Book Title: Jinabhashita 2003 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2529 उड़ीसा की उदयगिरि गुफाओं का दृश्य माघ, वि.स. 2059 फरवरी 2003 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीचीन धर्म आचार्य कुंदकुंद के रहते हुए भी आचार्य समन्तभद्र का महत्त्व एवं लोकोपकार किसी प्रकार कम नहीं है। हमारे लिए आचार्य कुंदकुंद पितातुल्य हैं और आचार्य समन्तभद्र करुणामयी माँ के समान हैं। वहीं समन्तभद्र आचार्य कहते हैं कि देशायामि सभीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्, संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुरवे । अर्थात् मैं समीचीन धर्म का उपदेश करूँगा। यह समीचीन धर्म कैसा है?‘कर्मनिवर्हणम्' अर्थात् कर्मों का निर्मूलन करने वाला है और 'सत्त्वान्' प्राणियों को संसार के दुखों से उबारकर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला है आचार्य श्री ने यहाँ 'सत्त्वान्' कहा, अकेला 'जैनान्' नहीं कहा। इससे सिद्ध होता है कि धर्म किसी सम्प्रदायविशेष से संबंधित नहीं है। धर्म निर्बन्ध है, निस्सीम है, सूर्य के प्रकाश की तरह। सूर्य के प्रकाश को हम बंधनयुक्त कर लेते हैं दीवारें खींचकर, दरवाजे बनाकर, खिड़कियाँ लगाकर इसी तरह आज धर्म के चारों ओर भी सम्प्रदायों की दीवारें, सीमाएँ खींच दी गयी हैं। गंगा नदी हिमालय से प्रारम्भ होकर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोलें करते हैं उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं उसका जल पीकर जीवन रक्षा करते हैं, अपने पेड़ पौधों को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगा नदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा सम्प्रदाय की नहीं है, वह सभी की है। यदि कोई उसे अपना बतावे तो गंगा का इसमें क्या दोष? ऐसे ही भगवान् वृषभदेव अथवा भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जातिविशेष का आधिपत्य संभव नहीं है यदि कोई आधिपत्य रखता है, तो यह उसकी अज्ञानता है। धर्म और धर्म को प्रतिपादित करने वाले महापुरुष सम्पूर्ण लोक की अक्षयनिधि हैं। महावीर भगवान् की सभा में क्या केवल जैन ही बैठते थे? नहीं, उनकी धर्मसभा में देव, देवी, मनुष्य, स्त्रियाँ, पशुपक्षी सभी को स्थान मिला हुआ था। अत: धर्म किसी परिधि से बँधा हुआ नहीं है, उसका क्षेत्र प्राणी मात्र तक विस्तृत है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आचार्य महाराज अगले श्लोक में धर्म की परिभाषा का विवेचन करते हैं, वे लिखते हैं कि दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म, धर्मेश्वना विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ अर्थात् (धर्मेश्वरा) गणधर परमेष्ठी (सद्दृष्टि ज्ञानवृत्तानि) समीचीन दृष्टि, ज्ञान और सद्भचरण के समष्टि रूप को (धर्म विदुः) धर्म कहते हैं। इसके विपरीत अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र (भवपद्धतिः भवन्ति) संसार पद्धति को बढ़ाने वाले हैं। सम्यग्दर्शन अकेला मोक्षमार्ग नहीं है किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का समन्वित रूप ही मोक्षमार्ग है। वही धर्म है। औषधि पर आस्था, औषधि का ज्ञान और औषधि को पीने से ही रोगमुक्ति संभव है। इतना अवश्य है कि जैनाचार्यों ने सद्दृष्टि पर सर्वाधिक बल दिया है यदि दृष्टि में विकार है तो निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव ही है। कार, चाहे कितनी अच्छी हो, वह आज ही फैक्टरी से बनकर बाहर क्यों न आयी हो, किंतु यदि उसका चालक मदहोश है, तो वह गंतव्य तक पहुँच नहीं पायेगी। वह कार को कहीं भी टकराकर चकनाचूर कर देगा चालक का होश ठीक होना अनिवार्य है, तभी मंजिल तक पहुँचा जा सकता है इसी प्रकार मोक्षमार्ग का पथिक जब तक होश में नहीं है, जब तक उसकी मोह नींद का उपशमन नहीं हुआ, तब तक लक्ष्य की सिद्धि अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। मिथ्यात्व का विकार, दृष्टि से निकलना चाहिये, तभी दृष्टि समीचीन बनेगी, और तभी ज्ञान भी सुज्ञान बन पायेगा। फिर रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र - मोहनीय के उपशम से आचरण भी परिवर्तित करना होगा, तब मोक्षमार्ग की यात्रा निर्बाध पूरी होगी। ज्ञान-रहित आचरण लाभप्रद न होकर हानिकारक ही सिद्ध होता है। रोगी की परिचर्या करने वाला यदि यह नहीं जानता कि रोगी को औषधि का सेवन कैसे कराया जाए, तो रोगी का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। अतः समीचीन दृष्टि, समीचीन ज्ञान और समीचीन आचरण का समष्टि रूप ही धर्म है यही मोक्षमार्ग है। 'समग्र' (चतुर्थखण्ड) से साभार . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 फरवरी 2003 টিনাসির मासिक वर्ष 2, अङ्क सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ . प्रवचनांश: समीचीन धर्म : आचार्य श्री विद्यासागरजी आवरण पृ.२ कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462016 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 विशेष समाचार . आपके पत्र : धन्यवाद . सम्पादकीय : भोपाल की माटी में सन्तों की सुगन्ध सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाड़ा डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' . लेख • धर्म जीवन की धुरी : मुनि श्री प्रमाण सागर जी 7 • जीवित जीवन : मुनिश्री चन्द्रसागर जी 10 • पण्डित-जीवन पर असन्तोष नहीं : पं.कैलाशचन्द्र जी शास्त्री . 12 शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर .रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रोषधोपवास चर्चा : पं. रतनलाल कटारिया 13 • महिलायें : जैन संस्कृति की सेवा में : पद्मश्री सुमति बाई शाहा 16 • जल की धारा बनी औषधि-विशल्या : डॉ. नीलम जैन • नारी की सहनशीलता:वैज्ञानिक दृष्टि : डॉ. आराधना जैन 'स्वतंत्र' 21 · द्रव्य-औदार्य श्री गणेश कुमार राणा जयपुर . प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428, 352278 • जैन पत्रिकारिता के भीष्म पितामह...... : डॉ.कपूरचन्द्र जैन एवं डॉ. ज्योति जैन • आत्मार्थी के लिए तीर्थ नैसर्गिक उपवन: सुमतचन्द्र दिवाकर 25 हमें दुआ चाहिए, दवा नहीं : सुशीला पाटनी जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा . बालवार्ताः ताला किससे खुलेगा : डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' 30 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100 रु. एक प्रति सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। कविता : निष्कलंक जीवन : डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती'27 10रु. समाचार 11, 22, 32 - - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष समाचार हजारों श्रद्धालुओं ने किया गर्भपात रोकने का संकल्प भोपाल। 21 जनवरी 2003 दशहरा मैदान में चल रहे पंचकल्याणक के तीसरे दिन आचार्य श्री विद्यासागर जी ने हजारों श्रद्धालुओं को संयमित जीवन जीने के साथ गर्भपात कराने की प्रथा के खिलाफ जनमत जाग्रत करने और भ्रूण हत्या न कराने का संकल्प दिलाया। राजधानी में चल रहे सात दिवसीय पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव के तीसरे दिन इस क्रांतिकारी जनांदोलन की शुरुआत सर्वोदयी संत आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कराई। आज का दिन जीवन के पाँच कल्याणक सिद्धान्तों में से सबसे प्रमुख गर्भ कल्याणक का था । आचार्यश्री ने कहा कि संयम मनुष्य के जीवन के कल्याण का माध्यम है। यह माता पिता का दायित्व है कि वे बच्चों में सात्विक जीवन के संस्कार डालें। उन्होंने कहा कि गर्भपात कराने वाले माता-पिता अपने ही बच्चों का इच्छानुसार वध कर रहे हैं। दरअसल उन्हें संयमित जीवन की समझ ही नहीं आ पाई है। जिस बेख्याली में वे बच्चों के जन्म का कारण बनते हैं। उसी गफलत में वे गर्भपात कराकर अपना भविष्य अपने ही हाथों चौपट किए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकार ने सोनोग्राफी से लिंग परीक्षण पर रोक लगाई है लेकिन हमें कोशिश करनी होगी कि न तो अवांछित बच्चे गर्भ में आएँ न ही गर्भपात की कुप्रथा जारी रहे । उन्होंने दैहिक सौंदर्य की लालसा में भटकने वालों का उपदेश देते हुए कहा कि सच्चा सौंदर्य संयम में है। जैन दर्शन में सिद्धचक्रमण्डल विधान में उल्लेख है कि इसके विधि विधान से पूजन करने पर कोढ़ी भी कंचन के समान हो जाती है। यही सौंदर्य सच्ची खूबसूरती है। यदि मन में भाव पवित्र हैं तो वे चेहरे पर अवश्य ही झलकने लगते हैं। जो सभी को प्रभावित करते हैं। आलोक सिंघई बार्डर पर आर्डर की प्रतीक्षा करने वाले जवान भी धर्मध्यानीः आचार्यश्री भोपाल 23 जनवरी। जिस तरह प्रजा के धर्म ध्यान का छठवाँ हिस्सा राजा को मिलता है उसी प्रकार देश की सीमा पर आदेश की प्रतीक्षा में आँधी तूफान का सामना करके जान की बाजी लगाने वाले सैनिकों को भी धर्म का सीधा लाभ मिलता है। यदि देश की सीमाएँ झंझावातों से मुक्त नहीं रहीं तो फिर किसी भी प्रकार का अनुष्ठान करना संभव नहीं । हाल ही सीमा पर वीरगति को प्राप्त भोपाल के सपूत श्रेयांस गाँधी के माता-पिता को स्नेहाशीष देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि राष्ट्र की रक्षा में लगे जवानों के सामने मृत्यु हमेशा आँकती रहती है। हवा में गोलियाँ बरसती रहती हैं। फिर भी हमारे सैनिक गौतम जैन का उदाहरण देते हुए बताया कि उस नवयुवक की तो शादी हुए ही चंद रोज हुए थे ऐसे ही न जाने कितने सैनिक 2 फरवरी 2003 जिनभाषित अपने सुख-दुख की परवाह किए बगैर अपनी जान की बाजी लगाने को तत्पर रहते हैं। इन सैनिकों का त्याग और समर्पण हमें नहीं भूलना चाहिए। वैराग्य ही मुक्ति का सोपानः आचार्य विद्यासागर जी संसार में सुख शांति कहीं नहीं है, यह निश्चय सबसे बड़ा धन है। इस धन के समान सत्य दुनियाँ के तीनों लोकों में कोई नहीं है। जबकि वैराग्य ही एकमात्र अभय है, यही वैभव है, यही मुक्ति का सोपान है। इसी के अभाव में अपने पराए की रेखा खिंच जाती है। वैराग्य ही एकमात्र ऐसा विचार है जो माँ की ममता को भी पराजित कर सकता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने आज दशहरा मैदान में चल रहे पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव के पाँचवे दिन तप (दीक्षा) कल्याणक के अवसर पर अपने प्रवचनों में यह बात कही। पंचकल्याणक के अवसर पर अयोध्या में तब्दील राजधानी के टी.टी. नगर स्थित दशहरा मैदान में बालक आदिनाथ के जन्म की खुशियों में आज गांभीर्य का पुट आ गया। इसका कारण था कि आदिकुमार के राज्याभिषेक होने पर उनके राज दरबार में नर्तकी नीलांजना की नृत्य के दौरान मृत्यु हो जाती है। महाराजा आदिनाथ सोचते हैं कि जीवन कितना नश्वर है। इसके साथ ही वे अपना राजपाट भरत और बाहुबली को सौंपकर वन की ओर प्रस्थान कर देते हैं। साथ ही आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने प्राण प्रतिष्ठा के लिए रखी गई प्रतिमाओं के वस्त्राभूषण उतारे और उन पर अंक न्यास और संस्कार आरोहण किया। दीक्षा कल्याणक मनाने का प्रयोजन समझाते हुए आचार्य श्री ने कहा कि राग और विराग दोनों साथ नहीं चल सकते। जिसे वैराग्य हुआ उसे कोई नहीं बाँध सकता। रत्नत्रय को समझने वाले व्यक्ति की दृष्टि किसी चमकीली सचित्र और अचित्र वस्तु की ओर नहीं देख सकता, जबकि अपने पराए के राग में लिपटे माता-पिता पुत्र भाई, बहन इसे नहीं समझ पाते और वे बैरागी को रोकते हैं। हर प्राणी अपने जन्म के समय कुछ नहीं लाता और मृत्यु के समय खाली हाथ ही जाता है। यह समझाना जितना सरल है उतना ही समझना कठिन उन्होंने कहा कि यह अंतर्दृष्टि खरीदी नहीं जा सकती इसे सतत प्रयास से जाग्रत करना पड़ता है। आचार्य श्री ने कहा कि जिस वस्तु का उपयोग है उसी का मूल्य होता है। यदि वस्तु उपयोगी नहीं हो तो उसे कोई नहीं पूछता। उन्होंने सागर जिले के धामोनी का उदाहरण देते हुए बताया कि वहाँ पूरा गाँव बसा हुआ है। हवेलियाँ बनी हुई हैं। लेकिन यह गाँव वीरान है क्योंकि बरसों पहले यहाँ कोई रोग के चलते पूरा गाँव खाली हो गया था। आज वहाँ रहने वाले नहीं है तो उन कीमती हवेलियों की कोई उपयोगिता नहीं है। इसी प्रकार यदि वस्त्र पहनने वाला ही न हो तो वस्त्रों का कोई मूल्य नहीं। 1 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने अंत में तप कल्याणक का महत्त्व समझाते हुए कहा कि वीतरागता आत्मा का स्वभाव है। यही राग से विरागता की ओर ले जाने का एकमात्र रास्ता है। इसे स्वीकारना या न स्वीकारना श्रावकों के ऊपर निर्भर करता है। आलोक सिंघई स्वार्थ की आहुति देने पर ही यज्ञ की सार्थकता भोपाल। यदि हमारे जीवन में आत्मानुशासन नहीं है तो हम किसी और को अहिंसा के लिए प्रेरित नहीं कर सकते। अपने स्वार्थी की आहुति करके अहिंसा के अनुष्ठान को सार्थक बनाया जा सकता है। मांस निर्यात देश को गुलामी की ओर ले जाने वाली राह है। आजादी के बाद से हम मांस निर्यात के बढ़ते कारोबार पर अंकुश नहीं लगा सके हैं। यह खतरनाक ही नहीं शर्मनाक कृत्य है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने आज दशहरा मैदान में चल रहे पंचकल्याणक महोत्सव में वीतरागी आदिनाथ जी के केवल्य ज्ञान प्राप्ति के अवसर पर यह बातें अज्ञान की गाँठें खोलते हुए कहीं। देश भर से राजधानी पहुँचे हजारों श्रद्धालुओं को मोक्षमार्ग की राह दिखाते हुए आचार्यश्री ने कहा कि अहिंसा, हिंसा का निगेटिव रूप है। हिंसा का अभाव ही अहिंसा है। किसी के ऊपर शासन चलाने का भाव अहिंसा को टीस पहुँचाने वाला होता है । जो आत्मानुशासित हो वह किसी को टीस नहीं पहुँचा सकता पिछले पचास सालों में हमने एक ऐसे लोकतंत्र की नींव रखी हैं जिसमें हर व्यक्ति अपना शासन चाहता है । वह यह नहीं सोचता कि हिंसा पर आधारित शासन कभी सुख और शांति नहीं ला सकता । मनुष्य के संरक्षण के लिए पशु का वध मान्य नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद मांस निर्यात आजाद हिंदुस्तान में बढ़ता जा रहा है। आखिर गोधन को मिटाकर हम कौन सा धन देश में लाना चाहते हैं? उन्होंने कहा कि छोटे बच्चे को तो यह बात समझ में नहीं आ सकती लेकिन पचास साल पुराने देश की सरकारों को तो यह बात समझ लेनी चाहिए। उन्होंने अहिंसा प्रेमी देशभक्तों का आह्वान करते हुए कहा कि वे आपस में ऐसा तालमेल बनाएँ कि सरकारें मांस निर्यात जैसे घृणित कारोबार से देश को पशु संपदा से वंचित करने का कुकृत्य बंद करने पर मजबूर हो जायें। - उन्होंने वृक्षारोपण की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा कि हार्वेस्टर पर आधारित कृषि देश को परतंत्र करने का ही माध्यम है। सरकारें अभयारण्य बनाकर जंगली पशुओं को तो संरक्षित कर रही हैं वहीं पालतू जानवरों के मांस निर्यात पर कोई अंकुश नहीं लगा रही। उन्होंने कहा कि घास-फूस भी रहना चाहिए और उसे खाने वाले पशु भी। क्योंकि पशुओं से ही दयाभाव उपजता है। घर सदस्यों से तो मोह उपजता है लेकिन मूक पशु ही सेवा हमारे मन में दया का भाव जगाती है। उन्होंने कहा कि हाथी मांगलिक माना जाता है। वह कभी मांसाहारी नहीं होता। वह अनुकूल भोजन न मिलने पर उपवास कर लेता है लेकिन कभी मांस की ओर निगाह नहीं फेरता । जबकि कई लोग एक दिन के भोजन के लिए गाय का मांस, चर्बी, रक्त का निर्यात कर रहे हैं। बैर की अग्नि और आतंक से बचने के लिए शांति की चाहत में भागते खरगोश की कथा सुनाते हुए उन्होने कहा कि वह आत्मानुशासन से बँधे हाथी के पैर तले भी जब सुरक्षित रह सकता है, तो विपरीत स्वभाव रखने वाले लोग शांति की चाहत में एक साथ क्यों नहीं रह सकते। उन्होंने कहा कि इसी तरह मूक एवं पालूत जैसे निरीह प्राणियों की आबादी यदि इंसानों के बराबर भी हो जाए तो भी हमारी परिस्थिति पर इसका कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। आलोक सिंघई संतही ला सकते हैं विश्व में शांति सेनाध्यक्ष नहीं डॉ. भाई महावीर अपना घर फूँककर दुनिया को रास्ता दिखाने वाले संत ही विश्व में शांति ला सकते हैं। यह कार्य किसी सेनाध्यज्ञ के बस में नहीं। प्रदेश के राज्यपाल डॉ. भाई महावीर ने आज पंचकल्याणक महोत्सव में भाग लेने पहुँचे श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए यह बात कही। उनके साथ केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री रमेश बैस, नागालैंड के पूर्व राज्यपाल ओ. एन. श्रीवास्तव, भोविप्रा अध्यक्ष अशोक जैन भाभा, आनंद तारण, जैन धर्म श्रेष्ठी मदन लाल बैनाड़ा, पार्षद हेमलता कोठारी, विश्वास सारंग, महेश सिंघई, शरद जैन, कुंडलपुर तीर्थ क्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष संतोष सिंघई आदि अनेक लोग भी मौजूद थे। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में महामहिम ने कहा कि सूर्य के समान तेजस्वी संतों के सान्निध्य में आकर कुछ बोलना सूरज को दिया दिखाना है। उन्होंने कहा कि विश्व में शांति की प्यास है। शांति की चिंता से ही करते हैं जिन्होंने खून की नदियाँ बहाई हैं। ईसा से छह सौ वर्ष पहले यानि 2600 वर्ष पहले भगवान् महावीर स्वामी ने मूक प्राणियों एवं पेड़-पौधों की रक्षा के प्रति अपनी संवेदना प्रदर्शित की थी। बाद में भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु ने टिस्कोग्राफ बनाकर बताया कि वनस्पतियों में भी जीवन होता है। वे भी हमारे विचारों के प्रति उतनी ही संवेदनशील होती हैं, जितने अन्य प्राणी । उन्होंने कहा कि इसी कारण यही सच्चाई है कि विश्व शांति संत ही ला सकते हैं, क्योंकि वे प्राणी मात्र के प्रति बेहद संवदेनशील होते हैं। केन्द्रीय मंत्री रमेश बैस ने बताया कि मध्यप्रदेश में गौवध प्रतिबंध लगाने का कार्य भाजपा शासनकाल में यहाँ के मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने किया था। उन्होंने कहा कि शाकाहारी भोजन करने वालों की सोच सकारात्मक होती है। मैं कोशिश कर रहा हूँ कि मांसाहार बंद हो। इससे भारत अपनी खोई प्रतिष्ठा पुनः अर्जित कर विश्व का मार्गदर्शन कर सकेगा। उन्होंने कहा कि बाजार में मिलने वाले खाद्य पदार्थों पर शाकाहारी या मांसाहारी पदार्थों की पहचान के बाद अब दवाईयों में भी ऐसा ही निशान लगाने की पहल की जा रही है। इससे शाकाहारियों को अनजाने में हिंसा आधारित खाद्य पदार्थ के सेवन के खतरे से निजात मिल सकेगी। आलोक सिंचाई -फरवरी 2003 जिनभाषित 3 . Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य आचार्य श्री का 'शास्त्राराधना' प्रेरक एवं मार्गदर्शक है। । प्रेरणाप्रद, रुचिकर व श्रेष्ठ होती है। प्रिन्ट, छपाई के मामले में मिथ्यात्व के गलन एवं कर्मक्षय में स्वाध्याप परमतप के रूप में | जिनभाषित ईमानदारी निभाता है। कार्यकरता है। आचार्यश्री ने उसकी महत्ता दर्शाकर श्रुत प्रतिपादित जिनभाषित के प्रत्येक अंक का सम्पादकीय मील का ज्ञान से अपने आपको तन्मय करने की सम्यक प्रेरणा दी। पत्थर साबित होता है। एक नई दिशा बोध देता है। मेरी भावना है आचार-विचार एवं आहार को शुद्ध करने की दिशा में कि यह पत्रिका उन तमाम पत्र-पत्रिकाओं जैसी न बने, जो सदैव अन्य सामग्री भी उपयोगी एवं प्रेरणाप्रद है। संयोजन हेतु बधाई ! विवादों से घिरी रहती हैं। पत्रिका का सम्पादकमण्डल भी श्रेष्ठ श्री मिलापचंद्र जी कटारिया का आलेख इसे भक्ति कहें | विद्वानों से सुसज्जित है, जो निश्चित ही पत्रिका के सूर्य और चाँद या नियोग' रोचक और ज्ञानवर्धक है। आलेख की सामग्री से जैसे चमकीले हैं। 'जिनभाषित' के स्वाध्याय करने का सदैव देवगति के जीवों की चर्या के बारे में जानकारी मिली। देवगति के | पिपास बना रहता हूँ। निश्चित ही ऐसी पत्रिका का भविष्य उज्ज्वल सभी देव जन्म लेते ही प्रथम जिन पूजा करेंगे और अष्टानिका पर्व में और गरिमामयी होगा। जिनभाषित परिवार की हमारी ढेर सारी तथा तीर्थकरों के पंचकल्याणक समारोह में भी सभी को शामिल शुभकामनाएँ। होना होता है भले ही वे सम्यक्तवी हों या न हों यह जानकारी प्रथम पं. सुनील जैन 'संचय' बार प्राप्त हुई है। श्री पं. शिवचरणलाल जी ने जिनभाषित' अक्टू. बी. 3/80, भदैनी वाराणसी 2002 पृष्ठ 24 पर यह कथन अवर्णवादी लिखा था जिसमें डॉ. ___ 'जिनभाषित' अगस्त, 2002 का अङ्क पं. धन्य कुमार देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री ने जन्माभिषेक प्रकरण में लौकान्तिक देवों राजेश से प्राप्त हुआ। पत्रिका का स्तर, मुद्रण, सर्वोत्तम है। पत्रिका द्वारा भी अभिषेक करने का उल्लेख किया था। श्री कटारिया जी के | में कविताएँ, कहानी, लघु कथा जैसी अन्य साहित्यिक विधाओं मत के अनुसार लौकान्तिक आदि सभी देव कल्याणकों के सभी | को भी समाहित किया जाए ऐसा मेरा निवेदन सुझाव है। समारोहों में जाते हैं। सम्मानीय श्री पं. शिवचरणलाल जी का | साहित्य की सतत् सेवा का संकल्प और उत्कृष्टता को आरोप स्वत: मिथ्या सिद्ध हो जाता है। दुर्भावनापूर्ण कथन इष्ट नहीं | प्राप्त हो ऐसी कामना है। सुरेन्द्र सिंघई वीर जन्म-भूमि सम्बन्धित सकारात्मक सामग्री के प्रकाशन 'परमात्म छाया' बस स्टैण्ड, बाकल से जन-भ्रम दूर करें। श्री 108 प्रमाण सागर जी मुनिराज ने 'जैनधर्म कटनी (म.प्र.)-483331 और दर्शन' पृष्ठ 44 (सं.संस्करण 1998) में कुण्डग्राम-वज्जिसंघ 'जिनभाषित' के अंक नियमित रूप से प्राप्त होते हैं। के वैशाली गणतंत्र को माना है। आचार्यश्री ने अभी तक अपना 'जिनभाषित' आध्यात्म-दर्शन तथा चिन्तन की एक अच्छी पत्रिका मत व्यक्त नहीं किया। इस भ्रम को दूर करें। है। इसमें वे सभी बातें पढ़ने को मिलती हैं, जो अन्य पत्रिकाओं में डॉ. राजेन्द्र कुमार 'बंसल' | पढ़ने को नहीं मिलती। पत्रिका जहाँ एक और दिशाबोध कराती है - अमलाई वहीं दूसरी और सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देती है। __'जिनभाषित' पत्रिका जैनधर्म के सिद्धान्त जन-मानस तक एक अच्छी पत्रिका निकालने के लिए संपादक मण्डल पहुँचाने का अद्भुत प्रयास है। हमारे जैन समाज में पत्र,पत्रिकाओं | को जितना भी साधुवाद दिया जाए वह कम है। की बाढ़ सी आ गयी है, जितनी पत्र-पत्रिकायें जैन समाज निकालता नूतन वर्ष मंगलमय हो। है संभवतया अन्य समाज में ऐसा नहीं होगा। मीडिया, संचार, राजेन्द्र पटोरिया समाज को बदलने की हिम्मत रखता है। मीडिया से तात्पर्य जो सम्पादक, खनन भारती दूरियाँ कम करके एक दूसरे को मिलाता है, जोड़ता, संगठित स्पष्टीकरण करता है, सद्भावना उत्पन्न करता है। परन्तु हमारे समाज में आज ऐसी कितनी पत्र-पत्रिकायें हैं? कुछ पत्र-पत्रिकाएँ तो केवल मेरे लेख "..... और मौत हार गई' पर विद्वान भाई नीरज एक दूसरे के विरोध, दमन, स्वार्थसिद्धि और व्यवसाय के लिए जी की आलोचनात्मक टिप्पणी जैन गजट में प्रकाशित हुई है। मैं ही निकल रही हैं। ऐसी पत्रकारिता से समाज को क्या लाभ जो उसका उत्तर देना आवश्यक तो नहीं समझता था किंतु उनका यह फूट पैदा करे। आज जरूरत है ऐसी पत्रिकारिता की जो समाज लिखना कि लेख से उनको पीड़ा हुई है और यह भी कि मैंने यह को तोड़ने नहीं, जोड़ने की भावना पैदा करे। मैं समझता हूँ संस्मरण किस अभिप्राय से प्रकाशित कराया इसका उत्तर मैं ही दे 'जिनभाषित' जो कि अभी नयी है, लेकिन इतने कम समय में सकता हूँ, मुझे स्पष्टीकरण देना पड़ रहा है। अपनी कुशल पत्रकारिता से समाज में प्रतिष्ठित हो गयी है। यह ठीक है कि सही जानकारी नहीं होने से मैंने लेख में हिन्दुओं में 'कल्याण' 'अखण्डज्योति' 'सतयुग की पू. आचार्यश्री के सतना में बीमार होने की बात लिखी थी। सतना वापिसी' जैसी पत्रिकाओं का प्रमुख स्थान है, 'जिनभाषित' भी में बीमार न होकर वे कटनी आकर बीमार हुए यह भूल सुधार ली समाज को ऐसी ही सामग्री प्रदान करती है, जिसके माध्यम से जानी चाहिए। किंतु मात्र स्थान की भूल से घटनाक्रम में कोई सारा समाज एकता के सूत्र में बँध सके। 'जिनभाषित' ने इतनी अंतर नहीं पड़ेगा। केवल इस घटना के प्रारंभिक अंश का मैं छोटी उम्र में जैन मीडिया संसार में अच्छा खासा प्रभुत्व जमाया | प्रत्यक्षदर्शी नहीं रहा। इस घटना के शेष अंश के समय तो मैं है, जो श्लाघनीय है। सम्पूर्ण सामग्री आकर्षक, पठनीय, मननीय, | कुण्डलपुर पहुंच ही गया था। इसके अतिरिक्त चार घटनाओं के 4 फरवरी 2003 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय मैं उपस्थित रहा और मैंने उन घटनाओं को प्रत्यक्ष देखा।। से आकृष्ट होकर आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियों ने थोक में नैनागिरि में बीमारी इतनी भयंकर थी कि स्वयं आचार्य श्री ने पं. | संयम अंगीकार किया। वस्तुतः यह इस महान संत के महान जगनमोहन लालजी से समाधिमरण की इच्छा प्रकट की। थुबौन | व्यक्तित्व का महान आश्चर्यकारी रूप है। में आचार्य श्री का शरीर केवल हड़ियों का ढाँचा सा लगने लगा । मेरे लेखे में प्रयुक्त रूपक को मनीषी आलोचक महोदय ने था। उस समय के चित्र से आचार्य श्री को पहचानना कठिन नहीं समझा हो यह तो मेरी समझ में नहीं आता है। तथापि आलोचक होगा। जयपुर में तो लम्बी बीमारी ने शरीर को इतना अशक्त बना | महोदय को यह लेख क्यों नहीं रास आया इसका कारण वे स्वयं दिया था कि खड़े होना भी कठिन था। पैंड्रा रोड की हरपीज की ही जानते है। बीमारी का भयानक दृश्य तो आज भी हमें भयाक्रांत कर देता है। मूलचन्द्र लुहड़िया ये असाधारण जान लेबा बीमारियाँ मौत का आक्रमण नहीं तो क्या किशनगढ़ समाज द्वारा पारित प्रस्ताव है? ऐसे मौत के आक्रमणों को पू. आचार्य श्री ने अपने आत्मबल मदनगंज किशनगढ़ की दोनों तेरह पंथ एवं बीस पंथ और तपोबल से विफल कर दिया तो क्या यह कहना सच नहीं है समाज को दिनांक 5 दिसम्बर के जैन गजट में श्री वर्धमान काला कि ऐसे मौत हार गई? महापुरुषों के जीवन में ऐसे रोग व संकट सांभरलेक के लेख में छपे निम्न वाक्य पढ़कर दुःख एवं आश्चर्य आते हैं जिन्हें वे महापुरुष जीत कर अपने लक्ष्य की सिद्धि में हुआ : सफल होते हैं। "मुनिपुंगव (पू. मुनि सुधासागर जी) ने किशनगढ़ चातुर्मास आलोचक महोदय का उल्लेख कि 'रोग के आक्रमण को | के दौरान तेरहपंथ बीसपंथ की ऐसी खाई चौड़ी की जिससे दोनों मौत का आक्रमण मानने पर तो सारा आयुर्वेद शास्त्र ही अप्रासंगिक | एक दूसरे से लड़ने पर उतारू हो गये, इस खाई को दूसरे चातुर्मास हो जायेगा' निराधार है। वस्तुत: रोग के आक्रमण को मौत का | में आचार्य वर्धमान सागर जी ने पाटी एवं दोनों मतावलंबियों का आक्रमण मानने पर तो आयुर्वेद शास्त्र की सार्थकता ही सिद्ध | एक जगह सामूहिक भोज रखकर द्वेषता खत्म कराई" होती है। दुर्घटनाओं अथवा जान लेवा बीमारियों के रूप में मौत | उपर्युक्त समाचार अत्यंत मिथ्या, भ्रामक, द्वेषपूर्ण, निराधार का आक्रमण होने पर उस समय समुचित चिकित्सा उपलब्ध नहीं एवं निंदनीय है। वस्तुतः पू. मुनि सुधासागर जी महाराज का होने पर अकाल मृत्यु हो सकती है और चिकित्सा मिलने पर उस किशनगढ़ चातुर्मास दोनों समाजों के निवेदन पर हुआ था और मृत्यु को टाला भी जा सकता है। इस प्रसंग में भयंकर बीमारी के | चातुर्मास आयोजक श्री दि. जैन धर्म प्रभावना समिति के गठन में रूप में मौत का आक्रमण हर बार विफल हुआ और ऐसे मौत हार दोनों समाजों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। पूरे चातुर्मास में सभी गई। कार्यक्रमों में सदैव दोनों समाज भाग लेती रही। चातुर्मास में ही मेरे उक्त लेख का अभिप्राय गुरु महिमा बखान रहा है। नहीं कभी भी दोनों समाजों के बीच किसी भी प्रकार के मन आचार्य श्री ने स्वयं तो मोह को बहुत कुछ जीत ही लिया था। मुटाव का कभी कोई थोड़ा सा भी प्रसंग उपस्थित नहीं हुआ। किंतु बुंदेलखण्ड की धरती पर पाँव रखते ही वहाँ के निवासियों लड़ने मरने की बात लिखकर लेखक ने केवल पू. मुनि श्री के की सात्विक और सरल जीवन शैली ने उनके मन में आसन्न भव्य अपवाद का जघन्य अपराध किया है अपितु दोनों समाजों पर भी युवक-युवतियों का मोह भंग कर उन्हें संयम के मार्ग पर लाने की झूठा लाँछन लगाने का पाप किया है। किशनगढ़ की दोनों समाजों भावना उत्पन्न हुई। अपनी पवित्र भावना के क्रियान्वयन के दौरान ने पू. मुनि श्री सुधासागर जी एवं पू. आचार्य श्री वर्धमानसागर जी आचार्य श्री को अनेक बार भयानक जान लेवा असाधारण शारीरिक के चातुर्मास में सब कार्यक्रम पारस्परिक सहयोग से सम्पन्न हुए व्याधियों से ग्रस्त होना पड़ा जिनको मैंने रूपक अलंकार के थे। गत अनेक वर्षों से महावीर जयंती समारोह एवं क्षमावाणी माध्यम से निरूपित किया है। मानों आचार्य श्री की भावना से मोह | समारोह दोनों समाज सामूहिक रूप से ही आयोजित करती है। भयभीत हुआ और उसने अपने शत्रु आचार्य श्री पर आक्रमण के वस्तुत: तेरहपंथ,बीसपथ समाज की एकता एवं पारस्परिक वात्सल्य लिए मौत की सहायता ली। किंतु आचार्य श्री के चरित्र बल एवं का किशनगढ़ की दि. जैन समाज देश में एक प्रशंसनीय ऐतिहासिक पुण्य कर्मोदय के कारण मोत और मौत दोनों हार गए। आदर्श प्रस्तुत कर रही है। जिनेन्द्र स्तुति के प्रसंग में ऐसे रूपकों का स्तुतिकारों द्वारा अस्तु मदनगंज-किशनगढ़ की तेरहपंथ, बीसपंथ दोनों प्रचुर प्रयोग किया गया है : समाज उपर्युक्त सर्वथा मिथ्या, भड़काऊ और दुर्भावना पूर्ण लेख कतिपय प्रसंग प्रस्तुत है : की भर्त्सना करती है और लेखक से अपेक्षा करती है कि ऐसी विषापहार स्तोत्र : मिथ्या द्वेषपूर्ण बातें भविष्य में नहीं लिखें। सुरासुरन को जीति मोह ने ढोल बजाया। हम जैन गजट से भी यह अपेक्षा करते हैं कि ऐसे समाज तीन लोक में किए सकल वश मों गरमाया। में फूट डालने वाले समाचार प्रामाणिक जानकारी के बिना नहीं तुम अनंत बलवंत नाहिं डिग आवन पाया। छापें। करि विरोध तुम थकी मूल मैं नाश कराया।।24।। श्री मुनिसुव्रत दि. जैन बीसपंथ पंचायत एकीभाव स्तोत्र : अध्यक्ष मंत्री जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारितसाधे। ह. गुलाबचन्द्र गोधा ह. निर्मल कुमार पाटोदी अनवधि सुख की सार भक्ति कूची नहीं लाये। सो शिव वांछक पुरुष मोक्ष पट केम उधार। श्री आदिनाथ दि. जैन तेरहपंथ पंचायत मोह मुहर दृढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारै॥13॥ अध्यक्ष मंत्री आलोचक महोदय ने स्वयं अपने लेख में कहा है कि ह. मूलचन्द्र लुहाड़िया ह. ताराचंद गंगवाल बुंदेलखण्ड के प्रवास में पू. आचार्य श्री के वैराग्योत्पादक व्यक्तित्व -फरवरी 2003 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भोपाल की माटी में सन्तों की सुगन्ध भोपाल की धरती ने भी उस अद्भुत सन्त की विहारभूमि होने का यश पा लिया है, जिसके चरणों के स्पर्श के लिए इस कर्मभूमि का कण-कण लालयित रहता है। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी चातुर्मास-निष्ठापन के अनन्तर नेमावर से लौटते हुए भोपाल के समीपवर्ती अतिशयक्षेत्र भोजपुर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने शिष्यों को एक मास तक षट्खण्डागम की सोलहवीं पुस्तक का अध्ययन कराया। भोजपुर में जनसैलाब उमड़ पड़ा। एक माह तक मेला सा लगा रहा। श्रावकों ने आचार्यश्री और संघस्थ मुनियों के भरपूर दर्शन किये, चर्चाएँ की और आहारदान का पुण्य अर्जित किया, किन्तु तृप्त नहीं हुए। भोजपुर की प्राकृतिक सुषमा सन्त की वीतरागी सुषमा के संस्पर्श हो दिव्य हो उठी। आचार्यश्री भोजपुर से भोपाल आये और वहाँ के उपनगरों में विहार करते हुए जिनमन्दिरों के दर्शन करते रहे और उधर लोग पीछे-पीछे दौड़ते हुए उनकी लोकोत्तर छवि को तृषातुर लोचनों से तथा दिव्यवाणी को क्षुधित श्रोत्रों से पीकर अपने संज्ञी पंचेन्द्रियत्व को सफल करते रहे। भगवान् आदिनाथ का पंचकल्याणक एवं पंचगजरथ महोत्सव आचार्यश्री एवं उनके संघस्थ मुनियों के सानिध्य में अत्यन्त भव्यता के साथ सम्पन्न हुआ। भोपाल की जैनेतर जनता को ऐसे महोत्सव की झलक पहली बार देखने को मिली होगी और उन्होंने दिगम्बर मुनियों के दिगम्बरत्व की महिमा का अवलोकन भी प्रथम बार किया होगा। उन्हें इस मनोवैज्ञानिक सत्य के दर्शन करने का अवसर मिला कि जहाँ वीतरागता है, वहाँ युवा मुनि स्त्री-पुरुषों के बीच निर्वस्त्र रहते हुए भी शिशुवत् निर्विकार रह सकते हैं। उन्हें अपनी नग्नता का भान भी नहीं होता। उन्हें देखने को मिला कि तप का ऐसा उत्कर्ष भी संभव है कि जिस शीतलहर से प्रकुप्स तीक्ष्ण ठंड में अन्य साधु कम्बलों से लिपटे हुए भी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं कर सकते, वहाँ दिगम्बर जैन साधु, सुबह-सुबह शौच के लिए नग्नशरीर बाहर निकलते हैं और कई किलोमीटर पैदल चलते हैं तथा रात्रि में भी निर्वस्त्र ही सोते हैं। उन्होंने यह भी देखा कि दिगम्बर साधु इतने इन्द्रियजयी भी हो सकते हैं कि दिन में एक बार ही आहार और जल लेने पर भी उनकी साधना निराकुलापूर्वक चलती इस प्रकार आचार्य श्री विद्यासागर जी और उनके शिष्यों ने भोपालवासियों के हृदयपर जैन सन्तों की वह छाप छोड़ी है, जिसने उनके हृदय में जैन धर्म के प्रति अनायास बहुमान उत्पन्न कर दिया। सन्तों का भोपाल से विहार हो गया, किन्तु भोपाल की माटी में उनके चरित्र की दिव्य सुगन्ध व्याप्त है और चिरकाल तक व्याप्त रहेगी। रतनचन्द्र जैन सूचना संपादक- कार्यालय का नया पता 1 जनवरी, 2003 से संपादक-कार्यालय का स्थान परिवर्तित हो गया है। अब कृपया निम्नलिखित पते पर पत्रव्यवहार करेंए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462016 दूरभाष 0755-2424666 6 फरवरी 2003 जिनभाषित - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म जीवन की धुरी : " एक आदमी अपना मकान बनवा रहा था। मकान बनाने के लिए वह बार बार दीवार उठाता कि दीवार गिर पड़ती। वह दो-चार फुट भी नहीं उठ पाई। वह काफी परेशान था। मकान बन नहीं पा रहा था। एक दिन उसने उधर से गुजरते हुए एक संत को अपनी पीड़ा सुनाई। सन्त ने उसकी बात सुनी और हँसकर बोले'भाई दीवार उठाना है तो नींव खोदो", उसने कहा-मैं नींव नहीं खोदता, मकान की नींव की आवश्यकता ही नहीं। लोग बेवकूफ हैं, जो अपना बहुत सारा धन उस नींव में लगा देते हैं, जो दिखाई तक नहीं देती । सन्त उसकी अज्ञानता भरी बात सुनकर हँसते हुए बोले -" अरे भाई ! मुझे हँसी आ रही है तुम पर, जो अपना मकान बिना नींव के खड़ा करने जा रहे हो। तुमसे भी ज्यादा हँसी तो उन पर आ रही है, जो अपने जीवन के महल को बिना नींव के खड़ा करना चाहते हैं।" I मकान को खड़ा करने के लिए आधार जरूरी है। धर्म हमारे जीवन का आधार है कौन सा धर्म ? जो मन्दिर, मूर्तियों और पूजाओं में सिमटा है, जो धार्मिक क्रिया-कलापों, अनुष्ठानों और आडम्बरों से दबा है? नहीं! धर्म इतना संकीर्ण नहीं है। धर्म का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और विस्तीर्ण है। वह मन्दिर, मूर्ति और पूजाघरों तक सीमित नहीं। ये धर्म के अंग हो सकते हैं। धर्म नहीं। इन्हें ही धर्म मान बैठना हमारी अज्ञानता है। धर्म का सम्बन्ध हमारे आचरण से है, जो हृदय की विशुद्धि और चित्त की निर्मलता से प्रकट होता है। आचार्य गुणभद्र ने धर्म की अनूठी परिभाषा दी है" स धर्मो यत्र नाधर्मो " " धर्म वहीं है, जहाँ अधर्म नहीं।" धर्म, अधर्म के साथ नहीं रह सकता। प्रकाश- अंधकार दोनों साथ-साथ नहीं रहते, धर्म की यह सबसे बड़ी कसौटी है। अधर्म के रहते धार्मिक चेतना का विकास संभव नहीं। क्या है अधर्म? वही जो दूसरों को पीडा दे। हिंसा, अन्याय, अनीति, अनाचार, सब अधर्म की पर्याय हैं इनके रहते धर्म नहीं रह सकता। धर्म का अर्थ अहिंसा और सत्य से अनुप्राणित आचरण । धर्म धारण करने के लिए पाप का अभाव अनिवार्य है। जिसका आचरण पाप मुक्त है, धर्म सदैव उसके साथ रहता है। उसके लिए देश काल की सीमाएँ बाधक नहीं बनतीं। धर्म की इससे व्यापक परिभाषा और क्या हो सकती है ? आज जितने भी मूल्यों की चर्चा की जाती है, वे सभी मनुष्य के सत्य और अहिंसामय आचरण में समाहित हैं। धर्म की आत्मा को न पहिचान पाने के कारण, प्राय: लोग एक भूल में जी रहे हैं। इस भूल ने धर्म की अवधारणा को बदल डाला है। इसका ही यह परिणाम है कि जो व्यक्ति जितना अधिक पूजा-पाठ और धार्मिक क्रियाएँ करता है वह व्यक्ति उतना ही मुनि श्री प्रमाण सागर जी बड़ा धार्मिक माना जाता है। इसी कारण लोग जितना महत्त्व धार्मिक क्रियाओं को देने लगे हैं, उतना अपने परिणामों के सुधार पर नहीं देते। यही कारण है कि धर्म धारण करने के बाद भी जीवन में रूपान्तरण घटित नहीं होता । आन्तरिक प्रयोजन की अनभिज्ञता का यही परिणाम है। ऐसे ही लोगों को देखकर आज का युवा यह प्रश्न उठाता है कि जब रात-दिन धर्म करने वाले व्यक्ति के जीवन में भी कोई परिवर्तन नहीं आता तो क्या जरूरत है धर्म करने की? । ऐसे लोगों को मैं जवाब देता हूँ कि धर्म हमारे जीवन के रूपान्तरण का विज्ञान है। धर्म धारण करे और रूपान्तरण न हो, यह सम्भव नहीं । दिया जलायें और अन्धकार न छँटे, यह असम्भव है । धर्म हो और उसका प्रकाश न फैले, यह हो नहीं सकता। जिस व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता, उन्हें भूलकर भी धर्मात्मा मत मान बैठना। वे धार्मिक हो सकते हैं, धर्मात्मा नहीं धार्मिक और धर्मात्मा दोनों एक नहीं है। धर्मात्मा होना अलग बात है और धार्मिक बनना अलग बात। धार्मिक बनना सहज है, धर्मात्मा होना कठिन । धर्मात्मा वह है, जो धर्म को जीता है, धार्मिक वह है, जो धर्म की क्रिया करता है। बड़ा फर्क है, धर्म की क्रिया करने और धर्म को जीने में। धर्म की क्रिया करनेवालों का धर्म धार्मिक क्रियाओं तक सीमित रहता है। धर्म को जीनेवालों का धर्म उनके आचरण का अंग बनता है, उनकी एक-एक श्वास धर्म से अनुप्राणित रहती है। उसके प्रत्येक विचार और व्यवहार में धर्मं प्रतिबिम्बित रहता है। चाहे मन्दिर हो या मन्डी, दुकानदफ्तर कहीं भी क्यों न हो, उसका धर्म सदैव उसके साथ रहता है। धार्मिक व्यक्ति का धर्म उसके पूजा-पाठ और धार्मिक क्रियाकलापों तक सीमित रहता है। इसका अर्थ यह नहीं कि धार्मिक क्रियाएँ धर्म की बाधक हैं। ये बाधक नहीं, अपितु साधक हैं। पर साधन को साधन की तरह ही अपनाना चाहिए, साधन, साध्य नहीं होता। साधन का प्रयोजन साध्य की उपलब्धि है। मन्दिर, मूर्ति, पूजा-पाठ, सत्संगये सब धर्म नहीं, धार्मिक भावनाओं के उद्दीपन का केन्द्र हैं। यहाँ आकर हम अपनी धार्मिक चेतना का विकास कर सकते हैं, जो जीवन के हरक्षेत्र में हमें धर्म से जोड़े रहती है। ऐसा वे ही कर सकते हैं जो धर्म के मूल स्वरूप को समझते हैं। तीन तरह के लोग होते हैं एक पत्थर की तरह, दूसरे मिट्टी की तरह और तीसरे रुई की तरह । सतही स्तर पर धर्म करने वाले लोग पत्थर की तरह हैं। पत्थर अन्दर से नहीं भींगता, पानी में डालने के बाद भी अन्दर से पानी को ग्रहण नहीं करता। ऐसे लोग धर्म को ऊपर-ऊपर ही -फरवरी 2003 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनाते हैं, आन्तरिक रूप से नहीं है। धर्म करने के बाद भी । में धनवान से निर्धन, रूपवान से कुरूप, विद्वान से पागल, राजा से धार्मिक संस्कारों को ग्रहण नहीं कर पाते। रंक हो सकता है। संसार में किसी का भी सुख शाश्वत नहीं होता। मिट्टी पर पानी सींचने से वह अन्दर-बाहर भीग जाती है। | वह संसार के सभी सुखों को विष-मिश्रित मिष्ठान्नवत् अत्यंत हेय मिट्टी जब तक गीली रहती है, अत्यन्त मृदु रहती है, परन्तु सूख समझता है। यह सब समझकर वह सांसारिक प्रलोभनों से दूर कर कड़ी हो जाती है। ऐसे लोगों की धार्मिक चेतना तभी तक | रहता है। यही कारण नि:कांक्षित गुण है। होती है, जब तक वे धार्मिक वातावरण में रहते हैं । वातावरण के निर्विचिकित्सा : विचिकित्सा का अर्थ ग्लानि या घृणा बदलते ही संस्कार लुप्त होने लगते हैं और चेतना सुप्त हो जाती हैं। होता है। सम्यग्दृष्टि, मानव शरीर की बुरी आकृतियों को देखकर ऐसे लोगों का धर्म, धार्मिक क्रियाओं तक ही रहता है, व्यवहार में | घृणा नहीं करता, अपितु हमेशा व्यक्ति गुणों का आदर करता है। पूरी तरह उतर नहीं पाता। उसका विश्वास रहता है कि शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है। रुई पानी में रहती है, पानी को सब ओर से सोख लेती है, गुणों के द्वारा ही इसमें पवित्रता आती है। वह दीन, दु:खी, दरिद्र, फिर उसे छोड़ती नहीं। ऐसे ही लोग सच्चे धर्मात्मा होते हैं। ये अनाथ और रोगियों के बीमार शरीर को देखकर घृणा नहीं करता. लोग धार्मिक क्रियाओं से अपनी धार्मिक चेतना का उद्दीपन कर | अपितु प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करता है। वह पदार्थ के बाहरी रूप समार्जित संस्कारों को नष्ट नहीं होने देते। इनकी चेतना सर्वत्र पर दृष्टि न देकर उसके आंतरिक रूप पर दृष्टि देता है। इस उद्दीप्त रहती है। अन्तर्मुखी दृष्टि के कारण वह शरीर के ग्लानिजनक रूप से विमुख धर्मात्मा होने का अर्थ है- धर्म को अपनी आत्मा में बसा हो उसके गुणों में प्रीति रखता है। यही उसका निर्विचिकित्सा गुण लेना। आत्मा से जुड़ा धर्म व्यक्ति के सोच और प्रवृत्ति में परिवर्तन लाता है। उसे ऐसी निर्मल दृष्टि प्राप्त हो जाती है जिसे सम्यग्दर्शन | अमूढदृष्टि - मूढ़ता मूर्खता को कहते हैं । मूर्खतापूर्ण दृष्टि कहते हैं। सम्यग्दर्शन का अर्थ है-यथार्थ दृष्टि । इस दृष्टि के जगते | मृढ़दृष्टि कहलाती हैं। सम्यग्दृष्टि विवेकी होता है। वह अपने ही पदार्थ गौण हो जाते हैं और परमार्थ मुख्य । पदार्थमूलक दृष्टि के | विवेक व बुद्धि से सत्य-असत्य, हेय-उपादेय और हित-अहित रहते परमार्थ की उपलब्धि असंभव है। यथार्थ-दृष्टि उस बाधा को | का निर्णय कर ही उसे अपनाता है। वह अंध-श्रद्धालु नहीं होता। दूर कर परमार्थ का मार्ग प्रशस्त करती है, यह दृष्टि ही धर्मात्मा की | परमार्थभूत देव, शास्त्र और गुरु को वह पूर्ण बहुमान देता है। कसौटी है। जिनके जीवन में यह दृष्टि प्रकट हो जाती है, उनके इनके अतिरिक्त अन्य कुमार्गगामियों के वैभव को देखकर प्रभावित जीवन में कुछ विशिष्ट गुण 1. नि:शंकित 2. नि:कांक्षित 3. नहीं होता, न ही उनकी निंदा या प्रशंसा करता है, अपितु उनके निर्विचिकित्सा 4. अमूढ़ दृष्टि 5. उपगूहन 6. स्थितीकरण प्रति राग-द्वेष से ऊपर उठकर माध्यस्थ भाव धारण करता है। यही 7. वात्सल्य 8. प्रभावना उसका अमूढ दृष्टित्व है। एक सच्चा धर्मात्मा वही है जिसका जीवन उक्त आठ गुणों उपगृहन- सम्यग्दृष्टि गुणग्राही होता है । वह सतत अपनी से मण्डित हो। ये गुण व्यक्ति की प्रवृत्ति को विलक्षण बना देते हैं। साधना के प्रति जागरूक होता है। यदि कदाचित् किसी निःशंकित - शंका का अर्थ है संदेह। सम्यग्दर्शन से परिस्थितिवश, अज्ञान या प्रामाद के कारण किसी व्यक्ति से कोई अभिभूत जीव नि:शंक होता है। उसे मोक्ष मार्ग पर किसी भी | अपराध हो जाए, तो वह उसे सबके बीच प्रकट नहीं करता, प्रकार की शंका या संदेह नहीं रहता। रहे भी कैसे? श्रद्धा और अपितु एकांत में समझाकर उसे दूर करने का प्रयास करता है। शंका भला एक साथ रह भी कैसे सकते हैं। हम अपने लौकिक जैसे बाजार में अनेक वस्तुएँ रहते हुए भी हमारी दृष्टि वहीं जाती जीवन में भी देख सकते हैं, जिसके प्रति हमारे मन में श्रद्धा रहती है जिसकी हमें जरूरत है। वैसे ही सम्यादृष्टि को गुण ही गुण है, उसके प्रति कोई संदेह नहीं रहता। संदेह उत्पन्न होते ही श्रद्धा | दिखाई पड़ते हैं। अपने अंदर अनेक गुणों के रहने के बाद भी वह टूटने लगती है। सम्यग्दृष्टि को परमार्थभूत देव, गुरु तथा उनके | कभी अपनी प्रशंसा नहीं करता, अपितु अपने दोषों को ही बताता द्वारा प्रतिपादित सत्य-सिद्धांत, सन्मार्ग और वस्तु-तत्त्व पर अविचल | है। दूसरों के दोषों की उपेक्षा कर उनके गुणों को प्रकट करता है। श्रद्धा रहती है। वह किसी प्रकार के लौकिक प्रलोभनों से विचलित तात्पर्य यह है कि वह अपने दोषों को सदा देखता है तथा दूसरों के नहीं होता। वह अविचलित श्रद्धा ही नि:शंकित अंग या गुण है। | गुणों को। अपने गुणों को छिपाता है तथा दूसरे के दोषों को। नि:कांक्षित- विषय भोगों की इच्छा को "आकांक्षा'' अपनी निंदा करता है तथा दूसरों की प्रशंसा। दूसरे के दोषों तथा कहते हैं। सम्यग्दृष्टि किसी प्रकार की लौकिक व पारलौकिक | अपने गुणों को छुपाने के कारण, इस गुण का नाम उपगृहन गुण आकांक्षा नहीं रखता। उसके मन में इन्द्रिय भोगों के प्रति बहुमान | है। अपने गुणों में निरंतर वृद्धि होते रहने के कारण उसके इस गुण नहीं होता। वह बाहरी सुविधाओं को क्षणिक संयोग मात्र मानता | को "उपबृंहण गुण" भी कहते हैं। है। उसकी दृढ़ मान्यता रहती है कि संसार के सारे संयोग कर्मों के । स्थितीकरण - सम्यग्दृष्टि कभी किसी को नीचे नहीं आधीन हैं, साथ ही नाशवान भी हैं। पापोदय होते ही एक ही क्षण | गिराता। वह सभी को ऊँचा उठाने की कोशिश करता है। अपने 8 फरवरी 2003 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपको भी वह हमेशा मोक्षमार्ग में लगाए रखता है । यदि कदाचित् । प्रकार एक अंग से भी हीन सम्यक्तव हमारे संसार की संतति को नहीं मिटा पाता । आठों अंग पूर्ण होने पर भी सम्यक्तव अपना सही कार्य करता है। किसी परिस्थितिवश वह उससे स्खलित होता है, तो बार-बार . अपने को स्थिर करने में तत्पर रहता है। उसी तरह किसी अन्य धर्मात्मा को किसी कारण से अपने मार्ग से स्खलित होते देखकर, उसे बहुत पीड़ा होती है। यह येन-केन प्रकारेण उसे सहायता देकर उसकी धार्मिक आस्था दृढ़ करता है। भले ही इसमें उसे कोई कठिनाई उठानी पडे। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक परेशानियों से अपने मार्ग से च्युत हो रहा है, तो उसे आर्थिक सहयोग देकर अथवा किसी काम पर लगाकर उसे पुनः वहाँ स्थित करता है । शारीरिक रोग के कारण विचिलत हो रहा है, तो औषधि देकर शारीरिक सेवा करके उसे धर्ममार्ग में लगाता है। यदि कुसंगति या मिथ्या उपदेश के कारण वह अपने धर्म मार्ग से स्खलित होता है, तो योग्य उपदेश देकर उसे पुनः स्थित करने का प्रयास करता है। यही सम्यग्दृष्टि का स्थितीकरण अंग है। वात्सल्य 'वात्सल्य" शब्द " वत्स" से जन्मा है। 'वत्स' का अर्थ है " बछड़ा”। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के प्रति निःस्वार्थ, निष्कपट तथा सच्चा प्रेम रखती है, उसमें कोई बनावटीपन नहीं होता, उसे देखकर उसका रोम-रोम पुलकित हो जाता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने साधर्मी बन्धुओं के प्रति निश्छल, निःस्वार्थ और सच्चा प्रेम रखता है। उसमें कोई दिखावटी या बनावटीपन नहीं रहता। उन्हें देखकर उसे उतनी ही प्रसन्नता होती है, जितनी कि किसी आत्मीय मित्र से मिलकर होती है। वह उनके साथ अत्यंत प्रगाढ़ का व्यवहार करता है। वह अपने प्रेम और वात्सल्य की डोर से पूरे समाज को बाँधे रहता है। सभी लोग उसके प्रेम-पाश में बँधे रहते हैं। वह सबके प्रति सहयोग और सहानुभूति की भावना रखता है। यही उसका वात्सल्य गुण है। प्रभावना- सम्यग्दृष्टि की यह भावना रहती है कि जिस प्रकार हमें सही दिशा-दृष्टि मिली है, सत्य धर्म का मार्ग मिला है, उसी प्रकार सभी लोगों का अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो, उन्हें भी दिशा मिले, वे भी सत्य धर्म का पालन करें। इस प्रकार की जगत् हितकारी भावना से अनुप्राणित होकर वह सदा अपने आचरण को विशुद्ध बनाए रखता है। उसका आचरण ऐसा बन जाता है कि उसे देखकर लोगों को धार्मिक आस्था उत्पन्न होने लगती है। वह परोपकार, ज्ञान, संयम आदि के द्वारा विश्व में अहिंसा के सिद्धांतों का प्रचार करता है तथा अनेक प्रकार के धार्मिक उत्सवों को भी करता है, जिसमें हजारों लोग एक स्थान पर एकत्रित होकर सद्भावनापूर्वक विश्वक्षेम की भावना भाते हैं, जिसे देखकर लोगों को अहिंसा धर्म की महिमा का भान होता है। यही उसका प्रभावना गुण है। 1 66 इस प्रकार निःशंकितादि आठ गुण सम्यक्तव के कहे गए हैं। इन आठ गुणों के पूर्ण पालन करने पर सम्यग्दर्शन रहता है, अन्यथा नहीं। जिस प्रकार किसी विषहारी मंत्र में यदि एक अक्षर भी कम हो जाता है, तो वह मंत्र प्रभावहीन हो जाता है । उसी | सम्यक्तव के इन आठ अंगों की तुलना हम अपने शरीर के आठ अंगों से कर सकते हैं। शरीर के आठ अंग होते हैं- दो पैर, दो हाथ, नितंब, पीठ, वक्षस्थल और मस्तिष्क शरीर के अंगों के प्रति यदि थोडी बारीकी से विचार करें, तो हमें इनमें भी सम्यक्तव की झलक दिखाई देती है। समझने के लिए जब हम चलते हैं, तो चलते वक्त एक बार रास्ता देख लेने के बाद बिना किसी संदेह के अपना दाँया पैर बढ़ा लेते हैं। दाँया पैर बढ़ते ही बिना किसी संदेह के अपना बाँया पैर स्वयं बढ़ जाता है, यही तो निःशंकित और नि:कांक्षित गुण का लक्षण है । अतः दाँया और बाँया पैर क्रमशः निःशंकित और नि:कांक्षित अंग के प्रतीक है। तीसरा अंग है निर्विचिकित्सा । इस गुण के आते ही घृणा या ग्लानि समाप्त हो जाती है। हम अपने बाँए हाथ को देखें, इस हाथ से हम अपने मल-मूत्रादि साफ करते हैं। उस समय हम किसी प्रकार की घृणा का अनुभव नहीं करते। बाँया हाथ निर्विचिकित्सा अंग का प्रतीक है । जब हमें किसी बात पर जोर देना होता है, जब हम कोई बात आत्मविश्वास से भरकर कहते हैं, तब हम अपना दाँया हाथ उठाकर बताते हैं तथा अन्य किसी की बात का ध्यान नहीं देते। अमूढदृष्टि का प्रतीक है, क्योंकि इस अंग के होने पर वह अपनी श्रद्धा पर अटल रहता है तथा उन्मार्गियों और उन्मार्ग से प्रभावित नहीं होता। शरीर का पाँचवाँ अंग नितम्ब है। इसे सदैव ढाँक कर रखा जाता है। इसे खुला रखने पर लज्जा का अनुभव होता है, यही तो उपगूहन है, क्योंकि इसमें अपने गुण और पर के अवगुण को ढाँका जाता है। नितम्ब उपगूहन अंग का प्रतीक है। सम्यक्तव का छठा अंग है स्थितीकरण। पीठ सीधी हो तभी व्यक्ति दृढ़ता का अनुभव करता है । जब हमें किसी वजनदार वस्तुको उठाना होता है, तो उसे अपनी पीठ पर लाद लेते हैं। इससे हमें चलने में सुविधा हो जाती है। पीठ स्थितीकरण अंग का प्रतीक है, क्योंकि गिरते हुए को सहारा देना ही तो स्थितीकरण है। हृदय शरीर का सातवाँ अंग है। जब हम आत्मीयता और प्रेम से भर जाते हैं, तब अपने आत्मीय को हृदय से लगा लेते हैं। हृदय वात्सल्य अंग का प्रतीक है। वात्सल्य का अभाव होने पर सम्यक्तव भी हृदय शून्य ही सिद्ध है। मस्तिष्क शरीर का आठवाँ अंग हैं। यह प्रभावना अंग का प्रतीक है, क्योंकि इसे हमेशा ऊँचा रखा जाता है। इसी प्रकार अपने आचरण और व्यवहार से जिनशासन की गरिमा और महिमा बढ़ाना, उसका प्रचार-प्रसार करना प्रभावना है। इस प्रकार इन आठ अंगों के पूर्ण होने पर भी हमारा सम्यक्तव सही रह पाता है, अन्यथा वह तो विकलांग की तरह अक्षम रहता है। यदि हम अपने शरीर के अंगों की गतिविधियों की तरह सम्यक्तव के अंगों की साज-सँवार करते रहें, तो हमारा सम्यक्तव स्थित रहेगा। 'अन्तस् की आँखें' से साभार -फरवरी 2003 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवित जीवन मुनि श्री चन्द्रसागर जी जीवन जड़ नहीं गतिमान है प्रगतिमान है, अत: आवश्यक | उठने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। लेकिन उन्होंने है कि उस गति को उचित ढंग से इस भॉति नियमित और नियंत्रित | वह कार्य कर दिखाया जो साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं किया जाये कि जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो सके। जीवन का | है। यदि हमारा आचरण विवेक की मर्यादा से बंधा हो तो शरीर उद्देश्य केवल जीना मात्र नहीं, बल्कि इस रूप में जीवन यापन | को जितना कष्ट दिया जाता है आत्मा में उतना ही सुख होता है। करना है कि जीवन के पश्चात् जन्म और मरण का क्रम टूट जावे। उनका जीवन एक व्यवस्थित चारित्रनिष्ठ जीवन था। उनके चरण जीवन जितना कठोर एवं संयमित होता है व्यक्ति उतना ही ऊँचा | धर्माचरण से सने थे। वे लौकिकता से दूर पारलौकिक सुख प्राप्ति उठ जाता है। के इच्छुक थे, वे एक दिगम्बर भिक्षुक थे। “अप्पदीपोभव'' के उन्होंने दैहिक, दैविक एवं भौतिक ताप को नष्ट करने के सूत्र पर चलने वाले थे अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो। उन्होंने लिये अज्ञान से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर आने स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को प्रकाशित किया। स्वयं उन्होंने के लिए साधना को स्वीकारा था । पर वास्तव में देखा जाये, सोचा अपना रास्ता खोजा ऐसा बुद्ध ने अपने जीवन के अन्तिम उपदेश जाए तो यही ज्ञात होगा, देखने भी यही मिलेगा की शत्रु से युद्ध में कहा है- 'तन का बैरी रोग है, मन का बैरी राग तू मन को ऐसे करना कहीं सरल है पर इन्द्रियों के साथ युद्ध करना कठिन है । पर तपा ज्यों सोने को आग।' तप शब्द का उल्टा पत होता है, मनुष्य उन्होंने इन्द्रियों के साथ युद्ध किया और एक सफल योद्धा की भव पाकर भी तप नहीं किया तो पतन ही है। जहाँ सद्गुणों का भाँति विजयी हुये आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की समाधि तपन के समावेश है, वहाँ अवगुणों का प्रवेश निषेध है। वे सादा जीवन दिनों चल रही थी। जीवन भर के किये हुये तप की तपन को उच्च विचार के सूत्र को जीवित बनाये रखने वाले श्रेष्ठ साधक थे। शीतल बना रहे थे। उन्हें साइटिका का रोग था यह मौसम उनकी | देव, गुरु, शास्त्र के प्रति समर्पण ही उन्हें जीवन भर साधे रहा, साधना के अनुकूल ही बैठा । एक दो श्रावकगण उन्हें आध्यात्मिक सम्हाले रहा। ज्ञान की पिपासा से जो भी आया उसे हमेशा शरण भजन, पं. द्यानतराय, पं. भूधरदास एवं पं. भागचंद आदि के | देने वाले बालब्रह्मचारी पं. भूरामल जी, शांतिकुमार, मुनि ज्ञानसागर, सुनाते थे। समाधि के छ: माहपूर्व से ही आचार्य श्री ज्ञानसागर जी | आचार्य ज्ञानसागर जी थे (उनके ग्रंथों की प्रशस्ति से यह नाम ज्ञात ने अनाज का त्याग कर दिया था। दूध और फलों का रस लेते थे। होते हैं) उनकी बचपन की साधना ने पचपन को सुदृढ़ बना बाद में दूध भी छोड़ दिया। केवल जल और रस लेते थे। फिर रस दिया। करने योग्य कार्य का बोध संयम की ओर बढ़ता रहा। छोड़ दिया पानी अकेला रखा। फिर पानी भी छोड़ दिया। अंत में आदर्श व्यक्ति वही बनता है जिसके जीवन में सत्य, आँखों में चार दिन निराहार रहे निर्जल उपवास किये एक ही स्थान पर लेटे ब्रह्मज्योति, वाणी में मिठास और हृदयसागर में करूणा का दरिया रहते थे गर्मी की कोई आकुलता नहीं होती थी। देह छोड़ने के अनवरत प्रवाहमान होता है। वे जानते थे और मानते भी थे कि पूर्व भागचन्द्र जी सोनी दर्शन हेतु आये, तो कहा आशीर्वाद दे दो अल्प के कारण बहुत को खोना विचार मूढ़ता है। तनगत चंचलता हाथ नहीं उठता था शरीर कृश हो चुका था। फिर पुन: कहा आँख को वे पद्मासन से समाप्त कर देते थे। मन की एकाग्रता को साधने खोल कर दे दो तो आँख खोलकर देखा प्रसन्न मुद्रा में । सेठ जी के के लिए शुद्धतत्त्व का चिन्तन करते थे। वे कटूता के जहर को धोने जाने के दस मिनिट बाद देह का त्याग कर दिया। 11 बजकर 10 के लिये मधुर सरस और शांत भाषा का प्रयोग करते थे। निषेधात्मक मिनिट पर सब देखते ही रह गये कि इन्द्रियों से युद्ध कर विजय | भावों के स्थान पर विधेयात्मक भावों का चिन्तन करते थे। अपने को प्राप्त हुये भोजन से सम्बन्ध छोड़ समता के भजन में समा गये।। दृष्टिकोण को सम्यक रखते थे। एवं दृष्टि को चार हाथ बाँध कर इस समय मुझे तुलसीदास की बात याद आ रही है चलने वाले जीवित साधक थे। कर्त्तव्यशीलता आत्मश्रम उनकी "जो करा सो झरा, जो बरा सो बुताना" जो फला है, वह | साधना के साथी थे। जिनवाणी के स्वाद को चखने-चखाने वाले झड़ेगा, जो जला है वह बुझेगा। अर्थात् जन्मा है वह मरेगा। आचार्य ज्ञानसागर जी यह सब कुछ जानते थे क्योंकि उनका जा मारिबे तैं, जग डर, मोरे मन आनन्द, जीवन स्वाध्याय शील था। अब वे स्व के अध्याय में अपना समय मरन किये ही पाइये, पूरन परमानन्द। दे रहे थे। मन और आत्मा को वश में कर कामनाओं को जीतने मरने के पूर्व ही मरण का अभ्यास कर लो। परिचय प्राप्त वाले निष्ठावान साधक थे। साधन की सीढ़ियाँ पार करते-करते / कर लो उसका भय और उसका आतंक समाप्त कर डालो। अंत में अंतिम सीढ़ी को पार कर साधना को सफल बनाया- आगामी | मरना सबको है, परन्तु अपने प्रभु के सामने, भयभीत होकर मृतक जीवन को सुन्दर बनाने का कार्य करते चले गये। मनुष्य ऊपर | समान निश्चेष्ठ होकर जाने में कोई बुद्धिमानी नहीं। उन्होंने अपने 10 फरवरी 2003 जिनभाषित - Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन काल में मरने की साधना की फिर निर्भय होकर शरीर को होश पूर्वक स्वेच्छा से प्रसन्न भावों के साथ छोड़ दिया। उन्होंने प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति को अपनाया । स्वीकारा इस समय मन के पक्षपात दूर हो जाते हैं। एवं आत्महित का चिन्तन बढ़ता है। दीर्घकाल की साधना के अभ्यास से विचारों में परिपक्वता आती है, अनुभव प्रौढ़ होता जाता है। जैन दर्शन में कहा है कि जब तक जनम-मरण है, तो संसार है, जन्म है तो मरण निश्चित ही जानो । वैसा ही ईसाई ग्रंथों में लिखा है- "मौत पाप का फल है "। इसलिये वे रत्ननात्रय की एकता को धारण कर विविधताओं, भिन्नताओं, अभिलाषाओं, लालसाओं का त्यागकर मानवीय आदर्श एवं मूल्यों को प्राप्त कर नियमित जीवन पद्धति के अधिकारी बने। धर्म एक जीवन जीने का ऐसा तरीका जो जीवन के कार्यों और क्रियाओं को संयोजित और नियंत्रित करता है। मोह की जड़ों को उखाड़ कर फेंकने वाले निर्मोही आचार्य ज्ञानसागर जी थे। आकुलता और व्याकुलता से रीता जीवन जीने वाले साधक थे । ध्यान रहे भोगी का जीवन स्वार्थ पूर्ण संकीर्ण दृष्टिकोण के साथ बीतता है । छत्तीसगढ़ में जैन समुदाय अल्पसंख्यक घोषित भोपाल / छत्तीसगढ़ राज्य में छत्तीसगढ़ के मूल निवासी जैन समुदाय को छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने अल्पसंख्यक घोषित कर दिया है। छत्तीसगढ़ राज्य के राजपत्र ( असाधारण) क्र. 328 में छत्तीसगढ़ के राज्यपाल के नाम से एवं आदेशानुसार आदिमजाति एवं अनुसूचित जाति विकास विभाग, मंत्रालय, दाऊ कल्याण सिंह भवन, रायपुर के संयुक्त सचिव ए. के. द्विवेदी के नाम से 24 दिसम्बर 02 को एक अधिसूचना प्रकाशित हुई है। अधिसूचना क्रमांक एफ/5882/2614/ आजावि/ 2002 के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1996 की धारा 2 के खण्ड (ग) के उप-खण्ड (दो) द्वारा प्रदत्त शक्तियों को प्रयोग में लाते हुए, राज्य सरकार, एतद् द्वारा, उक्त अधिनियम के प्रयोजन के लिए, छत्तीसगढ़ के मूल निवासी जैन समुदाय को, अल्पसंख्यक समुदाय के रुप में अधिसूचित करती है । वह जीवन कदापि उपादेय नहीं, जिसमें भोग के लिए स्थान हो । जो आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता हो वही जीवन सर्वोच्च एवं सर्वोपरि है। यह सत्य है कि त्याग द्वारा अर्जित संस्कारों का कभी विनाश नहीं होता । जो आत्मा का पोषण करना भूल जाता है वह शरीर के पोषण में लगा रहता है और उन्नति का मार्ग अवरुद्ध कर लेता है। यह संसार स्वार्थों का अखाड़ा है। इसकी अनित्यता और अनिश्चितता सभी को कष्ट देती है। वे इस संसार की असारता, शरीर की क्षणभंगुरता को जानते थे इसलिए साधना का सर्वश्रेष्ठ मार्ग अपनाकर आत्मा का जीर्णोद्धार कर लिया। समाधि आत्मा का उपकारक तत्व है यह साधना की अन्तिम श्रेणी है। इससे मनुष्य क्या पशु का भी हित हो जाता है। यह सच है जो आत्मदर्शन कर लेता है, उसे ही निराकुल सुख की उपलब्धि होती है। समाधि की साधना से कषाय में विकार धूमिल हो जाते हैं। व्रत का अर्थ धार्मिक संकल्प है जिसको आत्मानुशासन की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किये जाते हैं। जो संकल्पों को पूर्णरूप से पालता है वही सही अर्थों में व्रतों से दीक्षित है । इसलिये कहा भी है- "अंत भला तो सब भला । " , स्मरणीय है कि राज्य की जैन समाज विगत दीर्घ कालावधि से राज्य में जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित किए जाने की माँग करती रही है। विगत दो वर्ष पूर्व कुण्डलपुर (दमोह) में आयोजित पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव के अवसर पर सन्तशिरोमणी दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री अजीत जोगी ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घेषित करने हेतु संकल्प किया था। उस संकल्प का स्मरण करते हुए भगवान् महावीर के 2600 वीं जन्म जयन्ती वर्ष की समाप्ति की पूर्व संध्या पर महावीर जयंती के एक दिन पहले रायपुर में आयोजित धर्मसभा में उन्होंने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित किया था। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री जोगी से जैन समाज का यह भी अनुरोध है कि जिस प्रकार म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह ने म.प्र. विधानसभा में आवश्यक संशोधन पारित कराकर म.प्र. राज्य अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1996 में संशोधन कराया है और आयोग की सदस्य संख्या को दो से बढ़ाकर चार करके जैन तथा बौद्ध समुदाय के प्रतिनिधियों को उसमें सम्मिलित करने का निर्णय लिया है, इसी प्रकार जोगी जी छत्तीसगढ़ में भी आवश्यक संशोधन कराकर छत्तीसगढ़ राज्य अल्पसंख्यक आयोग में जैन समुदाय के सदस्य को प्रतिनिधित्व प्रदान करें। छत्तीसगढ़ में जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने के अवसर पर जैन समाज श्री जोगी को साधुवाद प्रदान करता है। -फरवरी 2003 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-जीवन पर असन्तोष नहीं स्व. सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री अपने उक्त जीवन के प्रकाश में जब मैं अपने जीवन को | शिक्षा में ही रुचि रखते हैं। किन्तु आज का पण्डित उनका एक पंडित के रूप में आँकता हूँ तो मुझे अपने पंडित जीवन पर | सन्तोष नहीं कर सकता। इस स्थिति से विषम समस्या पैदा हो असन्तोष नहीं होता। यदि मैं पंडित न बनकर साधारण गृहस्थ ही रही है। जब तक जैनसमाज जैन विद्वान के पोषण के लिये रहा होता तो मेरे जीवनका उपयोग भी अपने पारिवारिक झंझटों आवश्यक आर्थिक व्यवसाय नहीं करेगा तब तक इस परम्परा में ही बीतता। न मैं आत्मा को जानता, न परमात्मा को जानता। का चालू रखना अशक्त होता जायेगा। अत: समाज को इधर समस्त जीवन "नोन तेल लकड़ी" की चिन्ता में ही बीत जाता। ध्यान देना चाहिये। और एक विद्वान को 500/- से कम वेतन भगवान् महावीर और उनकी वाणी के पठन-पाठन में, आचार्य नहीं देना चाहिये। यदि ऐसा हो जाये तो इस क्षेत्र में आकर्षण कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, नेमिचन्द्र, अकलंकदेव, वीरसेन बढ़ सकता है। उसके अभाव में जैनसमाज के सामने विषम स्वामी, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अमृतचन्द्र आदि महान् आचार्यों के | समस्या पैदा हो जायेगी। ग्रन्थरत्नों का आलोडन करने में जो सुख मिला है, उसे मैं लेखनी वस्तुतः जैनधर्म आत्मकल्याण के लिये है, जीविका के से लिखने में असमर्थ हूँ। खेद यही है कि मैंने अपने ज्ञान का | लिये नहीं है। किन्तु गृहस्थाश्रम में रहनेवाले का जीवन निर्वाह उपयोग आत्महित में नहीं किया। यह जानते हुए भी कि मैं | तो आत्मकल्याण से हो नहीं सकता। अत: उसे जीवन निर्वाह के द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से भिन्न एक स्वतन्त्र चेतन द्रव्य | लिये धन की आवश्यकता है। आजीविका के अन्य साधन अपनाने हूँ, मुझे संसार, शरीर और भोगों से आन्तरिक विराग नहीं होता से रुचि उधर ही लग जाती है। अतः धार्मिक क्षेत्र में कार्य और इस परसे मैं यह निष्कर्ष निकालता हूँ कि मेरी आत्मा से करनेवाले विद्वानों का उपयोग उसी ओर रहे, इसके लिये उन्हें मिथ्यात्व पर्दा हटा नहीं है, यद्यपि जीवनभर मैंने सच्चे देव शास्त्र जीविका की ओर से निराकुल करना ही चाहिये। साथ ही विद्वत्ता गुरु की श्रद्धा की है, उसी की प्राप्ति के लिए मैं प्रयत्नशील हूँ और के योग्य-सम्मान भी उन्हें दिया जाना चाहिये। स्कूल कालिजों आप सबका आशीर्वाद चाहता हूँ। में अध्यापकों की जो स्थिति होती है यही स्थिति जैन विद्वान की आज जैनसमाज एक व्यापारी समाज है और सब तीर्थंकर, | जब तक नहीं होगी तब तक यह समस्या सुलझ नहीं सकती। जिन्होंने जैनधर्म का प्रवर्तन किया, क्षत्रिय थे। धीरे-धीरे क्षत्रियों मेरा यह अनुभव है कि विद्वान को सन्मान दो कारणों से से जैनधर्म लुप्त हो गया। हिन्दू समाज की तरह जैनसमाज में मिल सकता है। एक निरीहवृत्ति और दूसरे विद्वत्ता। निरीहवृत्ति ब्राह्मण जाति नहीं रही है। ब्राह्मण जाति का कार्य ही हिन्दू धर्म तब तक संभव नहीं है जब तक जीवन निर्वाह के योग्य आजीविका का संरक्षण और प्रचार है। जैनसमाज में यह कार्य प्राय: संसारत्यागी न हो। और उसके लिये यह आवश्यक है कि विद्वान केवल परीक्षा मुनिगण और आचार्य करते थे। धीरे-धीरे उनका भी लोप होने से पास न हो, किन्तु उसे जिनागम रहस्य भी ज्ञात हो, भाषणकला में समाज के सामने कठिनाई उपस्थित हुई। तब संस्कृति के भी कुशल हो और शास्त्रीय प्रश्नों का उत्तर शास्त्राधार से देने की महाविद्यालय स्थापित करके विद्वानों की परम्परा चालू की गई। | क्षमता हो। इसके लिये उसे शास्त्राभ्यासी होना आवश्यक है। इस परम्परा ने लगभग सात दशकों तक समाज में धार्मिक शिक्षा आजकल तो छात्रों में शास्त्राभ्यास की रुचि नहीं पाई जाती। और धर्मोपदेश का कार्य किया। संस्कृत और प्राकृत के ग्रन्थों का कक्षा में पढ़ते समय भी वे अन्यमनस्क रहते हैं। परीक्षा में नकल भाषानुवाद किया और इस तरह जैन साहित्य का भी संरक्षण और करके पास होते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें विषय का ज्ञान कैसे सम्भव संवर्धन किया। किन्तु सामयिक परिस्थिति के बदलने से अब इस है। और उसके अभाव में वे कैसे समाज पर अपना प्रभाव डालने में विद्वतपरम्परा का भी अन्त सन्निकट प्रतीत होता है। क्योंकि अब सक्षम हो सकते हैं। अत: दोनों ही ओर से अपनी अपनी त्रुटियों को इस मार्ग में न तो आर्थिक ही आकर्षण रहा है और न लौकिक दूर करने पर ही समस्या का हल निकल सकता है। उसके बिना ही। मँहगाई की अत्यधिकता के कारण एक परिवार के निर्वाह परिस्थिति में सुधार सम्भव नहीं है । आशा है कि समाज इधर ध्यान के लिये जितना अर्थ आवश्यक है उतना समाज से मिलता नहीं देगा तथा विद्वान बनने के इच्छुक भी ध्यान देंगे। है। अत: छात्र भी धार्मिक शिक्षा की ओर ध्यान न देकर लौकिक | पण्डित जी के अभिनन्दन ग्रन्थ (पृष्ठ 66-67) से साभार 12 फरवरी 2003 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्रोषधोपवास चर्चा पं. रतनलाल कटारिया, केकड़ी (राजस्थान) परीक्षाप्रधानी आचार्य समन्तभद्र का रत्नकरण्डश्रावकाचार | अन्यथा किसी श्लोक को क्षेपक कह देना अतिसाहस है। नामक ग्रन्थ जैनाचार विषयक एक महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसे प्रायः | इस श्लोक की रचना शैली एक विशेषता को लिये है जो आगमके समान कोटिका माना जाता है। इसकी विषयवस्तु 'चारित्तं | इसे समन्तभद्र की ही कृति सिद्ध करती है। इसमें जो लक्षण बाँधने खलु धम्मो' पर आधारित है। यह अनेक स्थानों से अनेक रूप में | का ढंग है, वह रत्नकरण्डश्रावकाचार के सिवा अन्य किसी भी प्रकाशित हुआ है, पर हम यहाँ वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली से | श्रावकाचार में नहीं पाया जाता। इसकी अद्वितीयता निम्न है : प्रकाशित प्रति के आधार पर ही उसमें वर्णित प्रोषधोपवास सम्बन्धी | इसमें यद् के साथ 'आचरण' शब्द न देकर 'आचरति' क्रिया दी कुछ चर्चा करेंगे। इसका 109वाँ श्लोक, पृष्ठ 146 निम्न प्रकार है: | है और यद् की जोड़का स: शब्द देकर लक्षण बाँधा है। यह शैली चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद् भुक्ति । रत्नकरण्डश्रावकाचार में अन्यत्र भी पाई जाती है; यथा, सः प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारंभमाचरति 109॥ (1) न तु परदारान् गच्छति न परान्गमयति च पापभीतेर्यत्। "चार प्रकार का आहार त्याग उपवास है, एक बार का सा परदारनिवृतिः, स्वदारसन्तोषनामापि।।59॥ भोजन प्रोषध है और उपवास करके आरम्भ का आचरण करना (2) निहितं वा पतितं वा, सुविस्तृतं वा परस्वमविसृष्टं। प्रोषधोपवास है।" न हरति यन्न च दत्ते तकृशचौर्यादुपारमणम्।।57 ।। इस श्लोकार्थ के आधार पर टीका ने अपनी प्रस्तावना (3) स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे। श्लोक के क्षेपक होने का सन्देह किया है। उनके मतानुसार ग्रन्थ यत्तद्वदन्ति सन्तः, स्थूलमृषावादवैरमणम्।।55 ।। में प्रोषधोपवास को कथन 106 वें श्लोक में किया है: (4) संकल्पात्कृतकारितमननाद् योगत्रयस्य चरसत्वात्। पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु। नहिनस्ति यत्तदाहुः, स्थूलबधाद्विरमणं निपुणाः।3।। चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याप्रत्याख्यानं सदिच्छाभिः।।196' ।। (5) अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्। इसमें बताया गया है कि पर्वणी (चतुर्दशी) तथा अष्टमी निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः।42 ।। में सदिच्छा से जो चार आहार का त्याग किया जाता है, उसे (6) स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम्। प्रोषधोपवास समझना चाहिये। टीका में भी निम्न वाक्य के द्वारा वाच्यता यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगृहनम्॥5॥ इसे लक्षण ही सूचित किया है- अथेदानी प्रोषधोपवासलक्षणं इसतरह यह सुतरां सिद्ध है कि यह श्लोक क्रमांक 109 शिक्षाव्रतं व्याचक्षाण: प्राह । इसके बाद चतुराहार विसर्जन श्लोक रत्नकरण्डश्रावकाचार का ही अंग है और स्वामी समन्तभद्रकृत ही में भी प्रोषधोपवास का लक्षण बतलाया गया है। इसकी उत्थानिकामें | है। अब जो आपत्तियाँ की गई हैं, उनका भी निरसन निम्न प्रकार टीकाकार ने लिखा है: अधुना प्रोषधोपवासस्तल्लक्षणं कुर्वन्नाह। | किया जा सकता है: परन्तु प्रोषधीपवास का लक्षण तो पहिले ही किया जा चुका है, (1) टीकाकार ने जो श्लोक 106 की उत्थानिका में फिर से उसकी क्या जरूरत हुई, इसका कोई स्पष्टीकरण टीका में 'प्रोषधोपवासलक्षणं शिक्षाव्रतं प्राह' लिखा है, वह ठीक है। उसका नहीं है। इसके सिवा, धारणक और पारणक के दिनों में एक भुक्ति अर्थ यह है कि प्रोषधोपवास नामके शिक्षाव्रत का कथन करते हैं। की जो कल्पना टीकाकार ने की है, वह उसकी अतिरिक्त कल्पना शिक्षाव्रत के चार भेद हैं। उनमें से यहाँ प्रोषधोपवास नाम के है। प्रोषध का अर्थ सकृद् भुक्ति और प्रोषधोपवासका अर्थ सकृद् शिक्षाव्रत का कथन किया है। अत: नाम या भेद अर्थ में यहाँ भुक्ति पूर्वक उपवास-किसी अन्य ग्रन्थ में देखने में नहीं आया। लक्षण शब्द का प्रयोग किया गया है। यही शैली आगे के वैयावृत्त यह अर्थ प्रोषध प्रतिमा के श्लोक 140 के भी विरुद्ध है। अत: यह शिक्षाव्रत की उत्थानिका में इस प्रकार दी है "इदानीं चतुराहार विसर्जन श्लोक आश्चर्य नहीं, जो ग्रन्थ में किसी तरह वैयावृत्यलक्षणशिक्षाव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयन्नाह।" श्लोक 109 की प्रक्षिप्त हो गया हो और टीकाकार को उसका ध्यान भी न रहा हो। टीका में चतुराहार पद की व्याख्या इस प्रकार की है- चत्वारश्च इस श्लोक पर और भी कुछ विद्वान इसी तरह के क्षेपक होने का आरोप करते हैं, किन्तु मेरे विचार में यह सब ठीक नहीं ते अहाराश्चाशन-पान-स्वाद्यलेह्यलक्षणाः। इसमें' भी लक्षण शब्द है। यह श्लोक मूल का ही अंग है और स्वामी समन्तभद्रकृत ही भेद अर्थ में ही दिया है। है। किसी भी प्राचीन अर्वाचीन प्रति में इस श्लोक का अभाव नहीं | श्लोक नं. 109 की उत्थानिका में जो 'प्रोषधोपवासपाया जाता है। अगर यह क्षेपक है, तो यह दूसरे किस ग्रन्थ का स्तल्लक्षणं कुर्वन्नाह' लिखा है, उसका अर्थ है कि "प्रोषधोपवास" मूल श्लोक है और कौन इसका कर्ता है, यह स्पष्ट होना चाहिये।। ऐसा जो पद है उसका लक्षण कहते हैं।" इस तरह दोनों उत्थानिका . -फरवरी 2003 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्य अपनी जगह सही हैं। दोनों का अर्थ जुदा-जुदा है, अतः। लोगों को कुछ अटपटा सा लगता है। मैंने इस पूरे श्लोका जो अर्थ पुनरुक्तिका आरोप मिथ्या है। निश्चित किया है, वह इस प्रकार है, विद्वान् इस पर गम्भीरता से (2) श्लोक नं. 106 में 'पर्वण्यष्टम्यांच' पद में पर्वणी विचार करें : मूल शब्द बताया गया है, यह गलत है। मूल शब्द पर्वन् (नपुंसक इस श्लोक में कोई भी पाठान्तर नहीं पाया गया है। सिर्फ लिंग) है उसका सप्तमी विभक्ति के एक वचन में पर्वणि रूप कीर्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका में शुभचन्द्राचार्यने इसके बनता है जबकि पर्वणी शब्द में ईकार बड़ा है और वही स्त्रीलिंग चतुराहारविसर्जन पद की जगह चतुराहारविवर्जन पद दिया है, जो शब्द है तथा यह प्रथमा विभक्ति का द्वि वचन है। अगर वह यहाँ सामान्य शब्द भेद को लिये हुये हैं, किसी अर्थ भेद को लिये हुए होगा, तो 'पर्वण्यामष्टम्यां च' ऐसा पद बनता। इसमें छन्दभंग ही नहीं। होता। अत: यह ठीक नहीं है । टीकाकार ने भी मूल शब्द पर्वन् ही लेख के प्रारम्भ में जो इस श्लोक का अर्थ दिया गया है, माना है और उसी का अर्थ चतुर्दशी किया है। उसी का सप्तमी के उसमें पूर्वार्द्ध का अर्थ तो ठीक है, किन्तु उत्तरार्द्ध अर्थ ठीक नहीं एक वचन में पर्वणि रूप दिया है। (3) श्लोक नं. 109 में जो | है। क्योंकि उत्तरार्द्ध के अर्थ में जो उपवास करके आरम्भ का प्रोषध का अर्थ सकृद्भुक्ति दिया है, उसी के आधार से टीकाकार आचरण करना प्रोषधोपवास है, ऐसा बताया है, उसके अनुसार ने धारणक और पारणक के दिन एकाशन की बात कही है। कोई ग्रन्थकार आरम्भ करने का उपदेश नहीं दे सकता और न उनकी यह कोई निजी कल्पना नहीं है। प्रोषध का अर्थ सकृद्भुक्ति ऐसा प्रोषधोपवास का लक्षण कहा जा सकता है। अन्य ग्रन्थों में नहीं पाये जाने से ही वह आपत्ति योग्य नहीं हो | मेरे विचार में 'स: प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचारति' सकता। समन्तभद्र के बहुत से प्रयोग हैं जो अन्य ग्रन्थों में नहीं। इस उत्तरार्द्ध के उपोष्यारम्भ पद का अर्थ उपवास-सम्बन्धी आरम्भपाये जाते। जैसे: अनुष्ठान लेना चाहिये। योगसारप्राभृत (अमितगति प्रथम कृत) के चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रतिर्भवति।।79॥ | श्लोक 19 अधिकार 8 में आरम्भ शब्द का अर्थ धर्मानुष्ठान दिया रत्नकरण्ड श्रावकाचार के इस श्लोक में अवधि शब्द | है। उपवास से सम्बद्ध हो जाने पर आरम्भ अपने आप धर्मानुष्ठान शास्त्र अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, यह अनूठा है। हो जाता है। यहाँ उपवास विषयक आरम्भ के आचरण को (आ) चौथा शिक्षाव्रत वैयावृत्य बताया है और उसी में प्रोषधोपवासका लक्षण बताया है। ग्रन्थकार ने इस श्लोक में और अर्हतपूजा को गर्भित किया है (श्लोक 119)। यह निराला है। इसके पूर्वके तीन श्लोकों में जो उपवासविषयक कर्त्तव्य बताये हैं, (इ) श्लोक क्रमांक 97 के आसमयमुक्तिमुक्तं पदमें आये वे सब इस उपोष्यारम्भ पद में आ जाते हैं। इस छोटे से पद में समय शब्द की जो व्याख्या श्लोक 98, "मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धं उपवास सम्बन्धी सारे क्रियानुष्ठान गर्भित कर लिये गये हैं, इसी से पर्यकबन्धनं चापि। स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः," लक्षणात्मक श्लोक को अन्त में रखा है। उपोष्यारम्भ पद के द्वारा में की गई है, । वैसी अन्यत्र नहीं पाई जाती। प्रकारान्तर से ग्रन्थकार ने यह भी सूचित किया है कि यहाँ अन्य (ई) श्लोक नं. 24 में गुरुमूढ़ता के लिये पाखण्डिमोहनम् शब्द का प्रयोग भी अद्वितीय है। सब गार्हस्थिक आरम्भ त्याज्य हैं। सिर्फ आहार का त्याग करना (उ) श्लोक नं. 147 में मुनिवन, भैक्ष्याशन, चेल, खण्डधर ही उपवास नहीं है, किन्तु लौकिक आरम्भों को त्याग करना भी आदि कथन भी अनुपम हैं। साथ में आवश्यक है। ऐसा अन्य ग्रन्थकारों ने भी इस प्रसंग में (ऊ) स्वयंभूस्तोत्रमें चारित्र के लिये उपेक्षा शब्द का प्रयोग लिखा है : श्लोक 90 में किया गया है। (क) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-मुक्त्समस्तारम्भं (श्लोक 152) (ऋ) आज सामायिक शब्द का ही प्रचार है, किन्तु इस (ख) अमितगति श्रावकाचार-विहाय सर्वमारम्भमसंयमअर्थ में रत्नकरण्डश्रावकाचार में सर्वत्र सामयिक शब्दका ही प्रयोग | विर्वधकं (12/130) सदोपवासं परकर्ममुक्त्वा (7170), किया गया है, कहीं भी सामायिक शब्दका नहीं। यह भी एक सदनारम्भनिवृत्तैराहारचतुष्टयं हित्वा (6-88) विशेषता है। (ग) सकलकीर्तिकृत सुदर्शन चरित-त्यक्त्वारम्भगृहोद्भवं (4) श्लोक 109 प्रोषधप्रतिमा के श्लोक 140 के विरुद्ध (2172) बताया जाता है, यह भी ठीक नहीं क्योंकि प्रोषधप्रतिमा के श्लोक (घ) रइधूविरचित पासणाह चरिउ-संवरु किज्जइ में जो प्रोषधनियम विधायी पद दिया है, उसके नियम शब्दके अन्तर्गत श्लोक 106 से 110 तक का सारा प्रोषधोपवास का आरम्भकम्मि (5/7) कथन आ जाता है। अत: यह श्लोक 109 किसी तरह विरुद्ध नहीं (ङ) जयसेनकृत धर्म रत्नाकर -आरमीजलपानाभ्यां पड़ता, अपितु उसका पूरक ठहरता है। मुक्तोऽनाहार उच्यते (1308) अब मैं श्लोक 109 के अर्थ पर आता हूँ। आज तक | (च) रत्नकरण्डश्रावकाचार के श्लोक 107 में भी उपवास श्लोक का पूरा वास्तविक अर्थ सामने न आ पाने से यह श्लोक | में आरम्भ का त्याग बताया है। 14 फरवरी 2003 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोष (उप+उष्) शब्द उपवास का पर्यायवाची है, इसके आगे योग्य अर्थ में यत् प्रत्यय करने पर उपोष्य बना है। वही यहाँ उपोष्यारम्भ पद में समझना चाहिये। "उपवास करके " इस अर्थ का वाची शब्द यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये। चर्चित श्लोक के पूर्वार्द्ध में जो प्रोषध का अर्थ ग्रन्थकार ने सकृद् मुक्ति दिया है, उसका समर्थन इसी ग्रन्थ के सामयिकं बहनीयाद् उपवासं' चैक भुक्ते वा' से भी होता है। इसमें बताया है कि एक भुक्ति और उपवास अर्थात् प्रोषधोपवास के दिनों में सामायिक को दृढ़ करना चाहिये । श्लोक में जो वा शब्द दिया है, उसका तात्पर्य यह है कि सामयिक को अन्य विशेष दिनों में भी दृढ़ किया जाना चाहिये। इस श्लोक में जो उपवास और एक भुक्ति अलग-अलग पद दिये हैं, वे उपवास और प्रोषध अर्थात् प्रोषधोपवास के वाची हैं। इससे प्रोषधः सकृद् भुक्तिः इस पद का अच्छी तरह समर्थन होता है और यह श्लोक समन्तभद्रकृत ही है, यह भी सम्यक सिद्ध होता है। जिन्होंने प्रोषध का अर्थ पर्व किया है, वे ग्रन्थकार प्रोषधोपवास शब्द से आठ प्रहर का ही उपवास अभिव्यक्त कर सके हैं। 12 और 16 प्रहर के उपवास के लिये उन्हें अतिरिक्त श्लोकों की रचना करनी पड़ी है। इसके विपरीत, स्वामी समन्तभद्र ने प्रोषध का सकृदमुक्ति का अर्थ करके इसके बल पर प्रोषधोपवास शब्द मात्र से ही 12 से 16 प्रहर के उपवास का कथन अभिव्यक्त कर दिया है। यह उन जैसे प्रवचनपटु अद्वितीय रचनाकार का ही काम है। इस प्रसंग में संस्कृत टीकाकार ने जो आरम्भ का अर्थ सकृद्भुक्ति किया है, वह भी अनोखा है और शब्दशास्त्रादिक से किसी तरह संगत नहीं है। पं. आशाधरजी ने सागारधर्मामृत के अध्याय 7 श्लोक 5 तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य में प्रोषधोपवास के चार भेद किये हैंआहारत्याग, अंग संस्कारत्याग, सावद्यारंभत्याग, और ब्रह्मचर्य (आत्मलीनता का पालन ) । इसी प्रकार का कथन श्रावक प्रज्ञप्ति और प्रशमरतिप्रकरणादिकी टीका में श्वेताम्बरचार्यों ने भी किया है । इस दृष्टि से अब मैंने रत्नकरण्ड श्रावकाचार का अध्ययन किया, तो उसके प्रोषधोपवास विषयक श्लोक 106 से 108 में मुझे ये चारों भेद परिलक्षित हुये हैं। जिसका खुलासा इस प्रकार है : पर्वण्यष्टम्यांच ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ||106 ॥ इस श्लोक में आहारत्याग का कथन है। पंचानां पापानामलं क्रियारंभगंधपुष्पाणाम् । स्वानांजन- नस्यानामुपवासे परिहतिं कुर्यात् ॥107 || इस श्लोक में अंगसंस्कारत्याग तथा सावद्यारंभत्याग का कथन है। धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ।।108 ॥ इस श्लोक में ब्रह्मचर्य (आत्मलीनता, ध्यान) का कथन सम्भवत: इसी के आधार पर उत्तरवर्ती दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने उक्त चार भेदों की परिकल्पना की है। वस्तुत: इस 150 श्लोक परिणाम छोटे से ग्रन्थ में स्वामी समन्तभद्र ने गागर में सागर भर दिया है। इस ग्रन्थ को जितनी बार पढ़ो उतनी ही वार कुछ नया ज्ञातव्य पाठकों को अवश्य मिलता है | इसकी यह विशेषता अन्य श्रावकाचारों में प्रायः नहीं पाई जाती। है । इस ग्रन्थ के अन्य कुछ श्लोकों पर भी कतिपय विद्वान् क्षेपकत्व का सन्देह करते हैं। प्रसंगोपात्त यहाँ उनकी भी चर्चा उपयुक्त होगी : मातंगो धनदेवश्री वारिषेणस्ततः परः । नीलो जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ॥64 ॥ धनश्रेसत्यघोषौ च तापसारक्षकावपि । उपाख्येयास्तथायमुश्रुनवनीतो यथाक्रमम् 1165 ॥ मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टी मूलगुणानाहुगृहिणां श्रमणोत्तमा: 1176 || इन श्लोकों पर छन्दभिन्नत्व के कारण क्षेपकत्व का आरोप किया जाता है। यह ठीक नहीं है। छन्दभिन्नत्व तो प्रथम परिच्छेद और अन्तिम परिच्छेद के अन्तिम श्लोकों में भी पाया जाता है, अतः यह हेतु अकार्यकारी है। कवि लोग कभी-कभी परिच्छेद के अन्त में छन्द भिन्नता कर देते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँ-जहाँ भिन्नत्व हो, वहाँ प्रायः परिच्छेद की समाप्ति समझना चाहिये। यही बात यहाँ के तीन श्लोकों के लिये है। पहिले श्लोक में अहिंसादि पाँच व्रतों में प्रसिद्ध होनेवाले पुरुषों के क्रमशः नाम दिये हैं। उसी विषयमें दूसरे श्लोक में बदनाम होनेवालों के नाम दिये हैं। बदनामी का वाचक दूसरे श्लोक में कोई शब्द न होने से और बिना उसके संगति न बैठने से समीचीन धर्मशास्त्र की प्रस्तावना पृष्ठ 71 पर यथाक्रमं पाठ की जगह अन्यथासमं पाठकी परिकल्पना की गई है किन्तु यह ठीक नहीं है। मेरे विचारमें यहाँ उपाख्येया की जगह अपाख्येया पाठ होना चाहिये जो बदनामी का वाचक है। इस सामान्य शब्द परिवर्तन के द्वारा ही ईष्टार्थ की प्राप्ति होती है। प्रतिलिपिकारों के प्रमाद से अप का उप से हो जाना बहुत कुछ सम्भव है। इससे यथाक्रमम् पाठका लोप भी नहीं करना पड़ेगा । अब रहा मूल गुणों का वाची तीसरा श्लोक, वह तो बहुत ही आवश्यक हैं, क्योंकि उसके आगे के श्लोक में जो यह बताया है कि" अनुब्रहणात् गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्या: 67 | इसलिये अगर गुणों का ही वर्णन करनेवाला श्लोक नहीं होगा, तो गुणों की वृद्धि और गुणव्रत का कथन ही कदापि सम्भव नहीं होगा। जिस तरह बिना पिता के पुत्र नहीं होता, उसी तरह बिना गुणों के गुणव्रत सम्भव नहीं। अतः यह श्लोक ग्रन्थ का नितान्त आवश्यक अंग है। किसी तरह भी क्षेपक नहीं है । 'पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार -फरवरी 2003 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिलायें : जैन संस्कृति की सेवा में पद्मश्री सुमतिबाई शाहा, शोलापुर मानव जाति में स्त्री का स्थान नारी को अपने बौद्धिक और अध्यात्मिक विकास की सन्धि पहिले मानव समाज की रचनाओं में स्त्री व पुरुष-दोनों का | से ही प्राप्त हो गई थी। इसी कारण जैन संस्कृति के प्रारम्भ से ही स्थान समान है। स्त्री और पुरुष-दोनों के अस्तित्व से ही समाज | उच्च विद्या विभूषित और शीलवान् जैन नारियों की परम्परा प्रारम्भ की कल्पना पूरी हो सकती है। इन दोनों में से किसी भी एक | से ही शुरू हो गई है। भगवान् ऋषभदेव ने अपनी ब्राह्मी और घटक को अधिक महत्त्व दिया जा सकता है पर एक घटक को | सुन्दरी दोनों को उच्च शिक्षा की प्रेरणा दी थी। इससे स्पष्ट है कि महत्त्व देने वाला समाज, समाज के मूलभूत अर्थों में पूरा नहीं हो | उस समय नारी को पुरुष के समान शिक्षा लेने की सुविधा थी। जाता। स्त्री और पुरुष विश्वरथ के दो मूलभूत आधार स्तम्भ हैं। ब्राह्मी और सुन्दरी-इन दोनों कन्याओं ने अंकविद्या और अक्षरविद्या इसीलिए समाज में स्त्री का स्थान पुरुषों के बराबर अभिन्न, सहज | में प्रावीण्य प्राप्त किया था। अपने पिता के धीर, गम्भीर और और स्वाभाविक मानना ही उचित है। स्त्री समाज रचना और | विद्वत्तापूर्ण व्यक्तित्त्व का प्रतिबिम्ब उनके मन पर पड़ा था। अपने सामाजिक प्रगति के लिये सहकार्य करने वाली है। बन्धु भरत की अनुमति से इन दोनों ने भगवान् ऋषभदेव से ही जैनधर्म और नारी आर्यिका व्रत की दीक्षा ले ली और ज्ञानसाधना की। उनके द्वारा जैनधर्म पुराने मूल्यों को बदलकर उसके स्थान पर नये | प्रस्थापित किये चतुर्विध संघ के आर्यिकासंघ की गणिनी (प्रमुख) परिष्कृत मूल्यों की स्थापना की गई है। जैन धर्म की दृष्टि से नर | आर्यिका ब्राह्मी ही थी। राजव्यवहार की उन्हें पूर्ण जानकारी थी। और नारी दोनों का समान स्थान है। न कोई ऊँचा है न कोई नीचा। | कुछ जैन स्त्रियों ने विवाहपूर्व और विवाह के बाद युद्धभूमि श्रावक व्रत धारण करने का जितना अधिकार श्रावक का बताया | पर शौर्य दिखाया। पंजिरी के समिध राजाकी राजकन्या अर्धागिनी है, उतना ही अधिकार श्राविका का बताया है। पति-पत्नी, दोनों ने खारवेल राजा के विरुद्ध किये गये आक्रमणमें उसको सहयोग को ही, भगवान् महावीर के संघमें, महाव्रतों की साधना का | दिया। इतना ही नहीं, उसने इस युद्ध के लिये महिलाओं की अधिकार दिया गया है। जैनशास्त्रों में नारी जाति को गृहस्थ जीवन स्वतन्त्रसेना खड़ी की थी। युद्ध में राजा खारवेल के विजय पाने में धम्मसहाया (धर्मसहायिक), धर्मसहचारिणी, रत्नकुक्षधारिणी, पर इसने उनका अर्धाङ्गिनी पद स्वीकार किया। वह धर्मनिष्ठ और देव-गुरुजन (देवगुरुजनकाशा) इत्यादि शब्दों से प्रशंसित किया | दानवीर थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख शिलालेख में मिलता है। गंग गया है। घराने के सरदार नाम की लड़की और राजा विरवर लोकविद्याधर भारत की नारी एक दिन अपने विकासक्रम में इतने ऊँचाई की पत्नी सामिभबबे युद्ध की सभी कलाओं में पारंगत थी। पर पहुँच चुकी थी कि वह सामान्य मानुषी नहीं, देवी के रूप में सामिमबबे के मर्मस्थल पर वाण लगने से इसे मूर्छा आ गई और प्रतिष्ठित हो गई थी। उसकी पूजा से कर्मक्षेत्र में ही स्वर्ग के देवता भगवान् जिनेन्द्र का नाम स्मरण-करते करते उसने इहलोककी रमण करके प्रसन्न होते थे। इस युग में उसे पुरुष का आधा हिस्सा यात्रा समाप्त की। विजय नगर के राज्य की सरदार चम्पा की कन्या मानते हैं, पर उसके बिना पुरुषका पुरुषत्व अधूरा रहता है, ऐसा | राणी भैरव देवी ने विजयनगर का साम्राज्य नष्ट होने के बाद अपना माना जाता है। स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया और उसे मातृ-सत्ताक पद्धति से कई मैं अपने इस लेख में आपको इतिहास में और आधुनिक बरसों तक चलाया। नाजलकोंड देश के अधिकारी नागार्जुन की काल में जैन महिलाओं द्वारा किये गये असामान्य कार्योंका, मृत्यु के बाद कदम्बराज अकालवर्षने उनकी देवी वीरांगना वीरांगनाओं के शौर्य का तथा श्राविकाओं के निर्माण किये हुये अक्कमवके कन्धे पर राज्य की जिम्मेदारी रक्खी। आलेखों में इसे आदर्श का अल्प परिचय देने वाली हूँ। युद्ध-शक्ति-मुक्ता और जिनेन्द्र-शासनभक्ता कहा गया है। अपने भगवान् ऋषभनाथ का स्थान अन्तकाल तक उसने राज्य की जिम्मेदारी सम्भाली। भारतीय संस्कृति के प्रारम्भ से ही जैनधर्म की उज्ज्वल गंग राजवंश अनेक नारियों ने राज्य की जिम्मेदारी सम्भाल परम्पराओं का निर्माण हुआ है। भगवान् आदिनाथ ने अपने पुत्रों कर अनेक जिन मन्दिर व तालाव बनाये। उनके देखभाल की के साथ ही कन्याओं को भी शिक्षण देकर सुसंस्कृत बनाया। व्यवस्था की। धर्मकार्यों में बड़े दान दिये। इन महिलाओं में चम्पला भगवान् आदिनाथ के द्वारा जैन महिलाओं को सामाजिक और राणी का नाम सर्व प्रथम लिया जाता है। जैनधर्म की सर्वाङ्गीण आध्यात्मिक क्षेत्र में दिये हुये इस समान स्थान को देखकर नारी | उन्नति और प्रसाद के लिये उसने जिन भवनों का निर्माण किया। के विषय में जैन समाज प्रारम्भ से ही उदार था, ऐसा लगता है।। श्रवणबेलगोल के शिलालेख क्रमांक 496 से पता चलता है कि 16 फरवरी 2003 जिनभाषित - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीक्कमवे शुभचन्द्र देव की शिष्या थी और योग्यता और कुशलता से राज्य के साथ ही धर्म प्रचार के लिये भी उसने अनेक जैन प्रतिमाओं की स्थापना की थी। जैनधर्म में कन्याओं का स्थान आदिपुराण, पर्व 18 श्लोक 76 के अनुसार इस काल में पुरुषों के साथ ही कन्याओं के विविध संस्कार किये जाते थे। राज्य परिवार की लड़कियों की स्थिति तो कई गुनी अच्छी थी । कन्या पिता की सम्पत्ति में से दान भी कर सकती थी। सुलोचना ने अपनी कौमार्यावस्था में रत्नमयी जिनप्रतिमा की निर्मिति की थी और उनकी प्रतिष्ठा करने के लिये पूजाभिषेक विधि का भी आयोजन किया था । कन्यायें पढ़ते समय अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त करती थीं और वे अपने पिता के साथ उपयुक्त विषयों पर चर्चा भी करती थीं । वज्जदंत चक्रवर्ती अपनी लड़की के साथ अनेक विषयों पर चर्चा करता था । विवाह और विवाहोत्तर जीवन विवाह स्त्री के जीवन में महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती थी। उस वक्त आजन्म अविवाहित रहकर समाजसेवा और आत्मकल्याण करने की भी अनुज्ञा थी। विवाह को धार्मिक एवं आध्यात्मिक एकता के लिये स्वीकार किया हुआ बन्धन माना जाता था। मथुरा के राजा उग्रसेन की कन्या राजुलमतली का विवाह यदुवंशीय श्रीकृष्ण के बन्धु नेमिनाथ के साथ निश्चित किया गया था। अपने विवाह के समय होने वाली पशुहत्या को देखकर अन्तर्मुख बनकर नेमिनाथ ने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। राजुलमति ने मनसे उनके साथ विवाह बद्ध होने से दूसरे से विवाह करना निषिद्ध माना और आर्यिकाकी दीक्षा लेकर अपने पति के मार्ग पर चलने का निश्चय किया। उसने जैन समाज के सामने यह आदर्श रक्खा है। वैवाहिक जीवन का महत्त्व विवाह पूर्व अवस्था में स्त्री व पुरुष भिन्न कुटुम्ब के प्रतिनिधि होते हैं । विवाह के बाद ही उनके जीवन का पूरी तरह से आरम्भ होता है। आदर्श गृहिणी बनकर सुखद गृहस्थ जीवन निर्माण करना स्त्री के जीवन का उच्च ध्येय है। आदर्श गृहिणी कुटुम्ब, देश, समाज और काल की भूषण मानी जाती है। विवाह के बाद स्त्री-पुरुष परस्पर सहकारी होते हैं। गृहस्थाश्रम को स्वीकार कर अपने कुल, धर्म, स्थिति को सोचकर मर्यादित जीवन व्यतीत करना, यही आदर्श पति का कर्त्तव्य है। अशांत स्त्री अपने असन्तोश के साथ ही स्वगृह की शान्ति नष्ट करती है। स्त्री को शांति, स्नेह, शक्ति, धैर्य, क्षमा, सौन्दर्य और माधुर्य का प्रतीक माना गया है। गृहस्थाश्रम में उसे गृहलक्ष्मी कहकर घर की सब जिम्मेदारी उस पर सौंप देते हैं। अतिथिका स्वागत करना, धर्मकार्य का पालन करना, सुश्रूषा करना और शिशुपालन ये तो उसके जीवन के आदर्श माने गये हैं। अनेक जैन महिलाओं ने इन आदर्शों के पालन में अपने उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उज्जैनी नगर के पहुपाल राजा की सुशिक्षित कन्या मैना सुन्दरी का विवाह निर्जन वन में रहने वाले कुष्ठरोगी चंपापुर के नरेश श्रीपाल कोटीभट्ट के साथ किया गया। लेकिन मैनासुन्दरी ने इस घटना के लिये अपनी कर्मगति को कारण समझकर अपने पति की सेवासुश्रुषा की। अनेक कष्ट शांति से सहन किये। पंचाणुव्रत ग्रहण किये। अष्टाह्निक पर्व के उपोषण करके सिद्ध चक्रकी यथाशक्ति पूजा की। उसके बाद श्रीपाल के शरीर पर गंधोदक लगाते ही कुष्ठ मुक्त हो गया। अपने सामर्थ्य से उसने अपने राज्य को फिर से प्राप्त किया। सुखोपभोग किया और वृद्धकाल में राज्य की जिम्मेदारी अपने लड़के को सौंपकर मुनिदीक्षा ली। मैनासुन्दरी ने आर्यिका व्रत ग्रहण किया। उसने अपने असामान्य उदाहरण से जैन महिलाओं के सामने जीवनभर छाया की तरह पति के साथ रहना, उसके सुख-दुख में सहभागी होना, धर्मकार्य में उसका सहकार्य करना, वैभव काल में उसका आनन्द दुगुना करने का यत्न करना, पति की सखी बनकर उसके जीवन में चैतन्य निर्माण करना ये आदर्श रक्खे हैं । पतिनिष्ठा, पवित्रता और सहनशीलता यरे गृहस्थाश्रमी के आदर्श कर्त्तव्य माने गये हैं। महेन्द्रपुरी की राजकन्या और पवनकुमार की पत्नी अजन्ता ने विवाह के बाद बारह साल विरह सहन किया। उसके बाद पति का मिलन उसके जीवन में आनन्द निर्माण करने वाला था । किन्तु उस पर चारित्र का संशय करके उसको घर से निकाल दिया गया। बिना सहारे अनेक कष्टों के साथ सहन-शीलता से और नीतिधर्म का पालन करके उसने अपना जीवन बिताया जिससे उसे अपना खोया हुआ आनन्द फिर से प्राप्त हो गया। सीता का आदर्श तो महान् आदर्श है। रावण जैसे प्रतापी वैभवसम्पन्न पुरुष के अधीन रहकर भी उसने अपना मन एक क्षण भी विचलित नहीं होने दिया। उसके कारण वह अग्निदिव्य बन सकी। पति के त्यागने पर भी बने में जीवन बिताते समय उसने रागद्वेष के स्थान पर मधुर हास्य, घबराहट स्थान पर प्रसन्नता और खेद के स्थान पर उल्लास प्रकट किया, वही उसका आदर्श है। मृगुकच्छ नगर के श्रेणी जिनदत्ता नामक धर्मशील श्रावक की साली को विवाह के बाद घर से बाहर निकाल दिया गया। तथापि इस अवस्था में भी उसने जैनधर्म पर अपनी निष्ठा कम नहीं की। उसी से आगे चलकर उसका पतिव्रत्य सिद्ध हो गया और उसे कुटुम्बमें, समाज में आदरणीय स्थान मिला। मातृत्व का महत्त्व स्त्री के सभी गुणों में मातृत्व को बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसी गुण से उसे समाज में आदर्श गुरु माना गया है। आचार्य मानतुंग के अनुसार संसार की सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं लेकिन भगवान् के समान अद्वितीय पुत्र को जन्म देने वाली माता तो अद्वितीय ही है। सूर्य की किरणों की अलग-अलग दिशायें होती हैं लेकिन सूर्य का जन्म ही दिशा में पूर्व में ही होता है। -फरवरी 2003 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यह श्लोक मातृत्व के श्रेष्ठत्व का विश्लेषण करने । असामान्य, अनोखा आदर्श है यह। मथुरा के शिलालेख से पता वाला है। माँ अपने पुत्र को जन्म देने के बाद उसका पालन-पोषण | चलता है कि जैन नारियों ने ही जैनमन्दिर और कलात्मक शिल्प और संरक्षण भी करती है। हृदय में पैदा होने वाले वात्सल्य की | बनाने में नेतृत्व किया था। भावना से माता कठिन प्रसव वेदना भी सुसह्य मानती है। इसी अनेक जैन नारियों ने आर्यिकाका व्रत लिया, कठोर तपचर्या कारण मानव जीवन में, समाज में और संसार रचना में नारी को | की, मन और इन्द्रियों को वश में करने का यत्न किया। जम्बुस्वामी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। संसार के अनेक प्रसिद्ध नेताओं | के दीक्षा लेने के बाद उनकी पत्नी ने भी दीक्षा ली। वैशाली के का व्यक्तित्व बनाने का कार्य उनकी माताओं ने किया है। नेपोलियन, | चेटक राजा की कन्या चन्द्रासनी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार हिटलर, छत्रपति शिवाजी और महात्मा गान्धी के असमान्य जीवन | कर भगवान् महावीर से दीक्षा ली और आर्यिका व्रतका अनुष्ठान के लिये उनकी माताओं का योगदान ही कारण है। संसार के किया। वह महावीर के 36 हजार आर्यिकाओं के संघ में गणिका सर्वस्व त्याग, समस्त प्रेम, सर्वश्रेष्ठ सेवा और सर्वोत्तम उदारता बनी। पम्बबबे नाम की कर्नाटक की नारी ने तीस साल तपश्चरण 'माँ' नामक अक्षर में भरी है। मातृत्व के एक एकमेवाद्वितीय | किया। विष्णुवर्धन राजा की रानी शांतल देवी ने 1123 में विशेषत्व से ही समाज ने नारी को प्रथम वन्दनीय माना है। श्रवणबेलगोला में भगवान् जिनेन्द्र की विशालकाय प्रतिमा स्थापित धर्मनिष्ठ नारी की तथा कुछ काल तक अनशन और ऊनोदर व्रत का पालन कर्तव्यनिष्ठा के साथ ही धर्मनिष्ठा में भी जैन नारियाँ प्रसिद्ध किया। हैं। जैन नारी ने जैनधर्मतत्त्व के अनुसार सिर्फ आत्मोद्धार ही नहीं | साहित्य क्षेत्र में कार्य किया, अपितु अपने पति को भी जैन धर्म का उपासक बनाया है अनेक जैन नारियों ने लेखिका और कवियित्री के रूप में और अपने लड़के लड़कियों को सुसंस्कारित और आदर्श बनाने | साहित्य के क्षेत्र में योगदान दिया है। 1566 में रणमति ने यशोधरकाक का यत्न किया है। लिच्छिविवंशीय राजा चेटककी सुपुत्री चेलनाने नाम का काव्य लिखा । आर्य रत्नमती की समकितरास एक हिन्दीअपने पति मगधदेश के नरेश श्रेणिक को जैनधर्म का उपासक गुजराती मिश्र काव्य की रचना है। कर्नाटक में साहित्य के क्षेत्र में बनाया। उसके अभयकुमार और वारिषेण नामक दोनों पुत्रों ने उज्ज्वल नाम कमाने वाली कन्ती प्रसिद्ध है। उसे राजदरबार में ही सांसारिक सुख और वैभव का त्यागकर आत्मसाधना के लिये सम्मान और उच्च पद मिला था। महाकवि रत्नने अपनी अमरकृति अनेक व्रतों का पालन किया। कर्नाटक के चालुक्य नरेश को अजितनाथपुराण की रचना दान-चिंतामणि अंतेतेमब्बे के सहकार्य उसकी पत्नी जाकलदेवी ने जैनधर्मानुयायी बनाया और उसके | से ही 983 में की। श्वेताम्बर पथ की सूरिचरित्र लिखने वाली प्रसार के लिये प्रेरणा दी। गुणसमृद्धि महत्तरा के चारुदत्तचरित्र लिखने वाली पाश्री, अनेक शिलालेख में जैन नारी के द्वारा जिनमन्दिर बनाने कनकावती आख्यान लिखने वाली हेमश्री नामके महिलायें प्रसिद्ध की जानकारी मिलती है। इन मन्दिरों के पूजोत्सव आदि का हैं। काव्यक्षेत्र में प्रतिभा सम्पन्न साहित्य निर्माण का महत्त्वपूर्ण प्रबन्ध भी उनके द्वारा किया जाता था। कलिंगाधिपति राजा खारवेल कार्य अनेक जैन महिलाओं ने किया है। उदाहरण के लिये अनुलक्ष्मी, की रानी ने कुमारी पर्वत पर जैन गुफा बनाई। सीरेकी राजा की अवन्ती, सुन्दरी, माघवी आदि प्राकृत साहित्य की पूरक कवियित्रियाँ पत्नी ने अपने पति का रोग हटाने के लिये और शरीर स्वस्थ होने हैं। उनकी रचनायें जीवन दान, प्रेम, संगीत,आनन्द और व्यथा, के लिये अपनी नथ का मोती बेचकर जिनमन्दिर और तालाब की आशा और निराशा, उत्साह आदि गुणों से भरी हुई हैं। इसके रचना की। आज ही यह मन्दिर 'मुतनकेरे' नाम से प्रसिद्ध है। अलावा नृत्य, गायन, चित्रकला, शिल्पकला आदि क्षेत्रों में भी जैन आहवमल्ल राजा के सेनापति मल्लमकी कन्या अत्तिमब्बे जैनधर्म महिलाओं ने असामान्य प्रगति की है। प्राचीन ऐतिहासिक काल में पर श्रद्धा रखने वाली और दानशूर थी। उसे ग्रन्थों में दानचिन्तामणि जैन नारी ने जीवन के सभी क्षेत्रों में अपना सहयोग दिया है। कहकर उल्लिखित किया गया है। उसन चादा आर सान का | समाज भी उसकी ओर सम्मान की दृष्टि से देखता था। समाज ने हजारों जिनमूर्तियाँ बनवाई ! लाखों रुपयों का दान दिया। जबलपुर नारी को उसकी प्रगति के लिये सब सुविधायें दी थीं। पुरुष और में पिसनहारी की मढ़िया नामक जैन मन्दिर है । एक जैन नारी ने नारी में सामाजिक सुविधायें मिलने की दृष्टि से अन्तर नहीं था। आटा पीसकर जो रकम कमाई, उससे वह मन्दिर बना है। कितना । 'पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार रागद्वेषद्वयीदीर्घनेत्राकर्षणकर्मणा। अज्ञानात्सुचिरं जीव: संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ। भावार्थ- चिरकाल से यह जीव अज्ञान के द्वारा संसारसमुद्र में राग-द्वेष रूपी दो रस्सियों से मथानी की तरह घूम रहा है,(भ्रमण कर रहा है) 18 फरवरी 2003 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल की धारा बनी औषधि : विशल्या डॉ. नीलम जैन विशल्या नाम है उस अनिन्द्य सुन्दरी का जिसने चमत्कृत | निषेध कर दिया और कह दिया कि मैंने सल्लेखना धारण कर ली कर दिया था अपने युग को। समस्त भरत खण्ड के राजाधिराजाओं | है। लब्धिदास तुरन्त वापिस गये और अनंगशरा के पिता को ले के राजवैद्य जहाँ असहाय और निरूपाय थे वहाँ विशल्या के तन | आये। चक्रवर्ती जब वहाँ आए तब तक तो यहाँ एक भयंकर से संस्पर्शित जल धारा जीवनदायिनी औषधि बनकर रणस्थल में | अजगर सल्लेखनारत अनंगशरा को निगल रहा था। यह देख मूर्च्छित पड़े लक्ष्मण को जीवनदान दे देती है। संजीवनी स्वरूपा | चक्रवर्ती दुःखी भी हुआ और क्रोधित भी किन्तु अनंगशरा ने नारी विशल्या युग की ऐसी जीवन्त उदाहरण थी कर्म सिद्धान्त अजगर को प्राणदान दिया। अपने पिता को शान्त किया। समता जिसके अणु-अणु में स्फरित होता रहा। पूर्वजन्म के पृष्ठों को | परिणामों से मरकर ईशान स्वर्ग में उत्पन्न हुई। खोलते हैं तो आती है चक्रवर्ती त्रिभुवनानन्द की पुत्री अनंगशरा (पद्मपुराणकार आचार्य रविवेण ने विशल्या के तप की जिसका उसके सामन्त पुनवर्स ने उसका हरण कर लिया और | प्रशंसा करते हुए लिखा है :चक्रवर्ती का पीछा करने पर वह सामन्त उसे भयंकर अटवी शिरिष कुसुमासांर शरीरमनया पुरा। श्वापद में छोड़ देता है- यही अटवी है अनंगशरा की साधनास्थली। निर्युच्मं तपासि यो मुनीनामपि दुःसहते॥ तीन हजार वर्ष तक अनंगशरा शीत, उष्ण एवं वर्षा की अनिवर्चनीय इसने पूर्वभव में अपना शिरिष के फूल के समान सुकुमार वेदना शान्त भाव से सहती रही। जब भूख की वेदना अधिक शरीर ऐसे तप में लगाया था जो प्राय: मुनियों के लिए भी कठिन सताती तब वह पक कर गिरे फल लेकर नदी का प्रासुक जल पी था।) लेती थी। वह बेला तेला करती थी जिसका पारणा कभी-कभी इसी तपःपूता अनंगशरा का जीव स्वर्ग से च्युत हो, राजा दिन में मात्र एक बार जल पीकर और कभी-कभी प्रासुक फलाहार की पुत्री बना। अनंगशरा के गर्भ में आते ही अनेक रोगों से पीड़ित से करती थी। इस प्रकार तीन हजार वर्ष पर्यन्त अनंगसरा ने बाह्य माता स्वस्थ हो गई थी। जन्म के समय ही परिचारिका के सभी रोग तप किया। दूर हुए और वहीं परिचारिता उसके स्नान जल से प्रतिदिन अनेक तपश्चर्या, आत्मशोधन, आत्म परिकरण आत्मोदय, तेजोद्दीप्त रोगियों के दुःख दूर करती ! कहाँ से आई थी विशल्या के अन्दर तप, प्रखर साधना, दुदर्ष संयम तपोभूमि बन गया था उसका औषधिरूपा बनने की शक्ति? विज्ञान के पास भी है इसका तर्क जीवन। अनवरत साधना से उसके रोम-रोम में एक दीप्त आत्मज्योति सम्मत उत्तर और जैन सिद्धान्त के पास तो है ही इसका प्रमाण-हम का प्रभामण्डल तूर्यनाद करने लगा था। निराकुल साधना उसकी शरीर धारी हैं। हमारे शरीर के दो प्रकार है स्थूल और सूक्ष्म । हमारा उपलब्धि थी। आत्मामृत ही उसका भोजन था एकाग्रता ने उसकी अस्थि चर्ममय स्थूल शरीर है। हमारी सक्रियता, तेजस्विता और समस्त क्षुधा वेदना शान्त कर दी थी। दुर्लघ्य पर्वत, अंधियारी पांचनतंत्र का मूल सूक्ष्म शरीर है। यह स्थूल के भीतर रह कर दीप्ति गुफाएँ, निर्जन नदी तट, बीहड़ वन, भयावह सन्नाटा उसकी साधना या अलौकिक ऊर्जा उत्पन्न करता हैं साधना के द्वारा उसकी शक्ति भूमि बन गई। दुस्सह साधना ने बियाबान जंगलों के दहाड़ते विकसित की जा सकती है। भावों की निष्कपटता और निच्छलता सिंहों, फुफकारते अजगरों चिघाड़ते हुए हाथियों को शान्त कर से बेजान शरीर भी ओजस्वी और सक्रिय होने लगते हैं। शुक्ल दिया। सबने उस ध्यानशीला के सम्मुख घुटने टेक दिए। उसकी ध्यान हममें अन्तरंग से स्वच्छ, शुद्ध एवं परिष्कृत कर तेजोश्या तपश्चर्या अनवरत थी, अविचल थी, अखण्ड थी। कठोर तप, उत्पन्न करता है यह ऊर्जा समस्त शरीर पर छा जाती हैं यह वैद्युत आत्मानुसंधान, आत्मपरिष्कार और आत्मोदय ने ही कालान्तर में | प्रभा धारा है। हारवर्ड एडसमैन ने इस पर पर्याप्त शोध किया है। उसे अलौकिक बना दिया। सूर्योदय की प्रखर आभा में कर्म के विशल्या के शरीर का तेज अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। काले मेघ विखर कर उसका भावी जीवन का निरभ्र गगन तैयार वर्तमान में हम देखते हैं कि चुम्बक को जल में रखकर वह पानी कर रहे थे। इस परमोज्ज्वल भविष्य बन रहा था। वैराग्य को प्राप्त पिलाने से रोगमुक्त करने की प्रणाली (मैग्नेटोथिरेपी) विकसित हो हो उस धीर वीर बाला ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर | रही है। शरीर में लौह तत्त्व में चुम्बकत्त्व का आना अस्वाभाविक महाफल देने वाली सल्लेखना भी धारण कर ली। सौ हाथ आगे से नहीं है। शरीर में ऐसी अनेक प्राणधाराएँ है जो ऐसे बेजान परमाणुओं गमन का त्याग भी कर दिया था। की तीव्रतम गति का कारण बनती हैं। ऐसी ही आध्यात्मिक सल्लेखना के सातवें दिन सुमेरू पर्वत की वन्दना से लौटते शक्तियों की उत्कृष्टता, श्रेष्ठता और शाश्वता से ही योगियों, महापुरुषों हुए लब्धिदास नामक एक व्यक्ति ने उसे देखा। वह नीचे आया | के मुख के चारों ओर आभामण्डल का होना सहज सिद्ध हो जाता उसने कन्या को ले जाने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु कन्या ने | है। जैनागम में यह लिखा है कि मनुष्य के शरीर की संरचना नाम -फरवरी 2003 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के उदय से होती है। जैसा कर्म जीव बंध कर लेता है तदनुरूप | आई। तिलंगों और ज्वालाओं से युक्त उस शक्ति को हनुमान ने ही शरीर संरचना होती है यही कारण है तीर्थकरों का शरीर | पकड़ लिया तब वह दिव्य स्त्री का रूप धारण कर बोली कि-"हे वज्रवृषभ नाराचसंहनन से युक्त होता है। विशल्या ने भी अन्तिम | नाथ ! प्रसन्न होओ और मुझे छोड़ो, इसमें मेरा कोई दोष नहीं है।'' समय में अजगर को साक्षात मृत्यु जानते हुए भी अपने भावों पर "इस संसार में मैं दुःसह तेज की धारक हूँ। विशल्या को तथा संवेगों पर भरपूर नियंत्रण रखा। अजगर को अपने समर्थ पिता | छोड़ और किसी की पकड़ में नहीं आ सकती। मैं अतिशय से दान दिलाया। विशल्या के इसी उदात्त भाव ने उसे विशिष्ट बलवान हूँ। देवों को भी पराजित कर देती हूँ किन्तु इस विशल्या बनाया। जैसे हमारा बाह्य व्यवहार, सदगुण हमारे बाह्य व्यक्तित्व ने मुझे स्पर्श किए बिना ही पृथक कर दिया है। यह सूर्य को को चुम्बकीय बनाते हैं उसी प्रकार हमारी आंतरिक चारित्रिक ठण्डा और चंद्रमा को गरम कर सकती है, क्योंकि पूर्व भव में शक्ति, ध्यान, साधना, योग, मन भी हमारी आन्तरिक शक्तियों को ऐसा ही अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया है। अपने शिरीष के चुम्बकीय बनाते हैं जब मानव तर्क से हटकर अनुभव की अनुभूतियों फूल सदृश सुकुमार शरीर को इसने पूर्व भव में ऐसे तप में और गहराइयों में स्नान करता है तब कहीं तेजो लेश्या उत्पन्न होती लगाया था जो मुनियों के लिए भी कठिन होता है। मुझे इतने है और समस्त केन्द्र सक्रिय होने लगते हैं और इस प्रकार ऊर्जा ही कार्य से संसार सारभूत जान पड़ता है कि इसमें जीवों द्वारा ऐसे कठिन तप सिद्ध किए जाते हैं। तीव्र वाय से जिनका सहन करना समस्त शरीर पर छा जाती है। मानव देह मात्र देह नहीं है वह कठिन था ऐसे भयंकर वर्षा, शीत और धूप से यह कृशांगी सुमेरू ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण उदात्त शक्तियों का सूक्ष्मतम व पूर्वतम संक्षेप की चूलिका सदृश रंचमात्र भी कम्पित नहीं हुई। अहो! इसका है। यह समान्त शक्ति और इससे बना हुआ शरीर कृति, गुण स्वरूप रूप धन्य है। अहो इसका धैर्य धन्य है। इसने जो तप किया है, आगामी जन्मों में भी सतत मौजूद रहता है। इन्हीं तमाम शक्तियों अन्य स्त्रियाँ उनका ध्यान भी नहीं कर सकती। इस प्रकार एक को साथ लेकर अनंगशरा अगले जन्म में विशल्या बनी और सबके दिव्य विद्या द्वारा प्रशंसित विशल्या एवं उसके द्वारा पूर्व भव में असाध्य (रोग) दूर करती रही। विशल्या के अतिरिक्त शरीर किया गया तीन हजार वर्ष पर्यन्त का कठोर तप युग-युग तक संचारित बल से रोग मुक्ति की शक्ति का उदाहरण अन्यत्र नहीं मूर्तिमान रहेगा। मिलता। क्षण विरचित सर्व श्लाघ्य कर्तव्य योगः विशल्या ने ममत्व वात्सल्य, नारीत्व को अन्तर्निहित कर पवन पथ विहारिस्फीत भूति प्रपंच। लिया था या यह कहें उसके शरीर में रक्त की भाँति ही प्रवाहित थे अवभद् संपत्कल्पितानन्द तुल्यः उसकी विशुद्ध वात्सल्यमयी भावनाएँ। जैसे स्नेह, दुलार, प्यार, प्रधानभूवि विशल्या लक्ष्मणोद्वाहकल्पः।। मनुहार किसी भी रोगी को पीड़ा से कुछ पल मुक्त कर देते हैं। (तदनन्तर जिसमें क्षणभर में समस्त प्रशंसनीय कार्यों का उसी प्रकार विशल्या का स्नान जल भी विशल्या रूपा हो रोगियों योग किया था, विद्याधरों ने जिसमें विशाल वैभव का विस्तार के लिए जैसे अमृत बन जाता था। प्रदर्शित किया था और जो देवसम्पदा से कल्पित आनन्द के समान विशल्या ने अपने चरित्र की स्वर्णिम आभा से युगीन | था ऐसा विशल्या और लक्ष्मण का विवाहोत्सव युद्धभूमि में ही महापुरुषों को चमत्कृत कर दिया। सीता के तपप्रभाव से अग्नि | सम्पन्न हुआ।) नीर बना और विशल्या के तप प्रताप से जल औषधि बना। | इस प्रकार विशल्या के माध्यम से प्रतिबिम्बत होता है साथ ही विशल्या के माध्यम से ही हमें नारीत्व का दर्शन | निष्कलंक चरित्र । निर्मलता पवित्रता एवं विशिष्ट विलक्षणता सहित गरिमामय सौदर्य में होता है। युग की वह प्रथम महिला थी जिसने विनम्र बाला का वह स्वरूप जिसकी पुनीत स्मृति में वर्तमान की रणांगण से विवाह रचाया तथा स्वयं जिसकी सास जिसके घर गई नारियाँ सदैव श्रद्धापुष्प अर्पित करती रहेगी। विशल्या नारियों की थी तथा महानता थी यह विशल्या के परिवार की, उन्होंने केकैयी उस परम्परा में है जिन्होंने धर्म और कर्तव्य भावना की अभ्युन्नति के साथ विशल्या को रणागंण में भेज दिया। पद्मपुराणकार ने के लिए अपने जीवन को समर्पित किया, उत्सर्ग किया। विशल्या लिखा है तपस्विनी है, सेवा परायण, तपस्विनी और कल्याण मूर्ति व्रताचारिणी भरत ततो माता स्वयं गत्वा महादरम् है-विशल्या की तपस्या साधारण तपस्या नहीं थी, यह एक नारी प्रतिबोधमुपानीतः स तेन तनयाम दात्॥ की, उसके अखण्ड शील शौर्य की साधना थी। (तब भरत की माता केकैयी ने स्वयं जाकर उसे बड़े विशल्या ने अपने त्याग तपस्या को तन के अणु-अणु में आदर से समझाया जिससे उसने अपनी पुत्री दे दी।) प्रविष्ट किया। विशल्या के माध्यम से लक्षमण को ही संजीवनी नहीं विशल्या द्वारा लक्ष्मण को पुनर्जीवन प्राप्त हुआ था। रणक्षेत्र मिली अपितु भारत की प्रियमान नारी संस्कृति को भी नवदीप्ति प्राप्त में ही विशल्या का पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। उस समय का वर्णन हुई। अपने विशाल वरदहस्त से, लोकोत्तर महत्तासे निरभिमानी करते हुए आचार्य रविषेण लिखते हैं :-- होकर वह मात्र निष्काम भावना से ही जन जन की सेवा में संलग्न विशल्या जैसे ही लक्ष्मण के समीप आई वैसे ही | रही। के.एच.-216, कविनगर कांतिमण्डल से युक्त शक्ति लक्ष्म्ण के वक्ष: स्थल से बाहर निकल । गाजियाबाद 20 फरवरी 2003 जिनभाषित ना। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी की सहनशीलता : वैज्ञानिक दृष्टि डॉ. (कु.) आराधना जैन 'स्वतंत्र' 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:'- जहाँ नारियों की पूजा होती हैं वहाँ देवता निवास करते है । यहाँ प्रयुक्त देवता शब्द स्त्री-1 - पुरुष के संसार चक्र की श्रेष्ठता का द्योतक है। इसमें नारी के सद्गुणों के सम्मान हेतु निर्देशित किया गया है। क्षमा, धैर्य, गम्भीरता, सहनशीलता, कर्तव्य परायणता, श्रमशीलता, लज्जा, समता, सौन्दर्य आदि अनेक सद्गुण नारी में अन्तर्निहित हैं। प्रतिकूलताओं में, आपत्ति आने पर धैर्य के साथ स्वयं को समायोजित कर लेना, आयी हुई आपदाओं का अत्यन्त साहस के साथ निवारण करना, विपत्तियों को समताभाव पूर्वक सहन करना आदि नारी की अनन्यतम विशेषताएँ हैं। वह पिता का स्थान लेकर अपने बच्चों को सुयोग्य बना देती है पर पिता अनेक प्रयास करने के उपरान्त भी माता का स्थान ग्रहण नहीं कर पाता। महिला की यह विशेषता उसके मानसिक संतुलन, दृढ़ संकल्प, धैर्यता आदि का सुपरिणाम है। यहाँ पर नारी के सहनशील होने के कतिपय वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं जीवविज्ञान के अनुसार मानव शरीर की कोशिका संरचना में उसके नाभिक के अन्दर 46 क्रोमोसोम्स होते हैं। पुरुष में 23x (एक्स) क्रामोसोम्स तथा 23 (y) क्रामोसोम्स इस प्रकार 46 क्रोमोसोम्स होते हैं पर नारी के 46 क्रामोसोम्स'x' (एक्स) रूप में ही होते हैं। एक्स क्रोमोसोम्स की अधिकता के कारण ही वह सहनशील होती है। नेब्रास्का विश्वविद्यालय के डॉ. डेविड परतीलो तथा अन्य वैज्ञानिक मार्टिन के अनुसार महिलाओं में एक्स क्रोमोसोम्स होना प्रकृति प्रदत्त उपहार है। उनके अनुसार एक्स क्रोमोसोम्स व्हाई क्रोमोसोम्स की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है। इसलिए महिलाओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है और उम्र भी। आधुनिक युग में विश्व में विभिन्न देशों की संस्कृतियाँ, आहार-विहार, जीवन शैली तथा बीमारियों के कारण भिन्न-भिन्न हैं पर एक बात सभी देशों में समान है कि नारियाँ पुरुष से अधिक जीती हैं। अस्सी वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं की संख्या पुरुषों से लगभग दो गुनी है। स्टजर्ज विश्वविद्यालय न्यूजर्सी के साइकोएंडोक्राइनोलाजिस्ट डॉ. रायनिश के अनुसार स्त्री तथा पुरुष के मस्तिष्क की क्रियाओं में भिन्नता होती है। पुरुष की कुछ क्रियाएँ मस्तिष्क के वाम गोलार्ध तथा कुछ दक्षिणी गोलार्ध से नियन्त्रित होती हैं जब कि महिलाओं में क्रिया नियन्त्रण व्यवस्था दोनों गोलार्ध में समान रूप से होती है। इसीलिए पुरुषों में दोनों के बीच आपस में उतना समायोजन नहीं हो पाता जितना कि नारियों में होता है। पुरुषों में इस संतुलन को परिणति गम्भीर मस्तिष्कीय चोटों के समय दिखाई पड़ती है। डॉ. रायनिश ने अपने सहयोगियों के साथ अनेक केसों का अवलोकन किया और पाया कि अधिकांश पुरुषों के वाम मस्तिष्क में चोट लगने तथा क्षतिग्रस्त होने पर उनकी बोलने की क्षमता नष्ट हो जाती है और यदि दाहिने भाग पर चोट पहुँचती है तो उनके देखने की क्षमता कम हो जाती है पर ऐसा महिलाओं में प्रायः कम होता है। दोनों के बीच इस अन्तर के कारण को वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क के दोनों गोलार्थों के बीच असंतुलन व संतुलन का होना बतलाया है। नारी के मस्तिष्क के दोनों गोलाधों के बीच संतुलन होना ही उसे सहनशील बनाता है। कनाडा के एलवर्ट विश्वविद्यालय के सुविख्यात मनोचिकित्सक प्रो. पीयर क्लोर हेनरी ने स्त्री व पुरुषों की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विशिष्टताओं को गहराई से परखा और एक ही निष्कर्ष प्रस्तुत किया मस्तिष्क के दायें व बायें भाग के क्रमिक सन्तुलित विकास के फलस्वरूप ही स्त्रियों में आक्रामक एवं हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ नहीं भड़कती। दोनों गोलाधों में समान रूप से नियन्त्रण रहने से ये शारीरिक व मानसिक दृष्टि से स्वस्थ एवं तनावमुक्त रहती हैं। पुरुष के मस्तिष्क का दाँया भाग ही अधिक सक्रिय होता पाया गया है जिसकी वजह से वह किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए अत्यधिक बैचेनी / बेसव्री को प्रगट करते हुए अपने पुरुषत्व का प्रमाण देता है तथा तुरन्त उसे पूरा करने में लग जाता है। मस्तिष्क के बायें भाग पर उसका नियंत्रण कम ही रहता है जब कि वाणी में शालीनता और सामाजिक प्रवृत्तियों को प्रभावित करने की क्षमता इसी भाग में अधिक होती है। अमेरिकी नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ मेन्टल हेल्थ को एक मन: चिकित्सक ने अनुसंधान द्वारा पाया है कि मस्तिष्क के दायें एवं बायें गोलार्ध की नियन्त्रण क्षमता के कारण ही नारियों में सभी परिस्थितियों से समायोजन की क्षमता पुरुषों से लगभग पाँच गुनी होती है। महिलाओं में अन्तर्ज्ञानात्मक प्रतिभा भी अधिक पायी जाती है। समस्याओं का समाधान भी वे पुरुषों की तुलना में अधिक शीघ्रता से ढूंढ लेती हैं। असन्तुलनजन्य विक्षेप से पुरुष ही अधिक परेशान रहते हैं। इसका प्रमाण यह है कि विश्व में महिलाओं की तुलना में पुरुष मानसिक रोगियों का अनुपात चार गुना है। I इस प्रकार स्पष्ट है कि नारियों का शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक वैशिष्ट्य ही उन्हें सहनशील, संवेदनशील बनाता है। यही उन्हें क्रूरतम कार्यों को करने से रोकता है। जैनागम में यह उल्लेख है कि नारी कितने भी हिंसात्मक / क्रूरकार्य करे वह छठे नरक से आगे नहीं जा सकती तथा कितनी भी आत्मसाधना करे -फरवरी 2003 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर स्त्रीपर्याय से मोक्ष नहीं जा सकती। यह कथन भी उसके | का सामना करना, प्रसव पीड़ा वैधव्य जैसे दुखों को समतापूर्वक सहनशील संवेदनशील स्वभाव का द्योतक है। इस स्वभाव के | सहते हुए जीवन निर्वाह कर लेती है। वह सभी परिजनों तथा कारण उसके मन में कहीं न कहीं दया के बीज अंकुरित हो जाते अतिथियों की सेवा भी उत्साहपूर्वक करती है और धार्मिक क्षेत्रों हैं जो उसके परिणामों को परिवर्तित कर देते हैं। ये हिंसात्मक में तो उसकी भूमिका अग्रणी है। तीर्थंकरों के समवशरण में विचारों को उग्रतमरूप में भडकने नहीं देते परिणामस्वरूप वह आर्यिकाओं की संख्या का आधिक्य इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इतना पाप कार्य नहीं कर पाती कि छठे नरक से आगे जा सके। जिनालय में पूजन विधानादि कार्यों में तथा व्रत उपवास आदि में इसी तरह आत्म साधना में राग अंश के कारण सवस्त्र होने तथा | महिलाओं की तथा चिकित्सालयों में परिचारिकाओं की बहुलता पूर्ण कर्मक्षय न कर सकने के कारण मोक्ष भी नहीं जा पाती। | सहज ही देखी जा सकती है। महिलाओं में मात्र एक्स क्रोमोसोम्स का होना तथा मस्तिष्क | इस प्रकार सहनशील स्वभाव के कारण नारी विविध क्षेत्रों के दोनों गोलार्धा में क्रिया नियन्त्रण व्यवस्था का समानरूप में बटा में अपने कार्यों को सफलतापूर्वक कर लेती है। होना उसके सहनशील होने का कारण है। इसी गुण के कारण वह भगवान् महावीर मार्ग पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक क्षेत्र में होने वाले विरोधों/अवरोधों गंजबासौदा (विदिशा) म.प्र. आर्यिका-संघ द्वारा औरंगाबाद महानगर में महती धर्मप्रभावना प.पू. संतशिरोमणी आचार्य 108 श्री विद्यासागर जी | प्रति कर्त्तव्य का महत्त्व बतलाया गया। उसके तुरंत उपरांत महाराज की सुशिष्या प.पू. आर्यिका 105 श्री अनंतमती माताजी 7.30 से 8.00 तक भक्तामर उच्चारण वर्ग में उच्चारण कैसे एवं प.पू. आर्यिका 105 श्री आदर्शमती माताजी, 30 आर्यिकाओं योग्य है, यह बतलाकर शुद्धता के साथ भक्तामर उच्चारण सभी एवं 20 ब्रह्मचारिणी दीदी के विशाल संघ के साथ औरंगाबाद उपस्थितिको इसका सराव भी करा दिया। यह वर्ग प्राय : प.पू. नगरी में दिनांक 20.11.2002 को पा.ब्र. आश्रम एलोरा के आर्यिका आदर्शमती माताजी एवं ससंघ आर्यिकाओं के द्वारा चातुर्मास उपरांत मंगल प्रवेश हुआ। संपन्न हुआ। दोपहर 2.30 से 3.30 तक श्रावकों की षड् आवश्यक अग्रसेन भवन, सराफा में 30वाँ आचार्य पदारोहण दिन कर्तव्यों की जानकारी प्राप्त हुई। इस वर्ग के माध्यम से सच्चे बहुत धूमधाम एवं अपार भीड़ समुदाय के साथ भक्तिमय | देव, शास्त्र, गुरु की आगमोक्त उपासना पद्धति की जानकारी वातावरण में संपन्न हुआ। मंगल प्रवचन एवं मंगल आशीर्वाद | प्राप्त होने पर औरंगाबाद का श्रावक प्रभावित हुआ है। 3.30 से प.पू. उपाध्यायं 108 श्री जयभद्र जी महाराज एवं आर्यिकाओं | 4.00 बजे तक श्रावकों के सभी शंकाओं का समाधान किया का प्राप्त हुआ। कार्यक्रम में अध्यक्ष सकल मारवाड़ी महासभा जाता था। 4.00 से 4.45 तक पुनः आलोचना पाठ, प्रतिक्रमण अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम दरख और प्रमुख अतिथि के स्वरूप में के साथ ध्यान वर्ग किया गया है। दोपहर का वर्ग प.पू. आर्यिकाओं पा. आश्रम एलोरा के मंत्री पन्नालालजी गंगवाल एवं कोपरगाँव अनंतमती माताजी एवं प.पू. आर्यिका निर्मलमती माताजी के के सामाजिक कार्यकर्ता नितिन कासलीवाल थे। आचार्य श्री मंगल प्रबोधन से संपन्न होते थे। का फोटो अनावरण आचार्यश्री के पूजन संगीतद्वारा (णमोकार . कार्यक्रम को सफलता पूर्वक संपन्न कराने हेतु डॉ. सन्मति भक्ति मण्डल, राजाबाजार) भक्तिमय वातावरण में जालना | ठोले, दिनेश गंगवाल, भागचंद बिनायके, अशोक पाटणी, डॉ. निवासी झुंबरलालजी पाटणी एवं ब्र. भैय्या के करकमलों द्वारा | प्रेमचंद पाटणी, पन्नालाल गंगवाल, किरण गंगवाल, वसंतराव किया गया। आचार्य विद्यासागर आहार विज्ञान संस्था, श्री मनोरकर, शांतीनाथ गोसावी, प्रभाकरराव शिंगारे, दिलीप पहाड़े, 1008 चंद्रनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, भाजीबाजार एवं दिगम्बर सुकुमार साहुजी, पसारे, सुगंधी, महावीर ठोले, बडजाते, पाटणीर, जैन धार्मिक सेवा समिति द्वारा आर्यिकाद्वय के मंगल सान्निध्य बोपळकर, मच्छिंद्रकर, क्षीरसागर, मोगले आदि ने प्रयत्न किये में सप्तदिवसीय विद्या, ज्ञान एवं ध्यान शिविर का आयोजन | हैं। शिविर में प्रतिदिन 500-500 श्रावकों ने उपस्थित रहकर दिनांक 28.11.2002 से 4 दिसंबर तक श्री चंद्रसागर दिगम्बर इस-धर्मप्रभावना से, प्रभावित होकर सच्चे शास्त्र, गुरु के प्रति जैन धर्मशाला के भव्य हॉल में संपन्न हुआ। समर्पित हुए हैं। डॉ. सन्मति ठोले प्रतिदिन सुबह 6.30 से 7.30 तक विविध ध्यानों का सेक्रेटरी ज्ञान एवं उसकी पद्धति एवं श्रावकों को देव, शास्त्र, गुरु के आ. विद्यासागर आहार विज्ञान संस्था, एलोरा 22 फरवरी 2003 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पत्रिकारिता के भीष्म पितामह श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय (जैन) (जन्म शताब्दी महोत्सव पर विनम्र श्रद्धांजलि) डॉ. कपूरचन्द्र जैन एवं डॉ. ज्योति जैन, सिर पर टोपी, मंझोला कद, कसरती देह, गेंहुँआ रंग, गठे । भरकर आशीर्वाद दिया और कहा, "मैंने तुम्हें इसीलिए (आज के हुए अंग, भरी हुई सजग मुखाकृति, विरलश्मश्रु, वाणी में ओज, | लिए) जना था।" जनता ने जयजयकार की। शैली में गम्भीरता और निरालापन, यही व्यक्तित्व था वाणी के | ताऊजी और पिताजी दिल्ली के प्रथम नमक-सत्याग्रही जादूगर श्रद्धेय श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय का। | थे। दिल्ली में सबसे पहले नमक बनाकर उन्होंने बेचा। महामना जैन समाज में जागृति का शंखनाद करने वाले 'वीर, | मालवीय जी ने स्वयं उनसे नमक खरीदा था। अनेकान्त' जैसे प्रगतिवादी पत्रों के संपादक गोयलीय जी का जन्म कारावास के अनुभवों को पिता ने अपनी कहानी की 7 दिसम्बर, 1902 को वर्तमान हरियाणा के बादशाहपुर, जिला- | पुस्तकों 'गहरे पानी पैठ', 'जिन खोजा तिन पाइयाँ', 'कुछ मोती गुडगांवा में हुआ था। आपके पिता श्री रामशरणदास खानदानी कुछ सीप' और 'लो कहानी सुनो' (सभी भारतीय ज्ञानपीठ, बजाजे का व्यवसाय करते थे। कहा जाता है कि आपके दादा | दिल्ली से प्रकाशित) में पिरोया है। ये अनुभव अब साहित्य की दिगम्बरावस्था में जिन दर्शन करते थे। जब आप साढ़े तीन वर्ष के | बहुमूल्य थाती हैं। थे तब दादा जी का देहवासन होने से आपकी दादी आपको लेकर उनके जेल से छूटने का दिल्ली वासी बहुत बेतावी से कोसीकलां (मथुरा) उ.प्र. में आ गई थीं। इन्तजार कर रहे थे। भव्य स्वागत योजना थी। कारावास पिता जी गोयलीय जी की प्रारंभिक शिक्षा चौरासी (मथुरा) में हुई | आत्मशुद्धि के लिए गये थे। जेल से वे चुपचाप घर आ गये। लाला जहाँ उन्होंने मध्यमा तक अध्ययन किया। आपकी आजीविका | शंकर लाल और श्री आसफअली घर पर मिलने आये। पिताजी के और राजनीति में प्रवेश के संदर्भ में आपके पुत्र श्री श्रीकान्त त्याग एवं देशसेवा की सराहना की। श्री देवदास गाँधी ने गाँधी गोयलीय ने जो संस्मरण (तीर्थङ्कर नव.-दि. 1977) में लिखा है आश्रम में पिताजी को सर्विस देनी चाही; किन्तु उन्होंने देश सेवा उसे हम यहाँ यथावत् उद्धत कर रहे हैं। का मुआवजा स्वीकार नहीं किया। 'अपने पूर्वजों के नाम को रोशन करने के लिए पिताजी उनका दिल्ली के क्रान्तिकारियों से बहुत घनिष्ठ सम्पर्क दिल्ली आ गये। बाबा की बुआ (बैरिस्टर चम्पतराय जी की था। अपने ओजस्वी विचारों से वे आजीवन कारावास जाने वाले बहिन मीरो) के वात्सल्यपूर्ण निर्देशन में उन्होंने एक छोटा सा थे। पार्लियामेन्ट में साइमन कमीशन पर बम फेंका जाएगा, इसकी मकान लिया और बजाजे का पुश्तैनी कार्य संभाला। उनकी मिठास जानकारी उन्हें बहुत पहले से थी। उनके राजनैतिक शिष्यों में और ईमानदारी पर ग्राहक रीझे रहते थे। कारोबार चल निकला। क्रान्तिकारी श्री विमल प्रसाद जैन और श्री रामसिंह प्रमुख हैं। सबह-शाम सामायिक, स्वाध्याय और जिन-दर्शन उनका स्वभाव वे श्री अर्जुनलाल जी सेठी से बहुत प्रभावित थे। सेठीजी हो गया। दिल्ली के पहाड़ी धीरज और चाँदनी चौक ने उन्हें अपना पर उनके लिये संस्मरण ('जैन जागरण के अग्रदूत' भारतीय राजनैतिक नेता माना। एक बार वे चाँदनी चौक की विशाल जनसभा ज्ञानपीठ काशी) बहुत सजीव एवं मार्मिक बने हैं।" में धाराप्रवाह भाषण दे रहे थे। 'देहलवी टकसाली जुबान और गोयलीय जी लगभग 15 वर्ष भारतीय साहित्य की प्रसिद्ध मौके के चुस्त शेर' भीड़ को भारतमाता की बेड़ियाँ तोड़ने पर प्रकाशिका संस्था, भारतीय ज्ञानपीठ के अवैतनिक मंत्री रहे। यहीं जोश भर रहे थे। पुलिस-उच्चाधिकारी ने अदालत में कहा था उन्होंने ज्ञानपीठ की प्रसिद्ध पत्रिका 'ज्ञानोदय' का सम्पादन किया। 'गोयलीय साहब को सभा में गिरफ्तार करना बहुत मुश्किल था। वे 'वीर' और 'अनेकान्त' के भी सम्पादक रहे। गोयलीय जी आप अवाम पर छाये हुए थे। पूरी भीड़ हम पर टूट पड़ती; अत: अपने जीवन में कितने ईमानदार थे यह बताने के लिए 'विकास' मीटिंग खत्म होने पर गोयलीय जी को गिरफ्तार करना मुनासिब और 'नया जीवन' के सम्पादक श्री अखिलेश शर्मा का निम्न समझा।" संस्मरण ही पर्याप्त है। आदरणीय ताऊजी (लाला नन्हेमलजी) और पिताजी | "सन् 1935 में भारतीय ज्ञानपीठ कार्यालय (काशी) को दिल्ली में एक साथ गिरफ्तार हुए। दादी ने अपने बेटों को जी | जाना हुआ। वहाँ गोयलीय जी डालमिया नगर से पधारे हुए थे। -फरवरी 2003 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयलीय जी अपने कार्यालय में थे। आराम का वक्त था। वे अपने | जिसकी अभिव्यक्ति 'जैन जागरण के अग्रदूत' में निम्न शब्दों में बिस्तर पर विश्राम कर रहे थे। उसी समय 'ज्ञानपीठ' के तत्कालीन | हुई हैमैनेजर आये। आदेशानुसार तकिये के पास रखा लिफाफा और | 'हमारे यहाँ तीर्थङ्करों का प्रामाणिक जीवन-चरित्र नहीं, रखी हुई दुअन्नी उठा ली। मुझे लिफाफे पर रखी दुअन्नी की बात | आचार्यों के कार्य-कलाप की तालिका नहीं, जैन-संघ के समझ में नहीं आयी। कार्यालय में मैनेजर से बातचीत के दौरान | लोकोपयोगी कार्यों की सूची नहीं; जैन-सम्राटों, सेनानायकों, मंत्रियों पूछा। मैनेजर ने बताया- 'मंत्रीजी, व्यक्तिगत डाक में ज्ञानपीठ का | के बल पराक्रम और शासनप्रणाली का कोई लेखा नहीं. साहित्यिकों पोस्टेज खर्च नहीं करते हैं। दुअन्नी टिकट के लिए दी है। एवं कवियों का कोई परिचय नहीं। और तो और, हमारी आँखों के गोयलीय हिन्दी, उर्दू, अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी | सामने कल-परसों गुजरने वाली विभूतियों का कहीं उल्लेख नहीं आदि के उद्भट विद्वान् थे। नाटक, कविता, कहानी, निबन्ध | है; और ये दो-चार बड़े-बूढ़े मौत की चौखट पर खड़े हैं; इनसे आदि सभी विधाओं में उनकी अप्रतिहत गति थी। इतिहास और | भी हमने इनके अनुभवों को नहीं सुना है, और शायद भविष्य में पुरातत्त्व के वे खोजी विद्वान् थे। 'दास' और 'तखल्लुस' उपनाम | दस-पाँच पीढ़ी में जन्म लेकर मर जाने वालों तक के लिए परिचय से उन्होंने उर्दू शायरी को बहुत कुछ दिया है। गोयलीय जी ने उर्दू | लिखने का उत्साह हमारे समाज को नहीं होगा। कैसे सीखी उन्हीं की जुबानी सुनिये प्राचीन इतिहास न सही, जो हमारी आँखों के सामने निरन्तर "मेरे अज्ञात हितैषी! गुजर रहा है, उसे ही यदि हम बटोरकर रख सकें, तो शायद इसी न जाने इस वक्त तुम कहाँ हो? न मैं तुम्हें जानता हूँ और | बटोरन में कुछ जवाहरपारे भी आगे की पीढ़ी के हाथ लग जाएँ।' न तुम मुझे जानते हो, फिर भी तुम कभी-कभी याद आते रहते | 'जैन जागरण के अग्रदूत' को वे 4 भागों में निकालना हो। बकौल फिराक गोरखपुरी चाहते थे। पर एक ही निकल पाया। उनका अन्य साहित्य हैमुद्दतें गुजरीं तेरी याद भी आई न हमें। प्रकाशित - 1. मौर्य साम्राज्य के जैन वीर, 2. राजपूताने और हम भूल गये हों तुझे, ऐसा भी नहीं। के जैन वीर, 3. 'दास'-पुष्पांजलि, 4. शेर-ओ-शायरी, 5. शेरतुम्हें तो 27, जनवरी 1921 की वह रात स्मरण नहीं ] वीर ओ-सुखन (5 भाग), 6. शाइरी के नयेदौर (5 भाग), 7. होगी, जबकि तुमने मुझे अंधा कहा था। मगर मैं वह रात अभी | शाइरी के नये मोड़ (5 भाग), 8. नग्मये हरम, 9. उस्तादाना तक नहीं भूला हूँ। रोलेट एक्ट के आंदोलन से प्रभावित होकर | कमाल, 10. हँसो तो फूल झंडें, 11. गहरे पानी पैठ, 12. जिन मई, 1919 में चौरासी-मथुरा महाविद्यालय से मध्यमा की पढ़ाई | खोया तिन पाइयाँ, 13. कुछ मोती कुछ सीप, 14. लो कहानी छोड़कर मैं आ गया था और कांग्रेस-कार्यों में मन-ही-मन | सुनो, 15. मुगल बादशाहों की कहानी खुद उनकी जुबानी। दिलचस्पी लेने लगा था। उन्हीं दिनों सम्भवतः 26, जनवरी 1921 | अप्रकाशित- 1. शराफत नहीं छोडूंगा, 2. हैदराबाद दरबार ई. की बात है, रात को चाँदनी-चौक से गुजरते समय बल्लीमारान | के रहस्य, 3. पाकिस्तान के निर्माताओं की कहानी खुद उनकी के कोने पर चिपके हुए काँग्रेस के उर्दू पोस्टर को खड़े हुए बहुत | जुबानी, 4. उमर खैय्याम की रुबाइयात, 5. बेदाग हीरे-विषयवार से लोग पढ़ रहे थे। मैं भी उत्सुकतावश वहाँ पहुँचा और उर्दू से | आशया (2 भागों में)। अनभिज्ञ होने के कारण तुमसे पूछ बैठा- "बड़े भाई ! इसमें क्या गोयलीय जी को जीवन में अनेक पुरुस्कार / सम्मान लिखा हुआ है?" तुमने फौरान जवाब दिया- "अमां अन्धे हो, | मिले। जिनमें प्रमुख हैं- उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा 'शेर ओ सुखन', इतना साफ पोस्टर नहीं पढ़ा जाता।" जवाब सुनकर मैं खिसियाना- | 'शेर-ओ-शाइरी' तथा 'कुछ मोती कुछ सीप' पर पुरस्कार। हरियाणा सा खड़ा रह गया। घर आकर गैरत ने तख्ती और उर्दू का कायदा | सरकार द्वारा- 'मुगल बादशाहों की कहानी खुद उनकी जुबानी' लाने को मजबूर कर दिया।"... पर पुरस्कार । चण्डीगढ़ में दुशाला ओढ़ाकर तथा 500/- की राशि बाद में आप प्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार शेरसिंह 'नाज' के भेंटकर सार्वजनिक सम्मान, केन्द्र तथा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा साथ मुशायरों में जाने लगे। गोयलीय जी की रगों में राष्ट्रीयता और | स्वतंत्रता सेनानी होने से ताम्रपत्र से सम्मान आदि। जिनभक्ति का लहू दौड़ा करता था। उनकी एक नज्म यहाँ दृष्टव्य | गोयलीय जी का जीवन एक ऐसे तपस्वी और साधक का है, जो उन्होंने बैरिस्टर चम्पतराय के स्वागतार्थ 21, जनवरी 1927 जीवन रहा है जिसने जीवन में आये झंझावातों को चुपचाप सहा को कही थी और आपत्तियों का विषपान करते हुए भी साहित्यामृत प्रदान 'मकताँ हैं बेमिसाल हैं और लाजवाब हैं किया। जन्म शताब्दी पर विनम्र श्रद्धांजलि। हुस्ने सिफाते दहर में खुद इन्तख्वाब हैं। यह वर्ष गोयलीय जी का जन्म शताब्दी वर्ष है। कृतज्ञ पीरी में भी नमनूमे अहदे शबाब हैं। राष्ट्र/जैन समाज को उनकी स्मृति में गोष्ठियों का आयोजन, गोयाकि जैन कौम के एक आफताब हैं।' किसी मार्ग का नामकरण, पुरस्कार की स्थापना, स्टेच्यु का जैन साहित्य और संस्कृति का क्रमबद्ध और प्रामाणिक || निर्माण आदि अवश्य करना चाहिए। इतिहास न होने की पीड़ा गोयलीय जी को सदैव सालती रही।। कुन्दकुन्द कॉलेज परिसर, खतौली (उ.प्र.) 24 फरवरी 2003 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मार्थी के लिये तीर्थ नैसर्गिक उपवन सुमतचन्द्र दिवाकर तीर्थ अत्यन्त व्यापक सार्थक शब्द है। इसके साधनभेद के सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते। अनुसार अनेक अर्थ हो सकते हैं। पूज्य आचार्य योगेन्दु देव ने कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धिः प्रजायते। परमात्मप्रकाश ग्रंथ में निश्चयतीर्थ का स्वरूप आत्मप्राप्ति को कहा। (ज्ञानार्णव) इस परम्परा में हमारे तीर्थंकर ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त तीर्थंकर "सिद्धक्षेत्र, जहाँ कि बड़े-बड़े प्रसिद्ध पुरुष ध्यान कर इस युग के सबसे बड़े तीर्थ हैं, जिन्होंने आत्मसाधना अथवा | सिद्ध हुए हों, पुराण पुरुष तीर्थंकरादिकों ने जिनका आश्रय लिया आत्मप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। करोड़ों भव्य आत्माओं ने उन हो ऐसे महातीर्थों में ध्यान की सिद्धि होती है।" यह कल्याणक के श्रमण मार्ग पर चलकर निर्वाण प्राप्त किया। क्षेत्र हैं। जिन स्थलों से उन भव्य आत्माओं ने अपनी साधना का | श्री सम्मेदशिखर से बीस तीर्थंकरों को मुक्ति प्राप्त हुई,इसलिए अंतिम सोपान तय किया, वे सिद्धक्षेत्र बन गये। वहाँ की भूमि का , इसे तीर्थराज भी कहते हैं। उत्तर में कैलाश पर्वत से आदिनाथ को कण-कण पवित्र हो गया। वहाँ के वायुमण्डल में आज भी उनकी तथा चम्पापुर से वासुपूज्य, गिरनार से नेमीनाथ तथा पावापुर से साधना के मंत्रोच्चार रचते-बसते हैं। उन पवित्र चरणों की पदरज अन्तिम तीर्थंकर महावीर को शिवलक्ष्मी प्राप्त हुई-इसयि यह क्षेत्र आज भी प्रदूषण से परे है। वहाँ आज भी श्रद्धा से वंदना करने | सिद्ध क्षेत्र का गौरव पा सके। अन्य मुनियों, आचार्यों, गणधरों ने वाले यात्रियों को पवित्रता का भान होता है। ये क्षेत्र आज भी | भी जहाँ-जहाँ से निर्वाण प्राप्त किया उन्हें भी सिद्धक्षेत्र कहते हैं। हमारी संस्कृति के परिचायक हैं। इन तीर्थों का वंदन, रक्षण, जैसे-कुन्थलगिरि से कुलभूषण, देशभूषण मुनिराजों ने निर्वाण संवर्धन महान पुण्यकार्य है। उपर्युक्त कथन की सिद्धि हेतु धर्मतीर्थ | प्राप्त किया- इस प्रकार प्रसिद्ध पच्चीस निर्वाण भूमियाँ हैं। और क्षेत्र-तीर्थ के बहुआयामी महत्त्व का प्रकाशन इस आलेख व्रत, तप, जप स्वाध्याय का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति ही का अभीष्ट है। है। आगमानुसार इन निर्वाण भूमियों के महत्त्व को इन्द्रों-देवेन्द्रों ने धार्मिक निष्ठा उन्नायक - तीर्थ हमारी सांस्कृतिक धरोहर | भी माना है। उन्होंने इन स्थानों पर अपने पूज्य भाव प्रगट करने हैं। हमारे महापुरुषों को स्मरण करने वाले प्रतीक हैं। हमारी | तीर्थंकर भगवन्तों के चरण चिह्न अंकित किये थे। इसलिये सिद्ध धार्मिक निष्ठा को तीर्थ वंदना से बल मिलता है। तीर्थों पर हमारा | भूमियों को आचार्यों ने महातीर्थ कहा है। इन पुराण पुरुषों के उपयोग भगवत् भक्ति में लगने से पुण्य का संचय होता है। यह | निर्मल चरित्र की भक्ति, स्मरण और अनुशरण से निश्चित ही पुण्य परम्परया मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। विकारग्रस्त मन कल्याण होता है। यह सिद्ध भूमियाँ प्राय: उत्तुंग पर्वतों तथा निर्जन और रूग्ण तन के उपचार के साधन तीर्थ स्फूर्तिप्रदायक भी हैं। वन प्रदेशों में ही हैं। आत्म साधना के लिये निराकुल पर्यावरण का भगवान् का स्मरण करते हुए दुरूह उत्तुंग पर्वतों पर आरोहण | अत्यन्त महत्त्व है। अन्तरंग शान्ति का अजस्त्र स्तोत्र इन निराकुल करते वृद्धजनों में भी नवयुवकों जैसा उत्साह भर देते हैं। तीर्थ | स्थानों में ध्यानस्थ होकर प्राप्त होता है। इसलिये इन स्थानों का तपोवन तथा समाधि स्थल हैं। साधनारत साधुओं, मुनियों को | महत्त्व साधुओं को ही नहीं अपितु गृहस्थों को भी सर्वोपरि है। जीवन के अन्तिम दिनों में इन तीर्थ धामों पर ही आश्रय मिलता है। जिस प्रकार गृहस्थ को धनार्जन के लिये अनुकूल क्षेत्र, विद्यार्थी तीर्थ-करोड़ों-करोड़ साधुओं के मुक्तिधाम हैं। प्रतिवर्ष करोड़ों को विद्या अर्जन के लिये विद्यालय अथवा गुरुकुल चाहिये उसी मनुष्यों को इन तीर्थक्षेत्रों की वंदना का पुण्य अधोगति में जाने से प्रकार आत्मार्थी के लिये शान्ति समता हेतु तीर्थ का नैसर्गिक उबारता है। श्री सम्मेदशिखर जी के संदर्भ में कहा गया है- उपवन चाहिये। भाव सहित वंदे जो कोई, ताहि नरक पशुगति नहिं होई तीर्थ, आगम के दर्पण में - आगम में तीर्थ शब्द का अर्थ चारों गतियों में नरकगति अशुभ गति मानी जाती है तथा | पार उतारने वाला पार पहुँचाने वाला, पार होने का उपाय करने तिर्यंचगति (पशुगति) अत्यन्त दुखदायी और धर्माश्रय से वंचित | वाला या पार उतरना भी है। इसका चारों अनुयोगों में कहीं से भी करनेवाली है, जो इस तीर्थ वंदन से टल जाती है। मनुष्य गति में सम्बन्ध स्थापित करने पर अर्थ आत्म उत्थान से ही है। इसलिये उत्थान के मार्ग खुले हैं । संयम और ईश्वर भक्ति से आत्मकल्याण सरल शब्दों में जो व्यक्ति संसार से पार उतरने वाले हैं उन्हें तीर्थ किया जा सकता है। संयम और भक्ति के लिये तीर्थ सर्वश्रेष्ठ | कहते हैं। जिस मार्ग से पार उतरा जा सकता है या जिन साधनों से निमित्त हैं। पूज्य आचार्य शुभचन्द्र ने गृहस्थों और साधुओं के लिए | पार उतरा जा सकता है वह साधन अथवा उपाय भी तीर्थ हैं। दृष्टि में तीर्थों को आत्म शुद्धि का साधन निरूपित किया है | संसार छूटने का उद्देश्य तथा आत्म प्राप्ति का लक्ष्य होना चाहिये। -फरवरी 2003 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थते संसार सागरः संसार सागर से पार उतारने वाले तीर्थंकर भगवान् सबसे बड़े तीर्थ हैं। कार्य कारण व्यवस्था के आधार पर अन्य को भी तीर्थ कहा जाता है, तीर्थानां तीर्थभूत पुरुषाणां 'तीर्थेशास्त्रे 'तीर्थगुरु' अथवा तीर्थ जिनपूजनं अथवा तीर्थ पुण्यक्षेत्रं जिनेन्द्र भगवान् के चरित्र को भी तीर्थ कहा गया है। उनका शासन सर्वोदय तीर्थ है। ऐसा आचार्य समन्तभद्र का कथन है। इन्हीं आचार्य ने स्वयंभूस्तोत्र में जन्म-मरण रूप डूबते हुए प्राणियों के लिये तीर्थों का तरण पथ बताया है।" तीर्थ मणि स्वं जननसमुद्र भासित सत्वोत्तरण पथोडगम ॥ तीर्थ परमागम रूप हैं। भूतबलि, पुष्पदन्ताचार्य ने षट्खण्डागम में धर्ततीर्थ का प्रवर्तक तीर्थंकर भगवन्तों को कहा है। आदिपुराण में रत्नत्रय को तीर्थ कहा। भगवान् की वाणी को विस्तार देने वाले गणधर तो तीर्थ हैं ही क्योंकि इस प्रकार वे स्वयं का तथा संसार का कल्याण करते हैं। उपर्युक्त सिद्धान्त से यह भी फलित होता है कि हमारे दिगम्बर मुनि, आचार्य भी धर्म तीर्थ की श्रेणी में आते हैं। तीर्थंकर तथा धर्मतीर्थ तीर्थंकर संसार में अनादि अविद्या को दूरकर श्रेयोमार्ग का प्रवर्तन नियमतः नियतिवश करते हैं। उनके इस मोक्षमार्ग प्रवर्तन रूप उपदेश को धर्म तीर्थ कहते हैं। तीर्थंकर भगवान् का उपदेश सुनने वाले अवश्य ही कल्याण का मार्ग प्राप्त कर लेते हैं। इनका अनादि मिथ्यात्व दूर होकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। तीर्थंकर के धर्मोपदेश में तथा अन्य सर्वज्ञों के उपदेश में यही अन्तर है। तीर्थंकरों की अन्तरंग श्री में ही यह सामर्थ्य होती है कि स्वयं संसार सागर से पार हो जाते हैं तथा अन्य प्राणियों को भी पार करने में नियमत: समर्थ हैं। पुव्वण्हे मन्झहे अवण्हे मन्त्रिमाय रतीए । छछग्घडिया णिग्गड़ दिव्वझुणी कहइ सुतत्थे । तिलोयपण्णत्ति अन्य सर्वज्ञ जिन्हें अतीर्थकर कहते हैं स्वयं पार तो होते हैं परन्तु उनके उपदेश से अन्य पार हो जायें ऐसा नियम नहीं है। हरिवंश पुराण में स्पष्ट कहा है कि तीर्थंकर की दिव्यध्वनि सुनने से अवश्य ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। , स्थान विशेष पुण्यक्षेत्र, मंगलक्षेत्र महान् आत्माओं के स्थान विशेष पर निवास करने, साधना करने, जन्म लेने, अपनी साधना पूरी कर मोक्ष प्राप्त करने के कारण वे स्थान विशिष्टता प्राप्त कर पुण्यक्षेत्र अथवा मंगलक्षेत्र हो जाते हैं। तीर्थ शब्द-स्थान के लिये रूद अथवा बहुप्रचलित है। बादीभसिंह सूरि कहते हैं पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात् । " जैसे तुच्छ और काला लोहा रसायन आदि के संसर्ग से प्रशस्त्र सुवर्ण बन जाता है तीर्थंकरादि महापुरुषों के संसर्ग सेजमीन भी पूज्य हो जाती है।" वस्तुत: महापुरुषों के गुण ही पूजत्व का कारण हैं किन्तु जिस शरीर में वह गुणज्ञ आत्मा-वास करती है वह शरीर भी पूज्य बन जाता है। प्रकारान्तर से शरीर की पूजा गुणों की ही पूजा है। स्थान की पूजा साधना की पूजा है, आचरण की पूजा है। इन साधना क्षेत्रों पर महापुरुषों के स्मरण से उनकी साधना की दृढ़ता, उनके मन की पवित्रता, शरीर की निर्मोहिता और आत्मसाधना के गीत वहाँ की हवाओं में गूँजते रहते हैं। उनके पगों की ध्वनियों की पवित्रता का संवदेन शांत चित्त मानब को उस क्षेत्र विशेष पर अवश्य होता है। ऐसे ही मानवों में सामर्थ वान भक्त उन महापुरुषों की पावन स्मृति बनाये रखने मंदिरों, मूर्तियों चरणों आदि की स्थापना करते हैं। यह जैन तीर्थ स्थल भक्ति की अविरल धारा के साथ ही वीतराग धर्म के पोषक हैं। जैन दर्शन में जल से शुचिता का महत्त्व नहीं, ज्ञान ध्यान से आत्म शुचिता का महत्त्व है। आत्म शुचिता कषायों के अभाव से होती है। कषायों का अभाव समता भावों से होता है। समता वीतराग, जिनबिम्ब दर्शन, वीतराग वाणी और निर्ग्रथसाधुओं के उपदेशामृत से प्राप्त होती है। इनका सद्भाव तीर्थक्षेत्रों पर होता है अस्तु यह क्षेत्र मंगल क्षेत्र- पुण्य क्षेत्र है। (सरस) कवि ने अपने काव्य में तीर्थों की महिमा गाते हुए इसी प्रकार भाव प्रकट किये - सदिरध्युषिता धामी संपज्येभ्दति किमभ्दुति किमभ्दुलभ कालायज्ञं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः । युग प्रभाव के कारण आज का गृहस्थ भौतिकता की होड़ में इस तरह व्यस्त है कि उसे अपने कार्यों से ही अवकाश नहीं है। समर्थ गृहस्थ तीर्थों के संरक्षण हेतु धन दान में दे देता है। दान देने के पीछे उसकी यशकामना, सामाजिक दबाव, कदाचित धर्मभावना और तीर्थों की श्रेष्ठता भी हो सकती है। मात्र धन दे देने से तो तीर्थों का संरक्षण संवर्धन नहीं होता। दातार का कर्त्तव्य होता है कि वह अपने द्वारा दिये धन का सदुपयोग होते हुए भी देखें। दान और त्याग में यही अन्तर है कि त्याग करने वाला मुड़कर त्यागी हुई वस्तु की ओर नहीं देखता। आज का दातार धन महाजनों के सम्पर्क से स्थान भी पवित्र पूज्यनीय माने देने- पश्चात् तीर्थों के संवर्धन संरक्षण के कर्त्तव्य बोध से भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ता । वह अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित इन सांस्कृतिक जाने लगते हैं। 26 फरवरी 2003 जिनभाषित जिनमत के जितने तीरथ मानवता की भाषा । नर से नारायण होने की हो जिनमें अभिलाषा ॥ वे आये इनकी छाया में निज को जरा उतारें। शिल्प कला, शिवकला, कला के जीवन धर्म निहारें ।। तीर्थों का संरक्षण और संबर्धन ऊपर के कथन के आलोक में तीर्थों की श्रेष्ठता और उपादेयता प्रमाणित है जो गृहस्थों और साधुओं को समान रूप से है। तीर्थों के संरक्षण तथा संवर्धन का कार्य गृहस्थों का ही है। साधु आरम्भ परिग्रह के त्यागी होते हैं। अस्तु प्रत्यक्षत: वे तीर्थों के संवर्धन और संरक्षण में न तो समर्थ होते हैं न ही उनका यह कार्य है। - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरोहरों का आंकलन इसलिये भी नहीं कर पाता क्योंकि यह बिना । मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश। कमायी हुई परअर्जित सम्पत्ति की तरह प्राप्त हो गये हैं। हमारे मुनियों के लिये यह तीर्थक्षेत्र तपो भूमियाँ बनी रहें। आज अनेक मुनियों, आचार्यों का रूझान भी नये तीर्थों | श्रावकों, साधकों को यहाँ आपाधापी वाली जिन्दगी से छुटकारा की स्थापना की ओर अधिक है। तीर्थ रक्षा शिरोमणि आचार्य | मिले। प्रतिदिन के कार्यकलापों से भिन्न संयमपालन और ईश्वर आर्यनन्दी जी की तरह प्राचीन तीर्थों के हितार्थ कर्त्तव्यबोध की भक्ति का अवसर मिले। धार्मिक कार्यों में समय व्यतीत हो क्षेत्रों का आवश्यकता आज भी है। आर्यनन्दी महाराज ने अपने गुरु समन्तभद्र नैसर्गिक सौन्दर्य बना रहे, यही इनका रक्षण होगा। मात्र स्थानों का महाराज की आज्ञा से प्राचीन तीर्थों के रक्षार्थ एक करोड़ का ध्रौव्य | संरक्षण और नवनिर्माण ही पर्याप्त नहीं है। इन क्षेत्रों पर अपरिग्रही फंड तीर्थ रक्षा कमेटी के लिये अपने साधु जीवन के बारह वर्ष | साधु रहते हुए अपना साधना पथ सुविधापूर्वक पूरा कर सकें, तथा समर्पित कर तथा लगभग तीस हजार किलोमीटर की पद यात्रा | श्रावकों को धर्मोपदेश सुनने, परिग्रह परिमाणवत अथवा अपरिग्रही कर पूरा किया। संकल्प पूर्ति पश्चात भी पाँच वर्ष आगे भी तीर्थों | बनने की प्रेरणा जुटाते रहें जिससे यथार्थ धर्मतीर्थ का उद्योत बना के रक्षार्थ समाज को दान देने प्रेरित करते रहे तथा पच्चीस लाख रहे। तीर्थ क्षेत्र आत्मार्थी के लिये शान्ति, समता के नैसर्गिक उपवन रुपया अतिरिक्त दान के वचन प्राप्त किये। उन्होंने अपने नाम का | बने रहें। कोई तीर्थ या संस्थान स्थापित नहीं किया। उनका कहना था कि पुष्पराज कालोनी, सतना - 485001 प्राचीन तीर्थों की रक्षा और प्राचीन मूर्तियों की पूजा में दश गुना पुण्य अधिक अर्जित होता है। उन्होंने भारतवर्षीय दिगम्बर जैन समाज को प्राचीन तीर्थों के प्रति निजत्व बोध जगाते हुए उनके निष्कलंक जीवन प्रति कर्त्तव्य बोध से जोड़ा। अपने जीवन के अठासीवें वर्ष में श्री सम्मेद शिखर पर डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' स्थित चौपड़ा कुण्ड पर दिगम्बर जैन मंदिर निर्माण और अरक्षित मूर्तियों को स्थापित किया। इस कार्य में उन्हें दो वर्ष तक सबल जीवन एक प्रश्न है श्वेताम्बर समाज का विरोध सहना पड़ा। दो वर्ष तक वे पहाड़ पर प्रश्न चिह्न नहीं है स्थित चौपड़ा कुण्ड पर अपनी जान की परवाह न कर विराजमान प्रश्न निरन्तरता है रहे आये। उनकी ऐसी तीर्थों के प्रति रक्षण की लगन ने यह सिद्ध और प्रश्न चिह्न विराम । कर दिया कि साधु समाज आज भी धर्म, धर्मायतनों तथा अपनी प्रश्नों में उलझें नहीं संस्कृति के रक्षार्थ पूर्वाचार्यों पूज्य मुनि विष्णुकुमार, आचार्य उलझे हैं तो सुलझायें समन्तभद्र और अकलंक देव के आदर्शों का पालन कर सकता है। उदासीन श्रावक समाज में जागृति ला सकता है। चिन्ता से नहीं बदलते परिवेश - आज के बदलते परिवेश में यह पुण्य चिन्तन से क्षेत्र मात्र पर्यटन स्थल न बन जाये- इस पर ध्यान देना आवश्यक क्रन्दन से नहीं हो गया है। इन क्षेत्रों को पिकनिक स्पाट अथवा मनोरंजन स्थल न कर्मन से बनने देना ही उनका वास्तविक रक्षण है। आज साधन भोगी मद से नहीं समाज तीर्थस्थलों पर भी राग रंग के साधनों को जुटा रहा है। दम से परिग्रह एकत्रित करने की सहज प्रवृत्ति से यदि इसी प्रकार वहाँ पंच इन्द्रिय सुख जन्य साधनों की प्रचुरता बढ़ती रही तो क्षेत्रों का हय, हाय और हार से नहीं धर्म स्वरुप तिरोहित हो जायेगा। मात्र क्षेत्र रह जायेंगे। दान में प्राप्त जय, जान और प्यार से राशियों से क्षेत्र का विस्तार हो जायेगा। धर्म सिमटता जायेगा। सुलझते हैं प्रश्न। आजकल अतिशय क्षेत्रों पर अनेक मनौतियों को लेकर प्रश्नों का मंथन हो भीड़ देखी जाती है। अतिशय क्षेत्रों पर देवों का आगमन तथा तुम क्यों मथते हो? श्रद्धालुओं की आकांक्षाओं की पूर्ति भी होती देखी जाती है, परन्तु ऐसा सर्वदेश, सर्वकाल सभी के लिये नियम नहीं बन सकता। जियो और जीने दो, धर्मकार्य और ईश्वर भक्ति का लक्ष्य अहं विसर्जन तथा अज्ञान सही कहते हो। निवृत्ति होती है। सच्चा भक्त भगवान् से भवों-भवों तक सच्चे धर्म की शरण ही माँगता है। एल-65, न्यू इन्दिरा नगर,ए, बुरहानपुर (म.प्र.) -फरवरी 2003 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल नाड़ा प्रश्नकर्ता मनोज कुमार जैन अलीगढ़ 3. वचनबलप्राण- स्वर नाम कर्म तथा शरीर नाम कर्म जिज्ञासा- क्या देवों का मरण विमान के अलावा अन्य | के उदय से वचन व्यापार में कारण शक्ति विशेष रूप। स्थान पर भी संभव है? 4. कायबलप्राण- शरीर नामकर्मोदय से शरीर में चेष्टा समाधान - आदिपुराण भाग-1 पर्व-6 श्लोक नं. 24/25 | करने की शक्ति रूप कायबल प्राण होता है। में इस प्रकार कहा है। 5. आनपान प्राण- उच्छ्वास नि:श्वास नामकर्म तथा ततोऽच्युतस्य कल्पस्य जिनबिम्बानि पूजयन्। शरीर नामकर्म का उदय होने से उच्छवास नि:श्वास रूप प्रवत्ति तच्चैत्य द्रममूलस्थ: स्वायुरन्ते समाहितः ॥24॥ करने में कारण, ऐसी शक्ति रूप आनपान प्राण होता है। नमस्कारपदान्युच्चैरनुध्यायमन्नसाध्वसः। 6. आयु प्राण- आयु कर्मोदय से नारक आदि पर्याय साध्वसौ मुकुलीकृत्य करौ प्रयादद्दश्यताम्।।25।। रूप, भव धारण रूप आयु प्राण होता है। अर्थ-तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग की जिनप्रतिमाओं की पूजा | पंचेन्द्रिय मनुष्य बनने वाला जीव जब विग्रहगति में है, करता हुआ वह आयु के अंत में बड़े सावधान चित्त होकर चैत्य | तब उसके पाँच इन्दिय प्राणरूप भावेन्द्रिय होने से 5 प्राण हुये। वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो हाथ जोड़ कर उच्चस्वर [ द्रव्य मन न होने से मनोबल प्राण नहीं है। स्वर नामकर्म का उदय से नमस्कार मंत्र का ठीक-ठीक उच्चारण करता हुआ अदृश्यता न होने से वचन बल प्राण नहीं है। शरीर नामकर्म का उदय होने को प्राप्त हो गया। (यह प्रकरण भगवान् आदिनाथ के पूर्व भव | से कायबल प्राण है। आनपान प्राण भी नहीं है। आयुप्राण है। ललितांग देव का है जो ऐशान स्वर्ग का देव था।) अत: 5 इन्द्रिय+कायबल+आयु= 7 प्राण होते हैं। आदिपुराण - 1 पर्व-6 श्लोक नं. 56/57 में इस प्रकार एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय प्राण + कायबल + आयु-3 कहा है प्राण होते हैं। ततः सौमनसोद्यानपूर्वदिग्जिनमन्दिरे। इसी प्रकार अन्य में लगा लीजियेगा। मूले चैतयतरोः सम्यक् स्मरन्ती गुरुपंचकम्।।56।। प्रश्नकर्ता- श्री समतचन्द्र दिवाकर, सतना समाधिना कृतप्राणत्यागा प्राच्योष्ट सा दिवः । जिज्ञासा- क्या तीर्थंकर भगवान् के समवशरण में उपदेश तारकेव निशापाये सहसाद्दश्यतां गता।।57 ।। सुनने वाले का अनादि मिथ्यात्व दूर होकर सम्यक्दर्शन की प्राप्ति अर्थ - तदनन्तर सौमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के होने का नियम है? जिनमन्दिर में चैत्य वृक्ष के नीचे पंच परमेष्ठियों का भले प्रकार समाधान- यद्यपि यह परम सत्य है कि समवशरण में स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग का स्वर्ग से च्युत हो दिव्य ध्वनि सुनकर असंख्यात जीव सम्यक्दर्शन की प्राप्ति या गयी वहाँ से च्युत होते ही वह रात्रि का अन्त होने पर तारिका की | आत्मकल्याण कर लेते हैं, परन्तु यह नियम नहीं है कि समवशरण तरह क्षण एक में अदृश्य हो गयी। (यह प्रकरण ललितांग देव | में उपदेश सुनने वाले को सम्यकत्व हो ही जाता हो। की देवी स्वयंप्रभा का है जो ऐशान स्वर्ग की देवी थी) उत्तरपुराण पर्व- 71 श्लोक नं. 198, 199 में इस प्रकार उपर्युक्त प्रथम प्रमाण से स्पष्ट है कि दूसरे स्वर्ग से ललितांग | कहा है किदेव ने 16वें स्वर्ग में जाकर अपना शरीर छोड़ा और दूसरे प्रमाण से तन्निशम्यास्तिकाः सर्वे तथेति प्रतिपेदिरे। स्पष्ट है कि ऐशान स्वर्ग की देवी स्वयंप्रभा ने मध्यलोक में सौमनस अभव्या दूरभव्याश्च मिथ्यात्वोदय दूषिता।198॥ वन के चैत्यालय में आकर अपना शरीर छोड़ा। इस प्रकार देवों नामुंचन्केचनानादिवासनां भववर्धनीम्। का मरण अपने विमान के अलावा अन्य स्थान में भी संभव है। देवकी च तथा पृच्छद्वरदत्त गणेशिनम्॥199।। प्रश्नकर्ता- पं. लालचन्द्र जी राकेश गंजबसौदा अर्थ- उसे सुनकर जो भव्य जीव थे, उन्होंने, जैसा भगवान् जिज्ञासा - जीव के विग्रहगति में कितने प्राण होते हैं? | से कहा था वैसा ही मान लिया परन्तु जो अभव्य अथवा दूर भव्य समाधान- किस जीव के विग्रहगति में कितने प्राण होते | थे मिथ्यात्व के उदय से दूषित होने के कारण संसारी को बढ़ाने हैं, यह समझने से पूर्व हमको प्राणों का लक्षण समझना चाहिये, | वाली अपनी अनादि वासना नहीं छोड़ सके। (अर्थात् समवशरण जो इस प्रकार है में अभव्य भी जाते हैं वे दिव्यध्वनि सुनने के बाद भी सम्यक्तव को 1. इन्द्रिय प्राण- मतिज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम होने से अपने अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति उत्तरपुराण पर्व-74 श्लोक नं. 58-60 में इस प्रकार कहा रूप भावेन्द्रिय का उत्पन्न होना। है कि2. मनोबल प्राण- नोइन्द्रियावरण मतिज्ञानावरण तथा श्रुत्वापि तीर्थकद्वाचं सद्धर्मं नाग्रहीदसौं। वीर्यान्तराय का क्षयोपशम होने से द्रव्य मन के निमित्त से अपने पुरुर्यथात्मनैवान सर्वसंग विमोचनत् ।।58॥ विषय को ग्रहण करने की शक्ति रूप। भुवनत्रयसंक्षोभ कारि सामर्थ्यमाप्तवान्। 28 फरवरी 2003 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदुपज्ञं तथा लोके व्यवस्थाप्य मतान्तरम् ॥59 ॥ अहंच तत्रिमित्तोरूप्रभावात्त्रिदिव प्रभोः । प्रतीक्षां प्रातुमिच्छामि तन्मेऽवश्यं भविश्यति ॥60 ॥ अर्थ- उसने तीर्थंकर भगवान् की दिव्यध्वनि सुनकर भी समीचीन धर्म ग्रहण नहीं किया था। वह सोचता रहता था कि जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव ने अपने आप समस्त परिग्रहों का त्याग कर तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली सामर्थ्य प्राप्त की है उसी प्रकार मैं भी संसार में अपने द्वारा चलाये हुये दूसरे मत की व्यवस्था करूँगा और उसके निमित्त से होने वाले बड़े भारी प्रभाव के कारण इन्द्र की प्रतिष्ठा प्राप्त करूँगा । इन्द्र द्वारा की हुई पूजा प्राप्त करूँगा। मैं इच्छा करता हूँ कि मेरे यह अवश्य होगा। (यह प्रकरण भगवान् महावीर के पूर्व भव मारीचि के जीव का हैं जो भगवान् आदिनाथ का पुत्र था) इस प्रमाण के अनुसार भी मारीचि के जीव ने भगवान् के समवशरण में दिव्यध्वनि तो सुनी परन्तु उसे सम्यक्त्व नहीं हो पाया। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि दिव्यध्वनि सुनने वालों को सम्यक्तव प्राप्त होने का नियम नहीं । प्रश्नकर्ता श्रीमती सुषमा, जयपुर जिज्ञासा- समवशरण स्थित केवली के कौन सा ध्यान होता है? समाधान- समवशरण स्थित केवली के कोई भी ध्यान नहीं होता। श्री सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/44 की टीका में इस प्रकार एवमेवेकत्ववितर्कशुक्लध्यान.... सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति । अर्थ - इस प्रकार एकत्ववितर्क शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा जिसने चार घातिया कर्मरूपी ईधन को जला दिया है, जिसके केवलज्ञानरूपी किरण समुदाय प्रकाशित हो गया है, जो मेघ मण्डल का निरोध कर निकले हुए सूर्य के समान भासमान हो रहा है ऐसे भगवान्, तीर्थंकरकेवली या सामान्य केवली इन्द्रों के द्वारा आदरणीय और पूजनीय होते हुए उत्कृष्ट रूप से कुछ कम पूर्व कोटिकाल तक विहार करते हैं। जब आयु में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति आयुकर्म के बराबर शेष रहती है तब सब प्रकार के वचनयोग, मनोयोग और बादर काययोग को त्याग कर तथा सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को स्वीकार करता है, परन्तु जब उन सयोगी जिनके आयु, अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है और शेष तीन कर्मों की स्थिति उससे अधिक शेष रहती है तब जिन्हें सातिशय आत्मोपयोग प्राप्त है, जिन्हें सामायिक का अवलम्बन है, जो विशिष्ट करण से युक्त हैं, जो कर्मों का महासंवर कर रहे हैं और जिनके स्वल्पमात्रा में कर्मों का परिपालन हो रहा है ऐसे वे अपने आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्मरज को परिशातन करने की शक्ति वाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को चार समय के द्वारा करके अनन्तर प्रदेशों के विसर्पण का संकोच करके तथा शेष कर्मों की स्थिति को समान करके अपने पूर्व शरीर प्रमाण होकर सूक्ष्मकाययोग के द्वारा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को स्वीकार करते हैं। कहा है - श्री राजवार्तिककार ने भी इस प्रकार कहा है। इससे यह स्पष्ट है कि सयोगकेवली, जिनके केवली समुद्घात होता है, वे समुद्घात के उपरांत तथा जिनके समुद्घात नहीं होता उनके ( इन दोनों ही प्रकार के केवलियों के विहार समाप्त हो जाने के उपरांत मनुष्यायु के अंतिम अन्तर्मुहूर्त में तीसरा सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान ध्याया जाता है। इससे पूर्व यह शुक्लध्यान नहीं होता और एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान 12 वें गुणस्थान के अंत तक रहता है इसके बाद नहीं। अतः केवलज्ञान होने से आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से पूर्व तक केवली के कोई ध्यान नहीं होता इसका कारण बताते हुये श्री वीरसेन महाराज ने धवल पु. 13 पृ. 75 में इस प्रकार कहा है । आवरणा भावेण असे सदव्वपज्जाएसु अवजुत्तस्स केवलोबजोगस्स एगदव्वम्हि पजाए वा अवद्वाणाभावं ददूष तज्झणा भावस्स परूवित्तादो। अर्थ " आवरण का अभाव होने से केवली जिन का उपयोग संपूर्ण द्रव्य पर्यायों में उपयुक्त होने लगता है। इसलिये एक द्रव्य में या एक पर्याय में अवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का अभाव कहा है। प्रश्नकर्ता. समीर जैन उदयपुर जिज्ञासा- अनुभय वचन क्या है? क्या ऐसे वचन भी होते हैं जो सच भी न हो और झूठ भी न हो समझाइये । समाधान- जिनभाषाओं से विशेष का ज्ञान नहीं हो पाता है अत: उनको सत्य भी नहीं कह सकते और सामान्य का ज्ञान होता रहता है अत: उन्हें असत्य भी नहीं कह सकते उस भाषा को अनुभय वचन कहते हैं। श्री मूलाचार में अनुभय वचन 9 इस प्रकार के कहे हैंआमंतणि आणवणी जायणिसंपुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा छड्डी इच्छानुलोमा य। 1315 ॥ संसयवयणी व तहा असमोसा य अट्टमी भासा । णवमी अणक्खरगया असच्चमोसा हवदि दिट्ठा 1316 ॥ अर्थ- 1. आमन्त्रणी- किसी को अपनी ओर बुलाने वाली भाषा । 2. आज्ञापनी- जिसके द्वारा आज्ञा दी जाती है 3. याचनी जिसके द्वारा कुछ मांगा जाता है। 4. पृच्छनी जिसके द्वारा प्रश्न किया जाता है। 5. प्रज्ञापनी- जिसके द्वारा निवेदन किया जाता है। 6. प्रत्याख्यानी जिसके द्वारा कुछ त्याग किया जाता है 7. इच्छानुलोमा - इच्छा के अनुकूल वचन। जैसे मैं ऐसा करता हूँ। 8. संशयवचनी- जिन वचनों से अर्थ स्पष्ट प्रतीति में न आवें । जैसे दांत रहित बच्चे या अतिवृद्ध के वचन । 9. अनक्षरी केवली भगवान् के वचन या दो इन्द्रिय आदि जीवों के वचन । उपरोक्त 9 प्रकार के वचन न तो सत्य में आते हैं और न असत्य में । अतः अनुभय वचन कहलाते हैं। 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा- 282002 (उ.प्र.) -फरवरी 2003 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालवाता ताला किससे खुलेगा? डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' महामहिमावान् राजा महीपाल ने एक बार नगर में घोषणा | राज दरबार में पुरस्कार हेतु पहुँचा। इधर आश्चर्यचकित गुरु भी पीछेकरवा दी कि जो व्यक्ति कमरे के अन्दर से बाहर दरवाजे पर लगे | पीछे राज-दरबार की ओर चल पड़े। ताले को खोलकर बाहर निकल आयेगा उसे 500 दीनारें पुरस्कार सर्ववृत्तान्त जानकर समस्त सभासदों के बीच राजा ने शिष्य स्वरुप दी जायेंगी। ताला खोलने हेतु सहायता के लिए कमरे में गणित को 500 दीनारें पुरस्कार में दी और शिष्य से सभी को बताने के लिए की पुस्तकें उपलब्ध रहेंगी ताकि गणितीय सूत्रों की सहायता से ताला कहा कि "उसने ताला कैसे खोला? जबकि गुरु रात-भर गणित के खोल सकें। इच्छुक व्यक्ति कल प्रात: उपस्थित हों और प्रतियोगिता सूत्र खोजने के बाद भी ताला नहीं खोल सके?'' जीतकर पुरस्कार ग्रहण करें। "समय-सीमा 24 घंटे रहेगी" शिष्य ने कहा कि "राजन् ! मै आपकी प्रतियोगिता-घोषणा गणित की बात तथा 500 दीनार का पुरस्कार सुनकर एक तथा कमरे के अन्दर बन्द होते ही यह जान चुका था कि जो ताला गणितज्ञ गुरु तथा उनके शिष्य ने प्रतियोगिता में भाग लेने का निर्णय खोलने के लिए कहा जा रहा है वह बन्द नहीं होगा। यह बस नाटक लिया। दोनों को ही अपने गणितज्ञान पर विश्वास था। नियत समय पर मात्र बुद्धि एवं व्यावहारिक ज्ञान की परीक्षा के लिए किया जा रहा राजसेवकों ने दोनों को कमरे के अन्दर बन्द कर दिया तथा किवाड़ है। मैं आश्वस्त था कि बाहर लगे ताले को अन्दर से किसी भी बन्द किये और बाहर हो गया। गुरु एवं शिष्य दोनों को लगा कि गणितीय सूत्र से नहीं खोला जा सकता, क्योंकि आज तक ऐसा राजसेवकों ने जाने से पूर्व दरवाजे की साँकल चढ़ायी तथा ताला ताला बना ही नहीं है। कोई भी गणित का सूत्र बिना चाबी के ताले लगाया हो। के गणित को नहीं खोल सकता अत: मैं निश्चिन्त भाव से सोता रहा। इधर गुरु ने गणित की पोथियों की पड़ताल शुरु की, कुछ | सुबह होने पर मैंने जो सोचा-समझा था कि ताला बन्द नहीं किया पन्नों पर कुछ सूत्र लिखे और उन्हें हल करना प्रारम्भ किया। इधर | गया है, मात्र नाटक है, तदनुसार कार्य किया किवाड़ खोला और शिष्य 24 घंटे की समय सीमा बहुत है, सोचकर कमरे के एक कोने बाहर आ गया। एक बात और राजन् मैं आपके ज्ञान से अच्छी तरह में चादर तानकर सो गया। 12 घंटे बीत जाने पर व्यग्र हो गुरु ने शिष्य परिचित था, यदि कोई बाहर लगा ताला अन्दर से गणितीय सूत्रों से को जगाया और कहा कि 'ले यह पुस्तकें और तू भी कुछ सूत्र खोज खुल सकता तो आप इतनी अधिक पुरस्कार-राशि वाली प्रतियोगिता ले' किन्तु शिष्य सोया ही रहा। ही आयोजित क्यों करते?" रातभर गणित की श्रेष्ठ पुस्तकें खोजने के बाद भी, अनेक | राजा शिष्य के उत्तर से अत्यधिक प्रसन्न हुआ तथा सभा को सूत्र मिलाने पर भी ताला खोलने का कोई सूत्र नहीं मिला। उधर | सम्बोधित करते हुए कहा कि "सभासदो! हमें कोरे पुस्तकीय ज्ञान शिष्य सोकर उठा, अपनी चेतना को जागृत किया और गुरुजी से पूछा | | में न उलझकर व्यावहारिक विवेक बुद्धि को नहीं भूलना चाहिए। कि "गुरुवर, ताला खोलने का कोई सूत्र मिला या नहीं?" गुरु कोरे पुस्तकीय ज्ञान में उलझे रहे अतः असफल रहे, जबकि गुरु ने बड़े ही कातरभाव से मनाही में सिर झुका लिया। इधर शिष्य ने अपने व्यावहारिक ज्ञान से सफलता प्राप्त की अतः हमें शिष्य ने कहा "तो फिर ठीक है मैं ही ताला खोलता हूँ।" और वह विवेक से काम लेना चाहिए। पुस्तकें हमारी परम मित्र हैं किन्तु उनमें लिखे वचन भी हमें विवेक जागरण का ही सन्देश देते हैं। दरवाजे के पास आया, किवाड़ों को एक भरपूर नजर से देखा, हल्का सा धक्का देते ही ताला खुल गया (किवाड खुल गये) और वह सीधे इसीलिए तो कहा है -- विवेकी सदासुखी।" । एल-65, न्यू इन्दिरा नगर,ए, बुरहानपुर (म.प्र.) विपद्भवपदावर्ते पदिकेवातिवाह्यते। यावत्तावद्भवन्त्यन्याः प्रचुरा विपदः पुरः॥ भावार्थ-घंटी यंत्र में लगी घरिया की तरह जब तक एक विपत्ति भुगतकर तय की जाती है, तब तक दूसरी-दूसरी अनेक विपत्तियाँ सामने उपस्थित हो जाती हैं। 30 फरवरी 2003 जिनभाषित - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें दुआ चाहिए, दवा नहीं संकलन : सुशीला पाटनी सेवा करना सबसे बड़ा धर्म है, सेवा का अर्थ दूसरों की । हैं, अनाथ लोग हैं। उनकी पीड़ाओं को पहचानो, अपने पीड़ा, दूसरों का दर्द,दूसरों के दु:खों को दूर करना है, लेकिन | हृदय में करुणा जाग्रत करो और भक्ति के साथ उनकी सेवा स्वयं करना चाहिए। चाकरों के द्वारा सेवा नहीं करानी | सेवा करो। चाहिए। सच्ची सेवा तो वही कहलाती है, जो स्वयं हाथों से की जो व्यक्ति अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करता, जाती है, क्योंकि उसके साथ हमारी भावनाएँ जुड़ी होती हैं, | वह अपने पापों को साफ नहीं कर सकता। धर्म को समझ सेवा उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना की उसकी भावना महत्त्वपूर्ण | नहीं सकता। अध्यात्म में प्रवेश नहीं कर सकता। सच्चाई है। जब दवा काम नहीं करती, तो हवा काम करती है और की खोज नहीं कर सकता। जब हवा और दवा दोनों काम नहीं करतीं तो दुआ पुण्य के उदय से धन मिला है, लेकिन उस धन का (सद्भावना) काम करती है। महत्त्वपूर्ण दवा नहीं दुआ सदुपयोग करो, तिजोरी में भरकर मत रखो या भोग विलासिताओं है। दवा तो मेडिकल स्टोर में मिल जाती है, लेकिन दुआ में उसका दुरुपयोग मत करो। अपने धन से दूसरों को आजीविका मेडिकल स्टोर से नहीं मिल सकती। डॉक्टर के पास भी प्रदान करो, जो जरूरतमंद हो उनकी अपने धन से मदद करो। दवा मिल सकती है, लेकिन दुआ मिले यह कोई निश्चित धन की गति है-दान, भोग या नाश। यदि आपको धन नहीं। परन्तु यह निश्चित है कि दवा के साथ यदि दुआ नहीं मिला है तो उसका शक्ति के अनुसार दान करो या उसका है, तो कभी भी मरीज ठीक नहीं हो सकता है। उपयोग करो, अन्यथा एक दिन धन का नाश हो जायेगा। वह सेवा मात्र मानव की ही नहीं, प्राणी मात्र की होनी | इसलिए दान करने में, खर्च करने में, किसी प्रकार की कंजूसी चाहिए। सेवा में कोई भेद नहीं होना चाहिए, चाहे वह पशु हो, | मत करो। खुले दिल से धन का दान करो। लोगों को रोजी दो, पक्षी हो या आदमी हो, दुःख तो होता है, पीड़ा तो होती है। | गोशालाओं का निर्माण करो। अपने धन से लोक कल्याणकारी दुनियाँ में किसी भी प्राणी को दुःख अच्छा नहीं लगता। सभी | कार्य करो। जीव चाहते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर हमको प्राणी मात्र व्यक्ति को सही रास्ते पर लगाना ही सही दान कहलाता की सेवा करना चाहिए। सबके दुःखों को दूर करना चाहिए, | है। जो नशा करता है, व्यसनों में फँसा हो, धूम्रपान करता हो जो विकलांग हैं, उनको कृत्रिम पैर आदि की व्यवस्था करना | और भी अनेक अनैतिक काम करता हो, गलत मार्ग पर चलता चाहिए जो भूखे हैं, रोगी हैं, उनको उचित शुद्ध आहार, औषधि | हो, ऐसे कुपथगामी व्यक्तिओं को बुरे काम छुड़वाकर उनको की व्यवस्था करना चाहिए, यह सबसे बड़ा धर्म है। सच्चाई के मार्ग पर लगा देना सबसे बड़ा दान कहलाता है। हमारे पास कमी मात्र भावनाओं की है। हमारे आस- | यही सबसे बड़ा धर्म है। पास बहुत दुःखी लोग हैं, बेसहारा लोग हैं, विकलांग लोग | आर.के.मार्बल्स लि. दूरयेनासुरक्ष्येण, नश्वरेण धनादिना। स्वस्थंमन्यो जनःकोऽपि,ज्वरवानिवसर्पिषा। भावार्थ- बड़ी कठिनाई से कमाये जाने वाले असुरक्षित और विनाशीक धनादिकों को पाकर अपने आप को सुखी मानने वाला व्यक्ति ठीक वैसा ही है जैसे की बीमार व्यक्ति घी को पीकर अपने आपको स्वस्थ मानता है। विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते। दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत्॥ भावार्थ- दावानल से जले हुये जीवों को देखनेवाले किसी वृक्ष पर बैठे हुए मनुष्य की तरह यह संसारी प्राणी दूसरों की तरह अपने ऊपर आने वाली विपत्तियों का ख्याल नहीं करता है। -फरवरी 2003 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार बैरसिया चातुर्मासः उपलब्धियाँ विद्वानों की नगरी मालथौन (सागर) में नवम संत शिरोमणि आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी के शुभ ऐतिहासिक शिविर सम्पन्न आशीर्वाद से ऐतिहासिक बन गया है। गुरुवर ने अपनी महकती 23.11.02 से 4.12.02 तक सागर जनपद के प्रसिद्ध कस्बा बगिया के दो पुष्पों मुनि श्री 108 अजित सागर जी महाराज एवं मालथौन में दस दिवसीय पूजन एवं प्राकृतभाषा प्रशिक्षण शिविर ऐलक श्री 105 निर्भय सागर जी महाराज ने इस रसहीन नगरी को का भव्य आयोजन अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान बीना द्वारा महका दिया है। गुरुओं के चरण पड़ते ही इस बैरसिया का अर्थ अभूतपूर्व सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। शोधसंस्थान द्वारा ही परिवर्तित हो गया जहाँ इसे इसके नाम के कारण बिना रस के आयोजित यह नवम् शिविर समस्त नगर में जैन-जैनेतर समाज में चर्चा का विषय बना रहा। कहा जाता था आज गुरुओं के सान्निध्य को पाकर इस नाम की शिविर का शुभारम्भ 25.11.02 को प्रात:7:30 बजे से १ सार्थकता सिद्ध हो गई है गुजराती भाषा में "बै" का अर्थ दो से बजे मंगलदीपों के प्रज्जवलन के साथ हुआ। शिविर सम्बन्धी होता है। बैरसिया एक तो भक्ति रस से और दूसरा वात्सल्य युक्त विस्तृत जानकारी एवं नियमावली ब्र. संदीप 'सरल' ने प्रस्तुत ज्ञान के रस से सराबोर हो गया है। की। प्रतिदिन प्रात: 7.30 से 9.30 तक पूजन प्रशिक्षण के अन्तर्गत 8 आषाण शुक्ल सप्तमी मंगलवार को जब यहाँ महाराज पूजन विषयक अनेक जानकारियाँ आगम के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत द्वय का नगर में आगमन हुआ था उस समय भीषण गर्मी व पानी कर समीचीन बोध कराया गया। वह दृश्य बड़ा ही मनोहर हुआ की त्राहि जन-जन को व्याकुल कर रही थी। उस समय गुरुओं के करता था जब लगभग 300 शिविरार्थी अपने-अपने वर्गों के अनुसार चरण पड़ते ही जल देवता ने भी प्रसन्न होकर जल की बरसात की निर्धारित स्थान पर बैठकर जिनेन्द्र प्रभु की पूजन बड़े ही शुभ जिससे जन-जन खुशी से झूम उठा तथा जन-जन की यही भावना परिणामों से किया करते थे। दोपहर में 2.30 से 3.30 तक नय थी कि गुरुओं के चरण पड़ते ही हम सभी के भाग्य जागृत हो गये विषयक कक्षा आलाप पद्धति की ली जाती थी। रात्रिकालीन 7 से 9 बजे तक प्राकृतभाषा प्रशिक्षणका सत्र चला करता था। प्राकृत भाषा पढ़ने के लिए लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। कुछ इसके पश्चात् आषाण शुक्ल चतुर्दशी, मंगलवार 23 जुलाई परिवारों में तो तीन-तीन पीढ़ियों के लोगों ने प्रवेश लेकर इसका को हम सभी के भाग्य को नई किरण मिली जब चातुर्मास मंगल अध्ययन किया। 9 से 9.30 तक शिविरार्थीगण अपने अनुभव प्राप्त कलश की स्थापना हुई इसके साथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, किया करते थे। इस शिविर की कुछ विशेषताएँ इस रूप में लिपिबद्ध सम्यक्चारित्र और तप के चार कलश भी स्थापित हुए। यह मंगल की जा सकती हैं :बेला बैरसिया वासियों के लिए प्रथम बार गुरुवर आचार्य विद्यासागर | 1. आडम्बर एवं प्रदर्शन से शून्य, क्षणिक नहीं अपितु कुछ जी के आशीर्वाद से प्राप्त हुई। स्थाई संस्कारों का बीजारोपण देखने को मिला। परम पूज्य मुनि श्री एवं ऐलक श्री द्वारा विभिन्न जैन- | 2.. बिना बोलियों की नीलामी के सभी कार्यक्रम सम्पन्न कराये धार्मिक ग्रंथों की कक्षायें संचालित की गयीं जिसमें सैकड़ों लोगों गये। ने भाग लिया तथा ग्रंथों का सारगर्भित ज्ञान अर्जित किया इसी कार्यक्रम में समाज के हर वर्ग को समानता का स्थान दौरान इनकी परिक्षायें भी आयोजित की गयी तथा विजेताओं को मिला। पुरस्कार भी वितरित किये गये ग्रंथों में रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ज्ञान प्राप्ति की ललक हर शिविरार्थियों के अंदर देखी गई। तत्त्वार्थसूत्र, भक्तामरस्तोत्र, महावीराष्टक आदि की कक्षायें संचालित समय की पाबंदी एवं अनुशासन के लिए लोगों ने अपने जीवन में प्रथम बार इतनी बारीकी से अनुभव किया। की गयीं। शिविर प्रशिक्षक के पढ़ाने की शैली इतनी आकर्षक.एवं परम पूज्य 108 आचार्य विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावकारी रही कि 8 वर्ष से लेकर 85 वर्ष तक के शिष्य पूज्य 108 अजितसागर जी एवं 105 ऐलक श्री निर्भय सागर शिविरार्थी बिना कसी भेदभाव के समय पर आकर कक्षाओं जो के सान्निध्य में ऐसा लगा कि चातुर्मास अल्प समय में ही में शामिल होते रहे। व्यतीत हो गया हो। 7. सभी शिविरार्थियों ने शिविर समापन पर संकल्प किया राजीव जैन कि माह में एक बार सामूहिक रूप से पूजन करेंगे। बैरसिया (भोपाल)। योगेन्द्र जैन,मालथौन 32 फरवरी 2003 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकाहारी खाद्य पदार्थ के पैकेट पर चिन्ह शाकाहारी एवं मांसाहारी खाद्य पदार्थो के पैकेट पर प्रतीक चिन्ह बनाना अनिवार्य मांसाहारी खाद्य पदार्थ के पैकेट पर चिन्ह शाकाहारी खाद्य पदार्थों परहरेरंग (ग्रीन कलर)वाला चिह्न- देखें Nestle. a arkurla हात BRITANNIA RELAC BRITANNIA Marie DANA dont Careal with (ChowSadhai ADI MERENCDEOA. Tears STAGRA VIVSVW = Vadilal MONACO iml Se INCHYanERON Maggi SaffolaleDE tr Blend DOUBLE DIAMOND DOUBLE DIAMONL -Minute ncodies Simple Kids Cream Refined Rice andkardFORGlene पीलागिरी - गाल्डलाइन estle 213 CHOCO SU CHAKAN Health 2.९९ STRO THE HOUSE OF kteshgandas & Camioaney HEELSEED SIL CAMIET OM A V. NAGRECHA & CO DORALD Parle-G ऐसा न पाये जाने पर तुरंत उपभोक्ता फोरम में शिकायत करें। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाद्य पदार्थ-दवार खरीदने से पहले चिहों को पहचानें मांसाहारी खाद्य पदार्थों एवं दवाओं पर बना भूरे रंग (ब्राउन कलर) वाला चिह्न- देखें RECOVICI IMPACI, IMPACT O रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC DEMUNOBOOSTER monginis SLICE CAKE IDomino's IPIZza ins & Min Minerals Dietary POWDER BRITANNIA stary Supplem Supertroviding Hungry Kyu? REVITAL Maggi Megato Laus Rich Chicken Soup Jain Educaभोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित lainelibrary.org स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक :रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, O INITASANA .DIONUTRIENHALIK BOADIO 1. Sargets BARR4 . sete 105 Ovon PROSTONTLO PC0 PROSTONFL versa: Universal Mag91 & CAPSULES Extra Taste CHICKEN TPROPHETARY P000) Il Primosao T.NOISONS Maggi amg Roz roz O kuch special ESTO VON lableSUICdic FreeFlex o Vitamin D, & Minerals डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 SETCal Mol Zinfex-AO