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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल नाड़ा प्रश्नकर्ता मनोज कुमार जैन अलीगढ़ 3. वचनबलप्राण- स्वर नाम कर्म तथा शरीर नाम कर्म जिज्ञासा- क्या देवों का मरण विमान के अलावा अन्य | के उदय से वचन व्यापार में कारण शक्ति विशेष रूप। स्थान पर भी संभव है? 4. कायबलप्राण- शरीर नामकर्मोदय से शरीर में चेष्टा समाधान - आदिपुराण भाग-1 पर्व-6 श्लोक नं. 24/25 | करने की शक्ति रूप कायबल प्राण होता है। में इस प्रकार कहा है। 5. आनपान प्राण- उच्छ्वास नि:श्वास नामकर्म तथा ततोऽच्युतस्य कल्पस्य जिनबिम्बानि पूजयन्। शरीर नामकर्म का उदय होने से उच्छवास नि:श्वास रूप प्रवत्ति तच्चैत्य द्रममूलस्थ: स्वायुरन्ते समाहितः ॥24॥ करने में कारण, ऐसी शक्ति रूप आनपान प्राण होता है। नमस्कारपदान्युच्चैरनुध्यायमन्नसाध्वसः। 6. आयु प्राण- आयु कर्मोदय से नारक आदि पर्याय साध्वसौ मुकुलीकृत्य करौ प्रयादद्दश्यताम्।।25।। रूप, भव धारण रूप आयु प्राण होता है। अर्थ-तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग की जिनप्रतिमाओं की पूजा | पंचेन्द्रिय मनुष्य बनने वाला जीव जब विग्रहगति में है, करता हुआ वह आयु के अंत में बड़े सावधान चित्त होकर चैत्य | तब उसके पाँच इन्दिय प्राणरूप भावेन्द्रिय होने से 5 प्राण हुये। वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो हाथ जोड़ कर उच्चस्वर [ द्रव्य मन न होने से मनोबल प्राण नहीं है। स्वर नामकर्म का उदय से नमस्कार मंत्र का ठीक-ठीक उच्चारण करता हुआ अदृश्यता न होने से वचन बल प्राण नहीं है। शरीर नामकर्म का उदय होने को प्राप्त हो गया। (यह प्रकरण भगवान् आदिनाथ के पूर्व भव | से कायबल प्राण है। आनपान प्राण भी नहीं है। आयुप्राण है। ललितांग देव का है जो ऐशान स्वर्ग का देव था।) अत: 5 इन्द्रिय+कायबल+आयु= 7 प्राण होते हैं। आदिपुराण - 1 पर्व-6 श्लोक नं. 56/57 में इस प्रकार एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय प्राण + कायबल + आयु-3 कहा है प्राण होते हैं। ततः सौमनसोद्यानपूर्वदिग्जिनमन्दिरे। इसी प्रकार अन्य में लगा लीजियेगा। मूले चैतयतरोः सम्यक् स्मरन्ती गुरुपंचकम्।।56।। प्रश्नकर्ता- श्री समतचन्द्र दिवाकर, सतना समाधिना कृतप्राणत्यागा प्राच्योष्ट सा दिवः । जिज्ञासा- क्या तीर्थंकर भगवान् के समवशरण में उपदेश तारकेव निशापाये सहसाद्दश्यतां गता।।57 ।। सुनने वाले का अनादि मिथ्यात्व दूर होकर सम्यक्दर्शन की प्राप्ति अर्थ - तदनन्तर सौमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के होने का नियम है? जिनमन्दिर में चैत्य वृक्ष के नीचे पंच परमेष्ठियों का भले प्रकार समाधान- यद्यपि यह परम सत्य है कि समवशरण में स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग का स्वर्ग से च्युत हो दिव्य ध्वनि सुनकर असंख्यात जीव सम्यक्दर्शन की प्राप्ति या गयी वहाँ से च्युत होते ही वह रात्रि का अन्त होने पर तारिका की | आत्मकल्याण कर लेते हैं, परन्तु यह नियम नहीं है कि समवशरण तरह क्षण एक में अदृश्य हो गयी। (यह प्रकरण ललितांग देव | में उपदेश सुनने वाले को सम्यकत्व हो ही जाता हो। की देवी स्वयंप्रभा का है जो ऐशान स्वर्ग की देवी थी) उत्तरपुराण पर्व- 71 श्लोक नं. 198, 199 में इस प्रकार उपर्युक्त प्रथम प्रमाण से स्पष्ट है कि दूसरे स्वर्ग से ललितांग | कहा है किदेव ने 16वें स्वर्ग में जाकर अपना शरीर छोड़ा और दूसरे प्रमाण से तन्निशम्यास्तिकाः सर्वे तथेति प्रतिपेदिरे। स्पष्ट है कि ऐशान स्वर्ग की देवी स्वयंप्रभा ने मध्यलोक में सौमनस अभव्या दूरभव्याश्च मिथ्यात्वोदय दूषिता।198॥ वन के चैत्यालय में आकर अपना शरीर छोड़ा। इस प्रकार देवों नामुंचन्केचनानादिवासनां भववर्धनीम्। का मरण अपने विमान के अलावा अन्य स्थान में भी संभव है। देवकी च तथा पृच्छद्वरदत्त गणेशिनम्॥199।। प्रश्नकर्ता- पं. लालचन्द्र जी राकेश गंजबसौदा अर्थ- उसे सुनकर जो भव्य जीव थे, उन्होंने, जैसा भगवान् जिज्ञासा - जीव के विग्रहगति में कितने प्राण होते हैं? | से कहा था वैसा ही मान लिया परन्तु जो अभव्य अथवा दूर भव्य समाधान- किस जीव के विग्रहगति में कितने प्राण होते | थे मिथ्यात्व के उदय से दूषित होने के कारण संसारी को बढ़ाने हैं, यह समझने से पूर्व हमको प्राणों का लक्षण समझना चाहिये, | वाली अपनी अनादि वासना नहीं छोड़ सके। (अर्थात् समवशरण जो इस प्रकार है में अभव्य भी जाते हैं वे दिव्यध्वनि सुनने के बाद भी सम्यक्तव को 1. इन्द्रिय प्राण- मतिज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम होने से अपने अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति उत्तरपुराण पर्व-74 श्लोक नं. 58-60 में इस प्रकार कहा रूप भावेन्द्रिय का उत्पन्न होना। है कि2. मनोबल प्राण- नोइन्द्रियावरण मतिज्ञानावरण तथा श्रुत्वापि तीर्थकद्वाचं सद्धर्मं नाग्रहीदसौं। वीर्यान्तराय का क्षयोपशम होने से द्रव्य मन के निमित्त से अपने पुरुर्यथात्मनैवान सर्वसंग विमोचनत् ।।58॥ विषय को ग्रहण करने की शक्ति रूप। भुवनत्रयसंक्षोभ कारि सामर्थ्यमाप्तवान्। 28 फरवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524270
Book TitleJinabhashita 2003 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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