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________________ मदुपज्ञं तथा लोके व्यवस्थाप्य मतान्तरम् ॥59 ॥ अहंच तत्रिमित्तोरूप्रभावात्त्रिदिव प्रभोः । प्रतीक्षां प्रातुमिच्छामि तन्मेऽवश्यं भविश्यति ॥60 ॥ अर्थ- उसने तीर्थंकर भगवान् की दिव्यध्वनि सुनकर भी समीचीन धर्म ग्रहण नहीं किया था। वह सोचता रहता था कि जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव ने अपने आप समस्त परिग्रहों का त्याग कर तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली सामर्थ्य प्राप्त की है उसी प्रकार मैं भी संसार में अपने द्वारा चलाये हुये दूसरे मत की व्यवस्था करूँगा और उसके निमित्त से होने वाले बड़े भारी प्रभाव के कारण इन्द्र की प्रतिष्ठा प्राप्त करूँगा । इन्द्र द्वारा की हुई पूजा प्राप्त करूँगा। मैं इच्छा करता हूँ कि मेरे यह अवश्य होगा। (यह प्रकरण भगवान् महावीर के पूर्व भव मारीचि के जीव का हैं जो भगवान् आदिनाथ का पुत्र था) इस प्रमाण के अनुसार भी मारीचि के जीव ने भगवान् के समवशरण में दिव्यध्वनि तो सुनी परन्तु उसे सम्यक्त्व नहीं हो पाया। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि दिव्यध्वनि सुनने वालों को सम्यक्तव प्राप्त होने का नियम नहीं । प्रश्नकर्ता श्रीमती सुषमा, जयपुर जिज्ञासा- समवशरण स्थित केवली के कौन सा ध्यान होता है? समाधान- समवशरण स्थित केवली के कोई भी ध्यान नहीं होता। श्री सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/44 की टीका में इस प्रकार एवमेवेकत्ववितर्कशुक्लध्यान.... सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति । अर्थ - इस प्रकार एकत्ववितर्क शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा जिसने चार घातिया कर्मरूपी ईधन को जला दिया है, जिसके केवलज्ञानरूपी किरण समुदाय प्रकाशित हो गया है, जो मेघ मण्डल का निरोध कर निकले हुए सूर्य के समान भासमान हो रहा है ऐसे भगवान्, तीर्थंकरकेवली या सामान्य केवली इन्द्रों के द्वारा आदरणीय और पूजनीय होते हुए उत्कृष्ट रूप से कुछ कम पूर्व कोटिकाल तक विहार करते हैं। जब आयु में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति आयुकर्म के बराबर शेष रहती है तब सब प्रकार के वचनयोग, मनोयोग और बादर काययोग को त्याग कर तथा सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को स्वीकार करता है, परन्तु जब उन सयोगी जिनके आयु, अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है और शेष तीन कर्मों की स्थिति उससे अधिक शेष रहती है तब जिन्हें सातिशय आत्मोपयोग प्राप्त है, जिन्हें सामायिक का अवलम्बन है, जो विशिष्ट करण से युक्त हैं, जो कर्मों का महासंवर कर रहे हैं और जिनके स्वल्पमात्रा में कर्मों का परिपालन हो रहा है ऐसे वे अपने आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्मरज को परिशातन करने की शक्ति वाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को चार समय के द्वारा करके अनन्तर प्रदेशों के विसर्पण का संकोच करके तथा शेष कर्मों की स्थिति को समान करके अपने पूर्व शरीर प्रमाण होकर सूक्ष्मकाययोग के द्वारा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को स्वीकार करते हैं। कहा है Jain Education International - श्री राजवार्तिककार ने भी इस प्रकार कहा है। इससे यह स्पष्ट है कि सयोगकेवली, जिनके केवली समुद्घात होता है, वे समुद्घात के उपरांत तथा जिनके समुद्घात नहीं होता उनके ( इन दोनों ही प्रकार के केवलियों के विहार समाप्त हो जाने के उपरांत मनुष्यायु के अंतिम अन्तर्मुहूर्त में तीसरा सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान ध्याया जाता है। इससे पूर्व यह शुक्लध्यान नहीं होता और एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान 12 वें गुणस्थान के अंत तक रहता है इसके बाद नहीं। अतः केवलज्ञान होने से आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से पूर्व तक केवली के कोई ध्यान नहीं होता इसका कारण बताते हुये श्री वीरसेन महाराज ने धवल पु. 13 पृ. 75 में इस प्रकार कहा है । आवरणा भावेण असे सदव्वपज्जाएसु अवजुत्तस्स केवलोबजोगस्स एगदव्वम्हि पजाए वा अवद्वाणाभावं ददूष तज्झणा भावस्स परूवित्तादो। अर्थ " आवरण का अभाव होने से केवली जिन का उपयोग संपूर्ण द्रव्य पर्यायों में उपयुक्त होने लगता है। इसलिये एक द्रव्य में या एक पर्याय में अवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का अभाव कहा है। प्रश्नकर्ता. समीर जैन उदयपुर जिज्ञासा- अनुभय वचन क्या है? क्या ऐसे वचन भी होते हैं जो सच भी न हो और झूठ भी न हो समझाइये । समाधान- जिनभाषाओं से विशेष का ज्ञान नहीं हो पाता है अत: उनको सत्य भी नहीं कह सकते और सामान्य का ज्ञान होता रहता है अत: उन्हें असत्य भी नहीं कह सकते उस भाषा को अनुभय वचन कहते हैं। श्री मूलाचार में अनुभय वचन 9 इस प्रकार के कहे हैंआमंतणि आणवणी जायणिसंपुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा छड्डी इच्छानुलोमा य। 1315 ॥ संसयवयणी व तहा असमोसा य अट्टमी भासा । णवमी अणक्खरगया असच्चमोसा हवदि दिट्ठा 1316 ॥ अर्थ- 1. आमन्त्रणी- किसी को अपनी ओर बुलाने वाली भाषा । 2. आज्ञापनी- जिसके द्वारा आज्ञा दी जाती है 3. याचनी जिसके द्वारा कुछ मांगा जाता है। 4. पृच्छनी जिसके द्वारा प्रश्न किया जाता है। 5. प्रज्ञापनी- जिसके द्वारा निवेदन किया जाता है। 6. प्रत्याख्यानी जिसके द्वारा कुछ त्याग किया जाता है 7. इच्छानुलोमा - इच्छा के अनुकूल वचन। जैसे मैं ऐसा करता हूँ। 8. संशयवचनी- जिन वचनों से अर्थ स्पष्ट प्रतीति में न आवें । जैसे दांत रहित बच्चे या अतिवृद्ध के वचन । 9. अनक्षरी केवली भगवान् के वचन या दो इन्द्रिय आदि जीवों के वचन । उपरोक्त 9 प्रकार के वचन न तो सत्य में आते हैं और न असत्य में । अतः अनुभय वचन कहलाते हैं। 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा- 282002 (उ.प्र.) -फरवरी 2003 जिनभाषित 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524270
Book TitleJinabhashita 2003 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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