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________________ सम्पादकीय भोपाल की माटी में सन्तों की सुगन्ध भोपाल की धरती ने भी उस अद्भुत सन्त की विहारभूमि होने का यश पा लिया है, जिसके चरणों के स्पर्श के लिए इस कर्मभूमि का कण-कण लालयित रहता है। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी चातुर्मास-निष्ठापन के अनन्तर नेमावर से लौटते हुए भोपाल के समीपवर्ती अतिशयक्षेत्र भोजपुर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने शिष्यों को एक मास तक षट्खण्डागम की सोलहवीं पुस्तक का अध्ययन कराया। भोजपुर में जनसैलाब उमड़ पड़ा। एक माह तक मेला सा लगा रहा। श्रावकों ने आचार्यश्री और संघस्थ मुनियों के भरपूर दर्शन किये, चर्चाएँ की और आहारदान का पुण्य अर्जित किया, किन्तु तृप्त नहीं हुए। भोजपुर की प्राकृतिक सुषमा सन्त की वीतरागी सुषमा के संस्पर्श हो दिव्य हो उठी। आचार्यश्री भोजपुर से भोपाल आये और वहाँ के उपनगरों में विहार करते हुए जिनमन्दिरों के दर्शन करते रहे और उधर लोग पीछे-पीछे दौड़ते हुए उनकी लोकोत्तर छवि को तृषातुर लोचनों से तथा दिव्यवाणी को क्षुधित श्रोत्रों से पीकर अपने संज्ञी पंचेन्द्रियत्व को सफल करते रहे। भगवान् आदिनाथ का पंचकल्याणक एवं पंचगजरथ महोत्सव आचार्यश्री एवं उनके संघस्थ मुनियों के सानिध्य में अत्यन्त भव्यता के साथ सम्पन्न हुआ। भोपाल की जैनेतर जनता को ऐसे महोत्सव की झलक पहली बार देखने को मिली होगी और उन्होंने दिगम्बर मुनियों के दिगम्बरत्व की महिमा का अवलोकन भी प्रथम बार किया होगा। उन्हें इस मनोवैज्ञानिक सत्य के दर्शन करने का अवसर मिला कि जहाँ वीतरागता है, वहाँ युवा मुनि स्त्री-पुरुषों के बीच निर्वस्त्र रहते हुए भी शिशुवत् निर्विकार रह सकते हैं। उन्हें अपनी नग्नता का भान भी नहीं होता। उन्हें देखने को मिला कि तप का ऐसा उत्कर्ष भी संभव है कि जिस शीतलहर से प्रकुप्स तीक्ष्ण ठंड में अन्य साधु कम्बलों से लिपटे हुए भी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं कर सकते, वहाँ दिगम्बर जैन साधु, सुबह-सुबह शौच के लिए नग्नशरीर बाहर निकलते हैं और कई किलोमीटर पैदल चलते हैं तथा रात्रि में भी निर्वस्त्र ही सोते हैं। उन्होंने यह भी देखा कि दिगम्बर साधु इतने इन्द्रियजयी भी हो सकते हैं कि दिन में एक बार ही आहार और जल लेने पर भी उनकी साधना निराकुलापूर्वक चलती इस प्रकार आचार्य श्री विद्यासागर जी और उनके शिष्यों ने भोपालवासियों के हृदयपर जैन सन्तों की वह छाप छोड़ी है, जिसने उनके हृदय में जैन धर्म के प्रति अनायास बहुमान उत्पन्न कर दिया। सन्तों का भोपाल से विहार हो गया, किन्तु भोपाल की माटी में उनके चरित्र की दिव्य सुगन्ध व्याप्त है और चिरकाल तक व्याप्त रहेगी। रतनचन्द्र जैन सूचना संपादक- कार्यालय का नया पता 1 जनवरी, 2003 से संपादक-कार्यालय का स्थान परिवर्तित हो गया है। अब कृपया निम्नलिखित पते पर पत्रव्यवहार करेंए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462016 दूरभाष 0755-2424666 6 फरवरी 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524270
Book TitleJinabhashita 2003 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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