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________________ जल की धारा बनी औषधि : विशल्या डॉ. नीलम जैन विशल्या नाम है उस अनिन्द्य सुन्दरी का जिसने चमत्कृत | निषेध कर दिया और कह दिया कि मैंने सल्लेखना धारण कर ली कर दिया था अपने युग को। समस्त भरत खण्ड के राजाधिराजाओं | है। लब्धिदास तुरन्त वापिस गये और अनंगशरा के पिता को ले के राजवैद्य जहाँ असहाय और निरूपाय थे वहाँ विशल्या के तन | आये। चक्रवर्ती जब वहाँ आए तब तक तो यहाँ एक भयंकर से संस्पर्शित जल धारा जीवनदायिनी औषधि बनकर रणस्थल में | अजगर सल्लेखनारत अनंगशरा को निगल रहा था। यह देख मूर्च्छित पड़े लक्ष्मण को जीवनदान दे देती है। संजीवनी स्वरूपा | चक्रवर्ती दुःखी भी हुआ और क्रोधित भी किन्तु अनंगशरा ने नारी विशल्या युग की ऐसी जीवन्त उदाहरण थी कर्म सिद्धान्त अजगर को प्राणदान दिया। अपने पिता को शान्त किया। समता जिसके अणु-अणु में स्फरित होता रहा। पूर्वजन्म के पृष्ठों को | परिणामों से मरकर ईशान स्वर्ग में उत्पन्न हुई। खोलते हैं तो आती है चक्रवर्ती त्रिभुवनानन्द की पुत्री अनंगशरा (पद्मपुराणकार आचार्य रविवेण ने विशल्या के तप की जिसका उसके सामन्त पुनवर्स ने उसका हरण कर लिया और | प्रशंसा करते हुए लिखा है :चक्रवर्ती का पीछा करने पर वह सामन्त उसे भयंकर अटवी शिरिष कुसुमासांर शरीरमनया पुरा। श्वापद में छोड़ देता है- यही अटवी है अनंगशरा की साधनास्थली। निर्युच्मं तपासि यो मुनीनामपि दुःसहते॥ तीन हजार वर्ष तक अनंगशरा शीत, उष्ण एवं वर्षा की अनिवर्चनीय इसने पूर्वभव में अपना शिरिष के फूल के समान सुकुमार वेदना शान्त भाव से सहती रही। जब भूख की वेदना अधिक शरीर ऐसे तप में लगाया था जो प्राय: मुनियों के लिए भी कठिन सताती तब वह पक कर गिरे फल लेकर नदी का प्रासुक जल पी था।) लेती थी। वह बेला तेला करती थी जिसका पारणा कभी-कभी इसी तपःपूता अनंगशरा का जीव स्वर्ग से च्युत हो, राजा दिन में मात्र एक बार जल पीकर और कभी-कभी प्रासुक फलाहार की पुत्री बना। अनंगशरा के गर्भ में आते ही अनेक रोगों से पीड़ित से करती थी। इस प्रकार तीन हजार वर्ष पर्यन्त अनंगसरा ने बाह्य माता स्वस्थ हो गई थी। जन्म के समय ही परिचारिका के सभी रोग तप किया। दूर हुए और वहीं परिचारिता उसके स्नान जल से प्रतिदिन अनेक तपश्चर्या, आत्मशोधन, आत्म परिकरण आत्मोदय, तेजोद्दीप्त रोगियों के दुःख दूर करती ! कहाँ से आई थी विशल्या के अन्दर तप, प्रखर साधना, दुदर्ष संयम तपोभूमि बन गया था उसका औषधिरूपा बनने की शक्ति? विज्ञान के पास भी है इसका तर्क जीवन। अनवरत साधना से उसके रोम-रोम में एक दीप्त आत्मज्योति सम्मत उत्तर और जैन सिद्धान्त के पास तो है ही इसका प्रमाण-हम का प्रभामण्डल तूर्यनाद करने लगा था। निराकुल साधना उसकी शरीर धारी हैं। हमारे शरीर के दो प्रकार है स्थूल और सूक्ष्म । हमारा उपलब्धि थी। आत्मामृत ही उसका भोजन था एकाग्रता ने उसकी अस्थि चर्ममय स्थूल शरीर है। हमारी सक्रियता, तेजस्विता और समस्त क्षुधा वेदना शान्त कर दी थी। दुर्लघ्य पर्वत, अंधियारी पांचनतंत्र का मूल सूक्ष्म शरीर है। यह स्थूल के भीतर रह कर दीप्ति गुफाएँ, निर्जन नदी तट, बीहड़ वन, भयावह सन्नाटा उसकी साधना या अलौकिक ऊर्जा उत्पन्न करता हैं साधना के द्वारा उसकी शक्ति भूमि बन गई। दुस्सह साधना ने बियाबान जंगलों के दहाड़ते विकसित की जा सकती है। भावों की निष्कपटता और निच्छलता सिंहों, फुफकारते अजगरों चिघाड़ते हुए हाथियों को शान्त कर से बेजान शरीर भी ओजस्वी और सक्रिय होने लगते हैं। शुक्ल दिया। सबने उस ध्यानशीला के सम्मुख घुटने टेक दिए। उसकी ध्यान हममें अन्तरंग से स्वच्छ, शुद्ध एवं परिष्कृत कर तेजोश्या तपश्चर्या अनवरत थी, अविचल थी, अखण्ड थी। कठोर तप, उत्पन्न करता है यह ऊर्जा समस्त शरीर पर छा जाती हैं यह वैद्युत आत्मानुसंधान, आत्मपरिष्कार और आत्मोदय ने ही कालान्तर में | प्रभा धारा है। हारवर्ड एडसमैन ने इस पर पर्याप्त शोध किया है। उसे अलौकिक बना दिया। सूर्योदय की प्रखर आभा में कर्म के विशल्या के शरीर का तेज अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। काले मेघ विखर कर उसका भावी जीवन का निरभ्र गगन तैयार वर्तमान में हम देखते हैं कि चुम्बक को जल में रखकर वह पानी कर रहे थे। इस परमोज्ज्वल भविष्य बन रहा था। वैराग्य को प्राप्त पिलाने से रोगमुक्त करने की प्रणाली (मैग्नेटोथिरेपी) विकसित हो हो उस धीर वीर बाला ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर | रही है। शरीर में लौह तत्त्व में चुम्बकत्त्व का आना अस्वाभाविक महाफल देने वाली सल्लेखना भी धारण कर ली। सौ हाथ आगे से नहीं है। शरीर में ऐसी अनेक प्राणधाराएँ है जो ऐसे बेजान परमाणुओं गमन का त्याग भी कर दिया था। की तीव्रतम गति का कारण बनती हैं। ऐसी ही आध्यात्मिक सल्लेखना के सातवें दिन सुमेरू पर्वत की वन्दना से लौटते शक्तियों की उत्कृष्टता, श्रेष्ठता और शाश्वता से ही योगियों, महापुरुषों हुए लब्धिदास नामक एक व्यक्ति ने उसे देखा। वह नीचे आया | के मुख के चारों ओर आभामण्डल का होना सहज सिद्ध हो जाता उसने कन्या को ले जाने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु कन्या ने | है। जैनागम में यह लिखा है कि मनुष्य के शरीर की संरचना नाम -फरवरी 2003 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524270
Book TitleJinabhashita 2003 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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