । वे महाकवि थे, मनीपी साहित्यकार थे।
उनके सम्पूर्ण साहित्य को हम आठ वर्गों में संयोजित कर सकते हैं—आगभ साहित्य, उपांग साहित्य, मूल साहित्य (व्याख्या), छेद-साहित्य, न्याय-साहित्य, व्याकरण, कोण और काव्य । उनका अधिकांश-साहित्य अभी प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। यह सुखद और मंगलमय है कि इन्दौर स्थित पूज्य श्री घासीलालजी महाराज साहित्य प्रकाशन समिति ने उनके इस साहित्य को प्रकाशित करने की एक व्यापक योजना तैयार की है। मुझे विश्वास है इसके द्वारा परम पूज्य प्रातः स्मरणीय पं. घासीलालजी महाराज की मनीषा का अमृत-पान हम कर सकेंगे ।
फिलहाल उनके तीन ग्रन्थों के प्रकाशन का दायित्व समिति ने अपने कंधों पर लिया है। ये हैं-'प्राकृत चिन्तामणि', 'प्राकृत कौमुदी' (पाइय कोमुई) तथा 'श्री नामार्थोदयसागर कोश' । उक्त तीनों