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________________ 108 | प्राकृत चिन्तामणि ग्रन्थकार कृत प्रशस्ति इसमें दो प्रकार की सुबोध टीका मैंने बनाई है-१. प्राकृतकौमुदी-यह बृहद टीका है। 2. प्राकृत चिन्तामणि-यह लघु टीका है / (20) इन दोनों में प्रदीपिका (दीपक) को तरह प्रकाश करने वाली दीपिका बनाई है-जो पाठकों के अज्ञान मोह रूप अन्धकार को दूर करती रहेगी। यह प्राकृत चिन्तामणि तत्वदीपिका प्राकृत-भाषा रूप महासमुद्र में उतरने वालों के लिए नौका के समान उपकार कारिणी है / इस पर आरूढ़ होकर सुखपूर्वक प्राकृत भाषा सागर को पार कर सकेंगे। (22) विद्गण मत्सरता त्यागकर गुणज्ञ दृष्टि से मेरी इस कृति का आकलन करेंगे तो अवश्य ही वे शुभाशीषों द्वारा अभिनन्दन कर प्रमोद भाव का अनुभव कर सकेंगे। भगवान श्री वर्द्धमान स्वामी गणधर गौतम जैसे मनीषी के कृपा प्रसाद से मेरी यह लघु कृति जगत में विजयी बने। (24) _ भगवान वीर की कृपा का प्रसाद प्राप्त कर मैंने लोकहित के लिए इसका विस्तार-प्रकाश किया है। यह सभी जिज्ञासु लोगों एवं प्राकृत भाषा के पाठकों को सुख प्रदान करें। (25) यह कृति न केवल प्राकृत मानव (सामान्य मानव); किन्तु बुद्धिमान जनों के लिए भी अवश्यमेव उपकारिणी सिम होगी। (26) इस कृति-पुष्प को प्रभु के चरणों में समर्पित कर आनन्द अनुभव करता हूँ। और जगत के ' समस्त लोक सुखी होवे, यही हादिक भावना करता हूँ। (27) // प्रशस्ति समाप्त।
SR No.090363
Book TitlePrakrit Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherGhasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore
Publication Year
Total Pages113
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size3 MB
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